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धर्म और सम्प्रदाय में क्या अंतर है

 
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धर्म शब्द का अर्थ क्या है, धर्म क्या है, धर्म के कितने प्रकार है, हमारा क्या धर्म है? - इन विषयों पर इस लेख में विस्तार से जानेंगे। अगर आप सनातन धर्म के ग्रंथों में धर्म के बारे में पढ़ेंगे, तो धर्म की अनेकों परिभाषा दी गयी हैं। उन परिभाषा को पढ़ कर लोग यह सोचते है कि आखिर धर्म है क्या? जैसे महाभारत वनपर्व २०८.९ ने कहा “स्वकर्मनिरतो यस्तु धर्म: स इति निश्चय:।” अर्थात् अपने कर्म में लगे रहना निश्चय ही धर्म है। फिर महाभारत वनपर्व ३३.५३ ने कहा “उदार मेव विद्वांसो धर्म प्राहुर्मनीषिण:।” अर्थात् मनीषी जन उदारता को ही धर्म कहते है। फिर महाभारत शांतिपर्व १५.२ “दण्डं धर्म विदुर्बुधा:।” अर्थात् ज्ञानी जन दण्ड को धर्म मानते है। फिर महाभारत शांतिपर्व १६२.५ ने कहा “सत्यं धर्मस्तपो योग:।” अर्थात् सत्य ही धर्म है, सत्य ही तप है और सत्य ही योग है। फिर महाभारत शांतिपर्व २५९.१८ ने कहा “दातव्यमित्ययं धर्म उक्तो भूतहिते रतै:।” अर्थात् सभी प्राणियों के हित में लगे रहने वाले पुरुषों ने दान को धर्म बताया है। ऐसी परिभाषा केवल महाभारत में ही नहीं अन्य ग्रन्थों में भी है। अतएव इतनी सारी परिभाषाओं में से धर्म क्या है? यह जानने से पहले, यह जानते है कि धर्म शब्द का अर्थ क्या है?

धर्म शब्द का अर्थ

धारयति इति धर्मः - धर्म का अर्थ होता है “धारण करना”।
प्रश्न - क्या धारण करना चाहिए? उत्तर - जो धारण करने योग्य हो, उसे धारण करना चाहिए।
प्रश्न - क्या धारण करने योग्य है? उत्तर - जो धर्मग्रंथों ने कहा कि सत्य, क्षमा, विद्या, दया, दान आदि।

धर्म क्या है?

जो धारण करने योग्य है उसे धर्म कहते है। इसलिये जो उपर्युक्त महाभारत में कहा कि कर्म में लगे रहना, उदारता, दण्ड, सत्य, दान धर्म है। इसका अर्थ यह है की ये धारण करने योग्य है। इसलिये इस धर्म को निभाना चाहिए अर्थात् इनको धारण करना चाहियें। दुसरे शब्दों में जो सनातन धर्म के ग्रंथों में धर्म के बारे में कहा गया है कि ये धर्म है, ये अधर्म है और मनुष्य को धर्म का पालन करना चाहिए। इसका भाव यह है कि ये धरण करने योग्य है, ये धारण करने योग्य नहीं है और मनुष्य को धारण करना चाहिए एवं पालन करना चाहिए। उदाहरण के लिए -
  • कर्म में लगे रहना धर्म है। अर्थात् कर्म में लगे रहना धारण करने योग्य है।
  • उदारता धर्म है। अर्थात् उदारता धारण करने योग्य है।
  • सत्य धर्म है। अर्थात् सत्य धारण करने योग्य है।
  • दया धर्म है। अर्थात् दया धारण करने योग्य है।
एक प्रश्न मन में उठ सकता है कि ये धारण करने योग्य क्यों है? क्यों हम सत्य, क्षमा, विद्या, दया आदि को धारण करे? क्यों हम असत्य, क्रोध, अविद्या, क्रूरता आदि को नहीं धारण करे? ये ग्रंथ कौन होते है हमें सिखाने वाला। तो इसका उत्तर बड़ा सरल है - आप असत्य, क्रोध, अविद्या, क्रूरता को धर्म मानले यानी धारण करले। ऐसा करते ही, स्वयं का और पुरे समाज का बुरा दिन शुरु हो जायेगा। क्योंकि फिर कोई व्यक्ति किसी की मदत नहीं करेगा, हमेंसा झूट बोलेगा, पढाई नहीं करेगा यानी अज्ञानी बनेगा, जिससे समाज में अज्ञानता फैलेगी, लोग हिंसक हो जायेंगे। अस्तु, तो ऐसे असभ्य लोग एवं समाज की कल्पना ही भयभीत करती है। अतएव ग्रंथों ने ऐसे धर्मों को बताया; जो धारण करने योग्य है एवं जिससे स्वयं और समाज की उन्नति हो सके।

