मीराबाई के जन्मस्थान मेड़तियों के इतिहास एवं राठौरों के भाटों की बहियों द्वारा मीराजी का जन्म श्रावण सुदी एकम शुक्रवार संवत् 1561 माना गया है। बचपन में मीरा की माता का देहांत हो गया था। मीरा इकलौती संतान थी। बाल्यकाल में मीरा को न भाई-बहन का साथ मिला, न माता-पिता का दुलार। उनके पिता रतन सिंह, राणा साँगा के साथ तत्कालीन राजनीतिक उथल-पुथल और युद्धों को लेकर व्यस्त रहते थे, अतः मीरा का लालन-पालन उनके दादाजी ने किया था। स्वभावत: मीरा के मानसपटल पर अपने दादा की भक्ति भावना का प्रभाव पड़ना ही था। संवत् 1566 में राणा साँगा चित्तौड़ की गद्दी पर बैठे। उनकी पत्नी रानी झाली झालावाड़ के राजा की कन्या रत्नकुँवरी भी प्रभु भक्त थी। वह संवत् 1567-68 में काशी जाकर गुरु रविदास की शिष्या बन गई थी। चित्तौड़ के राणा साँगा के परिवार ने आश्रम बनाकर गुरु रविदास को भेंट किया। मेड़ता से मीरा के दादा चित्तौड़ स्थित आश्रम में गुरु रविदास का उपदेश सुनने के लिए आते थे।
रानी झाली का पुत्र कुँवर भोजराज अपनी माता के समान शांत और निश्छल प्रकृति का युवक था। उस समय कुँवर भोजराज की आयु 18 वर्ष थी। रानी झाली ने अपने पति राणा साँगा की सहमति एवं गुरु रविदास का आशीर्वाद लेकर कुँवर भोजराज के लिए मीरा का हाथ दादाजी से माँगा था। उन्हें भला क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों परिवार संबंध सूत्र में बँध गए। संवत् 1573 में गुरु रविदास की उपस्थिति में कुँवर भोजराज और मीरा का विवाह संपन्न हुआ। मीरा की आयु उस समय 12 वर्ष की थी। इसके बाद ही मीरा ने अपने पति एवं अपनी सास रानी झाली की अनुमति से गुरु रविदास का शिष्यत्व ग्रहण किया।
समय परिवर्तनशील है। मीरा के भाग्य में गृहस्थ जीवन भोगना विधाता ने नहीं लिखा था। केवल 25 वर्ष की अल्पायु में 1580 में कुँवर भोजराज का अकस्मात् देहांत हो गया। संवत् 1585 में राणा साँगा का बाबर के साथ कानवाहा युद्ध में देहांत हो गया। राणा साँगा के पुत्रों रतनसिंह और विक्रमजीत के बीच चित्तौड़ की गद्दी हथियाने के लिए संघर्ष प्रारंभ हो गया। मीरा और रानी झाली विधवा हो गई। रानी झाली पति की मौत के बाद किस अवस्था में रही, इतिहास इस संबंध में मौन है; परंतु मीरा का अपने गुरु रविदास के साथ अटूट संबंध जुड़ा रहा। कुंभ श्याम से सटे मीरा मंदिर के साथ गुरु रविदास छतरी का निर्माण संभवत: मीरा और रानी झाली के प्रयत्नों से तत्कालीन परिस्थितियों में ही संभव हो सका होगा। इस छतरी के नीचे गुरु रविदास के चरण चिह्न हैं और छत के निचले भाग में गुरु रविदास द्वारा बताए गए पंच-विकारों की प्रतिमा एक प्रस्तर शिला पर अंकित है।
राणा साँगा की मौत के बाद मीरा को पारिवारिक यातनाओं का सामना करना पड़ा। ऐसा भी कहा जाता हैं कि विक्रमजीत ने आधी रात के समय मीरा को चित्तौड़गढ़ के नीचे बहती हुई गांभीरी नदी में फेंकवा दिया, मगर मीरा सही सलामत रहीं।
