स्टीविया को हनी प्लांट के नाम से जाना जाता है क्योंकि यह स्वाद में मीठा होता है। यह एक प्राकृतिक स्वीटनर होता है जो कि शूगर के मरीजों को उनके शरीर में इंसुलन की मात्रा को संतुलित रखता है। इसके पत्ते कई तरह की दवाइयां बनाने के लिए प्रयोग किये जाते हैं। स्टीविया से तैयार दवाइयों का प्रयोग मधुमेह, दांतों की कैविटी, टॉनिक और भोजन में से कैलोरी कम करना आदि इलाज के लिए किया जाता है। यह एक सदाबहार जड़ी बूटी है, जिसकी ऊंचाई 60-70 सैं.मी. होती है। इसके पत्ते विपरीत रूप से व्यवस्थित होते हैं और हरे रंग के होते हैं। इसके फूल छोटे और सफेद होते हैं। भारत में मुख्य पंजाब, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और आंध्रा प्रदेश आदि स्टीविया उत्पादक राज्य हैं।
आजकल मधुमेह व मोटापे की समस्या के कारण न्युन कैलोरी स्वीटनर्स हमारे भोजन के आवश्यक अंग बन चुके है। बाजार मे उपलब्ध कृत्रिम उत्पाद सेहत के लिए पुर्णतया सुरक्षित न होने के कारण, मधु तुलसी या स्टीविया (Stevia) के पौधे को न्यून क्ैलोरी मिठास का उत्तम प्राकृतिक स्त्रोत माना जाता है।
यह शक्कर से लगभग 25 से 30 गुना अधिक मीठा , केलोरी रहित है व मधुमेह व उच्च रक्तचाप के रोगियों के लिए शक्कर के रूप मे पुर्णतया सुरक्षित है ।
इसके पत्तों मे पाये जाने वाले प्रमूख घटक स्टीवियोसाइड, रीबाडदिसाइड व अन्य योगिकों में इन्सुलिन को बैलेन्स करने के गुण पाये जाते है। जिसके कारण इसे मधुमेह के लिए उपयोगी माना गया है। यह एन्टी वायरल व एंटी बैक्टीरियल भी है तथा दांतो तथा मसूड़ो की बीमारियों से भी मूकित दिलाता है।
इसमे एन्टी एजिंग, एन्टी डैन्ड्रफ जैसे गुण पाये जाते है तथा यह नॉन फर्मेंटेबल होता है। 15 आवश्यक खनिजो (मिनरल्स) तथा विटामिन से युक्त यह पौधा अत्यंत उपयोगी औषधीय पौधा है।
स्टीविया (स्टीविया रेबव्दिअना) की खेती के लिए जलवायु तथा भूमि-
स्टीविया की खेती भारतवर्ष में पूरे साल भर में कभी भी करायी जा सकती है इसके लिये अर्धआद्र एवं अर्ध उष्ण किस्म की जलवायु काफी उपयुक्त पायीजाती है।
ऐसे क्षेत्र जहाँ पर न्यूनतम तापमान शून्य से नीचे चला जाता है वहाँ पर इसकी खेती नही करायी जा सकती । 11 डिग्री सेन्टीग्रेड तक के तापमान में इसकी खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है।
स्टीविया की सफल खेती के लिये उचित जल निकास वाली रेतीली दोमट भूमि जिसका पी०एच० मान 6 से 7 के मध्य हो, उपयुक्त पायी गयी है
जल भराव वाली याक्षारीय जमीन में स्टीविया की खेती नही की जा सकती है।
स्टीविया की रोपाई-
स्टीविया वर्ष भर में कभी लगाई जा सकती है लेकिन उचित समय फरवरी - मार्च का महीना है तापमान एवं लम्बे दिनों का फसल के उत्पादन पर अधिक प्रभाव पङता होता है
स्टीविया के पौधों का रोपाई मेङो पर किया जाता है। इसके लिये 15 सेमी० ऊचाई के 2 फीट चौङे मेंड बना लिये जाते है तथा उन पर कतार से कतार की दूरी 40 सेमी० एवं पौधों में पौधें की दूरी 20-25 सेमी० रखते है।
दो बेङो के बीच 1.5 फीट की जगह नाली या रास्ते के रूप में छोङ देते है।
स्टीविया फसल में खाद एवं उर्वरक
क्योकि स्टीविया की पत्तियों का मनुष्य द्वारा सीधे उपभोग किया जाता है इस कारण इसकी खेती में किसी भी प्रकार की रसायनिक खाद या कीटनाशी का प्रयोग नहीं करते है।
एक एकङ में इसकी फसल को तत्व के रूप में नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश की मात्रा क्रमश: 110 : 45: 45 कि० ग्रा० की आवश्यकता होती है इसकी पूर्ति के लिये 70-80 कु० वर्मी कम्पोस्ट या 200 कु० सङी गोबर की खाद पर्याप्त रहती।
