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विवाह संस्कार

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विवाह संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में ‘पंचदश संस्कार’ है। स्नातकोत्तर जीवन विवाह का समय होता है, अर्थात् विद्याध्ययन के पश्चात् विवाह करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना होता है। यह संस्कार पितृ ऋण से उऋण होने के लिए किया जाता है। मनुष्य जन्म से ही तीन ऋणों से बंधकर जन्म लेता है- ‘देव ऋण’, ‘ऋषि ऋण’ और ‘पितृ ऋण’। इनमें से अग्रिहोत्र अर्थात यज्ञादिक कार्यों से देव ऋण, वेदादिक शास्त्रों के अध्ययन से ऋषि ऋण और विवाहित पत्नी से पुत्रोत्पत्ति आदि के द्वारा पितृ ऋण से उऋण हुआ जाता है।

हिन्दू धर्म में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है। विवाह दो शब्दों से मिलकर बना है- वि + वाह। अत: इसका शाब्दिक अर्थ है- “विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना”। ‘पाणिग्रहण संस्कार’ को सामान्य रूप से ‘हिन्दू विवाह’ के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है, जिसे विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है। परंतु हिन्दू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है, जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिन्दू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक सम्बन्ध से अधिक आत्मिक सम्बन्ध होता है और इस सम्बन्ध को अत्यंत पवित्र माना गया है।

सृष्टि के आरंभ में विवाह जैसी कोई प्रथा नहीं थी। कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से यौन-संबध बनाकर संतान उत्पन्न कर सकता था। पिता का ज्ञान न होने से मातृपक्ष को ही प्रधानता थी तथा संतान का परिचय माता से ही दिया जाता था। यह व्यवस्था वैदिक काल तक चलती रही। इस व्यवस्था को परवर्ती[2] काल में ऋषियों ने चुनौती दी तथा इसे पाशाविक संबध मानते हुए नये वैवाहिक नियम बनाए। ऋषि श्वेतकेतु का एक संदर्भ वैदिक साहित्य में आया है कि उन्होंने मर्यादा की रक्षा के लिए विवाह प्रणाली की स्थापना की और तभी से कुटुंब-व्यवस्था का श्री गणेश हुआ। आजकल बहुप्रचलित और वेदमंत्रों द्वारा संपन्न होने वाले विवाहों को ‘ब्राह्मविवाह’ कहते हैं।

विवाह कि धार्मिक महत्ता पर मनु ने लिखा है –

दश पूर्वांन् परान्वंश्यान् आत्मनं चैकविंशकम्।
ब्राह्मीपुत्रः सुकृतकृन् मोचये देनसः पितृन्।।

अर्थात ‘ब्राह्मविवाह’ से उत्पन्न पुत्र अपने कुल की 21 पीढ़ियों को पाप मुक्त करता है- 10 अपने आगे की, 10 अपने से पीछे और एक स्वयं अपनी। भविष्यपुराण में लिखा है कि जो लडकी को अलंकृत कर ब्राह्मविधि से विवाह करते हैं, वे निश्चय ही अपने सात पूर्वजों और सात वंशजों को नरकभोग से बचा लेते हैं।

आश्वलायन ने तो यहाँ तक लिखा है की इस विवाह विधि से उत्पन्न पुत्र बारह पूर्वजों और बारह अवरणों को पवित्र करता है –

तस्यां जातो द्धादशावरन् द्धादश पूर्वान् पुनाति।

भारतीय-संस्कृति में अनेक प्रकार के विवाह प्रचलित रहे है। मनुस्मृति के अनुसार विवाह-ब्राह्म, देव, आर्ष, प्राजापत्य, असुर, गंधर्व, राक्षस और पैशाच 8 प्रकार के होते हैं। उनमें से प्रथम 4 श्रेष्ठ और अंतिम 4 क्रमशः निकृष्ट माने जाते हैं। विवाह के लाभों में यौनतृप्ति, वंशवृद्धि, मैत्रीलाभ, साहचर्य सुख, मानसिक रुप से परिपक्वता, दीर्घायु, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति प्रमुख है। इसके अलावा समस्याओं से जूझने की शक्ति और प्रगाढ प्रेम संबध से परिवार में सुख-शांति मिलती है। इस प्रकार विवाह-संस्कार सारे समाज के एक सुव्यवस्थित तंत्र का स्तम्भ है।

