ये वायु से बजने वाले वाद्य होते हैं। इनमें ध्वनि उत्पन्न करने के लिए, बिना तारों या झिल्ली के इस्तेमाल के और यंत्र के बिना कम्पित हुए, वायु के टुकड़े को कम्पित किया जाता है,जिससे ध्वनि में बढोत्तरी होती है। इन उपकरणों की तान संबंधी गुणवत्ता उपयोग किए गए ट्यूब के आकार और आकृति पर निर्भर करती है। वे गहरे बास से लेकर कर्णभेदी तेज़ सुरों तक, जोर की और भारी ध्वनि उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं। ये खोखले वाद्य हैं जिनमें हवा से ध्वनि उत्पन्न की जाती है। वाद्य में छिद्र खोलने और बंद करने के लिए उंगलियों का उपयोग करके ध्वनि के स्वरमान को नियंत्रित किया जाता है। शहनाई भारत का एक लोकप्रिय सुषिर वाद्य है। इन्हें बजाने के तरीकों से वर्गीकृत किया जा सकता है:
- हवा की यंत्रवत् रूप से आपूर्ति की जाती है जैसे कि हारमोनियम में
- हवा की आपूर्ति श्वास द्वारा शहनाई या बांसुरी में की जाती है (मुंह से फूंककर)
27-नागस्वरम्
"नागस्वरम् लकड़ी और धातु से निर्मित एक वायु वाद्य यंत्र है। यह भक्ति वाद्य यंत्र तमिलनाडु में पाया जाता है। मुख्य रूप से शुभ और धार्मिक अवसरों पर यह शास्त्रीय संगीत कार्क्रमों में भी उपयोग किया जाता है।"
"कर्नाटक संगीत की एक प्रमुख वायु नली, इसने प्राचीन काल से एक मंगल वाद्यम् के रूप में उच्च स्थान प्रदान किया गया है। लकड़ी के बने इस द्वि कंपिका वाले वाद्य यंत्र में दो भाग होते हैं; शंक्वाकार नली और एक धातु की घंटी। छोर पर एक सींग के साथ नीचे की ओर बढ़ने वाली नली, एक धातु की घंटी से सुसज्जित होती है। इस पर सात अंगुल छिद्र और पाँच वायु छिद्र होते हैं। द्वि कंपिका जिसे 'एकु' कहा जाता है (तेलुगु में) एक कपाट (वेल्व) के रूप में कार्य करती है, जो धातु की स्टेपल से लगी होती है और नली में डाली जाती है। कंपिका को समायोजित करने के लिए लकड़ी की सुइयों के साथ अतिरिक्त कंपिकाओं को वाद्य यंत्र के साथ धातु की स्टेपल से लटकाकर रखा जाता है। इसके साथ में उपयोग किया जाने वाला ताल वाद्य यंत्र तविल है। कभी-कभी तालम, बड़े झांझ, भी नागस्वरम् के साथ बजाए जाते हैं। इस वाद्य यंत्र की पहचान मंदिरों और अन्य धार्मिक आयोजनों के साथ होती है। प्रमुख वाद्य यंत्र के रूप में नागस्वरम् के साथ वाद्य यंत्रों के सामूहिक प्रदर्शन को 'पेरियामेलम' कहा जाता है। इसे शास्त्रीय संगीत कार्यक्रमों के साथ-साथ शुभ और धार्मिक अवसरों पर भी उपयोग किया जाता है।”
28-देवलाई सांगू
देवलाई सांगू पीतल और मोम से बना एक सुषिर वाद्य यंत्र है। यह एक धार्मिक वाद्य यंत्र है, जो तमिलनाडु में पाया जाता है। इसका मुख्य रूप से 'पंचवाद्य' सामूहिक प्रदर्शन तथा मंदिरों के अन्य धार्मिक और शुभ अवसरों में उपयोग किया जाता है।
एक शंख जिसमें हवा फूँकने वाले छोर पर कीप के आकार का पीतल का मुखनाल लगाया जाता है। मोम की सहायता से दूसरे छोर पर पीतल का एक विस्तृत सजावटी टुकड़ा जुड़ा होता है। यह 'पंचवाद्य' सामूहिक प्रदर्शन में प्रयुक्त होता है। यह मंदिरों में धार्मिक और शुभ अवसरों में भी उपयोग किया जाता है।
