वह वाद्य होते है जो भीतर से पोल होते है और जिनके मुख पर चमड़ा मढ़ा होता है। उनकी स्वरोत्पति उँगलियों, छड़ी या अन्य किसी वस्तु के आधात से उत्पन्न करके बजाया जाता है । प्राचीन समय मे अवनद्ध वाद्य के अन्तर्गत – त्रिपुष्कर, मृदंग, पटह, ढोल, नगाड़ा इत्यादि आते थे। और वर्तमान समय में पखावज , ढोलक, ड्रम, तबला इत्यादि आते है।
वाद्य का क्षेत्र अत्य्न्न्त व्यापक है। संगीत जगत में कुछ एसे वाद्य भी है जिनका प्रयोग स्वतन्त्र रूप के साथ साथ, किसी अन्य वाद्य की संगति के लिये भी किया जाता है। संगीत की अन्य कलायें जैसे गायन, वादन, नृत्य के साथ साथ नाटक और धार्मिक कार्य मे भी इन वाद्यों का महत्वपूर्ण स्थान है । इन अद्धभूद वाद्यों का महत्व केवल उनका वादन मात्र ही नहीं है अपितु ये वाद्य समृद्ध सांस्कृति का भी प्रतिबिम्ब हैं। इन वाद्यों के बारे में जानकर, उनका विकास करना न सिर्फ हमारा दायित्व भी है अपितु हमारा कर्तव्य भी है। क्योंकि हमारे जीवन में वाद्यों का महत्वपूर्ण अस्तित्व है ।
- मृदंगम की तरह हाथ से बजाया जाता है;
- नगाड़े की तरह छड़ियों का उपयोग करके बजाया जाता है;
- आंशिक रूप से हाथ से और आंशिक रूप से छड़ी द्वारा, तवील की तरह बजाया जाता है;
- डमरू की तरह आत्मघात;
31-डागर-
डागर मिट्टी के बरतन एवं कछुए के चर्मपत्र से निर्मित एक ताल वाद्य यंत्र है। यह असम में पाया जाने वाला एक स्थानीय वाद्य यंत्र है। इसे मुख्य रूप से बिहू गीतों के साथ लयबद्ध संगत के लिए उपयोग किया जाता है। यह वाद्य यंत्र असम के कामरूप और मंगलदोई क्षेत्रों में लोकप्रिय है।
कटी हुई गर्दन वाला मिट्टी का मटका जिसका किनारा एक छोर पर कछुए के चर्मपत्र से ढका हुआ होता है। इसके केंद्र में काला लेप भरा हुआ होता है। यह बिहू गीतों के साथ लयबद्ध संगत के लिए उपयोग किया जाता है। यह असम के कामरूप और मंगलदोई क्षेत्रों में लोकप्रिय है।
32-डामा-
डामा एक ताल वाद्य यंत्र है जो लकड़ी, चर्मपत्र और मुलायम लकड़ी से निर्मित होता है। यह एक जनजातीय वाद्य यंत्र है, जो त्रिपुरा और मेघालय में पाया जाता है। यह एक हाथ का ढोल है जिसे पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाली जनजातियों द्वारा उपयोग किया जाता है।
- त्रिपुरा में डामा-लकड़ी का एक बड़ा बेलनाकार ढोल जो दाहिने किनारे पर पतला या शंकु के रूप में होता है। दोनों मुख चमड़े की पट्टियों के माध्यम से तनी हुई खाल से ढके हुए होते हैं। इस वाद्य यंत्र को गले में लटकाकर और दोनों हाथों से बजाया जाता है। इसका उपयोग त्रिपुरा की जनजातियों द्वारा किया जाता है।
- मेघालय में डामा- नरम लकड़ी से निर्मित दोमुखी बेलनाकार ढोल। दोनों मुख खाल से ढके होते हैं और लाल पट्टियों से बंधे होते हैं। यह वाद्य यंत्र स्वर्ण और लाल रंगों से रंगा होता है। इसे क्षैतिज रूप से गले से लटकाकर दोनों हाथों से बजाया जाता है। इस वाद्य यंत्र को मेघालय के पहाड़ी क्षेत्रों की जनजातियों द्वारा उपयोग किया जाता है।
