ये वायु से बजने वाले वाद्य होते हैं। इनमें ध्वनि उत्पन्न करने के लिए, बिना तारों या झिल्ली के इस्तेमाल के और यंत्र के बिना कम्पित हुए, वायु के टुकड़े को कम्पित किया जाता है,जिससे ध्वनि में बढोत्तरी होती है। इन उपकरणों की तान संबंधी गुणवत्ता उपयोग किए गए ट्यूब के आकार और आकृति पर निर्भर करती है। वे गहरे बास से लेकर कर्णभेदी तेज़ सुरों तक, जोर की और भारी ध्वनि उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं। ये खोखले वाद्य हैं जिनमें हवा से ध्वनि उत्पन्न की जाती है। वाद्य में छिद्र खोलने और बंद करने के लिए उंगलियों का उपयोग करके ध्वनि के स्वरमान को नियंत्रित किया जाता है। शहनाई भारत का एक लोकप्रिय सुषिर वाद्य है। इन्हें बजाने के तरीकों से वर्गीकृत किया जा सकता है:
- हवा की यंत्रवत् रूप से आपूर्ति की जाती है जैसे कि हारमोनियम में
- हवा की आपूर्ति श्वास द्वारा शहनाई या बांसुरी में की जाती है (मुंह से फूंककर)
01-कोनाकोंबु
"कोनाकोंबु पीतल से बना एक वायु वाद्य यंत्र है। मंदिर वाद्य यंत्र तमिलनाडु में पाया जाता है। पीतल की 'एस' आकार की नली जैसा, इसका उपयोग मुख्यत: स्वागत समारोहों, सार्वजनिक मनोरंजन, मार्शल आर्ट और मंदिर संगीत में किया जाता है।"
"'एस' आकार की पीतल की नली, तीन मुड़े हुए भागों से बनी होती है। चौड़ा मुख और एक संकलित मुखनाल होता है। स्वागत समारोहों, सार्वजनिक मनोरंजन, मार्शल आर्ट और मंदिर संगीत में उपयोग किया जाता है।"
02-तांबे की बाँसुरियाँ-
तांबे की बाँसुरियाँ तांबे और भैंस के सींग से बना एक प्रकार का वायु वाद्य यंत्र हैं। सौरा लोग बाँसुरियों के साथ तांबे की बाँसुरियों का उपयोग भी करते हैं।
"सौरा लोग गाय और भैंस के सींगों से बनी बाँसुरियों के साथ तांबे की बाँसुरियों का उपयोग भी करते हैं। बाँसुरियाँ कलाकारों द्वारा स्वयं बनाई जाती हैं और वे सभी अनौपचारिक तरीके से इन्हें बजाना सीखते हैं।"
03-अलगोजा
अलगोजा बाँस से निर्मित एक वायु वाद्य यंत्र है। यह राजस्थान का एक प्रमुख लोक वाद्य यंत्र है। अलवर के 'मेयो' समुदाय द्वारा आमतौर पर इस्तेमाल की जाने वाली एक द्वि-बाँसुरी।
समान आकार की दो चोंचवाली बाँस की बाँसुरियों की जोड़ी। इस पर पाँच अंगुलियों के लिए छिद्र और प्रत्येक बाँसुरी पर एक संकीर्ण मुखनाल होता है। दोनों बाँसुरी, वादक द्वारा एक साथ फूँकी जाती हैं। इसे अलवर, राजस्थान, के ‘मेओ’ समुदाय द्वारा उनके लोक और जनजातीय गीतों के साथ संगत वाद्य के रूप में उपयोग किया जाता है।
04-एक-बंदी-बंसी
05-एक्कालम-
एक बंदी बंसी बाँस और मोम से बना एक वायु वाद्य यंत्र है। यह जनजातीय वाद्य यंत्र उड़ीसा में पाया जाता है। बेलनाकार नली सरूप होता है, यह उड़ीसा के चरवाहों द्वारा मुख्य रूप से उपयोग किया जाता है।