विवाह संस्कार के निम्नलिखित चरणों का उल्लेख ‘गृह्यसूत्रों’ में मिलता है -
  • पहले वर पक्ष के लोग कन्या के घर जाते थे।
  • जब कन्या का पिता अपनी स्वीकृति दे देता था, तो वर यज्ञ करता था।
  • विवाह के दिन प्रातः वधू को स्नान कराया जाता था।
  • वधू के परिवार का पुरोहित यज्ञ करता था और चार या आठ विवाहित स्रियाँ नृत्य करती थीं।
  • वर कन्या के घर जाकर उसे वस्र, दपंण और उबटन देता था।
  • कन्या औपचारिक रुप से वर को दी जाती थी। ( कन्यादान )
  • वर अपने दाहिने हाथ से वधू का दाहिना हाथ पकड़ता था। ( पाणिग्रहण )
  • पाषाण शिला पर पैर रखना।
  • वर का वधू को अग्नि के चारों ओर प्रदक्षिणा कराना। ( अग्नि परिणयन )
  • खीलों का होम। ( लाजा- होम )
  • वर- वधू का साथ- साथ सात कदम चलना ( सप्त- पदी ), जिसका अभिप्राय था कि वे जीवन- भर मिलकर कार्य करेंगे। अंत में वर, वधू को अपने घर ले जाता था।

विवाह संस्कार के सात वचन… विवाह के बाद कन्या वर से वचन लेती है कि –

पहला वचन-

तीर्थव्रतोद्यापनयज्ञ दानं मया सह त्वं यदि कान्तकुर्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद वाक्यं प्रथमं कुमारी।।

इस श्लोक के अनुसार कन्या कहती है कि स्वामि तीर्थ, व्रत, उद्यापन, यज्ञ, दान आदि सभी शुभ कर्म तुम मेरे साथ ही करोगे तभी मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हैं अर्थात् तुम्हारी पत्नी बन सकती हूं। वाम अंग पत्नी का स्थान होता है।

दूसरा वचन-

हव्यप्रदानैरमरान् पितृश्चं कव्यं प्रदानैर्यदि पूजयेथा:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं द्वितीयकम्।।

इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम हव्य देकर देवताओं को और कव्य देकर पितरों की पूजा करोगे तब ही मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।

तीसरा वचन-

कुटुम्बरक्षाभरंणं यदि त्वं कुर्या: पशूनां परिपालनं च।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं तृतीयम्।।

इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम मेरी तथा परिवार की रक्षा करो तथा घर के पालतू पशुओं का पालन करो तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।

चौथा वचन-

आयं व्ययं धान्यधनादिकानां पृष्टवा निवेशं प्रगृहं निदध्या:।।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं चतुर्थकम्।।

चौथे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि तुम धन-धान्य आदि का आय-व्यय मेरी सहमति से करो तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हैं अर्थात् पत्नी बन सकती हूं।

पांचवां वचन-

देवालयारामतडागकूपं वापी विदध्या:यदि पूजयेथा:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं पंचमम्।।

पांचवे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि तुम यथा शक्ति देवालय, बाग, कूआं, तालाब, बावड़ी बनवाकर पूजा करोगे तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूं अर्थात् पत्नी बन सकती हूं।

छठा वचन-

देशान्तरे वा स्वपुरान्तरे वा यदा विदध्या:क्रयविक्रये त्वम्।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं षष्ठम्।।

इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम अपने नगर में या विदेश में या कहीं भी जाकर व्यापार या नौकरी करोगे और घर-परिवार का पालन-पोषण करोगे तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।

सातवां और अंतिम वचन-

न सेवनीया परिकी यजाया त्वया भवेभाविनि कामनीश्च।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं सप्तम्।।

इस श्लोक के अनुसार सातवां और अंतिम वचन यह है कि कन्या वर से कहती है यदि तुम जीवन में कभी पराई स्त्री को स्पर्श नहीं करोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं। शास्त्रों के अनुसार पत्नी का स्थान पति के वाम अंग की ओर यानी बाएं हाथ की ओर रहता है। विवाह से पूर्व कन्या को पति के सीधे हाथ यानी दाएं हाथ की ओर बिठाया जाता है और विवाह के बाद जब कन्या वर की पत्नी बन जाती है जब वह बाएं हाथ की ओर बिठाया जाता है।

वरके कथनीय पाँच वचन-
कन्या के उपर्युक्त सात वचन कहनेपर वर भी पाँच वचन कहत है । जो निम्नलिखित हैं -

क्रीडाशरीरसंस्कारसमाजोत्सवदर्शनम् हास्यं परगृहे यानं त्यजेत् प्रोषितभर्तृका ॥१ ॥ पहला वचन-