33-डिंडीमा-
डिंडीमा लकड़ी से निर्मित एक ताल वाद्य यंत्र है। यह एक प्राचीन वाद्य यंत्र है और माना जाता है कि इसका उपयोग महाकाव्य महाभारत में किया गया था।
यह एक प्राचीन वाद्य यंत्र है। डिंडिमा एक प्रकार का ढोल है, इसके द्वारा उत्पन्न ‘डिन’ स्वर के कारण इसे यह नाम दिया गया। महाकाव्य महाभारत के कर्ण-पर्व में चित्रण के अनुसार इस वाद्य यंत्र को दिन की लड़ाई के प्रारंभ में बजाया गया था।
34-डुगडुगी-
डुगडुगी बकरी की खाल, लोहे और लकड़ी से बना एक ताल वाद्य यंत्र है। यह रेतघड़ी के आकार का वाद्य यंत्र पश्चिम बंगाल में पाया जाता है।
पश्चिम बंगाल में डुगडुगी - भगवान शिव से जुड़ी डुगडुगी, या डमरू, रेतघड़ी के आकार का एक ताल वाद्य यंत्र है, जिसके दोनों सिरे बकरी की खाल से ढके होते हैं। दो छोटी सीसा या लोहे की गेंदों के साथ एक तार को डुगडुगी की संकीर्ण कमर में बाँधा जाता है। जब वाद्य यंत्र तेजी से घुमाया जाता है, तो गेंदें खिंची हुई चर्म से टकराती हैं, और लयबद्ध ध्वनि उत्पन्न करती हैं।
35-ढाक-
ढाक एक ताल वाद्य यंत्र है, जो लकड़ी और गाय के चमड़े से बना होता है। यह वाद्य यंत्र ज्यादातर उत्सवों में उपयोग किया जाता है और पश्चिम बंगाल में पाया जाता है। यह द्विपृष्ठीय ढोल ज्यादातर उत्सवों में, विशेष रूप से दुर्गा पूजा में उपयोग किया जाता है। इसे 'जय ढाक' भी कहा जाता है।
यह लकड़ी से बना एक विशाल द्विपृष्ठीय ढोल होता है। इसके दोनों पृष्ठ गाय के चमड़े से ढके होते हैं। बजाते समय इसे कंधे से एक तरफ झुकी हुई अवस्था में लटकाया जाता है। इसके केवल एक ही पृष्ठ को दो मुड़ी हुई डंडियों की सहायता से बजाया जाता है। इसे ज्यादातर उत्सवों में, विशेष रूप से दुर्गा पूजा में उपयोग किया जाता है। इसे 'जय ढाक ' भी कहा जाता है।
36-ढोल-
ढोल लकड़ी, चमड़े और चर्मपत्र से बना एक ताल वाद्य यंत्र है। इस वाद्य यंत्र का उपयोग केरल की ‘कुरुम्बा' जनजाति अपने समूह नृत्य और संगीत में मुख्य रूप से करती है।
एक बेलनाकार ढोल। अनगढ़ तरीके से वृक्ष के तने से बनाया हुआ। हिरण की खाल को दोनों सिरों पर फैलाया जाता है, जो त्वचा की किनारियों पर बने बड़े छिद्रों और पतले चमड़े की पट्टियों के जरिए थमे रहते हैं। वाद्य यंत्र को नारियल की रस्सी के टुकड़ों की मदद से क्षैतिज रूप से लटकाया जाता है और दोनों हाथों से बजाया जाता है। केरल की 'कुरुम्बा' जनजाति द्वारा अपने समूह नृत्य और संगीत में उपयोग किया जाता है।
37-ढोल-
ढोल लकड़ी, पीतल, चमड़ा, कपास, चर्मपत्र, और धातु से बना एक ताल वाद्य यंत्र होता है। यह लोक वाद्य यंत्र पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, केरल, हिमाचल प्रदेश और असम में पाया जाता है। यह मुख्य रूप से पारंपरिक और लोक संगीत तथा नृत्य प्रदर्शन के साथ संगत के लिए उपयोग किया जाता है। सार्वजनिक घोषणाओं में भी एक वाद्य यंत्र के रूप में इसका उपयोग किया जाता है।
