धान भारत की एक महत्तवपूर्ण फसल है जो कि जोताई योग्य क्षेत्र के लगभग एक चौथाई हिस्से में उगाई जाती है और भारत की लगभग आधी आबादी इसे मुख्य भोजन के रूप में प्रयोग करती है। यह उत्तर प्रदेश की मुख्य फसल है और उत्तर प्रदेश के लगभग 5.4 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में धान की खेती की जाती है। Basmati, Kalajeera, Vishnu Parag आदि धान की कुछ उच्च गुणवत्ता वाली किस्में हैं जिनकी खेती उत्तर प्रदेश में की जाती है।
धान (चावल) की फसल को पानी की सबसे ज्यादा जरूरत होती हैं. इस कारण इसकी खेती अधिक जल धारण क्षमता वाली मिट्टी में की जाती है. इसकी खेती के लिए ज्यादा तापमान की जरूरत नही होती. धान की खेती के लिए जमीन का पी.एच. मान भी ज्यादा नही होना चाहिए. धान को खेत में बीज के रूप में ना लगाकर पौध के रूप में लगाया जाता है. धान की खेती अधिक मेहनत वाली फसल है. अगर आप भी धान की खेती करना चाह रहे हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.
उपयुक्त मिट्टी
धान की खेती के लिए चिकनी काली मिट्टी सबसे उपयुक्त होती हैं. क्योंकि चिकनी मिट्टी में जल धारण की क्षमता अधिक होती हैं. इस तरह की मिट्टी में एक बार पानी देने के बाद कई दिनों तक पानी भरा रहता है. भारत में इसकी खेती उत्तर से लेकर दक्षिण भारत के ज्यादातर राज्यों में की जा रही है. धान की खेती के लिए जमीन का पी.एच. मान 5.5 से 6.5 तक होना चाहिए. हालांकि इससे कम और ज्यादा पी.एच. वाली जमीनों को उपचारित कर उनमें भी इसकी खेती की जा रही है.
जलवायु और तापमान
धान की खेती के लिए उष्ण और उपोष्ण दोनो जलवायु वाले प्रदेश उपयुक्त होते हैं. भारत में इसकी खेती खरीफ के मौसम में की जाती है. धान की खेती ज्यादातर सिंचित क्षेत्रों में की जाती है. इसकी खेती के लिए ज्यादा बारिश की जरूरत होती है. धान की खेती के लिए 100 मिलीमीटर बारिश का होना जरूरी होता है. कम बारिश होने पर सिंचाई ज्यादा करनी पड़ती है. धान के पौधे के लिए सामान्य तापमान की जरूरत होती है. लेकिन ये अधिकतम 35 डिग्री तापमान को भी सहन कर लेता है. सामान्य तापमान पर इसका पौधा अच्छी पैदावार देता है, और पौधे की वृद्धि भी अच्छे से होती है.
उन्नत किस्में
धान की कई तरह की किस्में बाज़ार में मौजूद हैं. जिन्हें पकने के समय और भूमि की स्थिति के आधार पर कई प्रजातियों में बाँटा गया है.
शीघ्र पकने वाली प्रजाति
इस प्रजाति की किस्में बहुत जल्द पककर तैयार हो जाती है. इन्हें अगेती किस्म के रूप में उगाया जाता है.
नरेन्द्र-118
धान की इस किस्म को पकने में 85 से 90 दिन का टाइम लगता है. इस किस्म को कम सिंचित जगहों के लिए तैयार किया गया है. इसके दाना लम्बा, पतला और सफ़ेद रंग का होता है. इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 45 से 50 क्विंटल तक पाया जाता है. इस किस्म के धान से 65 से 70 प्रतिशत तक चावल प्राप्त होता है.
मनहर
धान की इस किस्म के दाने पतले लम्बे और सफ़ेद रंग के होते हैं. जिनसे 70 प्रतिशत तक चावल प्राप्त होते हैं. इस किस्म के पौधे को पककर तैयार होने में लगभग 100 दिन का वक्त लगता है. इस किस्म के पौधों पर झुलसे का रोग नही पाया जाता. इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार लगभग 50 क्विंटल तक पाई जाती है.
