बच (वानस्पतिक नाम:एकोरस कैलमस एक बारहमासी पौधा है जिसकी शाखायें बहुत विस्तृत होती है। पत्तियाँ रेखाकार, लंबी मोटी व मध्य शिरा युक्त होती है और 0.7 से 1.7 से.मी. चौड़ी होती है। इसके प्रकंद सुगंधित होते है। फूल 3 से 8 से.मी. लंबे आकार में बेलनाकार हरे-भूरे रंग के और चारों से वाली से ढ़के हुये होते है। फल छोटे और बेर की तरह गोल आकार के होते है। यह पौधा 45 से 60 से.मी. उँचाई का होता है। इसका स्वाद कड़वा होता है। बच की उत्पत्ति भारत एवं मध्यएशिया है परन्तु अब यह दुनिया भर में पाया जाता है। भारत में कश्मीर, मणिपुर, कर्नाटक और उत्तर–पूर्व हिमालय क्षेत्र में पाया जाता है। मध्यप्रदेश में यह दलदली जगहों में पाया जाता है। बच एक लोकप्रिय औषधीय पौधा है जिसका उपयोग भारत में अनेक आयुर्वेदिक औषधियों में किया जाता है। इसकी पत्तियों से नींबू की तरह सुगंध आती है और जड़ों से मधुर मीठी गंध आती है। इसके बढ़ते औषधीय उपयोग के कारण यह जंगलो से तेजी से निकाला जा रहा है। वर्तमान में यह लुप्त प्रजातियों की सूची में है।
यह एक बहुत प्रसिद्ध चिकित्सिक पौधा है, जो कि भारत में बहुत सारी आयुर्वेदिक दवाइयां बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है । यह मध्य- जलीय पौधा है और इसकी खेती सिल्ले और दलदली क्षेत्रों में की जाती है । यह हॉलैंड, उत्तरी अमरीका, यूरोप के बहुत सारे देशों, केन्द्री एशिया, भारत और बर्मा आदि में पाया जाता है । भारत में यह मणिपुर, हिमालय, नागा हिल्स, झीलों और नदियों के किनारों पर पाया जाता है । इसके पत्तों का आकार तलवार जैसा और रंग पीला-हरा होता है । इस पौधे का कद 2 मीटर होता है । इसके फूल बेलनाकार आकार के और हरे-भूरे रंग के होते है । इस पौधे की गांठों का प्रयोग अनिद्रा, पेट की बिमारियों, सुगंध, कीटों, झुलस रोग, बुखार, पाचन क्रिया और कई सारी बिमारियों के इलाज के लिए किया जाता है ।
बच एक महत्वपूर्ण औषधीय व संगधीय पौधा है अंग्रेजी में इसे स्वीट फ्लैग कहते हैं । स्थानीय भाषा में सफेद बच उग्रगंधा या घोड़ा बच के नाम से जानते हैं । इसकी उत्पत्ति दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्र है, परन्तु यह संपूर्ण विश्व में, जिनमें यूरोपीय देश भी शामिल हैं, प्राकृतिक रूप से पाई जाती है । हमारे देश में यह कश्मीर, मणीपुर, कर्नाटक, उत्तर पूर्व हिमाचल क्षेत्र के साथ – साथ लगभग सभी स्थानों में बहुतायत से उगता है । मध्यप्रदेश में यह पठारी क्षेत्र नदी नाले के किनारे की दलदली भूमि में पाया जाता है । बच की पत्तियों एवं आकंद ( राइजोम ) का औषधीय महत्व है, जो कि विभिन्न प्रकार की औषधियों के निर्माण में प्रयुक्त होते हैं ।
वानस्पतिक वर्णन
बच का वानस्पतिक नाम एकोरस केलेमस है और यह ऐरसी कुल का शाकीय पौधा है जो कि 45 से 60 से.मी. ऊँचा होता है, इसकी पत्तियाँ हल्के हरे रंग की चपटी, रेखाकार, लंबी मोटी व मध्य शिरा युक्त होती है इसके पुष्प हल्के पीले रंग के स्पेडिंक्स पुष्पक्रम में लगे होते हैं, फल लाल रंग के व गोल आकार के होते हैं, राइजोम भूमिगत, लंबा, सफेद रंग का तीव्रगंध युक्त होता है ।
औषधीय महत्व व उपयोग
बच के बहुशाखीय सुगंधित आकंद विभिन्न प्रकार की औषधियों के निर्माण में प्रयुक्त होते हैं आकंदों में पाया जाने वाला सुगंधित तेल एकोरिन से बनने वाली दवायें वायुविकार केन्द्रिय तंत्रिका, तंत्र उत्तेजक, शरीरिक शक्ति वृद्धि वर्धक, बात विकारों, कफ, अतिसार, मूत्र व गर्भरोग आदि में लाभदायक है । यह तेल पेय व भोज पदार्थों को सुवासित करने, कीटनाशक व गंधद्रव्य आदि कार्यों में उपयोगी है । आकंद को सुखाकर बनाया गया चूर्ण कीड़ों को नष्ट करने के साथ ही मिर्गी, बुखार कफ व दमा आदि रोगों के उपचार में काम में लिया जाता है ।
रासायनिक संगठन