- पश्चिम बंगाल में ढोल-यह लकड़ी से बना एक पीपे के आकार का द्विपृष्ठीय ढोल। इसके दोनों सिरे चर्मपत्र से ढके होते हैं और यह ढोल, दोनों सिरों पर चमड़े के कुंडों के माध्यम से चमड़े की पट्टियों द्वारा बंधा होता है। इसका दायाँ सिरा, बाएँ सिरे से छोटा होता है। विभिन्न तान और लयबद्ध बानगी के लिए इसे विभिन्न आकार की दो डंडियों द्वारा बजाया जाता है। इस ढाँचे के चारों ओर छपाई वाला सूती कपड़ा लपेटा जाता है। पश्चिम बंगाल के लोक संगीत और नृत्य में इसका उपयोग किया जाता है।
- उड़ीसा में ढोल-लकड़ी का खोखला बेलनाकार ढाँचा जिसके मुख खाल से ढके होते हैं। बाएँ मुख पर मोटी अपरिष्कृत खाल होती है, जबकि दाएँ मुख पर ऊँचे स्वरमान के लिए पतली खाल होती है। इसे गले से लटकाकर, हाथ और छड़ी से पीटा जाता है। यह लोक नृत्यों और उत्सवों में उपयोग किया जाता है।
- असम में ढोल-एक बेलनाकार ढोल जिसे लकड़ी के एकल कुंदे को खोखला करके बनाया जाता है। इसका दाहिना शीर्ष बड़ा होता है और बाएँ शीर्ष की तुलना में इसका स्वरमान ऊँचा होता है। दोनों मुख पतले चमड़े से ढके होते हैं और तबले की तरह 'गजरा’ की सहायता से बँधे होते हैं और पतली और सघन चमड़े की पट्टियों द्वारा खोल और कुंडे के दूसरे छोर पर अंतरग्रथित होते हैं। इसे क्षैतिज रूप से गले से लटकाया जाता है। इस वाद्य यंत्र को छड़ियों और दाएँ हाथ की उँगलियों से बजाया जाता है। इस वाद्य यंत्र को असम के पारंपरिक और लोक शैलियों, विशेष रूप से बिहू उत्सव, में उपयोग किया जाता है। इसे 'बिहू ढोल' भी कहा जाता है।
- मणिपुर में ढोल-हिंदू धर्म के आगमन के बाद, वैष्णववाद मणिपुरियों के लिए जीवन का एक तरीका बन गया। फलस्वरूप, संकीर्तन या संगीत और नृत्य के माध्यम से भगवान कृष्ण और राधा की पूजा, भक्ति रस की सबसे शक्तिशाली अभिव्यक्ति बन गई। भक्ति गीतों और नृत्यों की यह वैष्णव परंपरा भगवान कृष्ण को भेंट के रूप में प्रस्तुत की जाती है। संकीर्तन अब मणिपुरी संस्कृति का एक अभिन्न अंग है इसे सभी महत्वपूर्ण अवसरों और त्योहारों पर प्रस्तुत किया जाता है। ढोल एक बड़ा ड्रम है जो संकीर्तन परंपरा के गायन और नृत्य का संगत होता है। याओशांग त्योहार में ढोल का परस्पर वादन विशिष्ट रूप से देखा जाता है जिसे मणिपुर में रंगों का त्योहार के नाम से जाना जाता है। इस त्योहार के दौरान लोग उन्मुक्त हर्षोल्लास के साथ ढोल बजाते हैं। ढोल चोलोम या ढोल बजाने को एक नरम फुसफुसाहट से गर्जनकारी उत्कर्ष तक ध्वनि के उतार चढ़ाव के द्वारा विशिष्ट बनाया जाता है
38-ढोलक-
ढोलक कपास, धातु, इस्पात, शीशम की लकड़ी, बकरी की खाल, आम की लकड़ी, भैंस के चमड़े, और स्याही से बना एक ताल वाद्य यंत्र है। यह लोक वाद्य यंत्र उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में पाया जाता है। ढोलक को तीन प्रकार से बजाया जा सकता है: वादक की गोद में रख कर, खड़े होकर, और ज़मीन पर बैठकर वादक द्वारा अपने एक घुटने के नीचे दबाकर।
