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क्या है सनातन धर्म शास्त्रों के अनुसार सोलह संस्कार ?


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आर्यों के सोलह अनिवार्य संस्कार
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आदि काल से ही ऋषियों ने श्रेष्ठ प्रजा की उत्पत्ति के लिए वेद अनुसार १६ संस्कारो को अनिवार्य किया गया हैं । वैसे तो सम्पूर्ण जीवन काल हम स्वयम को संस्कारित ही करते रहते है परन्तु ये १६ संस्कार परम अनिवार्य हैं जिनमें से अधिक को हम पालन तो कर रहे है पर इस प्रकार की वो पुर्णतः हमें लाभ नहीं दे पाते इस का कारण उन संस्कारो का हमें सही प्रकार ज्ञान न होना है | सनातन धर्म में प्रचीन काल में प्रत्तेक कार्य संस्कार से ही आरम्भ होते थे।  उस समय जिनका वृतान्त नीचे दिया गया है लगभग चालीस था। जैसे-जैसे समय बदला और व्यवस्था बढते गये वैसे-वैसे ही संस्कार स्वतः विलुप्त हो गये। वैसे मुख्यतः 16 संस्कार आज भी प्रचलन में है। सनातन धर्म शास्त्रो में वर्णित संस्कारो का विस्तित वणर्न नीचे दिया गया है।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रवं जन्म मृतस्य च
इस संसार में जो जन्म लेता है उसे एक दिन अवश्य मरना पडता है और मरने वाले का पुनर्जन्म होना प्रायः निश्चित है। धर्म शास्त्र कहते है कि चौरासी लाख योनियो में भटकता हुआ प्राणी भगवत्कृपा से तथा पुण्यपुंजो से मनुष्योनि को प्राप्त करता है।

योनि का तात्पर्य-
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योनि का तात्पर्य यह होता है कि प्रत्तेक जीव अपने हाथो की पांचो अंगुलियो कनिष्ठका , अनामिका , मध्यमा , तर्जनी , अगुष्ठा आदि में अनामिका अंगुली से 84 अंगुल का होता है। योनि का तात्पर्य शरीर के संम्पूर्ण भाग आन्तरिक एंव बाह्य भाग से होता है। मनुष्य शरीर प्राप्त करने पर उसके द्वारा जीवन पर्यन्त किये गये अच्छे-बुरे कर्मो के अनुसार उसे पुण्य-पाप अर्थात् सुख-दुःख आगे के जन्मो में भी भोगना पडता है। जीव जन्म मरण के बंधन में बधा होता है। मनुष्य जन्म ही एक ऐसा जन्म है कि यदि मानव अपने क्रिया-कलाप में बदलाव कर इस जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो सकता है,यानि मोक्ष को प्राप्त हो सकता है यानि भगवत् को प्राप्त हो जायेगा। और सदैव के लिए इस जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो जायेगा क्योकि मनुष्य सभी प्राणीयो में श्रेष्ठ माना जाता है।

अवश्यमेव भोक्तव्यो कृतं कर्मं शुभाशुभम्
शुभ-अशुभ कर्मो के अनुसार ही विभिन्न योनियो में जन्म होता है। पाप कर्म करने वाले जीव को पशु-पक्षी,कीट-पंतगा और तिर्यक् योनि तथा प्रेत-पिशाचादि योनियो में जन्म होता हे। पुण्य कर्म करने वाले मनुष्य योनि,देवयोनि आदि उच्च योनियो में जन्म होता है। मानव योनियो के अतिरिक्त संसार की जितनी भी योनिया है,वे सब भोग योनिया है। जिनमें अपने शुभ एंव अशुभ कर्मा के अनुसार पूण्य-पाप अर्थात सुख-दुःख भोगना पडता है। केवल मनुष्य योनि ही ऐसी योनि है। जिसमें जीव को अपने विवके बुद्धि के अनुसार शुभ-अशुभ कर्म करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है।

अतः मनुष्य जन्म लेकर प्राणी को अत्यन्त सावधान रहने की आवश्यकता है। अनेक जन्मो तक भटकने के बाद अन्त में यह मानव जीवन प्राप्त होता है।जहां प्राणी चाहे तो सदा सर्वदा के लिए अपना कल्याण कर सकता है। अर्थात जन्म मरण के बन्धन से मुक्त हो सकता है। परन्तु इसके लिए अपने सनातन शास्त्रो के द्वारा जीवन प्रक्रिया चलानी पडती है।

