अँधेरे डिब्बे में जल्दी-जल्दी सामान ठेल, गोद के आबिद को खिड़की से भीतर सीट पर पटक, बड़ी लड़की जुबैदा को चढ़ाकर सुरैया ने स्वयं भीतर घुसकर गाड़ी के चलने के साथ-साथ लम्बी साँस लेकर पाक परवरदिगार को याद किया ही था कि उसने देखा, डिब्बे के दूसरे कोने में चादर ओढ़े जो दो आकार बैठे हुए थे, वे अपने मुसलमान भाई नहीं - सिख थे! चलती गाड़ी में स्टेशन की बत्तियों से रह-रहकर जो प्रकाश की झलक पड़ती थी, उसमें उसे लगा, उन सिखों की स्थिर अपलक आँखों में अमानुषी कुछ है। उनकी दृष्टि जैसे उसे देखती है पर उसकी काया पर रुकती नहीं, सीधी भेदती हुई चली जाती है, और तेज धार-सा एक अलगाव उनमें है, जिसे जैसे कोई छू नहीं सकता, छुएगा तो कट जाएगा! रोशनी इसके लिए काफ़ी नहीं थी, पर सुरैया ने मानो कल्पना की दृष्टि से देखा कि उन आँखों में लाल-लाल डोरे पड़े हैं, और... और... वह डर से सिर गयी। पर गाड़ी तेज़ चल रही थी; अब दूसरे डिब्बे में जाना असम्भव था : कूद पड़ना और एक उपाय होता, किन्तु उतनी तेज़ गति में बच्चे-कच्चे लेकर कूदने से किसी दूसरे यात्री द्वारा उठाकर बाहर फेंक दिया जाना क्या बहुत बदतर होगा? यह सोचती और ऊपर से झूलती हुई खतरे की चेन के हैंडिल को देखती हुई वह अनिश्चित-सी बैठ गयी... आगे स्टेशन पर देखा जाएगा... एक स्टेशन पर तो कोई खतरा नहीं है - कम-से-कम अभी तक तो कोई वारदात इस हिस्से में नहीं हुई...
“आप कहाँ तक जाएँगी?”
सुरैया चौंकी। बड़ा सिख पूछ रहा था। कितनी भारी उसकी आवाज़ थी! जो शायद दो स्टेशन बाद उसे मारकर ट्रेन से बाहर फेंक देगा, वह यहाँ उसे ‘आप’ कहकर सम्बोधन करे, इसकी विडम्बना पर वह सोचती रह गयी और उत्तर में देर हो गयी। सिख ने फिर पूछा, “आप कितनी दूर जाएँगी?”
सुरैया ने बुरका मुँह से उठाकर पीछे डाल रखा था, सहसा उसे मुँह पर खींचते हुए कहा, “इटावे जा रही हूँ।”
सिख ने क्षण-भर सोचकर कहा, “साथ कोई नहीं है?”
उस तनिक-सी देर को लक्ष्य करके सुरैया ने सोचा, ‘हिसाब लगा रहा है कि कितना वक्त मिलेगा मुझे मारने के लिए... या रब, अगले स्टेशन पर कोई और सवारियाँ आ जाएँ... और साथ कोई जरूर बताना चाहिए - उससे शायद यह डरा रहे! यद्यपि आज-कल के जमाने में वह सफर में साथ क्या जो डिब्बे में साथ न बैठे... कोई छुरा भोंक दे तो अगले स्टेशन तक बैठी रहना कि कोई आकर खिड़की के सामने खड़ी होकर पूछेगा, ‘किसी चीज की जरूरत तो नहीं...’
उसने कहा, “मेरे भाई हैं ...दूसरे डिब्बे में...”
आबिद ने चमककर कहा, “कहाँ माँ! मामू तो लाहौर गये हुए हैं।...”
सुरैया ने उसे बड़ी जोर से डपटकर कहा, “चुप रह!”
थोड़ी देर बाद सिख ने पूछा, “इटावे में आपके अपने लोग हैं?”
“हाँ।”
सिख फिर चुप रहा। थोड़ी देर बाद बोला, “आपके भाई को आपके साथ बैठना चाहिए था; आजकल के हालात में कोई अपनों से अलग बैठता है?”