- उत्तर प्रदेश में ढोलक -दो सिरों वाला हाथ ढोल, ढोलक एक लोक ताल वाद्य यंत्र है। इसकी लंबाई लगभग 45 सेमी. और चौड़ाई लगभग 27 सेमी. होती है तथा यह व्यापक रूप से क़व्वाली, कीर्तन, लावणी, और भांगड़ा में उपयोग किया जाता है। ढोलक का छोटा पृष्ठ तीव्र स्वर के लिए बकरी की खाल से बना होता है और बड़ा पृष्ठ मंद्र स्वर के लिए भैंस के चमड़े से बना होता है। यह लयबद्ध उच्च और निम्न नाद स्वरमानों के साथ मंद्र और तीक्ष्ण स्वरों के संयोजन की अनुमति देता है। ढोलक का खोल शीशम या आम की लकड़ी से बना होता है। इसमें लगी झिल्ली पर एक यौगिक स्याही होती है जो नाद स्वरमान को कम करने और ध्वनि उत्पन्न करने में मदद करती है। इस सिरे को बाएँ हाथ से बजाया जाता है जो एक उच्च नाद स्वरमान उत्पन्न करता है। कपास की रस्सी से बनी बद्धी और पेंचदार बंधनछड़ चाबी (स्क्रू-टर्नबकल) का उपयोग बजाते समय वाद्य यंत्र पर तनाव को कम करने के लिए किया जाता है। सही स्वर संस्वरण प्राप्त करने के लिए इस्पात के छल्लों/खूँटियों को बद्धियों के अंदर घुमाया जाता है। ढोलक को तीन प्रकार से बजाया जा सकता है: वादक की गोद में रखकर, खड़े होकर, और ज़मीन पर बैठकर वादक द्वारा अपने एक घुटने के नीचे दबाकर।
- बिहार में ढोलक-ढोलक बिहार का सबसे महत्वपूर्ण लोक संगीत वाद्य यंत्र है। यह दोपीठा ताल वाद्य यंत्र है, जिसे हाथों या छड़ियों से बजाया जा सकता है। कोई भी व्यक्ति जिसे लय की समझ हो वो ढोलक बजा सकता है, किसी विशेष निपुणता की आवश्यकता नहीं होती है। ढोलक की लय राज्य की सभी लोक और गीत परंपराओं के साथ संगत के रूप में इन्हें ओज, ऊर्जा और आनंद का मूलतत्त्व प्रदान करती है।
39-तबला-
तबला लकड़ी, धातु, पीतल, कपड़े, चिकनी मिट्टी, तांबे, अल्युमिनियम, इस्पात, चावल, गेहूँ, कोयले के चूरे, पौधों के रेशों, लोहे, निकिल, गोंद, कज्जल, भैंस के चमड़े, बकरी के चमड़े, चमड़े, और लेई से बना एक ताल वाद्य यंत्र है। यह उत्तर भारत के कई हिस्सों में पाया जाने वाला एक पारंपरिक वाद्य यंत्र है। यह एकल प्रदर्शन और वाद्य संगीत के सामूहिक प्रदर्शन में एक महत्वपूर्ण संगत वाद्य यंत्र होने के साथ ही एक एकल प्रदर्शन वाद्य यंत्र भी है।
तबला एक ताल वाद्य यंत्र है जिसमें ढोल की एक जोड़ी शामिल होती है। इसमें अलग-अलग आकारों और मापों के दो एकल सिरों वाले ढोल होते हैं। दाहिने हाथ से बजाया जाने वाला ढोल दायाँ कहलाता है जबकि बायें हाथ से बजाया जाने वाला बायाँ कहलाता है। दोनों ढोलों को छल्लों के आकार के धारकों पर रखा जाता है, जो पौधों के रेशों से बने होते हैं और कपड़े से ढके होते हैं, ताकि उन्हें बजाते समय संतुलित रखा जा सके। प्रदर्शन के दौरान तबले को वादकों के शरीर से दूर एक तिरछी स्थिति