संस्कार शब्द का अर्थ-
संस्कार शब्द का अर्थ ही है,दोषो का परिमार्जन करना। जीवन के दोषे और कमियो को दूरकर उसे धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष आदि इन चारो पुरूषार्थ के योग्य बनाना ही संस्कार करने का उद्देश्य है।

संस्कार किस प्रकार दोषो का परिमार्जन करता है
कैसे-किस रूप में उनकी प्रक्रिया होता है इसका विश्लेषण करना कठिन है,परन्तु प्रक्रिया का विश्लेषण न भी किया जा सके। तो भी उसके परिणाम को अस्वीकार नही किया जा सकता।

भगवान मनु का कथन
वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम्। कार्यः शरीरसंस्कारःपावनःप्रेत्य चेह च।।
वेदोक्त गर्भाधानादि पुण्य कर्मा द्वारा द्विजगणो का शरीर-संस्कार करना चाहिए।  यह इस लोक और परलोक दोनो में पवित्र करने वाला है। भारतीय सनातन धर्म की यह मान्यता है कि एक बार माता के गर्भ से जन्म होता है और दूसरा जन्म होता है उपनयन-संस्कार से। इसी आधार पर जिसके वैदिक संस्कार हुए हो,उसे द्विज अर्थात दो बार जन्म लेने वाला कहा जाता है। यह संस्कार सनातन धर्म जाति की एक बडी विशेष्ता के रूप में माने गये है।

संस्कार प्रयोजन और उसके भेद-
संस्कार समान्यतः दो प्रकार के होते है- एक है दोषापनयन और दूसरा है गुणधान। परन्तु कुछ विद्वानो ने इसी के तीन भेद बतलाये है। पहला दोषमार्जन,दूसरा अतिशयाधान तथा तीसरा हीनांगपूर्ति।

संस्कारो की संख्या-
संस्कार की संख्या के विषय में स्मृति शास्त्र में मतभेद पाये जाते है। कही 48 संस्कार तो कही 25 और कही 16 संस्कार बतलाये गये है। जातकर्ण्य ऋषि ने ब्राह्य संस्कार की संख्या सोलह बतलाये गये है। 
01- गर्भाधान , 02 - पुंसवन , 03 - सीमन्लोनयन , 04 - जातकर्म , 05 - नामकरण , 06 - अन्नप्राशन , 06 - चूणाकरण ,- 08 - उपनयन , 09 - वेदारंम्भ , 10 - ब्रम्हव्रत ,11 - वेदव्रत ,12 - गोदान ,13 - समावर्तन ,- 14 - विवाह ,15 - ब्रम्व्रत और 16 अन्त्यकर्म -

आधानपुंससीमन्तजातनामान्नचौलकाः।
बन्त्यं व्रतानि कर्माणि गोदानसमावर्तविवाहकाः।।
अन्त्यं चैतानि कर्माणि प्राच्यन्ते षोडशैव तु।

इस प्रकार महर्षि अ्रगिरा ने पार्वोक्त गर्भाधानादि षोडश संस्कारो के साथ आग्रयण , अष्टक , श्रावणीकर्म , आवश्वयुजीकर्म , प्रत्यवरोहण , दर्शश्राद्ध , वेदारम्भ , वदोत्सर्जन , प्रतिदिन सम्पन्न किये जाने वाले पंच महायज्ञ- इनको मिलाकर पच्चीस संस्कार स्वीकार किये है। गौतम स्मृति में चालीस संस्कारो का वर्णन मिलता है। अन्यत्र आठ गुणो के साथ अडतालीस संस्कारो का उल्लेख मिलता है। 

संस्कार-विर्मशक प्रधान ग्रन्थो में भिन्न-भिन्न प्रकार एंव नामो से संस्कारो की नामावली इी गयी है। जिसका संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है।

आश्वलायनगृह्यसूत्र-
01 - विवाह , - 02 - गर्भाधान , 03 - पुंसवन , 04 - सीमन्तोन्नयन , 05 - जातकर्म ,06 - नामकरण , 07 - चूणाकरण , 08 - उपनयन , 09 - समावर्तन और 10 - अन्त्येष्टि ।