जबतक मैं घर पर रहूँ , तबतक तुम क्रीडा , आमोद - प्रमोद करो , शरीरमें उबटन , तेल लगाकर चोटी गूंथो , सामाजिक उत्सवोंमें जाओ , हँसी - मजाक करो , दूसरेके घर सखी - सहेलीसे मिलने जाओ , परंतु जब मैं घरपर न रहूँ , परदेसमें रहूँ , तब इन सभी व्यवहारोंको छोड़ देना चाहिये ॥१ ॥

विष्णुर्वैश्वानरः साक्षी ब्राह्मणज्ञातिबान्धवाः । पञ्चमं ध्रुवमालोक्य ससाक्षित्वं ममागताः ॥२ ॥ दूसरा वचन-

विष्णु , अग्नि , ब्राह्मण , स्वजातीय भाई - बन्धु और पाँचवें ध्रुव ( ध्रुवतारा ) -ये सभी मेरे साक्षी हैं ॥२ ॥

तव चित्त मम चित्ते वाचा वाच्यं न लोपयेत् । व्रते मे सर्वदा देयं हृदयस्थं वरानने ॥३ ॥ तीसरा वचन-
हे सुमुखि ! हमारे चित्तके अनुकूल तुम्हें अपना चित्त रखना चाहिये । अपनी वाणीसे मेरे वचनोंका उल्लंघन नहीं करना चाहिये । जो कुछ मैं कहूँ , उसको सदा अपने हृदयमें रखना चाहिये । इस प्रकार तुम्हें मेरे पातिव्रत्यका पालन करना चाहिये ॥३ ॥

मम तुष्टिश्च कर्तव्या बन्धूनां भक्तिरादरात् । ममाज्ञा परिपाल्यैषा पातिव्रतपरायणे ॥४ ॥ चौथा वचन-

मुझे जिस प्रकार सन्तोष हो , वही कार्य तुम्हें करना चाहिये । हमारे भाई - बन्धुओंके प्रति आदरके साथ भक्ति - भाव रखना चाहिये । हे पातिव्रतधर्मका पालन करनेवाली ! मेरी इस आज्ञाका पालन करना होगा ॥४ ॥

विना पत्नी कथं धर्म आश्रमाणां प्रवर्तते । तस्मात्त्वं मम विश्वस्ता भव वामाङ्गगामिनि ॥५ ॥ पांचवां वचन-

बिना पत्नीके गृहस्थ धर्मका पालन नहीं हो सकता , अतः तुम मेरे विश्वासका पात्र बनो । अब तुम मेरी वामांगी बनो अर्थात् मेरी पत्नी बनो ॥५ ॥

एक महत्त्वपूर्ण वचन-
कन्याके सप्तपदीके वचनके उपरान्त वर एक वचन कहता है , जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं मननीय है । वर कहता है -

मदीयचित्तानुगतञ्च चित्तं सदा मदाज्ञापरिपालनं च । पतिव्रताधर्मपरायणा त्वं कुर्याः सदा सर्वमिदं प्रयत्नम् ।
मेरे चित्तके अनुसार तुम्हारा चित्त होना चाहिये । तुम्हें मेरी आज्ञाका सदा पालन करना चाहिये । पातिव्रतका पालन करती हुई धर्मपरायण बनो , यह तुम्हें प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ।

सप्तपदी
दिशा और प्रेरणा
फेरे फिर लेने के उपरान्त सप्तपदी की जाती है। सात बार वर-वधू साथ-साथ कदम से कदम मिलाकर फौजी सैनिकों की तरह आगे बढ़ते हैं। सात चावल की ढेरी या कलावा बँधे हुए सकोरे रख दिये जाते हैं, इन लक्ष्य-चिह्नों को पैर लगाते हुए दोनों एक-एक कदम आगे बढ़ते हैं, रुक जाते हैं और फिर अगला कदम बढ़ाते हैं। इस प्रकार सात कदम बढ़ाये जाते हैं। प्रत्येक कदम के साथ एक-एक मन्त्र बोला जाता है।

पहला कदम अन्न के लिए, दूसरा बल के लिए, तीसरा धन के लिए, चौथा सुख के लिए, पाँचवाँ परिवार के लिए, छठवाँ ऋतुचर्या के लिए और सातवाँ मित्रता के लिए उठाया जाता है। विवाह होने के उपरान्त पति-पतनी को मिलकर सात कायर्क्रम अपनाने पड़ते हैं। उनमें दोनों का उचित और न्याय संगत योगदान रहे, इसकी रूपरेखा सप्तपदी में निधार्रित की गयी है।