मीरा अब भगवत् भजन और साधु सेवा निडर होकर करने लगीं, परंतु राणा विक्रमजीत को उनके यहाँ साधुओं की भीड़ का जुटना पसंद नहीं था। उसने दो विश्वासपात्र युवतियों चंपा और चमेली को मीरा के पास तैनात कर दिया, ताकि वे मीरा को साधुओं के पास बैठने से रोकती रहें। मीराबाई की संगत के प्रभाव से उन दोनों पर भी गुरुभक्ति का रंग चढ़ गया और वे दोनों मीराबाई की सहायक बन गईं। यही दशा दूसरी दासियों की भी हुई, जो मीरा को वर्जित करने और चौकसी के काम पर तैनात की गईं। अंत में राणा ने यह कठिन काम अपनी बहन ऊदाबाई (मीरा की ननद) को सौंपा और वह कुछ समय तक अपने दायित्व का सतर्कतापूर्वक पालन करती रही। वह दिन में कई बार मीराबाई के महल में जाकर समझाती थी। अपने इन रिश्तेदारों के बर्ताव का वर्णन मीरा ने अपनी वाणी में भी किया है।
इसके पश्चात् राणा ने मंत्रियों की सलाह के अनुसार मीरा को विष देकर मार डालने की योजना बनाई। मीराबाई को एक विष का कटोरा भरकर गुरु रविदास चरणामृत के नाम से पीने के लिए भेजा गया। ऊदाबाई इस भेद को जानती थी। उसने मीरा को सच्चाई बताते हुए विष पीने से मना किया, परंतु मीरा ने कहा जो पदार्थ गुरु रविदास के चरणामृत के नाम पर आया है, उसका परित्याग करना गुरुभक्ति के विरुद्ध है। इतना कहकर श्रद्धा के साथ मीरा ने विषपान किया, लेकिन मीराबाई सही सलामत रहीं। ऐसी भक्ति का कमाल देखकर ऊदाबाई भी उनकी सहायक बन गईं। एक बार राणा ने एक नाग पिटारी में बंद कर मीराबाई के पास भेजा कि यह तेरे लिए हीरों जड़ित हार है। मीरा ने प्रभु का स्मरण करते हुए पिटारी को खोला तो नाग हीरों का जड़ित हार बन गया।
गरल पटायों सो तो सीस जै चढ़ायऔ,
संग त्याग विष भारी ताकी घाट न संभारी है।
राणा नै लगायो चर, बैठे साधु ढिग ठर,
तब ही खबर कर मारों यहै धारी है।
राजे गिरिधारी लाल तिन्ही सों रंग जात
बोलत हँसत ख्याल कानपरी प्यारी है।
जाय के सुनाई भई अति चपलाई
आयों लिए तलवार दे किबार खोलि न्यारी है।
जाके संगि रंग मीजि करत प्रसंग नाना
कहाँ वह नर गयो, वेग दै बताइए।
आगे ही विराजै कुछ तो सो नाहि लाजै
अभै दैखि सुख साजै आँखैं खोलि दरसाइए।
भयोई खिसाणौ राणा लिखयौ चित्र भीत मानो
देख्यो हूँ प्रभाव एवै भाव मैं न भिघो जाई
बिना हरिकृपा कहौ कैसे करि पाइए।
विवई कुटिल एक भेष धरि साधु लियौ
कियौं यौं प्रसंग मौसौं अंग-अंग कीजिए।
आज्ञा भौंकी दईं आप जाल गिरिधारी
अहों सीस धरि जाई करि भोजन हूँ लीजिए।
संतनि समाज मैं बिछाय सेज बोलि लियौ
सेत मुख भयौ विषैभाव सब गयौ
नयौ पायन पै आप मोंको भक्तिदान दीजिए।
संवत् 1603 में दवारिका स्थित रणछोड़ के मंदिर में नाचती गाती मीरा बेहोश होकर गिर पड़ीं और सदा के लिए अपने प्रियतम में समा गई।
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