सुरैया मन-ही-मन सोचने लगी कि कहीं कम्बख्त ताड़ तो नहीं गया कि मेरे साथ कोई नहीं है! सुरैया ने बुरका मुँह से उठाकर पीछे डाल रखा था, सहसा उसे मुँह पर खींचते हुए कहा, “इटावे जा रही हूँ।” सिखे ने क्षणभर सोचकर कहा,
गाड़ी की चाल धीमी हो गयी। छोटा स्टेशन था। सुरैया असमंजस में थी कि उतरे या बैठी रही? दो आदमी डिब्बे में और चढ़ आये-सुरैया के मन ने तुरन्त कहा, “हिन्दू,” और तब वह सचमुच और भी डर गयी, और थैली-पोटली समेटने लगी।
सिख ने कहा, “आप क्या उतरेंगी?”
“सोचती हूँ, भाई के पास जा बैठूँ...” क्या जीव है, इनसान कि ऐसे मौक़े पर भी झूठ की टट्टी की आड़ बनाए रखता है... और कितनी झीनी आड़, क्योंकि डिब्बा बदलवाने भाई स्वयं न आता? आता कहाँ से, हो जब न?-
सिख ने कहा, “आप बैठी रहिए। यहाँ आपको कोई डर नहीं है। मैं आपको अपनी बहिन समझता हूँ और इन्हें अपने बच्चे... आपको अलीगढ़ तक ठीक-ठीक मैं पहुँचा दूँगा। उससे आगे खतरा भी नहीं है, और वहाँ से आपके भाई-बंद भी गाड़ी में आ ही जाएँगे।”
एक हिन्दू ने कहा, “सरदारजी, जाती है तो जाने दो, न आपको क्या?”
सुरैया न सोच पायी कि सिख की बात की, और इस हिन्दू की टिप्पणी को किस अर्थ में ले, पर गाड़ी ने चलकर फैसला कर दिया। वह बैठ गयी।
हिन्दू ने पूछा, “सरदार, आप पंजाब से आये हो?”
“जी।”
“कहाँ घर है आपका?”
“शेखूपुरे में था। अब यहीं समझ लीजिए...”
“यहीं? क्या मतलब?”
“जहाँ मैं हूँ, वहीं घर है! रेल के डिब्बे का कोना।”
हिन्दू ने स्वर को कुछ संयत कर, जैसे गिलास में थोड़ी-सी हमदर्दी उड़ेलकर सिख की ओर बढ़ाते हुए कहा, “तब तो आप शरणार्थी हैं...”
सिख ने मानो गिलास को ‘जी, मैं नहीं पीता’ कहकर ठेलते हुए, एक सूखी हँसी हँसकर कहा, “जिसकी अनुगूँज हिन्दू महाशय के कान नहीं पकड़ सके।”
“जी!”
हिन्दू महाशय ने तनिक और दिलचस्पी के साथ कहा, “आपके घर के लोगों पर तो बहुत बुरी बीती होगी-”
सिख की आँखों में एक पल के अंश-भर के लिए अंगार चमक गया, पर यह इस दाने को भी चुगने न बढ़ा। चुप रहा।
हिन्दू ने सुरैया की ओर देखते हुए कहा, “दिल्ली में कुछ लोग बताते थे, वहाँ उन्होंने क्या-क्या जुल्म किये हैं हिन्दुओं और सिखों पर। कैसी-कैसी बातें वे बताते थे, क्या बताऊँ, ज़बान पर लाते शर्म आती है। औरतों को नंगा करके...”