प्रथम कदम : अन्न वृद्धि के लिए है। आहार स्वास्थ्यवर्धक हो, घर में चटोरेपन को कोई स्थान न मिले। रसोई में जो बने, वह ऐसा हो कि स्वास्थ्य रक्षा का प्रयोजन पूरा करे, भले ही वह स्वादिष्ट न हो। अन्न का उत्पादन, अन्न की रक्षा, अन्न का सदुपयोग जो कर सकता है, वही सफल गृहस्थ है। अधिक पका लेना, जूठन छोड़ना, बतर्न खुले रखकर अन्न की चूहों से बबार्दी कराना, मिचर्-मसालो की भरमार उसे तमोगुणी बना देना, स्वच्छता का ध्यान न रखना, आदि बातों से आहार पर बहुत खर्च करते हुए भी स्वास्थ्य नष्ट होता है, इसलिए दाम्पत्य जीवन का उत्तरदायित्व यह है कि आहार की सात्त्विकता का समुचित ध्यान रखा जाए।

दूसरा कदम : शारीरिक और मानसिक बल की वृद्धि के लिए है। व्यायाम, परिश्रम, उचित एवं नियमित आहार-विहार से शरीर का बल स्थिर रहता है। अध्ययन एवं विचार-विमर्श से मनोबल बढ़ता है। जिन प्रयतनों से दोनों प्रकार के बल बढें, दोनों अधिक समर्थ, स्वस्थ एवं सशक्त बनें-उसका उपाय सोचते रहना चाहिए।

तीसरा कदम : धन की वृद्धि के लिए है। अर्थ व्यवस्था बजट बनाकर चलाई जाए। अपव्यय में कानी कौड़ी भी नष्ट न होने पाए। उचित कार्यों में कंजूसी न की जाए- फैशन, व्यसन, शेखीखोरी आदि के लिए पैसा खर्च न करके उसे पारिवारिक उन्नति के लिए सँभालकर, बचाकर रखा जाए। उपार्जन के लिए पति-पत्नी दोनों ही प्रयतन करें। पुरुष बाहर जाकर कृषि, व्यवसाय, नौकरी आदि करते हैं, तो स्त्रियाँ सिलाई, धुलाई, सफाई आदि करके इस तरह की कमाई करती हैं। उपार्जन पर जितना ध्यान रखा जाता है, खर्च की मर्यादाओं का भी वैसा ही ध्यान रखते हुए घर की अर्थव्यवस्था सँभाले रहना दाम्पत्य जीवन का अनिवार्य कत्तर्व्य है।

चौथा कदम : सुख की वृद्धि के लिए है। विश्राम, मनोरंजन, विनोद, हास-परिहास का ऐसा वातावरण रखा जाए कि गरीबी में भी अमीरी का आनन्द मिले। दोनों प्रसन्नचित्त रहें। मुस्कराने की आदत डालें, हँसते-हँसाते जिन्दगी काटें। चित्त को हलका रखें, 'सन्तोषी सदा सुखी' की नीति अपनाएँ।

पाँचवाँ कदम : परिवार पालन का है। छोटे बड़े सभी के साथ समुचित व्यवहार रखा जाए। आश्रित पशुओं एवं नौकरों को भी परिवार माना जाए, इस सभी आश्रितों की समुचित देखभाल, सुरक्षा, उन्नति एवं सुख-शान्ति के लिए सदा सोचने और करने में लापरवाही न बरती जाए।

छठा कदम : ऋतुचर्या का है। सन्तानोत्पादन एक स्वाभाविक वृत्ति है, इसलिए दाम्पत्य जीवन में उसका भी एक स्थान है, पर उस सम्बन्ध में मयार्दाओं का पूरी कठोरता एवं सतर्कता से पालन किया जाए, क्योंकि असंयम के कारण दोनों के स्वास्थ्य का सर्वनाश होने की आशंका रहती है, गृहस्थ में रहकर भी ब्रह्मचर्य का समुचित पालन किया जाए। दोनों एक दूसरे का भी सहयोगी मित्र की दृष्टि से देखें, कामुकता के सर्वनाशी प्रसंगों को जितना सम्भव हो, दूर रखा जाए। सन्तान उत्पन्न करने से पूर्व हजार बार विचार करें कि अपनी स्थिति सन्तान को सुसंस्कृत बनाने योग्य है या नहीं। उस मर्यादा में सन्तान उत्पन्न करने की जिम्मेदारी वहन करें।

