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क्यों किया जाता है जीवित्पुत्रिका व्रत,जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्व और कथा

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हिंदू धर्म में व्रत व त्यौहारों को मनाने का विशेष महत्व एक विशेष उद्देश्य होता है. कुछ व्रत त्यौहार सामाजिक कल्याण से जुड़े होते हैं तो कुछ व्यक्तिगत व पारिवारिक हितों से. आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में जहां पितर शांति के लिये श्राद्ध पक्ष मनाया जाता है तो वहीं शुक्ल पक्ष के आरंभ होते ही नवरात्र का उत्सव शुरु होता है जिसका समापन शुक्ल दशमी को दुर्गा विसर्जन, दशहरे आदि के रूप में होता है.

इस लिहाज से वैसे तो आश्विन मास की प्रत्येक तिथि बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है लेकिन जब संतान की सुरक्षा, सेहत और दीर्घायु की कामना बात हो जो कि हर मां की इच्छा होती है तो आश्विन मास की कृष्ण अष्टमी तिथि बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है. इसका कारण है इस दिन संतान के सुखी, स्वस्थ और दीर्घायु जीवन की कामना पूरी करने हेतु रखा जाने वाला व्रत. इस व्रत को कहते हैं जीवित्पुत्रिका व्रत. आइये जानते हैं क्या है जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्व? क्या है इसकी व्रत कथा व पूजा विधि?

जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्व
जीवित्पुत्रिका व्रत आश्विन मास की कृष्ण अष्टमी को किया जाने वाला व्रत है. मान्यता है कि माताएं अपनी संतान के लंबे व स्वस्थ जीवन के लिये इस व्रत को करती हैं. कुछ क्षेत्रों में यह व्रत जिउतिया व्रत भी कहा जाता है.

महाभारत काल से जुड़ा है जितिया व्रत का रहस्य-
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार महाभारत युद्ध के दौरान अपने पिता की मृत्यु के बाद अश्वत्थामा बहुत दुखी व नाराज़ थे। इस दुख और नाराज़गी के चलते उनके मन में बदले की भावना भड़क रही थी। अपनी इसी क्रोध के आगे बेबस होकर वे पांडवों के शिविर में घुस गए। जब वो अंदर गए तो उन्होंने देखा कि शिविर के अंदर पांच लोग सो रहे थे जिन्हेें उन्होंने पांडव समझकर मार डाला। परंतु असल में वे सभी द्रोपदी की पांच संतानें थीं। कहा जाता है इसके बाद अर्जुन ने उन्हें बंदी बनाकर उनकी दिव्य मणि छीन ली। 

जिसके बाद अश्वत्थामा ने बदला लेने के लिए अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे को गर्भ को नष्ट कर दिया। मगर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में फिर से जीवित कर दिया। गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उस बच्चे का नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा। कहा जाता है तब से ही संतान की लंबी उम्र और मंगल कामना के लिए जितिया का व्रत किया जाने लगा।  


व्रत से जुड़ी पौराणिक कथा
जीवित्पुत्रिका व्रत को जिउतिया अथवा जितिया भी कहा जाता है इसकी भी एक कथा मिलती है। बहुत समय पहले की बात है कि गंधर्वों के एक राजकुमार हुआ करते थे, नाम था जीमूत वाहन। बहुत ही पवित्र आत्मा, दयालु व हमेशा परोपकार में लगे रहने वाले जीमूत वाहन को राजपाठ से बिल्कुल भी लगाव न था लेकिन पिता कब तक संभालते। वानप्रस्थ लेने के पश्चात वे सबकुछ जीमूतवाहन को सौंपकर चले गए। लेकिन जीमूतवाहन ने तुरंत अपनी तमाम जिम्मेदारियां अपने भाइयों को सौंपते हुए स्वयं वन में रहकर पिता की सेवा करने का मन बना लिया। अब एक दिन वन में भ्रमण करते-करते जीमूत वाहन काफी दूर निकल आया। उसने देखा कि एक वृद्धा काफी विलाप कर रही है। जीमूत वाहन से कहां दूसरों का दुख देखा जाता, उसने सारी बात पता लगाई तो पता चला कि वह एक नागवंशी स्त्री है और पक्षीराज गरुड़ को बलि देने के लिये आज उसके इकलौते पुत्र की बारी है। जीमूत वाहन ने उसे धीरज बंधाया और कहा कि उसके पुत्र की जगह पर वह स्वयं पक्षीराज का भोजन बनेगा। अब जिस वस्त्र में उस स्त्री का बालक लिपटा था उसमें जीमूत वाहन लिपट गया। जैसे ही समय हुआ पक्षीराज गरुड़ उसे ले उड़ा। जब उड़ते उड़ते काफी दूर आ चुके तो पक्षीराज को हैरानी हुई कि आज मेरा यह भोजन चीख चिल्ला क्यों नहीं रहा है। इसे जरा भी मृत्यु का भय नहीं है। अपने ठिकाने पर पंहुचने के पश्चात उसने देखा तो उसमें बच्चे के स्थान पर जीमूत वाहन था। जीमूत वाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया। पक्षीराज जीमूत वाहन की दयालुता व साहस से प्रसन्न हुए व उसे जीवन दान देते हुए भविष्य में कभी बलि न लेने का वचन दिया।

मान्यता है कि यह सारा वाकया आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था इसी कारण तभी से इस दिन को जिउतिया अथवा जितिया व्रत के रूप में मनाया जाता है ताकि संतानें सुरक्षित रह सकें।

जितीया व्रत की विधि
यह व्रत वैसे तो आश्विन मास की अष्टमी को रखा जाता है लेकिन इसका उत्सव तीन दिनों का होता है. सप्तमी का दिन नहाई खाय के रूप में मनाया जाता है तो अष्टमी को निर्जला उपवास रखना होता है. व्रत का पारण नवमी के दिन किया जाता है. वहीं अष्टमी को सांय प्रदोषकाल में संतानशुदा स्त्रियां जीमूतवाहन की पूजा करती हैं और व्रत कथा का श्रवण करती हैं. श्रद्धा व सामर्थ्य अनुसार दान-दक्षिणा भी दी जाती है.


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