संतरा एक नींबूवर्गीय फल है जो भारत में उगाया जाता है| नींबूवर्गीय फलों में से 50% इस फल की खेती की जाती है| भारत में संतरा और माल्टा की किस्म बेचने के लिए उगाई जाती है| देश के केंद्रीय और पश्चिमी भागों में संतरे की खेती दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है| भारत में, फलों की पैदावार में केले और आम के बाद माल्टा का तीसरा स्थान है| भारत में, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और उत्तर प्रदेश संतरा उगाने वाले राज्य है|
संतरे की खेती रसदार फलों के रूप में की जाती है. इसके फलों को नींबू वर्गीय फलों में गिना जाता है. केला और आम के बाद भारत में संतेरे को सबसे ज्यादा उगाया जाता है. संतरे का मुख्य रूप से खाने में इस्तेमाल किया जाता हैं. खाने के रूप में इसे छीलकर और जूस निकालकर खाया जाता है. संतरे के रस को पीने के कई गुणकारी फायदें हैं. इसका रस शरीर को शीतलता प्रदान कर थकान और तनाव को दूर करता है. इसका फल कई तरह की बीमारियों में भी लाभदायक है. संतरे के जूस से जैम और जेली का निर्माण किया जाता है.
संतरे की खेती के लिए शुष्क जलवायु की जरूरत होती है. इसके पौधों को विकास करने के लिए अधिक बारिश की जरूरत नही होती. भारत में इसकी खेती मुख्य रूप से राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में की जा रही है. इसके फलों को पकने के लिए गर्मीं की आवश्यकता होती है. इसके पौधे खेत में लगाने के तीन से चार साल बाद पैदावार देना शुरू कर देते हैं.
अगर आप भी इसकी खेती करने का मन बना रहे हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.
उपयुक्त मिट्टी
संतरे की खेती के जलभराव वाली भूमि उपयुक्त नही होती. इसके पौधे उचित जल निकासी वाली हलकी दोमट मिट्टी में अच्छी पैदावार देते हैं. इसकी खेती के लिए जमीन का पी.एच. मान 6.5 से 8 के बीच होना चाहिए.
जलवायु और तापमान
संतरे की खेती के लिए शुष्क और उष्ण जलवायु उपयुक्त होती है. इसके पौधों को बारिश की ज्यादा जरूरत नही होती. इसके पौधे सदी के मौसम में अधिक प्रभावित होते हैं. और सर्दियों में पड़ने वाला पाला इसकी खेती के लिए नुकसानदायक होता है. इसकी खेती के लिए हलकी गर्मी ज्यादा उपयुक्त होती है. इसके फलों को पकने के लिए धूप की जरूरत होती है.
इसकी खेती के लिए शुरुआत में पौधों की रोपाई के दौरान 20 से 25 डिग्री के बीच तापमान उपयुक्त होता है. उसके बाद पौधों को विकास करने के लिए 30 डिग्री के आसपास तापमान की आवश्यकता होती है. सर्दियों में न्यूनतम 10 और गर्मियों में अधिकतम 35 डिग्री तापमान इसकी खेती के लिए उपयुक्त होता है.
उन्नत किस्में
संतरे के पौधों की कई तरह की उन्नत किस्में बाज़ार में मौजूद है. जिन्हें उनकी गुणवत्ता और पैदावार के आधार पर तैयार किया गया है.
सिक्किम
संतरे की इस किस्म को खासी के नाम से भी जाना जाता है. इस किस्म के पौधे ज्यादातर पूर्वी भारत में उगाये जाते हैं. इस किस्म के पौधे की शाखाएं कांटेदार और अधिक पत्तियों वाली होती है. इस किस्म के पौधे पर लगने वाले फल नर्म सतह वाले होते हैं. जिनका रंग थोड़ा हल्का पीला दिखाई देते हैं. इस किस्म के एक पौधे से एक बार में 80 किलो के आसपास पैदावार प्राप्त होतीं है. इसके फलों में बीज की मात्रा ज्यादा पाई जाती है.
कूर्ग
इस किस्म के पौधे सीधे और गहरे होते हैं. जिसके एक पौधे से एक बार में 80 से 100 किलो तक फल प्राप्त होते हैं. इस किस्म के फल आसानी से छील जाते हैं. जिसके अंदर 10 के आसपास कलियाँ पी जाती हैं. जिनमें बीज की मात्रा सबसे ज्यादा पाई जाती है. इस किस्म के फल फरवरी माह में पककर तैयार हो जाते हैं.