स्टीविया की फसल मे सिंचाई-
स्टीविया की फसल सूखा सहन नहीं कर पाती है और इसको लगातार पानी की आवश्यकता होती है। सर्दी के मौसम में 10 दिन के अन्तराल पर तथा गर्मियों में प्रति सप्ताह सिंचाई करनी चाहिये । वैसे स्टीविया भी फसल में सिंचाई करने का सबसे उपयुक्त साधन स्प्रिंकलरर्स या ड्रिप है।
खरपतवार नियंत्रण
सिंचाई के पश्चात खेत की निराई - गुङाई करनी चाहिये जिससे भूमि भुरभुरी तथा खरपतवार रहित हो जाती है जो कि पौधों में वृद्धि के लिये लाभदायक होता है।
रोग एवं कीट नियंत्रण-
सामान्यत: स्टीविया की फसल में किसी भी प्रकार का रोग या कीङा नहीं लगता है। कभी-कभी पत्तियों पर धब्बे पङ जाते है जो कि बोरान तत्व की कमी के लक्षण है इसके नियंत्रण के लिये 6 प्रतिशत बोरेक्स का छिङकाव किया जा सकता है। कीङो की रोकथाम के लिये नीम के तेल को पानी में घोलकर स्प्रे किया जा सकता है।
हानिकारक कीट और रोकथाम
चेपा: यह नज़दीक से पारदर्शी, मुलायम त्वचा वाले रस चूसने वाले कीट हैं। यह पर्याप्त मात्रा में होने के पर इनके लक्षण पत्ते पीले पड़ जाते है और पकने से पहले मर जाते है| चेपे की रोकथाम के लिए, कराइसोपरला पराडेटरज़ 4-6 हज़ार प्रति एकड़ या 50 ग्राम नीम के घोल को प्रति एकड़ में डालें।
बीमारियां और रोकथाम
पत्तों पर काले धब्बे और सूखना: इस बीमारी से पत्तों पर क्लोरोसिस के द्वारा सलेटी रंग के धब्बे पड़ जाते हैं।
सफेद फंगस: इस बीमारी से पौधे के तने के ऊपर भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं और बाद में पूरा पौधा सूख जाता है और बाद में मर जाता है।
दक्षिणी झुलस रोग: यह मिट्टी से पैदा होने वाली फंगस सक्लेरोशियम रोलफसी के कारण होती है। सूर्य की किरणें इस बीमारी को मारने का सबसे अच्छा तरीका है।
फूलों को तोङना-
क्योंकि स्टीविया की पत्तियों में ही स्टीवियोसाइड पाये जाते है इसलिये पत्तों की मात्रा बढायी जानी चाहिये तथा समय-समय पर फूलों को तोङ देना चाहिये। अगर पौधे पर दो दिन फूल लगे रहें तथा उनको न तोङा जाये तो पत्तियों में स्टीवियोसाइड की मात्रा में 50 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है ।
फूलों की तुङाई, पौधों को खेत के रोपाई के 30, 45, 60,75 एवं 90 दिन के पश्चात एवं प्रथम कटाई के समय की जानी चाहिये। फसल की पहली कटाई के पश्चात 40, 60 एवं 80 दिनों पर फूलों को तोङने की आवश्यकता होती है
फसल की कटाई-
स्टीविया की पहली कटाई पौधें रोपने के लगभग ४ महीने पश्चात की जाती है तथा शेष कटाईयां 90-90 दिन के अन्तराल पर की जाती है इस प्रकार वर्ष भर में 3-4 कटाई की जाती है।
कटाई तीन वर्ष तक ही ली जाती है, इसके बाद पत्तियों के स्टीवियोसाइड की मात्रा घट जाती है कटाई में सम्पूर्ण पौधे को जमीन से 6-7 सेमी० ऊपर से काट लिया जाता है तथा इसके पश्चात पत्तियों को टहंनियों से तोङकर धूप में अथवा ड्रायर द्वारा सूखा लेते है
तत्पश्चात सूखी पत्तियों को ठङे स्थान में शीशे के जार या एयरटाईट पोलीथीन पैक में भर देते है।
स्टीविया की उपज-
वर्ष भर में स्टीविया की 3-4 कटाईयों में लगभग 70 कु० से 100 कु० सूखे पत्ते प्रति एकड प्राप्त होते है।
स्टीविया की लाभ-
वैसे तो स्टीविया की पत्तियों का अन्तर्राष्ट्रीय बाजार भाव लगभग रू० 300-400 प्रति कि०ग्रा० है लेकिन अगर स्टीविया की बिकी दर रू० 100/प्रति कि०ग्रा० मानी जाये तो प्रथम वर्ष में एक एकङ भूमि से 5-6 लाख की आमदनी होती है, तथा आगामी सालों में यह लाभ अधिक होता है
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