एक समय की बात है, ब्रह्मा जी ने सरस्वती से कहा तुम किसी योग्य पुरुष के मुख्य में कवित्व शक्ति होकर निवास करो । ब्रह्मा जी की आज्ञा मानकर सरस्वती योग्य पात्र की खोज में बाहर निकलीं । उन्होंने ऊपर के सत्यादि लोकों में भ्रमण करके देवताओं में पता लगाया तथा नीचे के सातों पातालों में घूमकर वहां के निवासियों में खोज की ; किंतु कहीं भी उनको सुयोग्य पात्र नहीं मिला । इसी अनुसंधान में पूरा एक सतयुग बीत गया।
तदंतर त्रेता युग के आरंभ में सरस्वती देवी भारतवर्ष में भ्रमण करने लगीं । घूमते-घूमते वह तमसा नदी के तीर पर पहुंचीं । वहां महातपस्वी महर्षि वाल्मीकि अपने शिष्यों के साथ रहते थे । वाल्मीकि उस समय अपने आश्रम के इधर-उधर घूम रहे थे । इतने में ही उनकी दृष्टि एक क्रौंच पक्षी पर पड़ी ; जो तत्काल ही एक व्याधके बाण से घायल हो पंख फड़फड़ाता हुआ गिरा था । पक्षी का सारा शरीर लहूलुहान हो गया था। वह पीड़ा से तड़प रहा था ।और उसकी पत्नी क्रौंची उसके पास ही गिरकर बड़े आर्त स्वर मैं चें चें कर रही थी । पक्षी के उस जोड़े कि यह दयनीय दशा देख कर दयालु महर्षि अपनी सहज करुणा से द्रवीभूत हो उठे । उनके मुख से तुरंत ही एक श्लोक निकल पड़ा ; जो इस प्रकार है:——-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती समा: ।
यत् क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम् ।।
यह श्लोक सरस्वती की ही कृपा का प्रसाद था । उन्होंने महर्षि को देखते ही उनकी असाधारण योग्यता और प्रतिभा का परिचय पा लिया था । उन्हीं के मुख में उन्होंने सर्वप्रथम प्रवेश किया ।
कवित्व शक्ति मयी सरस्वती की प्रेरणा से ही उनके मुख की वह वाणी, जो उन्हों ने क्रौंची की सान्त्वना के लिए कही थी, छंदोमयी बन गई । उनके हृदय का शोक ही श्लोक बनकर बाहर निकला था___
” शोक: श्लोकत्वमागत: ” ।
सरस्वती के कृपा पात्र होकर महर्षि वाल्मीकि ही “आदिकवि ” के नाम से संसार में बिख्यात हुए ।
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