नागपुरी
संतरे की ये एक अधिक पैदावार देने वाली किस्म है. जिसके फल पूरे भारत में पसंद किये जाते हैं. इसके पौधे खेत में लगाने के चार साल बाद पैदावार देना शुरू कर देते हैं. जिसके पूर्ण विकसित एक पौधे से एक बार में 120 से 150 किलो तक फल प्राप्त किये जा सकते हैं. इस किस्म के फल पकने के बाद पीले दिखाई देते हैं. इसके एक फल में लगभग 10 से 12 कलियाँ पाई जाती है. जिनमे रस की मात्रा अधिक होती है.
किन्नु
संतरे की ये एक संकर किस्म है. जिसको किंग और विलो लीफ के संकरण से तैयार किया गया है. इस किस्म के फलों का छिलका थोड़ा मोटा होता है. इस किस्म के फल अधिक रसीले होते हैं. जिस कारण इस किस्म के फलों का व्यापारिक महत्व ज्यादा है. इसके एक पौधे से एक बार में 100 किलो के आसपास फल प्राप्त किये जा सकते हैं. इसके फलों का रंग पीला दिखाई देता है. जो फूल खिलने के बाद जनवरी या फरवरी माह में पककर तैयार हो जाते हैं.
किन्नु नागपुर सीडलेस
संतरे की इस किस्म को सेंटर ऑफ एक्सीलेंस फॉर सिट्रस में तैयार किया गया है. जो विदेशी पौधों के संकरण से तैयार की गई है. इस किस्म के पौधे नागपुरी संतरे की तरह अधिक उपज देने के लिए जाने जाते हैं. इस किस्म के फलों में बीज नही होते. जिसके फल पकने के बाद पीले दिखाई देते हैं.
इनके अलावा और भी कई किस्में है. जिनको उनकी पैदावार के आधार पर कई जगह उगाया जा रहा है. जिनमें क्लेमेंटाइन, डेजी, जाफा, वाशिंगटन नेवल संतरा, कारा, दार्जिलिंग, सुमिथरा, नगर, बुटवल और डानक्य जैसी बहुत साड़ी किस्में मौजूद हैं.
खेत की तैयारी
संतरे के पौधे एक बार लगाने के बाद कई सालों तक पैदावार देते हैं. इसकी खेती के लिए शुरुआत में खेत में मौजूद पुरानी फसलों के अवशेषों को हटाकर खेत की गहरी जुताई कर दें. उसके बाद खेत में कल्टीवेटर के माध्यम से दो से तीन अच्छी तिरछी जुताई कर दें. जुताई के बाद खेत में पाटा लगाकर उसे समतल बना दे.
खेत को समतल बनाने के बाद उसमें 15 से 18 फिट की दूरी छोड़ते हुए पंक्तियों में गड्डे तैयार करें. गड्डों को तैयार करते वक्त इनका आकार एक मीटर चौड़ा और एक मीटर गहरा होना चाहिए. गड्डों को तैयार करने के बाद इन गड्डों में पुरानी गोबर की खाद को उचित मात्रा में मिट्टी में मिलाकर गड्डों में भरकर उनकी गहरी सिंचाई कर दें. सिंचाई करने के बाद गड्डों को पुलाव के माध्यम से ढक दें.
पौध तैयार करना
संतरे की पौधों को खेत में लगाने से पहले उनकी पौध नर्सरी में तैयार की जाती है. इसके लिए संतरे के बीजों को राख में मिलकर सूखने के लिए छोड़ दें. बीजों के सूखने के बाद उन्हें नर्सरी में मिट्टी भरकर तैयार किये गए पॉलीथिन बैंग में लगाया जाता है. प्रत्येक बैग में दो से तीन बीज उगाने चाहिए. इसके बीजों को अंकुरित होने में दो से तीन सप्ताह का टाइम लग जाता हैं.
