जब समुदाय या समाज बढ़ता है तो उसी के भीतर नई पहचान और परंपराओं के साथ एक दूसरा समाज भी बढ़ने लगता है और एक समय बाद वह अपनी स्वतंत्र पहचान निर्मित कर लेता है। इसी तरह वैश्य समाज जब बढ़ा तो उसमें से कई अन्य समाजों की उत्पत्ति होती गई और उन्हीं में से एक है गहोई समाज। यह समाज भी 12 गोत्रों में विभाजित हो चला है। उस पर भी प्रत्येक गोत्र छह उप समाज में बंट गया है। मूलत: इसका संबंध बुंदेलखंड क्षेत्र से है। 12 गोत्र 12 ऋषियों के नाम पर प्रचलित हैं अतः इन्हें ही द्वादश आदित्य मान लिया गया।
इस समाज की एक शाखा बुंदेलखण्ड में थी। इस शाखा के अधिकांश लोग ग्रामों में रहकर कृषि, व्यवसाय तथा गोपालन का ही कार्य करते थे। 1914 में राष्ट्रीय स्तर पर गहोई वैश्य समाज को भी नरसिंह पुर के एक गहोई वैश्य श्रीनाथूराम रेजा ने, गहोई वैश्यों का एक संगठन 'गहोई वैश्य महासभा' का गठन करके इसका प्रथम अधिवेशन नागपुर में आयोजित करके संपन्न कराया। इसके लिए श्री बलदेवप्रसाद मातेले ने सहयोग किया।
चुंकि गहोई वैश्य जाति में आदित्य सूर्य को कहते हैं अतः खुर्देव बाबा को सूर्यावतार मानकर और उनके द्वारा गहोई वंश के एक बालक की रक्षा कर बीज रूप में बचा लिया जिससे गहोई वंश की वृद्धि होती गई। यह समाज खुद को सूर्यवंशी समाज से जोड़कर देखता है क्योंकि इनका सूर्य ध्वज है और खुर्देव बाबा सूर्यदेव के अवतार है। इनकी विवाह की परंपराए में महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले गीतों में वर के रूप में राम और वधू के रूप में सीता का नाम भी लिया जाता रहा है। इसलिए प्रतिवर्ष जनवरी संक्रांति को 'गहोई दिवस' घोषित कर दिया जो सूर्य उपासना का एक महान पर्व है।
गगोई समाज की जानकारी श्री फूलचंद सेठ द्वारा 'गहोई सुधासागर' नामक लिखे ग्रंथ के अलावा शिव पुराण में अध्याय 13 से 20 में मिलती है। शिवजी के वरदान से यक्षराज कुबेर को 'गहोईयो के अधिपति' का दर्जा प्राप्त है। इससे इस समाज का पौराणिक संबंध भी जाहिर होता है। हालांकि ग्रहापति कोक्काल शिलालेख में उल्लिखित 'ग्रहापति' परिवार को उसी समुदाय से माना जाता है जिसे अब गहोई के नाम से जाना जाता है। खजुराहो अवस्थित यह शिलालेख जिसपर विक्रम संवत 1056, कार्तिक मास अंकित है, ग्रहपति परिवार का सबसे प्राचीन सबूत है।
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