29-नरसिंघ
नरसिंघ ताँबे और धातु से निर्मित एक वायु वाद्य यंत्र है। यह एक लोक वाद्य यंत्र है जो हिमाचल प्रदेश और बिहार में पाया जाता है। यह 'एस' आकर की नली हिमाचल प्रदेश में सामाजिक समारोहों, लोक संगीत और नृत्य में और बिहार के ओराँव समुदाय द्वारा उपयोग की जाती है।
हिमाचल प्रदेश में नरसिंघ-एक विस्तृत कीपनुमा मुख के साथ तीन मुड़ी हुई तांबे की नलीयाँ और फूँकने वाले छोर पर तीन संकलित मुखनाल। इसका आकार 'एस' की तरह होता है। पाँच धातु के उत्थित छल्ले नली को घेरते हैं। यह सामाजिक समारोहों, लोक संगीत और नृत्य में उपयोग किया जाता है।
बिहार में नरसिंघ-तांबे से बनी 'एस' आकार की तुरही। मुखनाल से इसे बजाया जाता है। बिहार के 'ओराओं' जनजाति द्वारा इसका उपयोग किया जाता है।
30-नागफनी
नागफनी काँसे और धातु से बना एक वायु वाद्य यंत्र है। यह राजस्थान और गुजरात में पाया जाने वाला एक धार्मिक वाद्य यंत्र है। राजस्थान में धार्मिक और सामाजिक समारोहों में शोभायात्राओं के भाग के रूप में और गुजरात में अनुष्ठानिक सामाजिक समारोहों और उत्सवों में मुख्य रूप से इसका उपयोग किया जाता है।
- राजस्थान में नागफनी-सर्पिल घंटियों सहित एक काँसे की नली। साँप के फन के आकार की घंटी जिसमें धातु की (जीह्वा) लटकन लगी होती है, चमकीले रंगों से रंगी। शोभायात्रा के भाग के रूप में धार्मिक और सामाजिक समारोहों में इसका उपयोग किया जाता है।
- गुजरात में नागफनी-एक बेलनाकार काँसे की नली जिसमें नाग की तरह मुड़ी हुई डंडी और नाग के फन के आकार वाली घंटी जुड़ी होती है। एक खुला मुँह का छेद होता है। अनुष्ठानिक सामाजिक समारोहों और उत्सवों में इसका उपयोग किया जाता है।
31-नढ़
“नढ़ कंगोर की लकड़ी से निर्मित एक सुषिर वाद्य यंत्र है। यह जनजातीय वाद्य यंत्र राजस्थान में पाया जाता है। इसे मुख्यतः राजस्थान के चरवाहा समुदाय द्वारा उपयोग में लाया जाता है।“
“कंगोर की लड़की से बनी एक नली। इस पर चार अंगुल छिद्र होते हैं। इसे ऊपरी छोर से फूँका जाता है, छिद्र उँगलियों द्वारा कुशलता से परिचालित किए जाते हैं। इसे राजस्थान के चरवाहा समुदाय द्वारा उपयोग में किया जाता है।“
32-पंथोंग पालित
"पंथोंग पालित बाँस से बना एक एक वायु वाद्य यंत्र है। यह लोक वाद्य सिक्किम में पाया जाता है। लोक और पारंपरिक संगीत शैलियों में मुख्यत: उपयोग किया जाता है। शादी के अवसर पर विशेष रूप से उपयोग किया जाता है।"
"एक क्षैतिज बाँसुरी, लगभग एक मीटर लंबी, बाँस से बनी हुई। फूँकने वाले छोर पर बंद होती है। बंद छोर से कुछ सेंटीमीटर नीचे बजाने वाला छिद्र होता है। चार अंगुल छिद्र होते हैं। लोक और पारंपरिक संगीत शैलियों में उपयोग किया जाता है। शादी के अवसर पर विशेष रूप से उपयोग किया जाता है।"
33-पालिथ किंग