बीजों के अंकुरित होने के बाद कमजोर पौधों को नष्ट कर एक समान विकास करने वाले पौधों को रख लें. उसके बाद जब पौधे लगभग दो फिट की उंचाई के हो जाएँ तब पौध रोपण की तकनीकी के माध्यम से इनके कलम वाले पौधे तैयार कर लिए जाते हैं. कलम तैयार करने की विधियों के बारें में अधिक जानकारी आप हमारे इस आर्टिकल से हासिल कर सकते हैं.
इसके अलावा किसान भाई सरकार द्वारा रजिस्टर्ड किसी भी नर्सरी से इसके पौधे खरीद सकते हैं. जिससे किसान भाइयों का टाइम काफी बच जाता है. और उन्हें पैदावार भी जल्द मिलना शुरू हो जाती है. लेकिन किसी भी नर्सरी से पौध खरीदते वक्त ध्यान रखे कि हमेशा दो शाखा और चौड़े पत्तियों वाले पौध ही ख़रीदे. और पौध कम से कम दो साल पुरानी होनी चाहिए.
पौध रोपाई का तरीका और टाइम
संतरे की पौध तैयार होने के बाद उन्हें खेत में तैयार किये हुए गड्डों में लगाया जाता है. पौध को गड्डों में लगाने से पहले तैयार किये गए गड्डों में खुरपी की सहायता से एक और छोटा गड्डा तैयार कर लेते हैं. इस तैयार किए गए छोटे गड्डे में पौधे की पॉलीथिन को हटाकर उसमें लगा देते हैं. उसके बाद पौधे को चारों तरफ से अच्छे से मिट्टी से दबा दे.
संतरे के पौधों को खेत में बारिश के मौसम में उगाया जाना चाहिए. क्योंकि इस दौरान पौधे को पानी की जरूरत भी नही पड़ती. और पौधे को विकास करने के लिए मौसम भी अनुकूल मिलता है. इसके अलावा जहां पानी की उचित व्यवस्था हो वहां इसके पौधों को फरवरी माह में भी लगा सकते है .
पौधों की सिंचाई
संतरे के पौधों को शुरुआत में सिंचाई की ज्यादा जरूरत होती है. इसके लिए पौधे को पानी उचित मात्रा में देना चाहिए. इसके पौधों को खेत में लगाने के तुरंत बाद पानी दे देना चाहिए. उसके बाद गर्मियों के मौसम में पौधों को सप्ताह में एक बार पानी देना चाहिए. और सर्दियों के मौसम में इसके पौधों को एक महीने के अंतराल में पानी देना चाहिए. जब पौधा पूर्ण रूप से विकसित हो जाता है तब उसे साल में चार से पांच सिंचाई की ही जरूरत होती है. जो मुख्य रूप से पौधे पर फूल खिलने के टाइम की जाती है. जिससे फल अच्छे से बनते हैं.
उर्वरक की मात्रा
संतरे के पौधे को उर्वरक की काफी ज्यादा जरूरत होती है. इसके लिए पौधों को खेत में लगाने से पहले गड्डों को तैयार करते वक्त 20 से 25 किलो पुरानी गोबर की खाद को मिट्टी में मिलाकर गड्डों में भर देते हैं. उसके बाद जब पौधा तीन साल का हो जाए तब गोबर की खाद के साथ रासायनिक खाद के रूप में आधा किलो एन.पी.के. की मात्रा को पौधों को साल में तीन बार देनी चाहिए. जैसे जैसे पौधे का विकास होता जाता है. वैसे वैसे ही उर्वरक की मात्रा को बढ़ा देना चाहिए. इससे पौधा अच्छे से विकास करने लगता है.
खरपतवार नियंत्रण
संतरे के पौधों में खरपतवार नियंत्रण प्राकृतिक तरीके से नीलाई गुड़ाई कर ही करना चाहिए. इसके लिए पौधों की पहली गुड़ाई रोपाई के लगभग 20 से 25 दिन बाद कर देनी चाहिए. उसके बाद जब भी पौधे में खरपतवार नजर आयें तभी पौधों की गुड़ाई कर देनी चाहिए, इससे पौधों की जड़ों को हवा की मात्रा भी अच्छे से मिलती रहती है. और पौधा अच्छे से विकास भी करने लगता है. इसके अलावा अगर खेत में पौधों के बीच बाकी बची जमीन अगर खाली हो तो उसकी बारिश के मौसम के बाद सूखने पर जुताई कर देनी चाहिए. इससे खेत में और खरपतवार जन्म नही ले पाती है.