बौधायनगृह्यसूत्र-
01 - विवाह , 02 - गर्भाधान , 03 - पुंसवन , 04 - सीमन्तोन्नयन , 05 - जातकर्म , 06 - नामकरण , 07 - उपनिष्क्रमण , 08 - अन्नप्राशन ,09 - चूणाकरण ,10 - कर्णवेध , 11 - उपनयन  , - 12 समसवर्तन और 13 - पितृमेध।

पास्करगृह्यसूत्र-
01 - विवाह - 02 - गर्भाधान - 03 - पुंसवन - 04 - सीमन्तोन्नयन -05 - जातकर्म - 06 - नामकरण - 07 - निष्क्रमण - 08 ’अन्नप्राशन - 09 - चूणाकरण - 10 - उपनयन - 11 केशान्त - 12 - समावर्तन और 13 अन्त्येष्टि।

वराहगृह्यसूत्र-
01 - जातकम - 02 - नामकरण - 03 - दन्तोद्गमन - 04 - अन्नप्राशन - 05 - चूणाकरण - 06 - उपनयन - 07
- वेदव्रत - 08 - गोदान - 09 - समावर्तन - 10 - विवाह - 11 - गर्भाधान - 12 - पुंसवन और 13 -सीमन्मोन्नयन।

बैखानसगृह्यसूत्र-
01 - ऋतुसंगमन - 02 - गर्भाधान - 03 - सीमन्तोन्नयन - 04 - विष्णुबलि - 05 - जातकर्म - 06  -  उत्थान -  07 - नामकरण - 08 - अन्नप्राशन - 09 - प्रवासागमन - 10 - पिण्डवर्धन - 11 - चौलक - 12 -  उपनयन  - 13  -
परायण - 14  -  व्रतबन्धविसर्ग - 15 - उपाकर्म  - 16 -  उत्सर्जन - समावर्तन और 18 - पाणिग्रहण ।
इस प्रकार सोलह संस्कारो के विषय में महर्षियो के मतभेद होने पर भी निम्नलिखित षोडश संस्कारो में सभी अन्तर्निवेश हो जाता है।

जो मीमांसादर्शन के अनुसार भी मान्य है।
01 - गर्भाधान - 02 - पुसंवन - 03 - सीमन्तोन्नयन - 04 - जातकर्म - 05 - नामकरण - 06 - अन्नपा्रशन , - 07 - चूडाकरण - 08 - उपनयन - 09 - ब्रम्हव्रत - 10 - वेदव्रत - 11 - समावर्तन - 12 - विवाह - 13 - अग्न्याधान - 14 - दीक्षा - 15 - महाव्रत और संन्यास।

व्यासस्मृति में 16 संस्कारो के नाम इस प्रकार है।
01 - गर्भाधान - 02 - पुंसवन - 03 - सीमन्तोन्नयन - 04 - जातकर्म - 05 - नामकरण् - 06 - निष्क्रमण - 07 - अन्नप्राशन - 08 - वपनक्रिया या चूडाकरण - 09 - कर्णवेध -10 - उपनयन व्रतादेश -11 - वेदारम्भ - 12 - केशान्त - 13 - समावर्तन - 14 - विवाह - 15 - विवाहाग्निपरिग्रह तथा - 16 - त्रेताग्नि-संग्रह।

गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तो जातकर्म च।
नामक्रियानिष्क्रमणेऽन्नाशनं वपनक्रिया।।
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधिः।
केशान्तःस्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रहः।।
त्रेताग्निसड्ग्रहश्चेति संस्काराः षोडश समृताः। व्यासस्मृति ( 1।13-15 )

अन्य गृह्यसूत्रो में इन संस्कारो के नाम कुछ भिन्न है , जैसे - गर्भाधान , पुंसवन , सीमन्तोन्नयन , जातकर्म , नामकरण , निष्क्रमण अन्नप्राशन , चूडाकरण , कर्णवेध , उपनयन , वेदारम्भ , विवाह , वानप्रस्थ , संन्यास एंव अन्त्येष्टि।

