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चंपा का पेड़ - सुमतीन्द्र नाडिग (कन्नड़ कहानी)

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कुछ मास पहले मेरे सपने में एक चंपा का पेड़ आकर बोला, ‘‘मेरे बारे में भी एक कहानी लिखना।’’ मैंने सोचा यह कौन-सा चंपा का पेड़ हो सकता है ? हमारे घर के पिछवाड़े एक चंपा का पेड़ था, उसके आस-पास लंटान की घनी झाड़ी थी।

मेरा भाई जो तब दस बरस का था, एक शाम लंटान के फूल तोड़ता हुआ उस पेड़ के पास खड़ा था। तब अँधेरा होने को ही था जरा आहट होने से मेरी माँ ने सिर उठाकर देखा। एक शेर मेरे भाई के सिर को फलाँग चला गया। मेरी माँ बरतन धोना छोड़कर बच्चे को घर के भीतर घसीट लायी। यह आश्चर्य की बात थी कि बच्चे को कोई आघात नहीं पहुँचा था। इसके कारण मेरी स्मृति सोरब के चंपा के पेड़ के आस-पास मँडराने लगी।

एक और भी बात उसके बारे में याद हो आयी। जब मैं बीस वर्ष का नौजवान था, तब उस पेड़ के नीचे कपड़े धोने के पत्थर पर अपनी प्रिया के संग बैठा अष्टमी का चंद्रमा देख रहा था। गाँव के और भी चंपा के पेड़ों की याद आयी। इस घर में आने से पहले मैं जिस किराये के घर में रहता था उसके आँगन में लगे चंपा के पेड़ की भी याद आयी। उस पेड़ के नीचेवाली पत्थर की बेंच पर मैं कभी-कभी बैठा करता था। उस घर को छोड़ने के एक दिन पहले रात को मैंने उसके नीचे बैठकर उससे बातें भी की थीं। वे बातें भी याद आयीं। उसके बारे में क्या लिखूँ ?

इसके बाद एक और रात को एक और सपना आया। उसमें उसने याद दिलाया मैं वही बसवनगुड़ी के पुराने घर के आँगनवाला पेड़ हूँ।
‘‘कुछ महीने पहले तुम्हीं मेरे सपने में आये थे ?’’
‘‘जी, हाँ।’’
‘‘तुमने कहा था कि मैं तुम्हारे बारे में एक कहानी लिखूँ। यह इच्छा तुम्हें क्यों हुई ?’’
उस पेड़ ने मुझे से यह पूछा ‘‘अरे भैया कहानीकार ! तुमने अपने बारे में बहुत-सी कहानियाँ लिखी हैं, भला बताओ तो क्यों ?’’
‘‘मेरे मरने के बाद भी मेरी याद लोगों के दिलों में अमर रहे, इसी व्यर्थ प्रयत्न में मैंने कहानियाँ लिखी हैं।’’
‘‘इसी कारण मेरे बारे में भी एक व्यर्थ काम कर डालो।’’
‘‘मैंने अभी तुम्हारी याद में एक-दो कहानियाँ और कविताएँ लिख डाली हैं।’’
‘‘ठीक है। इसीलिए मैं कह रहा हूँ कि तुम मेरे लिए एक और कहानी लिखो और उसमें मुझे ‘कथा- नायक’ बनाओ। वैसे तुम लिखोगे, तो तुम्हें मेरे बारे में अपना स्नेह जताना पड़ेगा। तुम्हारे मन में ढ़ेरों भावनाएँ हो सकती हैं पर वह दूसरों को क्या पता ? बताने पर ही तो पता चलेगी न, व्यक्त भावनाएँ- जैसे मन में संतोष उत्पन्न करती हैं वैसे अव्यक्त भावनाएँ नहीं ! है न ? इसीलिए तो लोग साहित्य पढ़ते हैं। तुम यह नहीं चाहते न कि मैं मर जाऊँ। अगर मैं मर जाऊँ तो मुझे जिलाने को तुम अपनी संजीवनी विद्या का उपयोग करो।’’