मालवीय धान – 917
धान की इस किस्म का पौधा 135 दिन में पककर तैयार होता है. इसके दाने छोटे और सुगन्धित होते हैं. इस किस्म को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने तैयार किया है. जिसकी प्रति हेक्टेयर पैदावार 55 से 60 क्विंटल तक पाई जाती है. तेज आंधी और तूफ़ान का इस किस्म पर कोई प्रभाव नही पड़ता.
मध्यम समय में पकने वाली प्रजाति
इस प्रजाति की किस्में पकने में जल्दी पकने वाली किस्मों से थोड़ा ज्यादा टाइम लेती हैं. लेकिन इनकी पैदावार ज्यादा पाई जाती है.
नरेन्द्र-359
इस किस्म के पौधों को झुलसे का रोग नही लगता. इसके पौधे के सभी कल्लों में बाली खासतौर से निकलती हैं. इस किस्म के पौधे 130 से 135 दिन में पककर तैयार हो जाते हैं. जिनकी प्रति हेक्टेयर पैदावार 60 से 65 क्विंटल तक पाई जाती है. धान की इस किस्म से 72 प्रतिशत तक चावल प्राप्त होते हैं. जिनका आकार बड़ा, मोटा और रंग हल्का सफ़ेद होता है.
सीता
इस किस्म का धान लगभग 130 दिन में पककर तैयार हो जाता है. जो मध्यम आकार का होता है. इसका रंग सफ़ेद होता है. इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार लगभग 50 क्विंटल पाई जाती है.
मालवीय धान-1
इस किस्म के धान को पकने में लगभग 125 दिन का वक्त लगता है. इसके दाने पतले और सफ़ेद होते हैं. जिनकी प्रति हेक्टेयर पैदावार 55 से 60 क्विंटल तक पाई जाती है. इस किस्म के धान से 70 प्रतिशत तक चावल प्राप्त होते हैं.
सूरज-52
धान की इस किस्म को झुलसा रोग नही लगता. इस किस्म के धान से 70 प्रतिशत चावल प्राप्त किये जा सकते हैं. इसके पौधे को पककर तैयार होने में लगभग 135 दिन का वक्त लगता है. इसके दाने लम्बे और मध्यम मोटाई वाला होता है. इसकी प्रति हेक्टेयर पैदावार 60 क्विंटल के आसपास रहती है.
देर से पकने वाली प्रजाति
इस प्रजाति की किस्में ज्यादा समय में पककर तैयार होती है. और इनकी उपज भी सामान्य पाई जाती है.
महसूरी
इस किस्म के पौधों को पककर तैयार होने में लगभग 150 दिन का वक्त लगता है. इस किस्म के धान का दाना मध्यम आकार और हल्का सफ़ेद होता है. इस किस्म को 30 सेंटीमीटर गहरे पानी में भी उगाया जा सकता है. इसकी प्रति हेक्टेयर पैदावार लगभग 30 से 40 क्विंटल तक पाई जाती है. जिससे 70 प्रतिशत तक चावल प्राप्त होते हैं.
साम्बा महसूरी
धान की इस किस्म को पककर तैयार होने में 155 दिन का वक्त लग जाता है. इस किस्म के पौधे बौने आकार के होते हैं. जिनसे एक हेक्टेयर में 60 क्विंटल तक धान प्राप्त हो जाता है. जिनमें चावल की मात्रा 70 प्रतिशत तक पाई जाती है. इस किस्म के चावलों का आकर छोटा, पतला और रंग सफ़ेद होता है.
सुगंधित धान प्रजाति
इस प्रजाति की किस्मों को संकर किस्म के नाम से भी जाना जाता है. इस किस्म को जल्दी और अधिक पैदावार के लिए तैयार किया गया है.