में रखा जाता है। दायाँ (लंबाई में 15 सेंटीमीटर और व्यास में 6 इंच) लकड़ी से बना होता है, जबकि बायाँ (लंबाई में 25 सेंटीमीटर और व्यास में 10 इंच) लोहे, तांबे, एल्यूमीनियम, और इस्पात या चिकनी मिट्टी से बना होता है। पुड़ी/ छावनी बकरी की खाल से बनी एक चादर होती है, जिसे दोनों ढोलों पर खींचकर चढ़ाया जाता है। पुड़ी को गजरा नामक एक पट्टी से बांधा जाता है। गजरा (बकरी या गाय के चमड़े के चर्म-बद्ध को जोड़कर बनाया जाता है) को बद्धी कहे जाने वाले चर्म-बद्ध के सहारे ढोल के मुँह पर लगाया जाता है। इन बद्धियों को तबले के नीचे एक दूसरे छल्ले से बाँधा जाता है और इसके बाद 16 छेद (घर) से समान दूरी पर बाँधा जाता है, जो हर समय पर इस वाद्य यंत्र को बराबर संतुलन देता है। इसमें आठ समस्वरण खंड (गट्टा) होते हैं, जिन्हें चर्म-बद्ध के प्रत्येक जोड़े के नीचे रखा जाता है, उन्हें ऊपर और नीचे करके तबले को सुरताल के अनुसार लयबद्ध किया जाता है। गोंद, कज्जल, कोयले के चूरे, और लोहे के बुरादे के मिश्रण से बनी स्याही (सात सेंटीमीटर व्यास वाली) होती है जो दायाँ पर बीच में और बायाँ पर बीच से थोड़ा बगल में लगाई जाती है। धुन की सीमा दायाँ के आकार पर निर्भर करती है। सामान्यतः गजरा पर एक छोटे से हथौड़े से प्रहार करके सुर-ताल को नियंत्रित किया जा सकता है। दायाँ को मूल स्वर (सा) पर बांधा जाता है, जिस पर प्रदर्शन आधारित होता है। तबला एक अरबी शब्द तब्ल से लिया गया है, जिसका अर्थ है एक सपाट सतह वाला ऊपर की ओर मुँह किया हुआ वाद्य यंत्र या ढोल। एक ऐसा ही ताल वाद्य यंत्र पहली बार 200 ईसा पूर्व महाराष्ट्र की भज गुफाओं की बौद्ध नक्काशी में देखा गया था। इस नकाशी को 1799 में खोजा गया, जिसमें दो महिलाओं को दर्शाया गया है, जिसमें से एक ढोल की एक जोड़ी बजा रही है, जबकि दूसरी उसकी ताल पर नाच रही है। ऐसा माना जाता है कि तबले का आविष्कार 13 वीं शताब्दी के सुफी कवि और संगीतकार अमीर खुसरो ने किया था, जिसे सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने संरक्षण दिया था। खुसरो ने तबला बनाने के लिए पखावज को दो भागों में काट दिया था। तबला बजाने में एक जटिल वादन तकनीक प्रयुक्त होती है। इसमें उंगलियों और हथेलियों का व्यापक उपयोग शामिल होता है जो विभिन्न ध्वनियों और लय की एक विस्तृत विविधता पैदा करता है जिसे निमोनिक सिलेबल्स (बोल) कहा जाता है। इसे दो तरह से बजाया जाता है - बंद बोल (ताली) और खुला बोल (खाली)। यह मुखर, वाद्य और नृत्य प्रदर्शन के लिए अक्सर एक संगत वाद्य यंत्र के रूप में उपयोग किया जाता है, हालांकि तबले ने हाल ही में एकल वाद्य का दर्जा भी हासिल कर लिया है। इसका कार्य उस मात्रिक चक्र को बनाए रखना है जिसमें संगीत/रचना को निर्धारित किया गया होता है। यह संगीत के विभिन्न शैलियों में प्रयुक्त होता है, जैसे - शास्त्रीय संगीत, क़व्वाली, भजन, कीर्तन, ग़ज़ल, लोक