सिख ने अपने पास पोटली बनकर बैठे दूसरे व्यक्ति से कहा, “काका, तुम ऊपर चढ़कर सो रहो।” स्पष्ट ही वह सिख का लड़का था, और जब उसने आदेश पाकर उठकर अपने सोलह-सत्रह बरस के छरहरे बदन को अगड़ाई में सीधा करके ऊपरी बर्थ की ओर देखा, तब उसकी आँख में भी पिता की आँखों का प्रतिबिम्ब झलक आया। वह ऊपर बर्थ पर चढ़कर लेट गया, नीचे सिख ने अपनी टाँगें सीधी कीं ओर खिड़की से बाहर की ओर देखने लगा।
हिन्दू महाशय की बात बीच में रुक गयी थी, उन्होंने फिर आरम्भ किया, “बाप-भाइयों के सामने ही बेटियों-बहिनी को नंगा करके...।’
सिख ने कहा “बाबू साहब, हमने जो देखा है वह आप हमीं को क्या बताएँगे...” इस बार वह अनुगूँज पहले ही स्पष्ट थी, लेकिन हिन्दू महाशय ने अब भी नहीं सुनी। मानो शह पाकर बोले, “आप ठीक कहते हैं हम लोग भला आपका दुख कैसे समझ सकते हैं! हमदर्दी हम कर सकते हैं, पर हमदर्दी भी कैसी जब दर्द कितना बड़ा है यही न समझ पायें! भला बताइये, हम कैसे पूरी तरह समझ सकते हैं कि उन सिखों के मन पर क्या बीती होगी जिनकी आँखों के सामने उनकी बहू-बेटियों को...”
सिख ने संयम से काँपते हुए स्वर में कहा, “बहू-बेटियाँ सबकी होती हैं, बाबू साहब!”
हिन्दू महाशय तनिक-से अप्रतिभ हुए कि सरदार की बात का ठीक आशय उनकी समझ में नहीं आ रहा। किन्तु अधिक देर तक नहीं। बोले, “अब तो हिन्दू-सिख भी चेते हैं। बदला लेना बुरा है, लेकिन कहाँ तक कोई सहेगा? इधर दिल्ली में तो उन्होंने डटकर मोर्चे लिये हैं, और कहीं-कहीं तो र्ईंट का जवाब पत्थर से देने-वाली मसल सच्ची कर दिखायी है। सच पूछो तो इलाज ही यह है। सुना है करौल बाग में किसी मुसलमान डॉक्टर की लड़की को...”
अब की बार सिख की वाणी में कोई अनुगूँज नहीं थी, एक प्रकट और रड़कने-वाली रुखाई थी। बोला, “बाबू साहब, औरत की बेइज्ज़ती सबके लिए शर्म की बात है। और बहिन...” यहाँ सिख सुरैया की ओर मुखातिब हुआ, “आपसे माफ़ी माँगता हूँ कि आपको यह सुनना पड़ रहा है।”
हिन्दू महाशय ने अचकचाकर कहा, “क्या-क्या, क्या-क्या? मैंने इनसे कुछ थोड़े ही कहा है?” फिर अपने मन में कुछ सँभालते हुए, और ढिठाई से कहा, “ये - आपके साथ हैं?”
सिख ने और भी रुखाई से कहा, “जी! अलीगढ़ तक मैं पहुँचा रहा हूँ।”
सुरैया के मन में किसी ने कहा, ‘यह बिचारा शरीफ़ आदमी अलीगढ़ जा रहा है! अलीगढ़-अलीगढ़...’ उसने साहस करके पूछा, “आप अलीगढ़ उतरेंगे?”
“हाँ।”
“वहाँ कोई हैं आपके?”
“मेरा कहाँ कौन है? लड़का तो मेरे साथ है।”
“वहाँ कैसे जा रहे हैं? रहेंगे?”
“नहीं, कल लौट आऊँगा।”
“तो... तफ़रीहन जा रहे हैं।”
“तफ़रीह!” सिख ने खोये-से स्वर में कहा, “तफ़रीह!” फिर सँभलकर, “नहीं; हम कहीं नहीं जा रहे - अभी सोच रहे हैं कि कहाँ जाएँ - और जब टिकाऊ कुछ न रहे, तब चलती गाड़ी में ही कुछ सोचा जा सकता है...”
सुरैया के मन में फिर किसी ने कोंचकर कहा, “अलीगढ़... अलीगढ़... बेचारा शरीफ़ है...”
“मुझे क्या अच्छी और क्या बुरी!”
“फिर भी - आपको डर नहीं लगता? कोई छुरा ही मार दे रात में...”
सिख ने मुस्कराकर कहा, “उसे कोई नजात समझ सकता है, यह आपने कभी सोचा है?”
“कैसी बातें करते हैं। आप!”