कस्तूरी
धान की इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार 40 क्विंटल के आसपास पाई जाती है. इसके पौधे लगभग 125 दिन में पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधों को झुलसा और झोंका रोग नही लगता. धान की इस किस्म से 65 प्रतिशत तक चावल प्राप्त होते हैं. जो आकार में पतले और लम्बे पाए जाते हैं. इनका रंग सफ़ेद होता है.
हरियाणा बासमती-1
इस किस्म के पौधे 140 दिन में पककर तैयार हो जाते हैं. जिनकी प्रति हेक्टेयर पैदावार 45 क्विंटल के आसपास पाई जाती है. धान की इस किस्म से 65 से 70 प्रतिशत तक चावल प्राप्त किये जा सकते हैं. जिनका आकार पतला लम्बा होता है. इस किस्म के धान पर हरे फुदके का रोग नही लगता.
तरावड़ी बासमती
इस किस्म के पौधा 140 से 150 दिन में पककर तैयार हो जाते हैं. इनकी प्रति हेक्टेयर पैदावार 30 क्विंटल के आसपास पाई जाती है. इस किस्म पर कई तरह के कीट और बिमारिय रोग नही लगते. इस किस्म के धान से 68 प्रतिशत तक चावल प्राप्त किये जा सकते है, जो पतले लम्बे और सुगन्धित होते हैं.
पूसा आर एच-10
इस किस्म को पूरे विश्व की पहली संकर किस्म माना जाता है. इस किस्म के धान का दाना अत्यधिक सुगंधित, लंबा और पतला होता है. इस किस्म को तैयार होने में लगभग 120 दिन का वक्त लगता है. इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार 65 क्विंटल के आसपास पाई जाती है.
ऊसरीली धान प्रजाति
इस प्रजाति की किस्मों को बंज़र उसरीली भूमि में अधिक और जल्द पैदावार देने के लिए तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधों को कम पानी की जरूरत होती है.
नरेन्द्र ऊसर – 2 और 3
धान की इस किस्म को पककर तैयार होने में लगभग 130 दिन का वक्त लगता है. इस किस्म के पौधों से प्रति हेक्टेयर 50 क्विंटल की उपज प्राप्त की जा सकती है. इस किस्म के धान से 62 प्रतिशत तक दाने प्राप्त होते हैं. जिनका रंग हल्का सफ़ेद और आकर में लम्बे और गोल पाए जाते हैं. इस किस्म के पौधे पर भूरा धब्बा और झुलसा रोग नही पाया जाता.
सी०एस आर०-13
धान की इस किस्म को पककर तैयार होने में लगभग 120 दिन का वक्त लगता है. इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार 50 से 60 क्विंटल तक पाई जाती है. इस किस्म के धान से 60 प्रतिशत तक दाने प्राप्त किये जा सकते हैं. जो आकार में पतले और लम्बे होते हैं. इनका रंग सफ़ेद पाया जाता है.
ऊसर धान-1
धान की ये किस्म 140 से 150 दिन में पककर तैयार होती है. इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार 45 से 50 क्विंटल तक पाई जाती है. धान की इस किस्म से 65 प्रतिशत तक दाने प्राप्त किये जा सकते हैं. इसके दाने छोटे, मोटे और सफ़ेद रंग के होते हैं.
बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के लिए
धान की इस प्रजाति की किस्मों को बारिश के वक्त ज्यादा बाढ़ आने वाले क्षेत्रों के लिए तैयार किया गया हैं. इसके पौधों को ज्यादा पानी की जरूरत होती है.
स्वर्णा सव-1
धान की इस किस्म को पककर तैयार होने ने में 140 से 150 दिन का वक्त लगता है. इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार 40 क्विंटल के आसपास पाई जाती है. धान की इस किस्म से 75 प्रतिशत तक दाने प्राप्त किये जा सकते हैं. इसके दाने छोटे पतले और सफ़ेद रंग के होते हैं.
