कुछ ही लोग ऐसे होंगे, जो स्टैथेस्कोप से अनभिज्ञ हों। अक्सर जब कभी व्यक्ति किसी बीमारी का शिकार होता है, तो वह डॉक्टर के पास जाता है। डॉक्टर उसके सीने पर एक यंत्र रखता है, जिसका दूसरा छोर डॉक्टर के कानों में लगा रहता है। वह मरीज से कहता है - गहरी-गहरी सांसें लो।
आप को बता दें, इस यंत्र को 'स्टेथेस्कोप' (आला) कहते हैं। स्टेथेस्कोप को कानों में लगाकर डॉक्टर मरीज के हृदय की गति को सुनता है।
इस उपकरण का आविष्कार विएना के रहने वाले 'लियोपोल्ड आवनबर्गर' नामक एक चिकित्सक ने किया था। वह अपने पिता के कार्यों में हाथ बंटाता था। उसका एक काम था-तहखाने में रखे बड़े-बड़े पीपों में से शराब निकालकर लाना।
लियोपोल्ड के पिता ने उसे यह जानने का एक आसान-सा तरीका बता रखा था कि पीपे में कितनी शराब भरी है, इसे जानने के लिए उसे सिर्फ पीपे को ठकोरना होता था। अगर वह शराब की सतह से ऊपर ठकोरता था, तो आवाज हल्की और खोखली सुनाई देती थी और यदि वह शराब की सतह से नीचे ठकोरता था, तो आवाज भारी और गम्भीर सुनाई देती थी।
लियोपोल्ड आवनबर्गर के पिता चाहते थे कि उनका बेटा एक चिकित्सक बने। अपनी मंशा को क्रियान्वित करने हेतु उसके पिता ने उसे चिकित्सा के अध्ययन के लिए विएना के विश्वविद्यालय में प्रवेश दिला दिया। लियोपोल्ड की मेहनत ने अपना रंग दिखाया, कुछ ही सालों में यह एक सफल डॉक्टर बन गया। उस वक्त उसकी आयु 24 वर्ष थी।
वह अस्पताल में बहुत-से छाती रोगों से पीड़ित, विशेषकर क्षय रोग से पीड़ित रोगियों को देखा करता था। जब किसी मृत रोगी की छाती को शव परीक्षण के लिए काटा जाता, तब वह प्रायः देखता कि छाती में द्रव भरा पड़ा है।
लियोपोल्ड ने अनुभव किया कि यदि उसे पता चल सके कि रोगियों की छातियों के भीतर कैसी दशाएं हैं तो वह उनका अच्छे से इलाज कर सकता है। उसे स्मरण हो आया कि जो उसने अपने पिता के शराब के तहखाने में सीखा था। उसका यहां उपयोग किया जा सकता है।
इतना सोचना था कि उसने रोगियों की छातियों को भी ठकोरना प्रारम्भ कर दिया।
वह रोगी के कुर्ते को उसकी छाती पर कस लेता और उस पर ठकोरता जाता। उसे पता लगा कि उसका अनुमान एकदम सही है। यदि छाती ठीक होती थी और फेफड़ा हवा से भरा होता था, तो आवाज भी खोखली और स्पष्ट होती थी। यदि फेफड़ों अथवा उसके इर्द-गिर्द द्रव भरा होता तो आवाज भारी होती थी।
पूरे सात वर्षों तक अपने इस उपाय का प्रयोग करने के पश्चात् उसने लैटिन में लिखी अपनी एक पुस्तिका में इसका वर्णन प्रकाशित किया।
यह सन् 1760 ई. की बात है। यद्यपि उस पुस्तिका के द्वारा तुरन्त ही उसे ख्याति मिल जानी चाहिए थी, फिर भी अन्य चिकित्सकों ने उस पर ध्यान देना आवश्यक नहीं समझा। उसको इस बात की लेशमात्र भी चिन्ता नहीं थी। उसने अपने चिकित्सा कार्य जारी रखे।
