आज हम भले ही मनोरंजन तथा समाचार के लिए अनेक उन्नत माध्यमों का प्रयोग करने लगे हो फिर भी समाज में जिस तरह से सूचना, मनोरंजन और विज्ञान संचार का महत्व बढ़ा है, उसे देखते हुए रेडियो ने एफएम (Frequency Modulation) चैनलों के विस्तार के माध्यम से अपनी उपयोगिता बढ़ाई है। लेकिन क्या आपको मालूम है वर्तमान समय में भी अपनी अनोखी पहचान बनाए रखने वाले Radio ka avishkar kisne kiya? दूरस्थ स्थानों से रेडियो सम्पर्क स्थापित करने का आविष्कार इटली के विश्व-प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री गुगलेल्मो मारकोनी (Guglielmo Marconi) ने दिसंबर, 1895 में किया था। वास्तव में मारकोनी को बेतार के तार का जन्मदाता कहा जाता है। संचार-क्रांति के क्षेत्र में किए गए इस महत्वपूर्ण खोज के लिए उन्हें सन् 1909 के भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया था।
मारकोनी और रेडियो के आविष्कार की कहानी
इटली में जन्मे मारकोनी बचपन से ही विज्ञान के प्रयोगों में लगे रहते थे। इनका घर बहुत बड़ा था। वे घर के सबसे ऊपर वाले कमरे में अपने प्रयोग करते रहते थे। इनके पिता गुसेप मारकोनी इनके कार्यकलापों से खुश नहीं थे लेकिन इनकी मां का सहयोग सदा ही इनके साथ रहता था। मारकोनी अपने कार्यों में इतने व्यस्त रहते थे कि वे खाना खाने भी कमरे से नीचे नहीं आते थे। इनकी मां इन्हें खाना इनकी प्रयोगशाला में ही देकर आती थी।
मारकोनी की उम्र जब लगभग 20 वर्ष की थी तब उन्हें हाइनरिख़ रूडॉल्फ़ हर्ट्ज़ (Heinrich Hertz) द्वारा खोजी गई रेडियो तरंगों के विषय में जानकारी प्राप्त हुई। उनका विचार था इन तरंगों को संदेश ले जाने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। उस समय संदेशों को तार की सहायता से मोर्स कोड प्रयोग में लोकर भेजा जाता था। मारकोनी ने इसी दिशा में काम आरम्भ किया।
दिसंबर, 1894 में एक रात की बात है कि मारकोनी अपने कमरे से नीचे आए और अपनी सोई हुई मां सिनोरा मारकोनी को जगाया। उन्होंने अपनी मां से प्रयोगशाला वाले कमरे में चलने के लिए आग्रह किया। वे अपनी मां को कुछ महत्वपूर्ण वस्तु दिखाना चाहते थे।
सिनोरा मारकोनी चूंकि नींद में थी इसलिए पहले तो कुछ बड़बड़ाई किन्तु अपने पुत्र के साथ ऊपर कमरे में चली गई।
उस कमरे में पहुंच कर गुग्लिएल्मो ने अपनी मां को एक घंटी दिखाई जो कुछ उपकरणों के बीच लगी हुई थी। वे स्वयं कमरे के दूसरे कोने में गए और वहां जाकर उन्होंने एक मोर्स कुंजी को दबाया। हल्की चिंगारी की आवाज आई और अचानक 30 फुट दूर रखी घंटी बजने लगी।
बिना किसी तार कि सहायता के इतनी दूरी पर रखी घंटी का रेडियो तरंगों से बजना एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी।
नींद में ऊंघती हुई उनकी मां ने इस प्रयोग के लिए उत्साह तो दिखाया लेकिन वह यह नहीं समझ सकी कि बिजली की इस घंटी को बनाना क्या इतनी बड़ी चीज थी कि इसके लिए उनकी रात की नींद खराब की जाए।
यह बात मारकोनी की मां को तब समझ आई जब मारकोनी ने बेतार द्वारा अपने संदेशों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेज कर दुनिया के सामने दिखाया।