इसमें प्रथम तीन गर्भाधान , पुंसवन , तथा सीमन्नयन प्रसव के पूर्वके है,जो मुख्यतः माता-पिता द्वारा बीज एंव क्षेत्र की शुद्धि के लिए किये जाते है। अग्रिम छः जातकर्म कर्णवेध तक बाल्यावस्था के है,जो परिवार-परिजन के सहयोग से सम्पन्न होतमे है। अग्रिम तीन उपनयन , वेदारम्भ , समावर्तन विद्याध्ययन से सम्बद्ध है, जो मुख्यतः आचार्य के निर्देशानुसार सम्पन्न होते है। विवाह , वानप्रस्थ एंव संन्यास ये तीन संस्कार तीन आश्रमो के प्रवेशद्वार है। तथा व्यक्ति इनका निष्पादन करता है और अन्त्येष्टि जीवनयात्रा का अन्तिम संस्कार है , जिसे पुत्र-पौत्र आदि पारिवारिक जन इष्ट-मित्रो के सहयोग से किया जाता है।

इन प्रथम आठ संस्कार प्रवृत्ति मार्गीय और दूसरे आठ संस्कार निवृत्ति मार्गीय है। क्योकि भगवान मनु ने
 (  ब्राह्मीयं क्रियते तनुः ) इत्यादि शब्दो के द्वारा संस्कार का लक्ष्य जीव शरीर के ब्रम्ह तत्व प्राप्ति के लिए योग्यता का निर्माण कहा है। यह ब्रम्हत्वप्राप्ति निवृत्ति की पराकाष्ठा में होना संम्भव है। इस लिए सोलह संस्कार जो कि प्रवृत्ति-निरोध और निवृत्ति पोषक है , जीवात्मा की पूर्ण प्राप्ति के लिए समीचीन जान पडते है। इस लिए द्विजमात्र का शरीर संस्कार वेदोक्त पवित्र विधियो द्वारा अवश्य करना चाहिए। क्योकि ये संस्कार इस मानव लोक के साथ-साथ परलोक में भी परम पावन है। गर्भावस्था के आधान,पुंसवन एंव सीमन्तोन्नयन तथा जन्म के पश्चात  जातकर्म , चूडाकरण और उपनयनादि संस्कारो के समय प्रयुक्त हवनादि विधियो द्वारा जन्मदाता पिता के वीर्य एंव जन्मदात्री माता के गर्भजन्य समस्त दोषो का शमन हो जाता है। तथा वेद मंन्त्रो के प्रभाव से नवजात शिशु के अन्तःकरण में शुभ विचारो तथा प्रवृत्तियो का उदय होता है। इसके साथ-साथ ही उपनयन के प्रयोजनीय वेदारम्भादि संस्कारो द्वारा विविध हवनीय विधियो त्रयी विद्या

( ऋग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद ) के स्वध्याय से , गृहस्थाश्रम में पुत्रोत्पादन द्वारा तीन ऋणो ( पितृ,ऋषि,देव ) के अपाकरण तथा पंचमहायज्ञ एंव अग्निष्टोमादि यज्ञो के अनुष्ठान से यह शरीर ब्रम्हाप्राप्ति ( 6 सद्गति  या मोक्ष ) को प्राप्ति करता है।

इसी प्रकार महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी संस्कारो से दोष दूर होना बतलाया है।

 एवमेनः शमं याति बीजगर्भसमुभ्दवम् ।(  आचाराध्याय 2।13 )

इस  प्रकार संस्कारो की सम्पन्नता से शारीरिक मानसिक आदि सभी परिशुद्धियां होता है। जिनसे मनुष्य प्रेय एंव श्रेय दोनो प्राप्त  करता है। इन संस्कारो का प्रभाव चूकि अन्तः करण पर भी पडता है,अतः उत्तम संस्कारो से अन्तः करण को उत्कृष्ट बनाना चाहिए। इस लिए सोलह संस्कारो या अडतालीस संस्कार यथाविधि सम्पन्न होते है। वह ब्रम्हपद्य को प्राप्त करता है। लौकिक जीवन में मनुष्य आन्नद का संचय करते हुए च्युतिरहित चरमलक्ष्य की प्राप्ति संस्कारो से ही कर सकता है।

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