‘‘वाह रे ! चंपा के पेड़ !’’ मैंने मन में सोचा। मैंने उससे पूछा ‘‘मरने से पहले प्रेत की तरह सतानेवाले तुझे जीवन मुक्ति चाहिए न ? तेरी प्रतिमा तराशकर खड़ी कर दूँगा। प्रतिमा यदि शुद्ध बन गयी तो मेरे पुनः जन्म की संभावना नहीं रहेगी। तेरी शाखाओं पर तो कौओं के घोंसले हैं तने-तने पर बंदरों की कूद-फाँद। तेरी शाखाएँ बिजली की तारों से टकराती ही रहती हैं। बिजली विभाग के लोग अक्सर तेरी शाखाएँ काटते ही रहते हैं। तुझ में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता।’’
वह बोला, ‘‘तू साहित्य के तत्वों के बारे में बात न कर। साहित्य कुछ और ही चीज है। इसलिए तू उस बारे में कुछ मत बोल। साहित्य के तत्व साहित्य रचना के रूप में बदल जाते हैं।’’ मेरी नींद उचट गयी। थोड़ा और सोने के विचार से मैंने कहा ‘‘अच्छा, लिखूँगा।’’ और सो गया।

यह चंपा का पेड़ साल में दो बार फूल देता था। हम उन्हें तोड़कर बेच देते थे। पास-पड़ोस के बच्चे भी फूल ठेके पर माँगते थे। एक दिन मेरे जीजा उस पेड़ पर चढ़कर गिरते-गिरते बचे थे।

सामने वाले और आस-पास के घरों में आने वाली कारें भी उस पेड़ की छाया में खड़ी हुआ करतीं। इस कारण कभी-कभी तो हमें अपने घरों में घुसने में मुश्किल हो जाती। वह पेड़ इतना बड़ा था कि सड़क का आधा रास्ता घेर लेता था। मुझे कई बार कार वालों से झगड़ना भी पड़ जाता। भिखारी लोग आकर उसकी छाया में आराम करते, खाना खाते। वह कंपाउंड के भीतर नन्हें पौधे के रूप में उग आया था। बाद में वह धीरे-धीरे पूरा पेड़ ही बन गया। उस पेड़ से थोड़ी दूरी पर पानी का हौज था, उसमें पेड़ के पत्ते गिरने से पानी गंदा हो जाता था। बार-बार उसे साफ करके सड़े पत्ते निकालने में मैं ऊब जाता। पेड़ की जड़ें अजगर की तरह उभरी दिखती थीं।

इतना लिखते-लिखते मैं थक चला था। बड़े जोर की नींद आ रही थी। उस दिन आधी रात के समय एक और सपना आया। उसमें वही चंपा का पेड़। ‘तुम्हारी कहानी पढ़ी’ कहकर चुप हो गया। आगे क्या कहता है मैं इसी प्रतीक्षा में था। पर वह कुछ बोला नहीं। मैंने ही पूछा ‘कैसी लगी ?’
उसने पूछा ‘‘लगता है मैं तुम्हारे लिए एक मुसीबत हूँ। मैंने तुम्हें संकट में डाल रखा है।’’
मैंने फिर से बोला ‘‘कहानी अभी समाप्त नहीं हुई।’’

‘‘मुझे पता है तुम कैसे समाप्त करोगे। तुम कहानी समाप्त नहीं करोगे बल्कि मुझे ही समाप्त कर दोगे। लोगों को लोगों से, पेड़ों से प्राणियों को प्राणियों से, धरती से, आकाश से, हवा से लाभ तो चाहिए परंतु उनके अस्तित्व की आवश्यकता नहीं। तुम्हें इस बात का बोध नहीं कि हम सबको प्राण देकर प्राण प्राप्त करने चाहिए। क्या तुम-जैसे मुझे देखते हो वैसे ही अपनी पत्नी से भी व्यवहार करते हो ?’’ चंपा के पेड़ की इस बात ने मेरे मर्म पर आघात किया।