पौधों की देखभाल
संतरे के पौधों की देखभाल करना जरूरी होता है. इसके लिए पौधे को खेत में लगाने के बाद उसे शुरुआत में तेज़ धूप और सर्दी में पड़ने वाले पाले से बचाकर रखना चाहिए. उसके बाद जब पौधे पूर्ण रूप से तैयार हो जाये और फल देने लगे, तब फलों की तुड़ाई के बाद सूखी दिखाई देने वाली सभी शाखाओं को काट देना चाहिए. इसके अलावा कोई भी रोग ग्रस्त शाखा दिखाई दे तो उसे भी काटकर अलग कर देना चाहिए. इससे पौधे में नई शाखाएं जन्म लेने लगती हैं. जिससे पौधे से अधिक पैदावार प्राप्त होती है.
अतिरिक्त कमाई
संतरे के पौधे खेत में लगाने के चार साल बाद पैदावार देना शुरू करते हैं. इस दौरान किसान भाई अपने खेतों में कंदवर्गीय और कम समय में तैयार होने वाली सब्जी की फसलों को उगाकर अच्छी कमाई कर सकता है. इससे किसान भाईयों को शुरुआत में आर्थिक परेशानीयों का सामना भी नही करना पड़ता.
पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
संतरे के पौधे में कई तरह के रोग देखने को मिलते हैं. जो इसके पौधे और फलों को काफी ज्यादा नुक्सान पहुँचाते हैं. इन रोगों से पौधों को बचाकर किसान भाई अच्छी पैदावार ले सकते हैं.
हानिकारक कीट और रोकथाम
सिटरस सिल्ला:
ये रस चूसने वाला कीड़े हैं। निंफस के कारण नुकसान होता है। यह पौधे पर एक तरल पदार्थ छोड़ता है जिससे पत्ता और फल का छिल्का जल जाता है। पत्ते मुड़ जाते हैं और पकने से पहले ही गिर जाते हैं। प्रभावित पौधों की छंटाई करके उन्हें जला कर इसकी रोकथाम की जा सकती है। मोनोक्रोटोफॉस 0.025% या कार्बरिल 0.1% की स्प्रे भी लाभदायक हो सकती है।
पत्ते का सुरंगी कीट:
ये कीट नए पत्तों के ऊपर और नीचे की सतह के अंदर लार्वा छोड़ देते हैं, जिससे पत्ते मुड़े हुए और विकृत नज़र आते हैं। सुरंगी कीट से नए पौधों के विकास में कमी देखी जा सकती है। सुरंगी कीट के अच्छे प्रबंधन के लिए इसे अकेला छोड़ देना चाहिए और ये प्राकृति कीटों का भोजन बनते हैं और इनके लार्वा को खा लेते हैं। फासफोमिडोन 1 मि.ली. या मोनोक्रोटोफॉस 1.5 मि.ली. को प्रत्येक पखवाड़े में 3-4 बार स्प्रे करें। सुरंगी कीटों का पता लगाने के लिए के लिए फेरोमोन जाल भी उपलब्ध होते हैं।
स्केल कीट:
सिटरस स्केल कीट बहुत छोटे कीट होते हैं जो सिटरस के वृक्ष और फलों से रस चूसते हैं। ये कीट शहद की बूंद की तरह पदार्थ छोड़ते हैं, जिससे चींटियां आकर्षित होती हैं। इनका मुंह वाला हिस्सा ज्यादा नहीं होता है। नर कीटों का जीवनकाल कम होता है। सिटरस के पौधे पर दो तरह के स्केल कीट हमला करते हैं, कंटीले और नर्म स्केल कीट। कंटीले कीट पौधे के हिस्से में अपना मुंह डालते हैं और उस जगह से बिल्कुल नहीं हिलते, उसी जगह को खाते रहते हैं और प्रजनन करते हैं। नर्म कीट पौधे के ऊपर परत बना देते हैं जो पौधे के पत्तों को ढक देती है और प्रकाश संश्लेषण क्रिया को रोक देते हैं। जो मरे हुए नर्म कीट होते हैं वो मरने के बाद पेड़ से चिपके रहने की बजाय गिर जाते हैं। नीम का तेल इन्हें रोकने के लिए प्रभावशाली उपाय है। पैराथियोन 0.03% इमलसन, डाइमैथोएट 150 मि.ली. या मैलाथियोन 0.1% की स्प्रे भी इन कीटों को रोकने के लिए प्रभावशाली उपाय है।