जल निधि
धान की इस किस्म का पौधा काफी लम्बा होता है. जो पानी में कमल की तरह बढ़ता है. जिन पर कई तरह के रोग भी नही लगते. इस किस्म के पौधे पककर तैयार होने में 180 दिन का वक्त लेते हैं. धान की इस किस्म से 65 से 70 प्रतिशत तक दाने प्राप्त किये जा सकते हैं. इसका दाना सुडौल, हल्का और चटपटा होता है. जो हल्की लालिमा लिए होता है.
मधुकर
धान की इस किस्म को सामयिक बाढ़ वाले क्षेत्रों में उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे 150 दिन में पककर तैयार हो जाते हैं. इनकी प्रति हेक्टेयर पैदावार 30 से 40 क्विंटल तक पाई जाती है. जिनसे 65 प्रतिशत तक दाने प्राप्त किये जाते हैं. इसके दाने छोटे, मोटे और सफ़ेद रंग के होते हैं.
खेत की जुताई
धान की खेती के लिए शुरुआता में खेत की दो से तीन गहरी जुताई कर मेडबन्दी कर दे. खेत की ये तैयारी बारिश के मौसम से पहले करें जिससे खेत में बारिश का पानी भर जाए. अगर बारिश ना हो तो खेत में पानी भर देना चाहिए. उसके बाद पानी भरी जमीन में मिट्टी पलटने वाले हल से दो से तीन अच्छी जुताई करनी चाहिए. इससे मिट्टी में कीच बन जाता है. जिसमें धान की रोपाई की जाती है.
नर्सरी तैयार करना
धान के बीज को सीधा खेत में नही उगाया जाता. बीज को पहले नर्सरी में तैयार किया जाता है. उसके बाद उसकी पौध को खेत में लगाते हैं. बीज को नर्सरी में उगाने से पहले उसे स्ट्रेप्टोमाइसिन सल्फेट या प्लान्टो माइसिन के घोल में एक रात के लिए डुबो दें. जिससे पौधे में झुलसा की बिमारी नही होती है. और यदि झुलसा की समस्या क्षेत्र में नही हो तो बीज को कार्बेन्डाजिम या थिरम से उपचारित कर बोना चाहिए.
बीज को नर्सरी में उगाने से पहले पानी में एक रात भिगोना चाहिए. इससे बीज में अंकुर निकल आते हैं. अंकुर निकले बीज को क्यारियों में छिड़क देते हैं. बीज को क्यारियों में उगाने के 10 दिन बाद उसमें ट्राइकोडर्मा का छिडकाव कर दें. और खैरा रोग से बचाव के लिए 15 दिन बाद जिंक सल्फेट और बुझे हुए चूने को उचित मात्रा को क्यारियों में छिड़क दें.
धान के बीज को पानी की ज्यादा जरूरत होती है. इसलिए क्यारियों में पानी की मात्रा उचित बनाएं रखे. धान का बीज लगभग एक से डेढ़ महीने में तैयार हो जाता है. उसके बाद इसे क्यारियों से निकालकर खेतों में लगा देते हैं. लेकिन पौधे को क्यारी से निकालने से पहले क्यारी को पानी से भर देना चाहिए ताकि पौधे को निकालने में आसानी रहे, और पौध खराब ना हो.
पौध की रोपाई का तरीका और टाइम
धान के पौधे की रोपाई किसान भाई हाथ और मशीन दोनों से करते है. लेकिन वर्तमान में मेडागास्कर विधि का उपयोग सबसे ज्यादा किया जा रहा है. इस विधि में हाथ से धान की पौध को खेत में लगाया जाता है. इस विधि को श्री पद्धति के नाम से भी जाना जाता है. इस विधि में धान को 15 सेंटीमीटर की दूरी पर पंक्तियों में लगाते है. दो पंक्तियों के बीच भी 15 सेंटीमीटर की दूरी रखते हैं. एक जगह पर धान के दो से तीन पौधे एक साथ लगाते हैं. इस विधि से धान की उपज ज्यादा होती हैं. साधारण तरीके में धान को 10 सेंटीमीटर की दूरी पर लगाया जाता है. जिससे पौध भी ज्यादा लगती और पैदावार भी सामान्य रहती है.