जहा तक रही बात हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, जैन या बौद्ध आदि धर्मों की। तो ये सभी धर्म न होकर सम्प्रदाय या समुदाय मात्र हैं। “सम्प्रदाय” एक परम्परा या एक मत को मानने वालों का समूह है। अतएव इन्हें धर्म कहना सर्वथा असत्य है।

जब भी कोई व्यक्ति/समुदाय किसी एक अधिष्ठित (देव/दानव/मानव) को चुन लेता है, तब उस समूह/समुदाय को संप्रदाय बुलाया जाता है। 

उदाहरण : वैष्णव, शैव, शाक्त संप्रदाय | ये सभी मूलतः सनातन धर्म की ही शाखाएं हैं, जिन्हें समाज ने वर्गीकरण करके नाम दिया । 

इस प्रकार सम्प्रदाय किसी एक व्यक्ति द्वारा, अथवा किसी एक व्यक्ति के नाम पर उसके अनुयाइयों द्वारा बनायीं गयी मान्यता को कहा जाता है। 

आइये पहले धर्म को संक्षेप में समझते हैं

धर्म संस्कृत के ध धातु से बना है धर्म का अर्थ है कि जो सबको धारण किए हुए है अर्थात धारयति- इति धर्म:!। अर्थात जो सबको संभाले हुए है। कहीं भी किसी से वैमनस्य दुर्भावना का प्रश्न ही नहीं उठता । 

यह ईश्वर द्वारा मनुष्यों को वेद के रूप में दिया गया है, धर्म एक व्यापक शब्द है जो जाती, समुदाय, भाषा, भौगोलिक क्षेत्र रंग आदि से परे है और सम्पूर्ण प्राणियों के लिए है, जिसमें पृकृति का दोहन नहीं बल्कि उसमें भी समरसता बनाये रखने के लिए है । 

धर्म ईश्वर जीव और पृकृति तीनो को ज्ञान कर्म और उपासना द्वारा अपनाने को कहा गया I धर्म इस लोक और परलोक दोनो को सुचारु रूप से सवारने के लिए है और सबसे बड़ी बात यह किसी व्यक्ति विशेष द्वारा नहीं चलाया गया होता है I यह ईश्वर द्वारा सभी प्राणियों के लिए है जैसे की सत्य सनातन वैदिक धर्म किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं चलाया राम, कृष्ण, शिव शंकर आदि हमारे आराध्य हैं किन्तु ईश्वर नहीं और वेद और ईश्वरीय ज्ञान तो इनके आने से पहले से ही है जबसे मनुष्य इस धरती पर है तबसे। 

अब बात करते है मज़हब या सम्प्रदाय की
सम्प्रदाय किसी व्यक्ति विशेष द्वारा चलाया जाने वाला मत होता जो की उस समुदाय विशेष की भौगोलिक, आर्थिक अनुवांशिक समस्याओं को ध्यान में रख कर बनाया जाता इसका रूप व्यापक नहीं हो सकता और अलग अलग मत, सम्प्रदायों या मज़हबों मतभेद होना स्वाभाविक है क्योंकि हर व्यक्ति या मज़हब बनाने वाले की सोच भी भिन्न हो सकती है इस लिए मज़हब के नाम पर दंगे और एक दुसरे को नीचे दिखाना या अपने मज़हब को फैलाने की होड़ लगी रहती है । 

उदाहरण के लिए -----
  • क्रिश्चियन- ईसा द्वारा, 
  • इस्लाम - मोहोम्मद साहब द्वारा, 
  • बौद्ध - गौतम बुद्ध द्वारा, 
  • सिख - नानक द्वारा 
  • जैन महावीर द्वारा फैलाया गया और इन सभी के अपने अलग अलग नियम और मान्यताएं हैं
इस दृष्टिकोण से सनातन धर्म, धर्म की कसौटी पर खरा उतरता है। बाकी बहुत-से प्रचलित धर्म, वास्तव में, सम्प्रदाय की श्रेणी में गिने जाने योग्य हैं।


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