जब आदमी को किसी काम में सफलता मिलती है तो उसका हौसला बढ़ जाता है। यही बात गुग्लिएल्मो के साथ भी हुई। उन्होंने अपने छोटे भाई की सहायता से अपने संकेतों को भेजने और प्राप्त करने की दूरी अपनी कोठी के बाग के पार तक ली।
एक दिन की बात है कि मारकोनी ने अपने बनाए हुए ट्रांसमीटर को पहाड़ी के एक ओर रखा और रिसीवर को दूसरी ओर। रिसीवर के पास संदेश ग्रहण करने के लिए उनका भाई खड़ा था। जब भाई को संदेश प्राप्त होने लगे तो वह खुशी के मारे पहाड़ी पर चढ़कर नाचने लगा। उसकी इस खुशी को देखकर गुग्लिएल्मो को यह विश्वास हो गया कि उसका यंत्र काम कर रहा है।
अपने प्रयोगों को आगे बढ़ाने के लिए मारकोनी ने इटली सरकार के डाक-तार विभाग से आर्थिक सहायता की अपील की लेकिन, उन्होंने मदद करने से इंकार कर दिया।
इटली की सरकार से सहायता न मिलने पर गुग्लिएल्मो निराश नहीं हुए। 22 वर्ष कि अवस्था में वे अपनी मां के साथ जहाज पर सवार होकर इंग्लैण्ड के लिए रवाना हो गए।
वहां सन् 1896-97 के बीच उन्होंने अपने द्वारा निर्मित उपकरण से बेतार के तार से सम्बन्धित कई सफल प्रदर्शन किए। लंदन के प्रधान डाकघर के मुख्य इंजीनियर सर विलियम प्रिंस ने उनके प्रयोगों में काफी दिलचस्पी दिखाई।
सन् 1897 में वे 12 मील तक रेडियो संदेश भेजने का में सफल हुए। इससे सारे यूरोप में मारकोनी के नाम की धूम मच गई। बिना तार के संदेश भेजने का मानव का चिरसंचित स्वप्न पूरा हो गया। इसी साल मारकोनी ने अपनी कंपनी ‘The Wireless Telegraph & Signal Company’ (इसे बाद में Marconi Company के नाम से भी जाना गया) भी आरंभ की।
सन् 1898 की बात है कि इंग्लैंड का युवराज एक द्वीप के पास अपने छोटे से जहाज में बीमार पड़ गया। उन दिनों रानी विक्टोरिया भी उसी द्वीप में रह रही थी। मारकोनी ने रानी को अपने पुत्र के स्वास्थ्य के विषय में जानकारी देने के लिए बेतार के तार द्वारा दोनों स्थानों को जोड़ दिया। 16 दिन की अवधि में दोनों स्थानों से 150 तार भेजे गए।
सन् 1899 में वे इंग्लिश चैनल के आर-पार 31 मील की दूरी तक रेडियो संदेश भेजने में सफल हुए। 12 दिसंबर, 1901 को मारकोनी ने एक और उपलब्धि प्राप्त कि। पहली बार अंग्रेजी के एस (S) अक्षर को मोर्स कोड द्वारा अटलांटिक सागर के आर-पार भेजने में सफलता प्राप्त की। इससे विश्व भर में उनकी प्रसिद्धि और बढ़ गई।
अगले दो दशक तक वे रेडियो के कार्य करने के तरीकों और परिष्कृत करते रहे। अन्ततः उन्हीं के द्वारा बनाए गए यंत्रों से इंग्लैंड में 14 फरवरी, 1922 को रेडियो प्रसारण सेवा आरम्भ हुई।
33 वर्ष की छोटी आयु में सन् 1909 उन्हें उनकी महान उपलब्धियों के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया तथा सन् 1930 में उन्हें Royal Academy of Italy का अध्यक्ष चुना गया।
मारकोनी लगभग 63 वर्ष की उम्र तक जीवित रहे और उन्होंने उन सभी महान परिवर्तन को अपनी आंखों से देखा, जिन्हें लाने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा था। 20 जुलाई, 1937 में जब दिल का दौरा पड़ने से उनका देहान्त रोम में हुआ तो, उनके सम्मान में अमेरिका, इंग्लैंड तथा इटली के रेडियो स्टेशन कुछ मिनटों के लिए बंद कर दिये गए। आधुनिक युग को रेडियो संचार का आधार प्रदान करने वाले इस वैज्ञानिक को हम कभी भी नहीं भुला सकते।