संतरे का शाख छेदक:
इसका लारवा कोमल टहनियों में छेद कर देता है और नर्म टिशू को खाता है| यह कीट दिन में पौधे को अपना भोजन बनाता है| प्रभावित पौधे कमज़ोर हो जाते है| यह सिट्रस पौधे का गंभीर कीट है| इसकी रोकथाम के लिए प्रभाविक शाखाओं को नष्ट कर दे| मिट्टी के तेल/ पेट्रोल के टीके भी इसकी रोकथाम के लिए प्रयोग किये जा सकते है| संतरे का शाख छेदक की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफॉस 5 मि.ली. 20 लीटर पानी में मिलाकार प्रयोग करें|
चेपा और मिली बग
चेपा और मिली बग: ये पौधे का रस चूसने वाले छोटे कीट हैं। कीड़े पत्ते के अंदरूनी भाग में होते हैं। चेपे और कीटों को रोकने के लिए पाइरीथैरीओड्स या कीट तेल का प्रयोग किया जा सकता है।
बीमारियां और रोकथाम
सिटरस का कोढ़ रोग:
पौधों में तनों, पत्तों और फलों पर भूरे, पानी रंग जैसे धब्बे बन जाते हैं। सिटरस कैंकर बैक्टीरिया पौधे के रक्षक सैल में से प्रवेश करता है। इससे नए पत्ते ज्यादा प्रभावित होते हैं। क्षेत्र में हवा के द्वारा ये बैक्टीरिया सेहतमंद पौधों को भी प्रभावित करता है।
दूषित उपकरणों के द्वारा भी यह बीमारी सवस्थ पौधों पर फैलती है। यह बैक्टीरिया कई महीनों तक पुराने घावों पर रह सकता है। यह घावों की उपस्थिति से पता लगाया जा सकता है। इसे प्रभावित शाखाओं को काटकर रोका जा सकता है। बॉर्डीऑक्स 1 % स्प्रे, एक्यूअस घोल 550 पी पी एम, स्ट्रैप्टोमाइसिन सल्फेट भी सिटरस कैंकर को रोकने के लिए उपयोगी है।
गुंदियां रोग:
वृक्ष की छाल में गूंद निकलना इस बीमारी के लक्षण हैं। प्रभावित पौधा हल्के पीले रंग में बदल जाता है। तने और पत्ते की सतह पर गूंद की सख्त परत बन जाती है। कई बार छाल गलने से नष्ट हो जाती है और वृक्ष मर जाता है। पौधा फल के परिपक्व होने से पहले ही मर जाता है। इस बीमारी को जड़ गलन भी कहा जाता है। जड़ गलन की प्रतिरोधक किस्मों का प्रयोग करना, जल निकास का अच्छे से प्रबंध करने से इस बीमारी को रोका जा सकता है। पौधे को नुकसान से बचाना चाहिए। मिट्टी में 0.2 % मैटालैक्सिल MZ-72 + 0.5 % ट्राइकोडरमा विराइड डालें, इससे इस बीमारी को रोकने में मदद मिलती है। वर्ष में एक बार ज़मीनी स्तर से 50-75 सैं.मी ऊंचाई पर बॉर्डीऑक्स को जरूर डालना चाहिए।
पत्तों के धब्बा रोग:
पौधे के ऊपरी भागों पर सफेद रूई जैसे धब्बे देखे जाते हैं। पत्ते हल्के पीले और मुड़ जाते हैं। पत्तों पर विकृत लाइनें दिखाई देती हैं। पत्तों की ऊपरी सतह ज्यादा प्रभावित होती है। नए फल पकने से पहले ही गिर जाते हैं। उपज कम हो जाती है। पत्तों के ऊपरी धब्बे रोग को रोकने के लिए पौधे के प्रभावित भागों को निकाल दें और नष्ट कर दें। कार्बेनडाज़िम की 20-22 दिनों के अंतराल पर तीन बार स्प्रे करने से इस बीमारी को रोका जा सकता है।
काले धब्बे:
काले धब्बे एक फंगस वाली बीमारी है। फलों पर काले धब्बों को देखा जा सकता है। बसंत के शुरू में हरे पत्तों पर स्प्रे करने से काले धब्बों से पौधे को बचाया जा सकता है। इसे 6 सप्ताह के बाद दोबारा दोहराना चाहिए।