उसके बाद मुझे ठीक से नींद नहीं आयी। मन में यही आतंक था कि कहीं फिर से चंपा का पेड़ सपने में न आ जाए। पर उस रात चंपा के पेड़ ने मेरी नींद खराब नहीं की। कैसा था वह चंपा का पेड़। उसके हल्दी रंग के फूल तोड़-तोड़कर पास-पड़ोस में बाँटा करता था। मेरी बहन की शादी में आने वाली सब स्त्रियों में वे फूल बँटे थे। मंदिर जाते समय चंपा के फूलों के हार बनाकर ले जाते थे। घर में गणेश पूजा या सत्यनारायण की पूजा हो या फिर रोज की पूजा यही फूल उपयोग में लाते थे। हमारा घर-आँगन चंपा की महक से भरा रहता था। मेरे लिए सब से संतोष की बात यह थी, चंपा का पेड़ सदा कलियों से लदा रहता था। एक बार एक कली तोड़कर ऊपर की परतें खोलकर देखा पर वह कली न थी वह तो एक कोपल थी। जिस प्रकार कली पर कवच होता है उसी प्रकार कोपल पर भी होता है। जब पहली बार यह समझ में आया तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। चंपा के फूलों के गुच्छे देखकर भी मैं बहुत खुश होता था।

गरमी के दिनों में मैं उसकी छाया में कुरसी लगाकर घंटों बैठा करता था। एक बार मैं जब कोडग गया था तब वहाँ से शीतल पेड़ की गाँठें लाकर उस पेड़ पर उगाने का प्रयास किया था पर बंदरों ने उन गाँठों को उखाड़कर फेंक दिया। मैंने बार-बार उन गाँठों को तने के जोड़ों में रखकर उगाना चाहा। पर मेरे प्रयत्न व्यर्थ गये। उस परावलंबी की जड़ फैलाकर उसके चारों ओर रस्सी बाँधी। उसके चारों ओर ईटें रखकर उसकी जड़ जमाकर उसके फूल देखने का सपना व्यर्थ गया, क्योंकि बंदरों ने उन्हें चूर-चूर कर दिया।

मुझे ऐसा लगता था कि वह पेड़ मुझ से बात करता था। जब उसकी टहनियाँ हिलतीं तो लगता वह मुझे बुलाता है। मुझे देखकर मुसकुराता है। ऐसा भी महसूस होता कि मेरे उसके पास जाने पर उसे खुशी होती है। मैं उससे बातें करता था और समझता कि वह मेरी बातें समझता है। यदा-कदा उससे ऊब जाने पर भी उसके और उससे परिचित लोगों से भी मुझे प्रसन्नता मिलती थी। वैसे देख तो, भला ऐसा कौन है जो सदा दूसरों को प्रसन्न रख सके ? जिन घरों में चंपा के पेड़ नहीं हैं उनकी दीवारों पर भी ढेरों में कंबलकीड़े रहते हैं। यदि कंबलकीड़े कष्ट दें तो चंपा का पेड़ क्या कर सकता है ? धोखेबाजों ने मुझे विश्वास दिलाकर धोखा भी दिया है। तो क्या यह कहना ठीक होगा कि मैंने उन्हें प्रोत्साहित किया है। उपकार या अपकार करना हर जीव के स्वभाव के अनुसार होता है। वैसे देखें तो चंपा का पेड़ ‘उपकार- जीवी’ है।

यह घर जब बनाया गया और यह पेड़ अभी नन्हा पौधा ही था तब इसे पानी की आवश्यकता थी। उसके बाद इसे किसी व्यक्ति के पानी देने की आवश्यकता न रही। भगवान का दिया पानी, धरती का सार, हवा से मिलने वाली ऑक्सीजन और अम्ल पदार्थ और सूर्य की रश्मियों से जीने वाला वह चंपा का पेड़ सालभर में दो बार फूलों से लद उठता तथा आँखों के लिए सौंदर्य की वस्तु और नाक के लिए सुखद सुगंध के रूप में, व त्वचा के लिए ताप का हरण करके ठंडक देने वाला हलकी वर्षा में छतरी के रूप में शरण देने वाला बन जो उपकार किये हैं उन्हें भूला नहीं। उसने हमसे कुछ चाहा नहीं। वर्षों फूल दिये छाया दी, और उदास होने पर सांत्वना दी।