सातवाँ कदम : मित्रता को स्थिर रखने एवं बढ़ाने के लिए है। दोनों इस बात पर बारीकी से विचार करते रहें कि उनकी ओर से कोई त्रुटि तो नहीं बरती जा रही है, जिसके कारण साथी को रुष्ट या असंतुष्ट होने का अवसर आए। दूसरा पक्ष कुछ भूल भी कर रहा हो, तो उसका उत्तर कठोरता, कर्कशता से नहीं, वरन् सज्जनता, सहृदयता के साथ दिया जाना चाहिए, ताकि उस महानता से दबकर साथी को स्वतः ही सुधरने की अन्तःप्रेरणा मिले। बाहर के लोगों के साथ, दुष्टों के साथ दुष्टता की नीति किसी हद तक अपनाई जा सकती है, पर आत्मीयजनों का हृदय जीतने के लिए उदारता, सेवा, सौजन्य, क्षमा जैसे शस्त्र की काम में लाये जाने चाहिए।

सप्तपदी में सात कदम बढ़ाते हुए इन सात सूत्रों को हृदयंगम करना पड़ता है। इन आदर्शों और सिद्धान्तों को यदि पति-पत्नी द्वारा अपना लिया जाए और उसी मार्ग पर चलने के लिए कदम से कदम बढ़ाते हुए अग्रसर होने की ठान ली जाए, तो दाम्पत्य जीवन की सफलता में कोई सन्देह ही नहीं रह जाता।

क्रिया और भावना
वर-वधू खड़े हों। प्रत्येक कदम बढ़ाने से पहले देव शक्तियों की साक्षी का मन्त्र बोला जाता है, उस समय वर-वधू हाथ जोड़कर ध्यान करें। उसके बाद चरण बढ़ाने का मन्त्र बोलने पर पहले दायाँ कदम बढ़ाएँ। इसी प्रकार एक-एक करके सात कदम बढ़ाये जाएँ। भावना की जाए कि योजनाबद्ध-प्रगतिशील जीवन के लिए देव साक्षी में संकल्पित हो रहे हैं, संकल्प और देव अनुग्रह का संयुक्त लाभ जीवन भर मिलता रहेगा।

(१) अन्न वृद्धि के लिए पहली साक्षी- ॐ एको विष्णुजर्गत्सवर्ं, व्याप्तं येन चराचरम्। हृदये यस्ततो यस्य, तस्य साक्षी प्रदीयताम्॥ पहला चरण- ॐ इष एकपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥१

(२) बल वृद्धि के लिए दूसरी साक्षी- ॐ जीवात्मा परमात्मा च, पृथ्वी आकाशमेव च। सूयर्चन्द्रद्वयोमर्ध्ये, तस्य साक्षी प्रदीयताम्॥२ दूसरी चरण- ॐ ऊजेर् द्विपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥२

(३) धन वृद्धि के लिए तीसरी साक्षी- ॐ त्रिगुणाश्च त्रिदेवाश्च, त्रिशक्तिः सत्परायणाः। लोकत्रये त्रिसन्ध्यायाः, तस्य साक्षी प्रदीयताम्। तीसरा चरण- ॐ रायस्पोषाय त्रिपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥३

(४) सुख वृद्धि के लिए चौथी साक्षी- ॐ चतुमर्ुखस्ततो ब्रह्मा, चत्वारो वेदसंभवाः। चतुयुर्गाः प्रवतर्न्ते, तेषां साक्षी प्रदीयताम्। चौथा चरण- ॐ मायो भवाय चतुष्पदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥४

(५) प्रजा पालन के लिए पाँचवी साक्षी- ॐ पंचमे पंचभूतानां, पंचप्राणैः परायणाः। तत्र दशर्नपुण्यानां, साक्षिणः प्राणपंचधाः॥ पाँचवाँ चरण- ॐ प्रजाभ्यां पंचपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥५

(६) ऋतु व्यवहार के लिए छठवीं साक्षी- ॐ षष्ठे तु षड्ऋतूणां च, षण्मुखः स्वामिकातिर्कः। षड्रसा यत्र जायन्ते, कातिर्केयाश्च साक्षिणः॥ छठवाँ चरण- ॐ ऋतुभ्यः षट्ष्पदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥६

(७) मित्रता वृद्धि के लिए सातवीं साक्षी- ॐ सप्तमे सागराश्चैव, सप्तद्वीपाः सपवर्ताः। येषां सप्तषिर्पतनीनां, तेषामादशर्साक्षिणः॥ सातवाँ चरण- ॐ सखे सप्तपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥ ७- पार०गृ०सू० १.८.१-२, आ०गृ०सू० १.७.१९

