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मुंडन (चूड़ाकर्म) संस्कार विधि

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चूड़ाकर्म संस्कार – हिंदू धर्म में आठवां संस्कार मुंडन संस्कार होता है। यह संस्कार पहले या तीसरे साल में किया जाता है। चूड़ाकर्म संस्कार, जिसे “चौलकर्म’ भी कहा जाता है, केवल पुत्र संतति के लिए किया जाता है। इसका अर्थ है “शिशु का मुण्डन पूर्वक “शिखा’ ( चूड़ा ) का निर्धारण करना’। सभी हिंदू शास्रकारों ने इसका वर्णन किया है।

माना जाता है कि शिशु जब माता के गर्भ से बाहर आता है तो उस समय उसके केश अशुद्ध होते हैं। शिशु के केशों की अशुद्धि दूर करने की क्रिया ही चूड़ाकर्म संस्कार कही जाती है। दरअसल हमारा सिर में ही मस्तिष्क भी होता है इसलिये इस संस्कार को मस्तिष्क की पूजा करने का संस्कार भी माना जाता है। जातक का मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहे व वह अपने दिमाग को सकारात्मकता के साथ सार्थक रुप से उसका सदुपयोग कर सके यही चूड़ाकर्म संस्कार का उद्देश्य भी है। इस संस्कार से शिशु के तेज में भी वृद्धि होती है।

बाल कटवाने से शरीर की अनावश्यक गर्मी निकल जाती है, दिमाग व सिर ठंडा रहता है व बच्चों में दांत निकलते समय होने वाला सिर दर्द व तालु का कांपना बंद हो जाता है। शरीर पर और विशेषकर सिर पर विटामिन-डी (धूप के रूप) में पड़ने से कोशिकाएं जाग्रत होकर खून का प्रसारण अच्छी तरह कर पाती हैं जिनसे भविष्य में आने वाले केश बेहतर होते हैं।

कब करें- 
मनुस्मृति के अनुसार द्विजातियों को प्रथम अथवा तृतीय वर्ष में यह संस्कार करना चाहिये। अन्नप्राशन संस्कार के कुछ समय पश्चात प्रथम वर्ष के अंत में इस संस्कार को किया जा सकता है। लेकिन तीसरे वर्ष यह संस्कार किया जाये तो बेहतर रहता है। इसका कारण यह है कि शिशु का कपाल शुरु में कोमल रहता है जो कि दो-तीन साल की अवस्था के पश्चात कठोर होने लगता है। ऐसे में सिर के कुछ रोमछिद्र तो गर्भावस्था से ही बंद हुए होते हैं। चूड़ाकर्म यानि मुंडन संस्कार द्वारा शिशु के सिर की गंदगी, कीटाणु आदि दूर हो जाते हैं। इससे रोमछिद्र खुल जाते हैं और नये व घने मजबूत बाल आने लगते हैं। यह मस्तिष्क की रक्षा के लिये भी आवश्यक होता है। कुछ परिवारों में अपनी कुल परंपरा के अनुसार शिशु के जन्म के पांचवे या सातवें साल भी इस संस्कार को किया जाता है।

अधिकतर धर्मशास्रकारों ने इसे जन्म से तीसरे वर्ष में किये जाने का प्रस्ताव किया है, किंतु बौधा० ( 2/8 ), पार० गृ० सू० ( 2.1.1- 2 ) तथा मनु० (2.35 ) के अनुसार उसे जन्म के प्रथम या तृतीय वर्ष में संपन्न किया जाना चाहिए

लेकिन आश्व० गृ० सू० (1/17/1 पर नारायणी टीका ) तथा अन्य उत्तरकालीन “संस्कारप्रकाश’ आदि संस्कार पद्धतियों में कहा गया है कि चौल कर्म के लिए यद्यपि प्रथम, तृतीय या पंचम वर्षों को सर्वाधिक उपयुक्त समझा गया है

असुविधा होने पर इसे इससे पूर्व या बाद में अथवा उपनयन संस्कार के साथ भी किया जा सकता है। इसीलिए कई सामाजिक वर्गों में इसे उपनयन के साथ ही किये जाने की परिपाटी पायी जाती है।

