मैं आपकी भावना अच्छी तरह से समझ सकता हूं।
पहले यह जानना आवश्यक है कि 42 वे संशोधन जिसे इंदिरा गांधी की सरकार ने पारित किया था, इसी संशोधन के तहत ही भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का चोला पहनाया गया था।
जबकि गांधी और नेहरू की कुटिल चाल के तहत स्वतंत्रता के बाद से ही भारत को बिना संसद से पारित किए ही धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का दर्जा दिया गया था। यानि की भारत 1947 से लेकर 1976 तक कानूनी रूप से धर्मनिरपेक्ष देश था ही नही।
इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय से उम्मीद करना बेकार है, क्योंकि भारत का उच्चतम न्यायालय इन मुस्लिमो के मामले में अंधा, गूंगा व बहरा हो जाता है।
इसका ताजा उदाहरण हिजाब मामले में देखने को मिल रहा है, जहा कर्नाटक उच्च न्यायालय किसी भी निर्णय से पहले कुरान का अध्ययन कर रहा है, वही हिंदुओ के सबरीमाला मंदिर मामले में किसी भी हिंदु धार्मिक ग्रंथ के अध्ययन से साफ इंकार कर दिया था।
बंगाल में चुनावो के बाद हिंदुओ पर जो नरसंहार हुआ था, उस पर उच्चतम न्यायालय अंधा हो गया था, और कोई कार्यवाही नही की थी, वही लखीमपुर मामले में कोर्ट ने खुद संज्ञान लेकर 24घंटे में राज्य सरकार से रिपोर्ट देने का आर्डर दे दिया था।
अब बात करते हैं संसद की, तो भैया संसद से पारित सी ए ए, एन आर सी जैसे साधारण कानूनों को भी सरकार दो साल बाद भी लागू नही करवा सकी है।
ऐसे में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का संशोधन बिल संसद में आने पर आंदोलनजीवी फिर जिंदा हो जाएंगे, और किसान कानूनों की तरह पूरे देश में तहलका मचा देंगे, और मोदी सरकार इतने संवेदनशील मामले में कोई जोखिम लेने की स्थिति में नही है।
वैसे भी इस देश के हिंदू सोए हुए हैं, और बहुतायत हिंदू अपना भला बुरा भी नही समझ पाते हैं, और मोदी जी को कमजोर करने वाली ताकतों का विरोध भी नही कर रहे हैं, ऐसे में मोदी जी किन लोगो के दम पर इतना बड़ा संशोधन करने का कदम उठाएंगे।
हिंदुओ के इस तरह के बर्ताव को इतिहास व आने वाली पीढ़ियां कभी माफ नही कर सकेगी।
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