उसकी पुस्तक प्रकाशित होने के 40 वर्षों बाद सन् 1808 ई. में उसे ख्याति प्राप्त हुई। तब उसकी आयु लगभग 86 वर्ष की थी।
उस वर्ष एक फ्रांसीसी चिकित्सक जीन निकोलस कार्विसर्ट ने उसकी पुस्तक का फ्रांसीसी अनुवाद प्रकाशित करवाया। कार्विसर्ट फ्रांसीसी सम्राट नेपोलियन बोनापार्ट का राजवैद्य था।
चिकित्सा संसार का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हुआ। जीन निकोलस कार्विसर्ट न सिर्फ लियोपोल्ड आवनबर्गर परिताड़न (पर्कशन) विधि का प्रयोग करता था, बल्कि श्वास लेने तथा हृदय की धड़कनों से उत्पन्न आवाजों को भी ध्यानपूर्वक सुनता था। अत्याधुनिक युग में स्टेथस्कोप भीतरी आवाज को सुनने का एक सरल उपयोगी यंत्र है।
स्टेथोस्कोप में सुधार :
फ्रांस के चिकित्सक रेते लैनेक ने 1816 ई. में उर-परीक्षण के लिए एक यंत्र की खोज की, जिसके आधार पर प्रचलित परिश्रावक का निर्माण हुआ है। आजकल प्राय: सभी चिकित्सक द्विकर्णीय यंत्र को ही उपयोग में लाते हैं। इसके दो भाग होते हैं, एक वक्षखंड जो घंटी या प्राचीर प्रकार का होता है तथा दूसरा कर्णखंड। ये दोनों रबर की नलिकाओं द्वारा जुड़े रहते हैं। हृदय, फेफड़े, आँत, नाड़ियाँ और वाहनियाँ आदि जब रोग से ग्रस्त हो जाती हैं तब चिकित्सक इसी यंत्र द्वारा उनसे निकली ध्वनि को सुनकर जानता है कि ध्वनि नियमित है या अनियमित। अनियमित ध्वनि रोग का संकेत करती है। इस यंत्र से ध्वनि तेज पड़ती है। रोगपरीक्षण में एक अच्छे परिश्रावक का होना अति आवश्यक है।
उस ज़माने में सिर्फ एक कान का इस्तेमाल करके ही दिल की धड़कन को सुना जाता था. साल 1840 में गोल्डन बर्ड नाम के एक डॉक्टर ने स्टेथोस्कोप के लिए फ्लेक्सिबल ट्यूब का इस्तेमाल किया था.
साल 1851 में आयरिश (Irish) के डॉक्टर आर्थर लेअरेड़ (Arthur Leared) ने बाइनरल (binaural) स्टेथोस्कोप यानी दोनों कानों से सुनने वाला स्टेथोस्कोप का अविष्कार किया था.
1852 में जॉर्ज फिलिप कम्मांन (George Philip Cammann) नाम के अविष्कारक ने स्टेथोस्कोप के डिज़ाइन को और भी परफेक्ट किया था.
आज के अकूस्टिक स्टेथोस्कोप में दइअफ्रैम और बेल दोनों होते है. जब दइअफ्रैम वाला साइड दिल के ऊपर रखा जाता है तो आवाज़ की फ्रीक्वेंसी भद जाति है. बेल वाला साइड जब दिल पर रखा जाता है तो आवाज़ की फ्रीक्वेंसी कम सुनाई देती है.
19 वीं सदी से लेकर 20 वि सदी तक बहुत सारे बदलाव के बाद आज जैसा सेथोस्कोपे बनाया गया था. इस सेथोस्कोपे को हर जगह इस्तेमाल किया जाता है.
इस अविष्कार से एक चीज़ तो ये कन्फर्म होती है के आविष्कार के लिए बस एक छोटासा आईडिया चाहिए होता है. बस उस आईडिया का इस्तेमाल करके हम बड़े से बड़े अविष्कार को अंजाम देसकते है.
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