हिन्दू जीवन के प्रसिद्ध सोलह संस्कारों में से यह अन्तिम संस्कार है, जिसमें जाति व धार्मिक मत के अनुसार भिन्नता होते हुए भी सामान्यत: मृत व्यक्ति की दाहक्रिया आदि की जाती है। अंत्येष्टि का अर्थ है, अन्तिम यज्ञ। दूसरे शब्दों में जीवन यज्ञ की यह अन्तिम प्रक्रिया है। आदर्श रूप से संस्कार गर्भधारण के क्षण से ही शुरू हो जाते हैं और व्यक्ति के जीवन में प्रत्येक महत्त्वपूर्ण चरण पर संपन्न किए जाते हैं। मृत्यु निकट आने पर रिश्तेदारों और पुरोहित को बुलाया जाता है, मंत्री व पवित्र ग्रंथों का पाठ होता है और आनुष्ठानिक भेंटें तैयार की जाती हैं। मृत्यु के उपरांत शव को जल्द से जल्द श्मशान घाट पर ले जाते हैं, जो आमतौर पर नदी तट पर स्थित होता है। मृतक का सबसे बड़ा पुत्र और आनुष्ठानिक पुरोहित दाह संस्कार करते हैं। प्रथम पन्द्रह संस्कार ऐहिक जीवन को पवित्र और सुखी बनाने के लिए है। बौधायन पितृमेधसूत्र (3.1.4) में कहा गया है-
जातसंस्कारैणेमं लोकमभिजयति मृतसंस्कारैणामुं लोकम्।
अर्थात- जातकर्म आदि संस्कारों से मनुष्य इस लोक को जीतता है; मृत-संस्कार, “अंत्येष्टि” से परलोक को
इसके बाद परिवार के सदस्यों को अपवित्र समझा जाता है। और उन पर कुछ वर्जनाएं लागू रहती हैं। इस अवधि में वे अनुष्ठान करते है। ताकि आत्मा अगले जीवन में प्रवेश कर ले। इन अनुष्ठानों में दूध और जल तथा अधपके चावल के पिंडों का अर्पण शामिल है। निश्चित तिथि को श्मशान से एकत्रित अस्थि अवशेष या तो दफ़न कर दिया जाता है या फिर नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। मृतकों के सम्मान में निश्चित तिथियों पर संबंधियों द्वारा श्राद्ध किए जाते हैं।
यह अनिवार्य संस्कार है। रोगी को मृत्यु से बचाने के लिए अथक प्रयास करने पर भी समय अथवा असमय में उसकी मृत्यु होती ही है। इस स्थिति को स्वीकार करते हुए बौधायन ने पुन: कहा है-
जातस्य वै मनुष्यस्य ध्रुवं मरणमिति विजानीयात्।
तस्माज्जाते न प्रहृष्येन्मृते च न विषीदेत्।
अकस्मादागतं भूतमकस्मादेव गच्छति।
तस्माज्जातं मृञ्चैव सम्पश्यन्ति सुचेतस:।
अर्थात- उत्पन्न हुए मनुष्य का मरण ध्रुव है, ऐसा जानना चाहिए। इसीलिए किसी के जन्म लेने पर न तो प्रसन्नता से फूल जाना चाहिए और न किसी के मरने पर अत्यन्त विषाद करना चाहिए। यह जीवधारी अकस्मात् कहीं से आता है और अकस्मात् ही कहीं चला जाता है। इसीलिए बुद्धिमान को जन्म और मरण को समान रूप से देखना चाहिए।
तस्यान्मातरं पितरमाचार्य पत्नीं पुत्रं शि यमन्तेवासिनं पितृव्यं
मातुलं सगोत्रमसगोत्रं वा दायमुपयच्छेद्दहनं संस्कारेण संस्कृर्वन्ति।।
अर्थात- इसीलिए यदि मृत्यु हो ही जाए तो, माता, पिता, आचार्य, पत्नी, पुत्र, शिष्य (अन्तेवासी), पितृव्य (चाचा), मातुल (मामा), सगोत्र, असगोत्र का दाय (दायित्व) ग्रहण करना चाहिए और संस्कारपूर्ण उसका दाह करना चाहिए।
हिंदू धर्म शास्त्रों की मान्यता के अनुसार अंत्येष्टि क्रिया के बिना मृतक की आत्मा को शांति नहीं मिलती। हालांकि कई जगह अंत्येष्टि को संस्कार नहीं माना जाता लेकिन अधिकतर धार्मिक ग्रंथों में इसे संस्कार के रूप में मान्यता दी है। यह एक प्रकार का यज्ञ होता है जिसमें मृतक स्वयं होम हो जाता है। संस्कार के रूप में इसकी मान्यता का एक कारण यह दिया जाता है कि इससे मृत शरीर नष्ट हो जाता है जिससे पर्यावरण की रक्षा होती है। यह द्विजों द्वारा किये जाने वाले सोलह संस्कारों में आखिरी संस्कार माना जाता है। प्रत्येक मनुष्य के लिये जन्म और मृत्यु का संस्कार ऋण स्वरूप माना गया है। हिंदूओं में भी स्त्रियों, बच्चों, सन्यासियों, सुदूरवर्ती क्षेत्र या फिर अकाल मृत्यु का शिकार होने वालों, आत्महत्या करने वालों या फिर दुर्घटनावश मृत्यु को प्राप्त होने वालों के लिये अंत्येष्टि की क्रिया भिन्न भिन्न होती है। धार्मिक दृष्टि से अंतिम संस्कार का बहुत अधिक महत्व होता है।