आसन परिवतर्न
सप्तपदी के पश्चात् आसन परिवतर्न करते हैं। तब तक वधू दाहिनी ओर थी अर्थात् बाहरी व्यक्ति जैसी स्थिति में थी। अब सप्तपदी होने तक की प्रतिज्ञाओं में आबद्ध हो जाने के उपरान्त वह घर वाली अपनी आत्मीय बन जाती है, इसलिए उसे बायीं ओर बैठाया जाता है। बायें से दायें लिखने का क्रम है। बायाँ प्रथम और दाहिना द्वितीय माना जाता है। सप्तपदी के बाद अब पत्नी को प्रमुखता प्राप्त हो गयी। लक्ष्मी-नारायण्, उमा-महेश, सीता-राम, राधे-श्याम आदि नामों में पत्नी को प्रथम, पति को द्वितीय स्थान प्राप्त है। दाहिनी ओर से वधू का बायीं ओर आना, अधिकार हस्तांतरण है। बायीं ओर के बाद पतनी गृहस्थ जीवन की प्रमुख सूत्रधार बनती है।

ॐ इह गावो निषीदन्तु, इहाश्वा इह पूरुषाः।
इहो सहस्रदक्षिणो यज्ञ, इह पूषा निषीदतु॥ - पा०गृ०सू० १.८.१०

पाद प्रक्षालन
आसन परिवतर्न के बाद गृहस्थाश्रम के साधक के रूप में वर-वधू का सम्मान पाद प्रक्षालन करके किया जाता है। कन्या पक्ष की ओर प्रतिनिधि स्वरूप कोई दम्पति या अकेले व्यक्ति पाद प्रक्षालन करे। पाद प्रक्षालीन करने वालों का पवित्रीकरण-सिंचन किया जाए। हाथ में हल्दी, दूवार्, थाली में जल लेकर प्रक्षालन करें। प्रथम मन्त्र के साथ तीन बार वर-वधू के पैर पखारें, फिर दूसरे मन्त्र के साथ यथा श्रद्धा भेंट दें।

ॐ या ते पतिघ्नी प्रजाध्नी पशुघ्नी, गृहघ्नी यशोघ्नी निन्दिता, तनूजार्रघ्नीं ततऽएनांकरोमि, सा जीयर् त्वां मया सह॥ - पार०गृ०सू० १.११

ॐ ब्रह्मणा शालां निमितां, कविभिनिर्मितां मिताम्। इन्द्राग्नी रक्षतां शालाममृतौ सोम्यं सदः॥ - अथवर्० ९.३.१९

ध्रुव-सूर्य ध्यान
ध्रुव स्थिर तारा है। अन्य सब तारागण गतिशील रहते हैं, पर ध्रुव अपने निश्चित स्थान पर ही स्थिर रहता है। अन्य तारे उसकी परिक्रमा करते हैं। ध्रुव दर्शन का अर्थ है- दोनों अपने-अपने परम पवित्र कर्त्तव्यों पर उसी तरह दृढ़ रहेंगे, जैसे कि ध्रुव तारा स्थिर है। कुछ कारण उत्पन्न होने पर भी इस आदर्श से विचलित न होने की प्रतिज्ञा को निभाया जाए, व्रत को पाला जाए और संकल्प को पूरा किया जाए। ध्रुव स्थिर चित्त रहने की ओर, अपने कर्त्तव्यों पर दृढ़ रहने की प्रेरणा देता है। इसी प्रकार सूर्य की अपनी प्रखरता, तेजस्विता, महत्ता सदा स्थिर रहती है। वह अपने निधार्रित पथ पर ही चलता है, यही हमें करना चाहिए। यही भावना पति-पत्नी करें।

सूर्य ध्यान (दिन में)
ॐ तच्चक्षुदेर्वहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं, जीवेम शरदः शतं, शृणुयाम शरदः शतं, प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः, स्याम शरदः शतं, भूयश्च शरदः शतात्। - ३६.२४

ध्रुव ध्यान (रात में) ॐ ध्रुवमसि ध्रुवं त्वा पश्यामि, ध्रुवैधि पोष्ये मयि। मह्यं त्वादात् बृहस्पतिमर्यापत्या, प्रजावती संजीव शरदः शतम्। - पार०गृ०सू० १.८.१९