पाँच उँगलियों के लिए छिद्र वाली बेलनाकार बाँस की नली। फूँक मारने वाला छिद्र मोम से बांटा जाता है। दोनों हाथों से पकड़कर मुँहनाल से बजाया जाता है। उड़ीसा के चरवाहों द्वारा उपयोग किया जाता है। एक्कालम पीतल और धातु से बना एक वायु वाद्य यंत्र है। यह मंदिर वाद्य यंत्र तमिलनाडु में पाया जाता है। पीतल की नली के सरूप होता है, यह मंदिर में संगीत, शोभायात्राओं आदि में मुख्य रूप से उपयोग किया जाता है। प्याले के आकार के मुख सहित पीतल की नली और एक समाकलित मुख टेक होता है। तीन उभड़े हुए रिंग नली को घेरते हैं। मंदिर में संगीत, शोभायात्राओं, आदि, में उपयोग किया जाता है।
06-ओट्टु-
"ओट्टु लकड़ी, मोम और धातु से बना एक वायु वाद्य यंत्र है। यह लोक वाद्य यंत्र तमिलनाडु में पाया जाता है। यह मुख्य रूप से ड्रोन सुर प्रदान करने के लिए उपयोग किया जाता है; नागास्वरम का मूल तान। लोक, पारंपरिक और धार्मिक संगीत में भी उपयोग किया जाता है।"
"शंक्वाकार रन्ध्र की एक लकड़ी की नली, नीचे की ओर बड़ी होती जाती है, जिसमें दूर के छोर पर पाँच या छह छिद्र होते हैं, जो पूर्ण या आंशिक रूप से मोम से बंद होते हैं। एक दोहरी कंपिकाएँ, धातु नली से जुड़ी हुईं, बजने वाले छोर में डाली जाती है। एक धातु की घंटी नली से जुड़ी होती है। वाद्य यंत्र ड्रोन सुर देने के लिए उपयोग किया जाता है; नागास्वरम का मूल तान। लोक, पारंपरिक और धार्मिक संगीत में भी उपयोग किया जाता है।"
07-ओड़ाक्कुलाल-
यह बाँस से बना एक वायु वाद्य यंत्र है। केरल में पाया जाता है, इसका त्योहारों पर बिकने वाले खिलौने के रूप में मुख्यत: उपयोग किया जाता है। कुछ चरवाहे और गड़रिया कार्य के दौरान इसे बजाते हुए देखे जा सकते हैं।
यह विविध प्रकार के बाँस अथवा सरकंडे से बनी बाँसुरी है जिसे 'ओड़ा' कहा जाता है। इसके दो प्रकार उपयोग में हैं – अंतिम छोर अथवा किनारे से बजाई जाने वाली। इसका त्योहारों पर सामान्यतः बिकने वाले खिलौने के रूप में उपयोग किया जाता है। कुछ चरवाहे और गड़रिये कार्य के दौरान इसे बजाते हुए देखे जा सकते हैं। कभी-कभी १ फ़ीट से ३ फ़ीट तक की लंबाई पाई जाती है।
08-करनाल-
करनाल पीतल का बना एक वायु वाद्य यंत्र है। यह हिमाचल प्रदेश में पाया जाने वाला एक लोक वाद्य यंत्र है। लोक संगीत, मंदिर सेवाओं और शोभायात्राओं में मुख्य रूप से उपयोग किया जाता है।
"एक लंबी पीतल की तुरही, जिसे दो खंडों में बनाया जाता है। इसमें एक मुखनाल होता है और एक खुली शंक्वाकार घंटी। इसे दोनों हाथों से तिरछे पकड़कर, और मुखनाल की तरफ से बजाया जाता है। लोक संगीत, मंदिर सेवाओं और शोभायात्राओं में उपयोग किया जाता है।"
09-कर्ण-
कर्ण पीतल का बना एक वायु वाद्य यंत्र है। यह राजस्थान में पाया जाने वाला एक धार्मिक यंत्र है। धार्मिक, सामाजिक समारोहों और शोभायात्राओं में मुख्य रूप से उपयोग किया जाता है।
एक लंबी पीतल की तुरही, जिसे दो भागों में बनाया जाता है। कीप के आकर चौड़ा खुला हुआ मुख और सँकरे भाग की तरफ संकलित मुखनाल होता है। दोनों हाथों में पकड़कर बजाया जाता है। धार्मिक, सामाजिक समारोहों और शोभायात्राओं में उपयोग किया जाता है।