अंतिम संस्कार की विधि- भले ही यह अशुभ जान पड़े, दर्दनाक लगे लेकिन इस प्रक्रिया से गुजरना सबको पड़ता है अपने जीवन में हम अपनों से बिछुड़ जाते हैं। मृत्यु के पश्चात मृतक का क्या होता है यह कोई नहीं जानता शास्त्रों में स्वर्ग-नरक की अवधारणाएं हैं। पुनर्जन्म की कल्पनाएं भी हैं। लेकिन सबसे अहम भावना होती है मृतक की आत्मा की संतुष्टि, मृतक की मुक्ति इसी के लिये विधिनुसार अंतिम संस्कार की क्रिया की जाती है। स्मृति ग्रंथों के अनुसार वैदिक मंत्रों के साथ अंतिम संस्कार किया जाना चाहिये। हालांकि स्त्रियों व शूद्रों का संस्कार बिना वैदिक मंत्रों के किये जाने का विधान रहा है। मृतक को गंगाजल से स्नान करवा कर उसकी अर्थी बनाई जाती है। परिजनों द्वारा कंधा देते हुए उसे शमशान तक ले जाया जाता है जहां शव को चिता पर रखकर उसे मुखाग्नि दी जाती है। चिता की राख ठंडी होने के पश्चात मृतक की अस्थियां इकट्ठी की जाती हैं जिन्हें पवित्र तीर्थस्थल पर बहते जल में प्रवाहित किया जाता है। उत्तर भारत में गंगा नदी में अस्थियां प्रवाहित करने की परंपरा है। अस्थि विसर्जन भी विधि-विधान से योग्य ब्राह्मण द्वारा मृतक की आत्मा की शांति के लिये पूजा पाठ करवाकर किया जाता है। हालांकि कुछ क्षेत्र (महाभारत की युद्ध भूमि, गंगा आदि पवित्र नदियों के समीप के क्षेत्र आदि) पवित्र माने जाते हैं जहां अस्थि विसर्जन करने का विधान नहीं है। जिन जातकों की अकाल मृत्यु होती है उनके लिये तेरह दिन तक शोक मनाते हुए श्रादकर्म किया जाता है तो किसी बुजूर्ग या कहें आयु पूरी होने पर सुखपूर्वक जिनकी मृत्यु होती है उनकी सतरहवीं की जाती है और सतरहवीं के दिन यज्ञ हवन करवाकर ब्राह्मण भोज के साथ-साथ सामूहिक भोज भी करवाया जाता है।
अन्त्येष्टि संस्कार के समय शोक का वातावरण होता है। अधिकांश व्यक्ति ठीक प्रकार सोचने- करने की स्थिति में नहीं होते, इसलिए व्यवस्था पर विशेष ध्यान देना पड़ता है। सन्तुलित बुद्धि के अनुभवी व्यक्तियों को इसके लिए सहयोगी के रूप में नियुक्त कर लेना चाहिए। व्यवस्था के सूत्र इस प्रकार हैं-
- मृतक के लिए नये वस्त्र, मृतक शय्या (ठठरी), उस पर बिछाने- उढ़ाने के लिए कुश एवं वस्त्र (मोटक)तैयार रखें।
- मृतक शय्या की सज्जा के लिए पुष्प आदि उपलब्ध कर लें।
- पिण्डदान के लिए जौ का आटा न मिले, तो गेहूँ के आटे में जौ मिलाकर गूँथ लिया जाता है।
- कई स्थानों पर संस्कार के लिए अग्नि घर से ले जाने का प्रचलन होता है। यदि ऐसा है, तो उसकी व्यवस्था कर ली जाए, अन्यथा श्मशान घाट पर अग्नि देने अथवा मन्त्रों के साथ माचिस से अग्नि तैयार करने का क्रम बनाया जा सकता है।
- पूजन की थाली, रोली, अक्षत, पुष्प, अगरबत्ती, माचिस आदि उपलब्ध कर लें।
- सुगन्धित हवन सामग्री, घी, सुगन्धित समिधाएँ, चन्दन, अगर- तगर, सूखी तुलसी आदि समयानुकूल उचित मात्रा में एकत्रित कर लें।
- यदि वर्षा का मौसम हो, तो अग्नि प्रज्वलित करने के लिए सूखा फूस, पिसी हुई राल, बूरा आदि पर्याप्त मात्रा में रख लेने चाहिए।
- पूर्णाहुति (कपाल- क्रिया) के लिए नारियल का गोला छेद करके घी डालकर तैयार रखें।
- वसोर्धारा आदि घृत की आहुति के लिए एक लम्बे बाँस आदि में लोटा या अन्य कोई ऐसा पात्र बाँधकर तैयार कर लिया जाए, जिससे घी की आहुति दी जा सके।
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