धान की बुवाई मानसून आने से लगभग एक सप्ताह पहले कर देनी चाहिए. क्योंकि मानसून आने तक पौधा अच्छे से अंकुरित हो जाता है. जिससे मानसून में खेत में ज्यादा पानी भर जाने के बाद भी पौध अच्छे से विकास कर लेती है. धान की रोपाई के लिए जून का महीना सबसे उपयुक्त होता है.
पौधे की सिंचाई
धान के पौधे को पानी की ज्यादा जरूरत होती है. इस कारण इसके पौधे की उचित समय पर सिंचाई करते रहना चाहिए. धान की सिचाई के वक्त पौधों की कुछ ऐसी अवस्थाएं आती है, जब पौधे को पानी की सबसे ज्यादा जरूरत होती है. पौधे को खेत में लगाने के बाद कल्ले फूटने, बाली निकलने, फूल खिलने और बालियों में दाना भरते समय खेत में पानी भरा रहना चाहिए. क्योंकि इन वक्त पर अगर खेत में पानी नही भरा रहेगा तो पौधा ना तो अच्छे से विकास करेगा और ना ही पैदावार अच्छी होगी.
धान के पौधे को लगभग 15 से 20 सिंचाई की जरूरत होती है. जब भी खेत में पानी दिखाई देना बंद हो जाए और ऊपरी जमीन सूखने लगे तभी पौधों को पानी दे देना चाहिए.
उर्वरक की मात्रा
धान के पौधों को उर्वरक की ज्यादा जरूरत होती है. इसके लिए जुताई के वक्त खेत में लगभग 12 गाडी गोबर की खाद प्रति एकड़ के हिसाब से डालनी चाहिए. खाद को खेत में डालकर उसे अच्छे से मिट्टी में मिला दें. इसके अलावा प्रति हेक्टेयर 25 से 30 किलो नाइट्रोजन, 40 किलो फास्फोरस और 40 किलो पोटाश की मात्रा को खेत में धान की रोपाई से पहले की जाने वाली आखिरी जुताई के वक्त डालनी चाहिए. उसके बाद 30 से 40 किलो नाइट्रोजन कल्ले बनते वक्त पौधों की सिंचाई के साथ दें. और लगभग 20 किलो नाइट्रोजन बाली में बीज बनने से पहले पौधों को देनी चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण
धान की फसल में खरपतवार ज्यादा नुक्सान पहुँचाती है. धान के पौधों में खरपतवार नियंत्रण नीलाई गुड़ाई और रासायनिक दोनों तरीके से की जा सकती है. साधारण प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए खेत में नीलाई गुड़ाई कर खरपतवार निकाल देनी चाहिए.
धान की रोपाई के लगभग 20 से 25 दिन बाद उसकी पहली नीलाई गुड़ाई कर देनी चाहिए. उसके बाद दूसरी गुड़ाई पहली गुड़ाई के लगभग 20 दिन बाद कर देनी चाहिए. इस तरह धान की दो से तीन गुड़ाई करना अच्छा होता है. क्योंकि धान के पौधे की दो से तीन गुड़ाई करने पर जमीन से कल्ले अधिक मात्रा में निकलते है. जिससे पैदावार भी अधिक मिलती है.