10-कर्नाट
एक लंबी तुरही जिसमें विशाल शंक्वाकार खुला मुँह होता है जो चपटे मुहाने से बजने वाले छेद की तरफ सँकरा होता जाता है। तांबे की चादर से बना होता है। धार्मिक समारोहों में शोभायात्रा के समय उपयोग किया जाता है। गुजरात के लोक संगीत और नृत्य के साथ संगत के रूप में भी इसका उपयोग किया जाता है।"
11-कहल
कहल पीतल से निर्मित एक वायु वाद्य यंत्र है। यह लोक वाद्य यंत्र हिमाचल प्रदेश में पाया जाता है। मुख्य रूप से लोक संगीत और उत्सवों के दौरान शोभायात्राओं में उपयोग किया जाता है।
सीधी छिद्र वाली एक पीतल की नली जिसमें दो घुमाव होते हैं। इसमें तश्तरी जैसी घंटी और उसमें संकलित मुख टेक होता है। इसे मुखनाल से फूँका जाता है। लोक संगीत और उत्सवों के समय शोभायात्राओं में उपयोग किया जाता है।
12-काली-
काली धातु से बना एक वायु यंत्र है। असमी शादियो की बारातों में काली बजाने वाला वादक सबसे आगे चलता है।
शहनाई का एक और विकसित स्वरुप काली भी एक सुषिर वाद्य यंत्र है। असमी शादियो की बारातों में काली बजाने वाला वादक सबसे आगे चलता है।
13-कुलाल
यह धातु, लकड़ी और ताड़ के पत्ते से बना एक वायु वाद्य यंत्र है। केरल में पाया जाता है, यह त्योहारों के दौरान रागात्मक संगीत के लिए, कुलाल पा नामक एकल वादन के लिए और कूडियाट्टम के प्रदर्शन के दौरान एक वाद्य यंत्र के रूप में उपयोग किया जाता है।
"इसे कुरम-कुलाल (शाब्दिक रूप से छोटी नली) भी कहा जाता है। यह नागास्वरम का सामान्य से छोटा प्रकार है जो लगभग ९ इंच से १२ इंच तक का होता है। यह उत्तर भारतीय शहनाई से छोटा होता है। एक घंटा-धातु की नली लकड़ी की शंक्वाकार नली के नीचे जुड़ी होती है। इसमें सरकंडे का मुखनाल होता है। इसका चेंदा मेलम के दौरान लय के लिए एक वाद्य यंत्र के रूप में मुख्य रूप से उपयोग किया जाता है। यह त्योहारों के दौरान रागात्मक संगीत के लिए, कुलाल पा नामक एकल वादन के लिए और कूडियाट्टम के प्रदर्शन के दौरान एक वाद्य यंत्र के रूप में भी उपयोग किया जाता है। पराया समुदाय द्वारा उपयोग किया जाने वाला एक समान कुलाल और भी छोटा होता है और इसमें केवल ४ या ५ छिद्र होते हैं और कंपिका ताड़ के पत्ते से बनी होती है। केवल ३ या ४ सुर उत्पन्न होते हैं और इस वाद्य यंत्र का इस समुदाय द्वारा काली पूजा के दौरान और शस्योत्सव जैसे भैंस दौड़, आदि के दौरान उपयोग किया जाता है। इलवा समुदाय द्वारा, विशेष रूप से पालघाट जिले में, उपयोग किए जाने वाले एक समान वाद्य यंत्र को इलवा वाद्यम कहा जाता है। यह परायन कुलाल की अपेक्षा अधिक संशोधित होता है लेकिन कुरम कुलाल जितना संशोधित नहीं होता है। इसका भद्रकाली मंदिरों के त्योहारों के दौरान भी उपयोग जाता है।”
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