बच के आकंद या राइजोम व पत्तियों से सुगंधित तेल प्राप्त होता है इसकी पत्तियों व सूखा बिना छिल्का उतरे राइजोम से वाष्पीय आसवन द्वारा उड़नशील तेल निकाला जाता है इसकी प्रतिशत मात्रा 0.85 से 2.50 प्रतिशत तक होती है बच का उड़नशील तेल पीला या भूरा पीला रंग का चिपचिपा सा द्रव्य जिसमें जले मसाले व कपूर जैसी गंधयुक्त होता है । बच का तेल या केलामस आइल में केलामोल, ऐसोराॅन, यूजेनोल, पाईन केम्फीन, एकोरोन केम्फर, केलेमेनाँल, एकेरोन व फ्लेवोन आदि रासायनिक पदार्थ पाये जाते हैं ।
जलवायु
बच की कृषि के लिए आर्द्र व नमींयुक्त जलवायु श्रेष्ठ है यह 10 से 40 सेन्टीग्रेट तापमान एवं 70 से 250 से.मी. वार्षिक वर्षा वाले स्थानों पर सुगमतापूर्वक उगाया जा सकता है ।
भूमि एवं भूमि की तैयारी
इसे विभिन्न प्रकार की भूमि में उगाया जाता है पर बलुई मिट्टी इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त भूमि है, वर्षा के पूर्व 2 – 3 बार गहरी जुताई करके भूमि को तैयार करें व उसे अत्यधिक नमीं युक्त बनायें ।
खाद व उर्वरक
बच के आकंदों की रोपाई के पूर्व खेत में 10 – 20 टन/हेक्टेयर अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद भूमि में समान रूप से मिलवा देना चाहिए । अगर रासायनिक उर्वरक देना चाहें तो 60 किलो नाइट्रोजन, 50 किलो फास्फोरस एवं 60 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से दी जा सकती है । नाइट्रोजन की कुल मात्रा को तीन समान भागों में रोपाई के समय, दो माह बाद एवं 4 माह के बाद दी जाना चाहिए ।
रोपाई का समय व विधि
इसकी रोपाई, पौधे की तैयारी, पुराने राइजोम को नमींयुक्त स्थान पर रेत में संग्रहित कर तथा अंकुरण होने पर छोटे – छोटे गांठयुक्त टुकड़ों में काट कर रोपाई कर, खरीफ मौसम में जुलाई से अगस्त तक ही करें । बच की बोआई रोपणी लगाकर करते हैं । कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. व आकंदों का अंतराल भी 30 से.मी. रखना चाहिए । जिससे हमें प्रति हेक्टेयर 1.11 लाख पौध सघनता प्राप्त हो सके ।
सिंचाई, निंदाई एवं गुड़ाई
रोपाई के एकदम बाद हल्की सिंचाई करें व वर्षाकाल की समाप्ति के बाद 7 दिनों के अंतराल से सिंचाई करें । खेत में पौधों की रोपाई हो जाने के बाद जब भी नींदा अधिक दिखे तब निंदाई तथा फिर 3 – 3 माह के अंतर से करते रहें ।
बच के रोग व कीट
बच की फसल पर कीटों व रोगों का आक्रमण कम ही होता है । अगर कभी मिलीबग कीटों का प्रकोप हो जावे तो 1 मि.ली. मिथाईल पेराथियान, 1.5 मि.ली. आक्सीडेमेटान मिथाईल या 2 मि.ली. क्विनालफास प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव कर नियंत्रण किया जाता है ।
हानिकारक कीट और रोकथाम
घोंगा: यह सुंडी पौधे के पत्तों पर नुकसान करती है । यह पत्तों का गुद्दा खाती है| इसकी रोकथाम के लिए मैटाएलडीहाईड या आयरन फासफेट डालें ।
मिली बग: यह लेपिडोस्फेल्स या सिउडोकोकस के कारण होती है । इससे पत्ते पीले पड़ने और सिकुड़ने शुरू हो जाते हैं । इसकी रोकथाम के लिए मिथाइल पैराथियाल 10 मि.ली. या कुइनलफोस 20 मि.ली. को 10 लीटर पानी में मिला कर जड़ों और टहनियों पर डालें ।
बीमारीयां और रोकथाम
पत्तों पर धब्बे पड़ना: इस बीमारी के साथ पत्तों पर बिरंगे फंगस के धब्बे बन जाते है । इसकी रोकथाम के लिए कप्तान 10 ग्राम और क्लोरपाइरीफोस 20 मि.ली. प्रति 10 लीटर डालें ।
कटाई, संसाधन व उत्पादन
बच की फसल 6 से 8 माह में तैयार हो जाती है । इसके आकंदों को जब पत्तियाँ पीली पड़ जाये तब खोदकर निकाल लें तथा साफ करके छायादार स्थानों पर सुखा लें तथा शुष्क भंडार गृहों में संग्रह कर रखें । इसकी उपज लगभग 42 क्विंटल/हेक्टेयर होती है । शुष्क आकंदों का मूल्य 20 से 30 रूपये प्रति किलो तथा कृषि लागत लगभग 50 हजार रूपये आती है आकंद का औसत विक्रय मूल्य 2000 रूपये प्रति क्ंविटल होता है जिससे शुद्ध लाभ 34,000 रूपये के करीब प्राप्त किया जा सकता है ।
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