शपथ आश्वासन
पति-पत्नी एक दूसरे के सिर पर हाथ रखकर समाज के सामने शपथ लेते हैं, एक आश्वासन देकर अन्तिम प्रतिज्ञा करते हैं कि वे निस्संदेह निश्चित रूप से एक-दूसरे को आजीवन ईमानदार, निष्ठावान् और वफादार रहने का विश्वास दिलाते हैं। पिछले दिनों पुरुषों का व्यवहार स्त्रियों के साथ छली-कपटी और विश्वासघातियों जैसा रहा है। रूप, यौवन के लोभ में कुछ दिन मीठी बातें करते हैं, पीछे क्रूरता एवं दुष्टता पर उतर आते हैं। पग-पग पर उन्हें सताते और तिरस्कृत करते हैं। प्रतिज्ञाओं को तोड़कर आर्थिक एवं चारित्रिक उच्छृंखलता बरतते हैं और पत्नी की इच्छा की परवाह नहीं करते। समाज में ऐसी घटनाएँ कम घटित नहीं होतीं। ऐसी दशा में ये प्रतिज्ञाएँ औपचारिकता मात्र रह जाने की आशंका हो सकती है। सन्तान न होने पर लड़कियाँ होने पर लोग दूसरा विवाह करने पर उतारू हो जाते हैं। पति सिर पर हाथ रखकर कसम खाता है कि दूसरे दुरात्माओं की श्रेणी में उसे न गिना जाए। इस प्रकार पत्नी भी अपनी निष्ठा के बारे में पति को इस शपथ-प्रतिज्ञा द्वारा विश्वास दिलाती है।

ॐ मम व्रते ते हृदयं दधामि, मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु।
मम वाचमेकमना जुषस्व, प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्। - पार०गृ०सू०१.८.८ ॥

सुमंगली-सिन्दूरदान
मन्त्र के साथ वर अँगूठी से वधू की माँग में सिन्दूर तीन बार लगाए। भावना करें कि मैं वधू के सौभाग्य को बढ़ाने वाला सिद्ध होऊँ-
ॐ सुमंगलीरियं वधूरिमा समेत पश्यत। सौभाग्यमस्यै दत्त्वा याथास्तं विपरेतन।
सुभगा स्त्री सावित्र्याास्तव सौभाग्यं भवतु। -पार०गृ०सू० १.८.९

मंगल तिलक
वधू वर को मंगल तिलक करे। भावना करे कि पति का सम्मान करते हुए गौरव को बढ़ाने वाली सिद्ध होऊ
‍ॐ स्वस्तये वायुमुपब्रवामहै, सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः।
बृहस्पतिं सवर्गणं स्वस्तये, स्वस्तयऽ आदित्यासो भवन्तु नः॥ -ऋ० ५.५१.१२

इसके पश्चात् स्विष्टकृत होम, पूणार्हुति, वसोधार्रा, आरती, घृत-अवघ्राण, भस्म धारण, क्षमा प्रार्थना आदि कृत्य सम्पन्न करें।

अभिषेक सिंचन वर-कन्या को बिठाकर कलश का जल लेकर उनका सिंचन किया जाए। भावना की जाए कि जो सुसंस्कार बोये गये हैं, उन्हें दिव्यजल से सिंचित किया जा रहा है। सबके सद्भाव से उनका विकास होगा और सफलता-कुशलता के कल्याणप्रद सुफल उनमें लगेंगे। पुष्प वर्षा के रूप में सभी अपनी शुभकामनाएँ-आश्शीवार्द प्रदान करें-

गणपतिः गिरिजा वृषभध्वजः, षण्मुखो नन्दीमुखडिमडिमा।
मनुज-माल-त्रिशूल-मृगत्वचः, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥१॥
रविशशी-कुज इन्द्र-जगत्पतिः, भृगुज-भानुज-सिन्धुज-केतवः।
उडुगणा-तिथि-योग च राशयः, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥२॥
वरुण-इन्द्र कुबेर-हुताशनाः, यम-समीरण-वारण-कंुजराः।
सुरगणाः सुराश्च महीधराः, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥३॥
सुरसरी-रविनन्दिनि-गोमती, सरयुतामपि सागर-घघर्रा।
कनकयामयि-गण्डकि-नमर्दा, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥४॥
हरिपुरी-मथुरा च त्रिवेणिका, बदरि-विष्णु-बटेश्वर-कौशला।
मय-गयामपि-ददर्र-द्वारका, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥५॥
भृगुमुनिश्च पुलस्ति च अंगिरा, कपिलवस्तु-अगस्त्य च नारदः।
गुरुवशिष्ठ -सनातन-जैमिनी, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥६॥
ऋग्वेदोऽथ यजुवेर्दः, सामवेदो ह्यथवर्णः। रक्षन्तु चतुरो वेदा, यावच्चन्द्रदिवाकरौ॥