कहां करें- 
उत्तर भारत में अधिकतर गंगा तट पर, दुर्गा मंदिरों के प्रांगण में तथा दक्षिण भारत में तिरुपति बालाजी मंदिर तथा गुरुजन देवता के मंदिरों में मुंडन संस्कार किया जाता है। संस्कार के बाद केशों को दो पुड़ियों के बीच रखकर जल में प्रवाहित कर दिया जाता है। कहीं-कहीं केश वैसे ही विसर्जित कर दिए जाते हैं। जब सूर्य मकर, कुंभ, मेष, वृष तथा मिथुन राशियों में हो, तब मुंडन शुभ माना जाता है। परंतु बड़े लड़के का मुंडन जब सूर्य वृष राशि पर हो और मां 5 माह की गर्भवती हो, तब उस वर्ष नहीं करना चाहिए।

गर्भाधान मतश्र्च पुंसवनकं सीमंत जातामिधे नामारण्यं सह निष्क्रमेण च तथा अन्नप्राशनं कर्म च।
चूड़ारण्यं व्रतबन्ध कोप्यथ चतुर्वेद व्रतानां पुरः, केशांतः सविसिर्गकः परिणयः स्यात षोडशी कर्मणाम्‌”॥

जन्म के पश्चात्‌ प्रथम वर्ष के अंत या फिर तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष की समाप्ति के पूर्व शिशु का मुंडन संस्कार करना आमतौर पर प्रचलित है क्योंकि हिंदू धर्म शास्त्र के अनुसार एक वर्ष से कम उम्र में मुंडन करने से शिशु के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। साथ ही अमंगल होने का भय बना रहता है।

कुल परंपरा के अनुसार मुंडन संस्कार- 
कुल परंपरा के अनुसार प्रथम, तृतीय, पंचम या सप्तम वर्ष में भी मुंडन संस्कार करने का विधान है। शास्त्रीय एवं पौराणिक मान्यताएं यह हैं कि शिशु के मस्तिष्क को पुष्ट करने, बुद्धि में वृद्धि करने तथा गर्भावस्था की अशुचियों को दूर कर मानवतावादी आदर्शों हेतु मुंडन संस्कार किया जाता है। इसका उद्देश्य बुद्धि, विद्या, बल, आयु और तेज की वृद्धि करना है।

देवस्थान और तीर्थ स्थल पर मुंडन का महत्व- 
मुंडन संस्कार किसी देवस्थल या तीर्थ स्थल पर इसलिए कराया जाता है कि उस स्थल के दिव्य वातावरण का लाभ शिशु को मिले तथा उसके मन में सुविचारों की उत्पत्ति हो।

मुंडन संस्कार से दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है। शिशु सुंदर तथा कल्याणकारी कार्यों की ओर प्रवृत्त होने वाला बनता है।

तेन ते आयुषे वयामि सुश्लोकाय स्वस्तये”। आश्वलायन गृह्यसूत्र 1/17/12

जिस शिशु का मुंडन संस्कार सही समय एवं शुभ मुहूर्त में नहीं किया जाता है उसमें बौद्धिक विकास एवं तेज शक्ति का अभाव पाया जाता है। इसलिए शिशु का मुंडन शास्त्रीय विधि से अवश्य किया जाना चाहिए।

यजुर्वेद तो यहां तक कहता है कि दीर्घायु के लिये, अन्न ग्रहण करने में सक्षम करने, उत्पादकता के लिये, ऐश्वर्य के लिये, सुंदर संतान, शक्ति व पराक्रम के लिये चूड़ाकर्म अर्थात मुंडन संस्कार करना चाहिये।

नि वर्त्तयाम्यायुषेड्न्नाद्याय प्रजननाय।
रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय॥

अर्थात हे बालक! मैं तेरी दीर्घायु के लिए, तुझे अन्न-ग्रहण करने में समर्थ बनाने के लिए, उत्पादन शाक्ति प्राप्ति के लिए, ऐश्वर्य वृद्धि के लिए, सुंदर संतान के लिए एवं बल तथा पराक्रम प्राप्ति के योग्य होने के लिए तेरा चूडाकर्म संस्कार (मूडंन) करता हूं।

संस्कार कर्म -
सर्व प्रथम शिशु अथवा बालक को गोद में लेकर उसका चेहरा हवन की अग्नि के पश्चिम में किया जाता है। पहले कुछ केश पंडित के हाथ से और फिर नाई द्वारा काटे जाते हैं। इस अवसर पर गणेश पूजन, हवन, आयुष्य होम आदि पंडित जी से करवाया जाता है। फिर बाल काटने वाले को, पंडित आदि को आरती के पश्चात्‌ भोजन व दान दक्षिणा दी जाती है।

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