संगीत, इत्यादि। यह उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत का सबसे लोकप्रिय ताल वाद्य यंत्र है। यह दो ढोल से मिलकर बनता है - बाईं तरफ का 'बायाँ' कहलाता है जोकि मुलम्मा किए हुए तांबे से बनाया जाता है, और दाहिनी तरफ का ढोल 'दायाँ' कहलाता है जोकि लकड़ी से बना होता है। बाईं ओर एक छोटा गोलाकार ढोल होता है जो नगाड़े के आकार जैसा होता है। यह दाईं ओर के ढोल जितना ही लंबा होता है, लेकिन इसमें वादन सतह की चौड़ाई अधिक होती है और इसका तल दाएँ ढोल की तुलना में छोटा होता है। दोनों ढोलों की वादन सतहें बकरी की खाल से बनी होती है, जो ऊपरी तरफ फैली होती है। पूर्ण झिल्ली के ऊपर परिधि पर एक संकीर्ण झिल्ली होती है जिसको किनारा या चंटी कहा जाता है। पुड़ी या छावनी नामक चर्मपत्र एक गुंथी हुई पट्टी से बंधा होता है जिसे 'गजरा' कहा जाता है जो चार या पाँच चर्म-बद्धों से बना होता है। गजरे को ढोल के मुँह पर 'बद्धी' नामक चमड़े के पट्टों से लगाया जाता है, जो कि इस वाद्य यंत्र के निचले भाग में स्थित दूसरे छल्ले से बंधा होता है। इसमें सोलह छेद या 'घर' होते हैं, जिनमें बद्धियों को एकसमान दूरी पर बांधा जाता है। दाहिने ढोल में आठ समस्वरण खण्ड या 'गट्टे' होते हैं जिन्हें पुड़ी पर अलग-अलग तनाव डालने के लिए ऊपर या नीचे ले जाया जाता है। चर्मपत्र पर परतों में एक काला लेप लगाया जाता है, जिसे स्याही कहा जाता है। यह एकल प्रदर्शन और वाद्य संगीत के सामूहिक प्रदर्शन के लिए एक महत्वपूर्ण संगत वाद्य यंत्र होने के साथ ही एक एकल प्रदर्शन वाद्य यंत्र भी है।”
40-तयंबक-
तयंबक लकड़ी, कपड़े, और चमड़े से बना एक ताल वाद्य यंत्र है। यह मंदिर वाद्य यंत्र केरल में पाया जाता है। यह दो सिरों वाला ढोल होता है, और इसे अन्य वाद्य यंत्रों के साथ बजाया जाता है।
“एक मंदिर वाद्य यंत्र, तयंबक दो सिरों वाला ढोल होता है। बजाते समय, केवल एक ही हाथ में छड़ी होती है और दूसरे हाथ का उपयोग बिना किसी छड़ी के किया जाता है (केवल हथेली का उपयोग किया जाता है) । इस वाद्य यंत्र को धीमी गति से बजाना शुरू किया जाता है, और अंततः मध्यम तथा उच्च गति तक ले जाया जाता है। मंदिर के अलावा, इस ताल वाद्य यंत्र को रंगशालाओं के मंचों, खुले मैदानों या तमाशों के मैदानों में भी बजाया जाता है। यद्यपि तयंबक का ज़्यादातर उपयोग ऑर्केस्ट्रा प्रदर्शन में किया जाता है, लेकिन इसका उपयोग एकल वाद्य के रूप में भी किया जाता है। यह जोड़ी में भी बजाया जा सकता है जिसे द्वि-तयंबक कहा जाता है। यदि तीन वादक एक साथ बजाते हैं तो इसे त्रि-तयंबक कहा जाता है। इसके अलावा, अगर पांच वादक एक पंक्ति में एक साथ बजाते हैं तो इसे पंच तयंबक कहा जाता है। जिस बानगी में वादक इसे बजाता है वह मनोधर्म (आशुरचना) की पर्याप्त गुंजाइश प्रदान करता है।”
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