इसके बाद विसजर्न और आशीवचर्न के पुष्प प्रदान कर कृत्य समाप्त किया जाए।

वर-वधू के तीन रात पालनीय नियम-
01-विवाह के बाद तीन दिन तक क्षार तथा लवण रहित भोजन करे।
02-भूमि पर शयन करे।
03-एक साथ शयन न करे।

विवाह के प्रकार- 
मनु आदि पुरातन स्मृतिकारों के द्वारा पुरातन काल में विभिन्न जातियों में प्रचलित अनेक वैवाहिक प्रथाओं में से, जिन आठ को मान्यता प्रदान की थी, वे थीं ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच तथा च सामाजिक स्तर पर इनकी वरीयता का क्रम भी यही स्वीकार किया गया था। विवाह की इन सभी विधाओं को मनु जैसे कट्टरपंथी स्मृतिकार के द्वारा मान्यता दिया जाना। इस तथ्य का द्योतक है कि उस समय भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में यह सभी विधाएँ न्यूनाधिक मात्रा में प्रचलित थीं तथा इन आठ प्रकारों में से प्रथम चार को ब्राह्मण वर्ग के लिए, इनके अतिरिक्त राक्षस को ( तथा गांधर्व को ) क्षत्रिय के लिए एवं आसुर को वैश्य तथा क्षुद्र वर्गों के लिए भी मान्यता दी गयी थी, किंतु साथ ही पैशाच तथा आसुर को आर्यों के किसी भी वर्ग के लिए उचित नहीं माना गया है। संभवतः इसलिए कि ये दोनों ही विधाएँ अनार्य वर्गीय समाज से संबंधित थी। विभिन्न धर्मशास्रीय ग्रंथों में इनके रुपों तथा वरीयता क्रम में अंतर पाया जाता है। आश्व. ( 1/6 ) में पैशाच को राक्षस से पूर्व रखा है। मानव गृ. सू. में केवल ब्राह्म और शौल्क आसुर के ही नाम लिए हैं। आप. ध. सू. ( 2 / 5 / 11 – 20 ) में केवल छः प्रकार ही बताए हैं, प्रजापत्य और पैशाच को छोड़ दिया है। मनु. (3/27- 34 ) ने इनके रुपों- विधाओं को जिन रुपों में व्याख्यायित किया है, वे कुछ इस प्रकार हैं :-

  • ब्राह्म : इसमें कन्या का पिता किसी विद्वान् तथा सदाचारी वर को स्वयं आमंत्रित करके उसे वस्रालंकारों से सुसज्जित कन्या, विधि- विधान सहित प्रदान करता था।
  • दैव : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता उसे वस्रालंकारों से सुसज्जित कर किसी ऐसे व्यक्ति को विधि- विधान सहित प्रदान करता था, जो कि याज्ञिक अर्थात् यज्ञादि कर्मों में निरत करता था।
  • आर्ष : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता यज्ञादि कार्यों के संपादन के निमित्त ( शुल्क के रुप में नहीं ) वर से एक या दो जोड़े गायों को देकर विधि- विधान सहित कन्या को उसे समर्पित करता था।
  • प्राजापत्य : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता योग्य वर को आमंत्रित कर “तुम दोनों मिलकर अपने गृहस्थधर्म का पालन करो’ ऐसा निर्देश देकर विधि- विधान के साथ कन्यादान किया करता था।
  • आसुर : कन्या के बांधवों को धन या प्रलोभन देकर स्वेच्छा से कन्या प्राप्त करने की प्रक्रिया को “आसुर’ विवाह कहा जाता था।
  • गांधर्व : इसमें कोई युवक- युवती स्वेच्छा से प्रणयबंधन में बंध जाते थे। अथवा यदि कोई सकाम पुरुष किसी सकामा युवती से मिलकर एकांत में वैवाहिक संबंध में प्रतिबद्ध होने का निर्णय कर लेता था, तो इसे भी गांधर्व विवाह कहा जाता था।
  • राक्षस : इस प्रकार के विवाह में विवाह करने वाला व्यक्ति कन्या के अभिभावकों की स्वीकृति न होने पर भी, उन लोगों के साथ मार- पीट करके रोती- बिलखती कन्या का बलपूर्वक हरण करके उसको अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करता था।
  • पैशाच : सोई हुई या अर्धचेतना अवस्था में पड़ी अविवाहिता कन्या को एकांत में पाकर उसके साथ बलात्कार करके उसे अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करने का नाम “पैशाच’ विवाह कहलाता था।

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