मैंने कहानी यहीं समाप्त की। उसी रात फिर से वही पेड़ सपने में आया। उसने कहा, ‘‘मैंने तुम्हारी कहानी पढ़ी। तुमने वस्तुनिष्ठ होने का प्रयास किया। अपनी भावनाएँ अतिरंजित होने नहीं दीं।’’
मैं बोला ‘तो’ ?
‘‘कल उन लोगों ने मुझे काट डाला।’’
मैं क्या कहूँ कुछ समझ में न आया। अपने किसी नजदीकी व्यक्ति के मरने पर जैसी शून्यता मन में भर उठती है वही शून्यता भर उठी।
चंपा के पेड़ ने ही फिर कहा, ‘‘तुम्हें कम से कम इतना तो कहना था कि मुझे कोई न काटे।’’
‘‘हाँ, पर नया घर बदलने की हड़बड़ी साँस की बीमारी में तथा बेटी के ब्याह की व्यस्तता, कॉलेज में पढ़ाने की व्यस्तता में मैं डूबकर रह गया। वैसे मैं उनसे कहता भी तो कोई सुनने वाला न था।’’ यह कहकर मैंने अपना समर्थन आप ही किया।

पेड़ बोला, ‘‘अपना समर्थन करने की जरूरत नहीं, कृतघ्नता भी नहीं। और पश्चाताप की भी जरूरत नहीं, और तो और तुम्हारी करुणा भी मुझे नहीं चाहिए लेकिन दूसरे जीव के प्रति यदि प्रेम हो तो वही काफी है।’’
‘‘मैं क्या कर सकता था ?’’

बड़ी भावुकता से उस पेड़ ने कहा, ‘‘यह मुझसे क्या पूछते हो। स्वयं अपनी बुद्धि का उपयोग करना चाहिए। बंबई में जब एक पेड़ काटने की बात उठी तो इलाके के लोगों का विरोध होने के कारण उसे वहाँ से हटाकर दूसरी जगह लगा नहीं दिया गया? विज्ञान का इतना विकास हो चुका। एक पेड़ पूरी तरह एक जगह से निकाल दूसरी जगह लगा देना क्या संभव नहीं?’’

‘‘पर मैं तुम्हें कोई आंदोलन चलाकर बचा पाने में समर्थ नहीं हूँ। मैं ज्यादा प्रभावशाली भी नहीं, धनवान भी नहीं, नेता भी नहीं।’’ यह कहकर मैंने अपनी असमर्थता जतायी।

‘‘हाँ, भैया, तुम धनवान तो नहीं पर तुममें अपने विचार दूसरे उस घर में आने वालों के सामने रखकर अपनी मरजी बताने की शक्ति भी नहीं। जाने दो, तुमसे कहने से क्या फायदा ? मैं भी तो तुम्हारे जैसा ही हूँ। यदि मैं वह महावृक्ष होता जहाँ शंकराचार्य ने या बुद्ध ने तपस्या की होती या गाँधीजी ने मुझे रोपा होता तो शायद मैं अपने को बचा लेता।’’ यह कहकर वह चुप हो गया।

मैंने कहा, ‘‘मुझे बहुत दुःख हुआ। मैं अब भी तुम से प्रेम करता हूँ, यह तो तुम्हें समझ में आ गया होगा। तुम मरे नहीं हो। मेरे भीतर ही भीतर खिल रहे हो, फूल दे रहे हो, छाया दे रहे हो।’’
पेड़ स्वप्न में अदृश्य हो गया, फिर कभी सपने में आया ही नहीं।

(रूपांतरकार : बी.आर.नारायण)

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