पालिथ किंग लकड़ी का बना एक वायु वाद्य यंत्र है। यह जनजातीय वाद्य यंत्र सिक्किम में पाया जाता है। चरवाहों द्वारा मुख्य रूप से उपयोग किया जाता है।
"एक सीधी बाँसुरी, जिसमें छह अंगुल छिद्र होते हैं। बजने वाले छिद्र के नीचे कुछ सेंटीमीटर की दूरी पर एक संकीर्ण मुखनाल है। दोनों हाथों से लंबवत पकड़ा जाता है और मुखनाल से बजाया जाता है। चरवाहों द्वारा उपयोग किया जाता है।"
34-पावरी
“पावरी गाय के सींग, लकड़ी, और सूखी तूमड़ी से निर्मित एक वायु वाद्य यंत्र है। यह जनजातीय वाद्य यंत्र महाराष्ट्र में पाया जाता है। यह स्वदेशी वाद्य यंत्र सामान्यतः उतना प्रचलित नहीं है और केवल जनजाति के भीतर ही इसे बजाया और सीखा जाता है।““पावरी गाय के सींग, लकड़ी, और सूखी तूमड़ी से निर्मित एक वायु वाद्य यंत्र है। यह जनजातीय वाद्य यंत्र महाराष्ट्र में पाया जाता है। यह स्वदेशी वाद्य यंत्र सामान्यतः उतना प्रचलित नहीं है और केवल जनजाति के भीतर ही इसे बजाया और सीखा जाता है।“
“एक वायु वाद्य यंत्र जिसे 'तारफ़ा' के नाम से भी जाना जाता है। यह सींग नली (हॉर्न पाइप) का एक प्रकार है जो सामान्यतः लंबाई में तीन से चार फ़ीट की होती है। यह पारंपरिक रूप से महाराष्ट्र की कोकणा और गुजरात की डांग जनजाति से संबंधित है। एक द्वि कंपिका वायु नली जिसमें तले की ओर छह छिद्र होते हैं। इसे सामान्यतः पुंगी का एक बड़ा संस्करण माना जाता है। यह वाद्य यंत्र स्थानीय रूप से उगाए गए वृक्षों की लकड़ी से बना होता है और इसके अर्ध ऊपरी हिस्से में एक चोंच जैसी चित्रित संरचना जुड़ी होती है। इस वाद्य यंत्र से उत्पन्न ध्वनि भारतीय के साथ-साथ यूरोपीय संगीत के स्वरों से भी मिलती है। पावरी को मुख्यतः कोकणा जनजाति के शादी समारोहों और डांगी जनजाति के डांग दरबार (होली के समय मनाया जाने वाला तीन दिवसीय वार्षिकोत्सव) उत्सव में मुख्य रूप से उपयोग किया जाता है। यह स्वदेशी वाद्य यंत्र सामान्यतः उतना प्रचलित नहीं है और केवल जनजाति के भीतर ही इसे बजाया और सीखा जाता है।“
35-पावो
पावो चिकनी मिट्टी और बाँस से बना एक वायु वाद्य यंत्र है। यह एक दोहरी बाँसुरी होती है, और गुजरात में पाई जाती है।
पावो बाँस से बनी एक दोहरी बाँसुरी होती है। इसमें प्रयुक्त दोनों बाँसुरियों की लंबाई 27 सेंटीमीटर होती है और यह यंत्र राजस्थान के अलगोजा वाद्य यंत्र जैसा होता है लेकिन इसका आकार काफी छोटा होता है। इस ड्रोन बाँसुरी में उंगली के लिए एक छेद होता है और मुख्य बाँसुरी में आगे सात और पीछे एक छेद होता है।
36-पिल्लगोवी
पिल्लगोवी बाँस से बना एक वायु वाद्य यंत्र। ऐसा माना जाता है कि इसका आविष्कार भगवान श्रीकृष्ण ने किया है तथा यह दक्षिण भारत में पाया जाता है।