पौधे की देखभाल-
हानिकारक कीट और रोकथाम
जड़ की सुंडी :
जड़ को लगने वाली सुंडी की पहचान बूटों की जड़ और पत्तों को पहुंचे नुकसान से लगाई जा सकती है। यह सफेद रंग की बिना टांगों वाली होती है। यह मुख्य तौर पर पौधे की जड़ पर ही हमला करती है। इसके हमले के बाद पौधे पीले होने शुरू होने लगते है और उनका विकास रूक जाता है। इस कारण धान के पत्तों के ऊपर दानों के निशान उभर आते हैं।
इसका हमला दिखने पर कार्बरिल (4 जी) @ 10 किलो या फोरेट (10 जी) @4 किलो या कार्बोफियूरॉन (3 जी) @10 किलो को प्रति एकड़ में डालें।
पौधे का टिड्डा :
इन कीटों का फसल के ऊपर हमला खड़े पानी वाले या वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में ज्यादा होता है। इनकी मौजूदगी का अंदाजा बूटों के ऊपर भूरे रंग में तबदील होने और पौधों की जड़ों के नजदीक शहद जैसी बूंदों की मौजूदगी से लगता है।
यदि इसका हमला दिखे तो डाइक्लोरवॉस 126 मि.ली. या कार्बरील 400 ग्राम को 250 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें या इमीडाक्लोप्रिड 40 मि.ली. या क्विनलफॉस 25 ई सी 400 मि.ली. या क्लोरपाइरीफॉस 1 लीटर को 100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में छिड़काव करें।
पत्ता लपेट सुंडी :
इन बीमारियों के कीटाणुओं का फसल के ऊपर उच्च नमी वाले क्षेत्रों में और खास तौर पर जिन इलाकों में धान की पैदावार लगातार की जा रही हो वहां ज्यादा देखने को मिलती है। इस कीटाणु का लार्वा पत्तों को लपेट देता है और बूटे के तंतुओं को खा जाता है। इसके हमले के बाद पत्तों में सफेद धारियां बन जाती हैं।
यदि इसके हमले के लक्षण दिखाई दे तो फसल के ऊपर कारटाईप हाइड्रोक्लोराइड 170 ग्राम या टराईज़ोफॉस 350 मि.ली.या एक लीटर क्लोरपाइरीफॉस को 100 लीटर पानी में मिला के प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।
राइस हिस्पा :
कुछ जिलों में धान की फसल पर इस कीट के हमले के ज्यादा केस सामने आते हैं। इस कीट का लार्वा पत्तों में छेद करके पत्तों को नष्ट कर देता है। इसके हमले के बाद पत्तों पर सफेद धारियां उभर आती हैं।
इसका हमला दिखाई देने पर फसल के ऊपर 120 मि.ली. पैराथियान या क्विनलफॉस 25 ई.सी. 400 मि.ली. या क्लोरपाइरीफॉस एक लीटर को 100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।
तना छेदक :
इस कीटाणु का लार्वा धान के पौधे की बन रही बालियों में प्रवेश करके उसको खा जाता है, जिससे बालियां धीरे धीरे सूख कर खाली हो जाती है जो बाद में सफेद रंग में तबदील हो जाती हैं।
यदि इसके हमले के लक्षण दिखाई दे तो फसल के ऊपर कार्टाइप हाइड्रोक्लोराईड 170 ग्राम या टराईजोफॉस 350 मि.ली. या एक लीटर कलोरपाइरीफॉस को 100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।
बीमारियां और रोकथाम
भुरड़ रोग :
झुलस रोग के कारण पत्तों के ऊपर तिरछे धब्बे जो कि अंदर से सलेटी रंग और बाहर से भूरे रंग के दिखाई देते हैं। इससे फसल की बालियां गल जाती हैं और उसके दाने गिरने शुरू हो जाते हैं। जिन क्षेत्रों में नाइट्रोजन का बहुत ज्यादा प्रयोग किया जाता है। वहां इस बीमारी का प्रभाव ज्यादा देखने को मिलता है।
झुलस रोग के कारण पत्तों के ऊपर तिरछे धब्बे जो कि अंदर से सलेटी रंग और बाहर से भूरे रंग के दिखाई देते हैं। इससे फसल की बालियां गल जाती हैं और उसके दाने गिरने शुरू हो जाते हैं। जिन क्षेत्रों में नाइट्रोजन का बहुत ज्यादा प्रयोग किया जाता है। वहां इस बीमारी का प्रभाव ज्यादा देखने को मिलता है।