भारत में रेडियो का इतिहास एवं वर्तमान
भारत में रेडियो का कुल इतिहास लगभग 98 साल पुराना है। 8 अगस्त, 1921 को संगीत के विशेष कार्यक्रम से शुरुआत हुई और मुम्बई से पुणे तक की यात्रा की । फिर दौर चला शौकिया रेडियो क्लबों का। 13 नवंबर, 1923 को रेडियो क्लब बंगाल, 8 जून 1923 को मुम्बई प्राइवेट रेडियो सर्विस क्लब, 31 जुलाई, 1924 को मद्रास प्रेसीडेंसी रेडियो क्लब बने, और इन सब रेडियो सर्विस क्लबों ने 1927 आते-आते दम तोड़ दिया।
फिर क्या था 23 जुलाई, 1927 को इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी (IBC) निजी प्रसारण संस्था बनी, जिसका उद्घाटन मुंबई के वायसराय लार्ड इरविन ने किया। ये मीडियम वेव ट्रांसमीटर डेढ़ किलो वाट क्षमता के थे। इससे 48 किलोमीटर की परिधि में सुनाई पड़ता था। ऐसे छोटे प्रसारण केंद्र रांची और रंगून में भी बने।
अप्रैल, 1930 को इंडियन स्टेट ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन सर्विस (ISBS) का उदय हुआ। भारत सरकार के श्रम और उद्योग मंत्रालय के जरिये, रेडियो की लासेंस फीस वसूलने का काम पोस्ट एंड टेलीग्राफ डिपार्टमेंट को सौंपा गया। आर्थिक मंदी की मार से 10 अक्टूबर, 1931 को बंद भी कर दिया गया। फिर जनता की बेहद मांग पर 23 नवंबर, 1931 को इससे पुनः प्रसारण आरंभ हुआ।
1935 में मारकोनी कंपनी ने 250 वाट का ट्रांसमीटर पेशावर में लगाया। 14 गांव, ग्रामीण प्रसारण के लिए चुने गए और प्रसारण का समय सायंकाल प्रतिदिन एक घंटे रखा गया।
मैसूर में 10 सितंबर, 1934 को “आकाशवाणी” नाम से 250 वाट क्षमता का केन्द्र खुला। इसके बाद 8 जून, 1936 को इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन सर्विस के ब्रिटान नियोलेन फिल्डेन ने “All India Radio” नाम दिया। 1941 में सूचना प्रसारण विभाग बना। 1947 के पूर्व भारत में मात्र 9 रेडियो स्टेशन थे, जिनमें ढाका, लाहौर और पेशावर के भी केन्द्र शामिल थे।
आज रेडियो के क्षेत्र में भारत का विशिष्ट स्थान है क्योंकि यहाँ 23 से अधिक भाषाओं और लगभग 150 बोलियों में रेडियो प्रसारण होता है जो राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय स्तरों पर उपलब्ध है।
आज आम लोगों की भागीदारी बढ़ाने के लिए रेडियो की फ़ोन-इन सुविधा ने कार्यक्रमों को बेहतर बनाने में महती भूमिका निभाई है। हमारे यहाँ अधिकांश रेडियो केन्द्रों पर डिजिटल ब्राॅडकास्ट प्रणाली उपलब्ध है और रेडियो ऑन डिमांड तथा ‘न्यूज़ इन फोन’ की व्यवस्था ने श्रोताओं को मनपसंद कार्यक्रम के चुनाव का विकल्प भी दिया है।
हमारे देश में रेडियो से पहला समाचार बुलेटिन 19 जनवरी 1936 को मुंबई से प्रसारित हुआ था। तब से आज तक की विकास यात्रा में हमारी उपलब्धियां इतनी अधिक हो चुकी हैं कि आकाशवाणी का समाचार नेटवर्क आज विश्व के प्रमुख प्रसारणकर्ताओं में से एक है। वर्तमान में प्रतिदिन लगभग पौने तीन सौ बुलेटिन प्रकाशित किए जाते हैं जिनकी कुल अवधि 36 घण्टे से भी अधिक है।
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