जड़ गलन :
जड़ गलन भी फंगस के कारण होने वाली बीमारी है। यह बीमारी वृक्ष की जड़ की छाल को मुख्य रूप से प्रभावित करती है। छाल गलनी शुरू हो जाती है और ज़मीनी सतह से ऊपर एक परत बन जाती है। यह परत धीरे-धीरे पूरी जड़ को कवर कर लेती है। यह बहुत कम हालातों में होता है, जिससे कि वृक्ष भी मर सकता है। यह गलत मलचिंग के कारण, गोडाई, निराई करते समय पौधे का नष्ट होना इसके कारण हैं। इससे वृक्ष अपनी शक्ति खो सकता है। जड़ गलन से वृक्ष को बचाने के लिए पौधे की जड़ की नर्म और प्रभावित छाल को हटा दें। वृक्ष के प्रभावित भागों पर कॉपर की स्प्रे करनी चाहिए या बॉर्डीऑक्स को प्रभावित भाग पर लगाना चाहिए। हवा के अच्छे बहाव के लिए कमज़ोर, प्रभावित और वृ़क्ष की तंग शाखाओं को हटा दें।
जिंक की कमी:
यह सिटरस के वृक्ष में बहुत सामान्य कमी है। इसे पत्तों की मध्य नाड़ी और शिराओं में पीले भाग के रूप में देखा जा सकता है। जड़ का गलना और शाखाओं का झाड़ीदार होना आम देखा जा सकता है। फल पीला, लम्बा और आकार में छोटा हो जाता है। सिटरस के वृक्ष में जिंक की कमी को पूरा करने के लिए खादों की उचित मात्रा दी जानी चाहिए। जिंक सल्फेट को 10 लीटर पानी में 2 चम्मच मिलाकर दिया जा सकता है। इसकी स्प्रे पूरे वृक्ष, शाखाओं और हरे पत्तों पर की जा सकती है। इसे गाय या भेड़ की खाद द्वारा भी बचाया जा सकता है।
आयरन की कमी
आयरन की कमी: नए पत्तों का पीले हरे रंग में बदलना आयरन की कमी के लक्षण हैं। पौधे को आयरन कीलेट दिया जाना चाहिए। गाय और भेड़ की खाद द्वारा भी पौधे को आयरन की कमी से बचाया जा सकता है। यह कमी ज्यादातर क्षारीय मिट्टी के कारण होती है।
फलों की तुड़ाई
संतरे के फलों की तुड़ाई जनवरी से मार्च के महीने तक की जाती है. इस दौरान जब फलों का रंग पीला और आकर्षक दिखाई देने लगे तब उन्हें डंठल सहित काटकर अलग कर लेना चाहिए. इससे फल अधिक समय तक ताज़ा दिखाई देते हैं. फलों की तुडाई करने के बाद उन्हें साफ गिले कपड़े से पूंछकर छायादार जगहों में सूखा देते हैं. उसके बाद फलों को किसी हवादार बॉक्स में सूखी घास के साथ भर देते हैं. उसके बाद बॉक्स को बंद कर बाज़ार में बेचने के लिए भेज दिए जाते हैं.
पैदावार और लाभ
संतरे के पौधे से मिलने वाली पैदावार पौधे की देखरेख पर निर्भर करती है. पौधों की अच्छी देखरेख कर उनसे अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है. संतरे की विभिन्न किस्मों के पूर्ण विकसित एक पौधे से एक बार में औसतन 100 से 150 किलो तक उपज प्राप्त की जा सकती हैं. जबकि एक एकड़ खेत में इसके लगभग 100 से ज्यादा पौधे लगाये जा सकते हैं. जिनकी एक बार में कुल उपज 10000 से 15000 किलो तक प्राप्त हो जाती है. जिनका बाज़ार में थोक भाव 10 से 30 रूपये प्रति किलो के आसपास पाया जाता है. जिसे किसान भाई एक बार में एक एकड़ से दो लाख तक की कमाई आसानी से कर लेता है.
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