“और क्या! मारेगा भी कौन? या मुसलमान, या हिन्दू। मुसलमान मारेगा, तो जहाँ घर के और सब लोग गये हैं वही मैं भी जा मिलूँगा; और अगर हिन्दू मारेगा, तो सोच लूँगा कि यही कसर बाक़ी थी - देश में जो बीमारी फैली है वह अपने शिखर पर पहुँच गयी - और अब तन्दुरुस्ती का रास्ता शुरू होगा।”
“मगर भला हिन्दू क्यों मारेगा? हिन्दू लाख बुरा हो, ऐसे काम नहीं करेगा...”
सरदार को एकाएक गुस्सा चढ़ आया। उसने तिरस्कारपूर्वक कहा, “रहने दीजिए, बाबू साहब! अभी आप ही जैसे रस ले-लेकर दिल्ली की बातें सुना रहे थे - अगर आपके पास छुरा होता और आपको अपने लिए कोई खतरा न होता, तो आप क्या - अपने साथ बैठी सवारियों को बख्श देते? इन्हें - या मैं बीच में पड़ता तो मुझे?” हिन्दू महाशय कुछ बोलने को हुए पर हाथ के अधिकारपूर्ण इशारे से उन्हें रोकते हुए सरदार कहता गया, “अब आप सुनना ही चाहते हैं तो सुन लीजिये कान खोलकर। मुझसे आप हमदर्दी दिखाते हैं कि मैं आपका शरणार्थी हूँ। हमदर्दी बड़ी चीज है। मैं अपने को निहाल समझता अगर आप हमदर्दी देने के काबिल होते। लेकिन आप मेरा दर्द कैसे जान सकते हैं, जब आप, उसी सांस में दिल्ली की बातें ऐसे बेदर्द ढंग से करते हैं? मुझसे आप कर सकते होते - इतना दिल आप में होता तो जो बातें आप सुनाना चाहते हैं उनसे शर्म के मारे आपकी जबान बन्द हो गयी होती - सिर नीचा हो गया होता! औरत की बेइज्जती औरत की बेइज्जती है, वह हिन्दू या मुसलमान की नहीं, वह इनसान की माँ की बेइज्ज़ती है, शेखूपुरे में हमारे साथ जो हुआ सो हुआ - मगर मैं जानता हूँ कि उसका मैं बदला कभी नहीं ले सकता - क्योंकि उसका बदला हो ही नहीं सकता!
मैं बदला दे सकता हूँ - और वह यही, कि मेरे साथ जो हुआ है वह और किसी कि साथ न हो। इसीलिए दिल्ली और अलीगढ़ के बीच इधर और उधर लोगों को पहुँचाता हूँ मैं; मेरे दिन भी कटते हैं और कुछ बदला चुका भी पाता हूँ; और इसी तरह, अगर कोई किसी दिन मार देगा तो बदला पूरा हो जाएगा - चाहे मुसलमान मारे, चाहे हिन्दू! मेरा मकसद तो इतना है कि चाहे हिन्दू हो, चाहे सिख हो, चाहे मुसलमान हो, जो मैंने देखा है वह किसी को न देखना पड़े; और मरने से पहले मेरे घर के लोगों की जो गति हुई, वह परमात्मा न करे, किसी की बहू-बेटियों को देखनी पड़े!”
इसके बाद बहुत देर तक गाड़ी में बिलकुल सन्नाटा रहा। अलीगढ़ के पहले जब गाड़ी धीमी हुई, तब सुरैया ने बहुत चाहा कि सरदार से शुक्रिया के दो शब्द कह दे, पर उसके मुँह से भी बोल नहीं निकला।
सरदार ने ही आधे उठकर ऊपर के बर्थ की ओर पुकारा, “काका उठ, अलीगढ़ आ गया है।” फिर हिन्दू महाशय की ओर देखकर बोला, “बाबू साहब, कुछ कड़ी बात कह गया हूँ तो माफ़ करना, हम लोग तो आपकी सरन हैं!”
हिन्दू महाशय की मुद्रा से स्पष्ट दीखा कि वहाँ वह सिख न उतर रहा होता तो वे स्वयं उतरकर दूसरे डिब्बे में जा बैठते।
(इलाहाबाद, 1947)
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