पिल्लगोवी बाँस से बना होता है और इसको मुरली के नाम से भी जाना जाता है, और पारंपरिक रूप से ऐसा माना जाता है कि इसका आविष्कार भगवान श्रीकृष्ण ने किया था, जिन्हें आमतौर पर इसे धारण किए हुए या इसे बजाते हुए दर्शाया जाता है। इस यंत्र को कभी-कभी बाँसुरी का नाम भी दिया जाता है। इसके स्वर नीचे और मधुर होते हैं, और यह वाद्य यंत्र हमेशा धीरे से बजाया जाता है; वास्तव में, कर्णभेदी स्वर इस वाद्य यंत्र पर उत्पन्न नहीं किए जा सकते हैं। यह वाद्य यंत्र काफी हद तक ग्रामीण प्रकृति का है और इसे गड़ेरियों तथा चरवाहों द्वारा बहुधा उपयोग किया जाता है। गाँव की कई सरल धुनों और रागों को, जब इस वाद्य यंत्र पर बजाया जाता है, तो उनमें अद्भुत आकर्षण होता है।
37-पुंगी
पुंगी तूमड़ी, मोम, बाँस, धातु, मधुमोम और नारियल से बना एक वायु वाद्य यंत्र है। यह दिलचस्प वाद्य यंत्र देश के अनेक हिस्सों जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा में पाया जाता है। सँपेरों द्वारा मुख्यत: उपयोग किया जाता है।
- उत्तर प्रदेश में पुंगी-लंबी गर्दन वाली एक गोल तूमड़ी। एक कंपिका के साथ दो बाँस की नलिकाओं को कलाबाश में से डाला जाता है और मोम से चिपकाया जाता है। एक नलिका के ऊपरी तरफ सात अंगुली के छिद्र और पीछे की तरफ एक अंगूठे का छिद्र होता है और दूसरी नलिका में दो छिद्र होते हैं। गर्दन के अंत में बना छेद से बजाया जाता है। सँपेरों द्वारा उपयोग किया जाता है।
- मध्य प्रदेश में पुंगी-एक बड़ा गोल तुंबा और विस्तारित गर्दन जिसका कटा हुआ बजाने वाला छेद एक छोर पर होता है। एकल कंपिका के साथ तीन बाँस की नलियों को कलाबाश के माध्यम से घुसाया जाता है और मोम से जोड़ा जाता है। दायें हाथ की नली में सामने आठ अंगुल छेद और एक अंगूष्ठ छेद पीछे होता है। बीच वाली नली में तीन छेद। जबकि बायीं वाली एक लंबी धातु की नली के साथ जुड़ी होती है। दोनों हाथों से थामकर, चौड़े खुले हुए हिस्से की तरफ से बजाया जाता है। सपेरों द्वारा इसका उपयोग किया जाता है।
38-पेपा
"पीपा भैंस के सींग से बना एक वायु वाद्य यंत्र है। यह लोक वाद्य यंत्र असम में पाया जाता है। इसे 'जोड़ीया पेपा' भी कहा जाता है, यह विशेष रूप से असम में 'बिहु' त्योहार के दौरान उपयोग किया जाता है।"
"दो भैंस के सींगों को, चार अंगुल छिद्र के साथ दो सरकंडे की नलिकाओं से, संकीर्ण छोर पर बाँधा जाता है। कंपिका से बजाया जाता है। इसे 'जोड़ीया पेपा' भी कहा जाता है। यह लोकप्रिय लोक वाद्य यंत्र है। असम में 'बिहु' त्योहार के दौरान विशेष रूप से उपयोग किया जाता है।"
39-पेली
पेली बाँस से निर्मित एक सुषिर वाद्य यंत्र है। यह विशिष्ट रूप से राजस्थान में अलवर के मेयो समुदाय द्वारा उपयोग किया जाता है।
अलवर के मेयो समुदाय का पेली वाद्य यंत्र एक छोटी बाँसुरी है जिसके संगीत पर रतवाई को उच्च स्वरमान में गाया जाता है। बाँसुरी राजस्थानी लोक संगीत में भी बहुत प्रसिद्ध है। जिनमें से एक पेली है जो कि एक छोटी बाँसुरी है। इसी परिवार का अन्य यंत्र रतवाई है जिसे उच्च स्वरमान के लिए उपयोग किया जाता है।
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