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मायावती के लिए 2022 में रहेगी करो या मरो की स्थिति, बसपा के वोट बैंक में सेंध लगा रही विपक्षी पार्टियां

उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले मायावती के सामने सबसे बड़ी चुनौती सपा और भाजपा को काउंटर करते हुए अपने वोट बैंक में सेंध लगने से बचाने की है।
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पिछले दो चुनावों से ऐसा देखने में आ रहा है कि मायावती की सीटों में लगातार कमी आ रही है। लोकसभा चुनाव में 2014 में जहां बसपा का खाता नहीं खुला था वहीं 2019 के चुनाव में भी बसपा को केवल दस सीटें ही मिली थीं। इससे भी रोचक यह था कि विधानसभा चुनाव 2017 में मायावती को सीटों का भारी नुकसान उठाना पड़ा था। राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो अनुसूचित जातियों के बीच बसपा के वोट शेयर में गिरावट की मुख्य वजह भाजपा का हिंदू वोटों का मजबूत होना है।

2014 के लोकसभा चुनाव में नहीं खुला था बसपा का खाता

बसपा ने 1989 में पहली बार संसदीय चुनाव में 245 निर्वाचन क्षेत्रों में उम्मीदवार उतारे। इनमें से तीन जीतने में सफल रहे। यह भी पहली बार था जब 33 वर्षीय मायावती ने बिजनौर से लोकसभा में प्रवेश किया। पार्टी ने, 2009 में 500 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा और 6.2% वोट हासिल किया, जो अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन है। हालांकि 2014 में बसपा को एक भी सीट हासिल नहीं हुई थी। इसका एक प्रमुख कारण अनुसूचित जातियों के बीच बसपा के वोटों के हिस्से में तेज गिरावट और भाजपा का हिंदू वोटों का मजबूत होना है, जिसमें एक बड़ा हिस्सा दलित वोटों का था।

20़14 के बाद से ही कई राज्यों में तेजी से घटा वोट शेयर

2014 में सीएसडीएस द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में बसपा ने अपने जाटव (एससी, पारंपरिक बसपा मतदाता) वोटों का औसतन लगभग 20% खो दिया। पार्टी के लिए जाटव वोट मप्र में 26% से गिरकर 13%, राजस्थान में 11% से 6%, हरियाणा में 62% से 21%, दिल्ली में 40% से 16% और यूपी में 85% से गिरकर 69% हो गए। वहीं दूसरी ओर लोकसभा के अलावा, पार्टी ने विधानसभा में भी सीटों की संख्या में भारी गिरावट देखी गई। 2007 में प्रचंड जीत के बाद से वोट शेयर में लगातार गिरावट देखी गई है। पार्टी ने 2007 में 30.4% वोट हासिल किए थे। 2007, जो 2012 में घटकर 25.9% (80 सीटें) और 2017 में 22.4% रह गई

बसपा के वोट प्रतिशत में आ रही गिरावट

1990 के दशक की शुरुआत में, बसपा के संस्थापक कांशीराम, कुर्मी (राज्य के कुछ हिस्सों में, विशेष रूप से बुंदेलखंड और मिर्जापुर) और मुस्लिम पिछड़ों को नुनिया चौहान, राजभर, आदि जैसे समुदायों को एक साथ लाकर एक सामाजिक गठबंधन बनाया था। बाद में इसी सामाजिक ताने बाने को आगे ले जाने के लिए मायावती ने कांशी राम की जगह ली थी। हालांकि समय के साथ मायावती ने उच्च जातियों और मुसलमानों के एक वर्ग तक पहुंचकर इस गठबंधन का और विस्तार किया, इस प्रकार 2007 में स्पष्ट बहुमत के साथ चमकने का मौका भी मिला। लेकिन, 2017 में मायावती इस फॉर्मूले को दोहराने में नाकाम रहीं।

सामाजिक इतिहास और सांस्कृतिक विज्ञान के प्रोफेसर बद्री नारायण तिवारी इस बदलाव के प्राथमिक कारण के रूप में राज्यों में दलित की प्रकृति को अलग- अलग मान रहे हैं।


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