इसका हमला दिखने पर ज़िनेब 500 ग्राम को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में स्प्रे करें।
करनाल बंट :
लाग की शुरूआत पहले बालियों के कुछ दानों पर होती है और इससे ग्रसित दाने बाद में काले रंग का चूरा बन जाते हैं। हालत ज्यादा खराब होने की सूरत में पूरे का पूरा सिट्टा प्रभावित होता है। और सारा सिट्टा खराब होकर काला चूरा बनके पत्ते दानों पर गिरना शुरू हो जाते है।
इस बीमारी की रोकथाम के लिए नाइट्रोजन की ज्यादा प्रयोग करने से परहेज़ करना चाहिए। जब फसल पर 10 प्रतिशत बालिया निकल जायें तब टिल्ट 25 ई सी 200 मि.ली. को 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 10 दिनों के अंतराल पर दोबारा स्प्रे करें।
भूरे रंग के धब्बे :
पत्तों के भूरेपन के लक्षण की पहचान पत्तों के ऊपर अंदर से गहरे भूरे रंग और बाहरे से हल्के भूरे रंग के अंडाकार या लंबाकार धब्बों से होती है। यह धब्बे दानों के ऊपर भी पड़ जाते हैं। जिस मिट्टी में पौष्टिक तत्वों की कमी पाई जाती है। वहां इस बीमारी का हमला ज्यादा देखने को मिलता है।
इस बीमारी की रोकथाम के लिए सही मात्रा में मिट्टी में पौष्टिक तत्व डालते रहने चाहिए। जब बालियां बननी शुरू हो जाए उस समय 200 मि.ली. टैबूकोनाज़ोल या 200 मि.ली. प्रोपीकोनाज़ोल को 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 15 दिनों के अंतराल पर दोबारा स्प्रे करें।
झूठी कांगियारी -
इस रोग के कारण फफूंद की तरह हर दाने के ऊपर हरे रंग की परत जम जाती है। उच्च नमी, ज्यादा वर्षा और बादलवाई हालातों में यह बीमारी के फैलने का खतरा बढ़ जाता है। नाइट्रोजन के ज्यादा प्रयोग से भी इस बीमारी का खतरा बढ़ जाता है।
इसकी रोकथाम के लिए जब बालियां बननी शुरू हो जाये उस समय 500 ग्राम कॉपर ऑक्सीक्लोराइड को 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 10 दिनों के अंतराल पर टिल्ट 25 ई सी 200 मि.ली. को 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।
तने का झुलस रोग:
यदि इसका हमला दिखे तो टैबुकोनाज़ोल या टिल्ट 25 ई सी 200 मि.ली. या कार्बेनडाज़िम 25 प्रतिशत 200 ग्राम को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में स्प्रे करें। 15 दिनों के अंतराल पर दोबारा स्प्रे करें।
धान की कटाई और मड़ाई
धान का पौधा 100 से 150 दिन में पककर तैयार हो जाता है. प्रत्येक पौधे पर बाली निकलने के एक महीने बाद पौधा कटाई के लिए तैयार हो जाता है. इस दौरान पौधा पीला दिखाई देने लगता है. जब धान के बीज में 20 प्रतिशत नमी रहा जाएँ तब उन्हें काट लेना चाहिए.
काटने के बाद इसकी पुलियों को कुछ दिन धूप में सूखाने के बाद उनकी मड़ाई मशीन के माध्यम से की जाती है. इससे बनने वाले भूषे का इस्तेमाल पशुओं के खाने में किया जाता है. जबकि कुछ छोटे किसान भाई इसकी मड़ाई हाथों से ड्रम के माध्यम से करते हैं. इसकी भूसी का इस्तेमाल कई चीजों के परिवहन के दौरान टूटने और ख़राब होने से बचाने के लिए भी किया जाता है.
पैदावार और लाभ
धान की अलग अलग किस्मों की प्रति हेक्टेयर औसत पैदावार 50 से 70 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई जाती है. और धान का बाज़ार भाव चार हज़ार प्रति क्विंटल के आसपास पाया जाता है. जिससे किसान भाई एक बार में दो से तीन लाख तक की कमाई कर सकते हैं.
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