सन् 1886 ई. में विद्युत चुम्बकीय तरंगों के अन्वेषक जर्मन वैज्ञानिक रूडोल्फ हर्ट्ज ने यह पता लगाया कि विद्युत चुम्बकीय तरंगें किसी ठोस वस्तु से टकराकर परावर्तित हो जाती हैं, इनसे ही विद्युत चुम्बकीय तरंगों का उपयोग रेडियो में ट्रांसमीटर से प्रसारित संदेश प्राप्त करने में किया जाता है।
दो अन्य जर्मन वैज्ञानिकों ने सन् 1904 ई. में रेडियो तरंगों के एक संभावित उपयोग को पेटेण्ट कराया। इसके अनुसार रेडियो तरंगों द्वारा समुद्री जहाजों के मार्ग में पड़ने वाली रुकावटों को ज्ञात किया जा सकता था।
सन् 1922 ई. में संयुक्त राज्य अमेरिका के दो वैज्ञानिकों-टेलर और यंग ने 'पोटोमैक' नदी में स्थित एक जलयान पर किए गए अपने प्रयोगों में पाया कि रेडियो तरंगों का उपयोग शत्रु जलयानों की स्थिति को ज्ञात करने के लिए किया जा सकता है।
रेडियो तरंगों के परावर्त सम्बन्धी प्रयोग सर्वप्रथम ब्रिटिश वैज्ञानिक एपल्टन ने सन् 1924 ई. में किए थे। उन्होंने प्रयोग यह जांचने के लिए किए थे कि ऊर्ध्वाकाश में वायु स्तर सामान्य प्रकार का है या विद्युन्मय है। जिन दिनों ये प्रारभिक अनुसंधान किए जा रहे थे, किसी ने सपने में भी यह कल्पना नहीं की थी कि एक दिन इन्हीं प्रयोगों के आधार पर राडार जैसा यंत्र तैयार करके ब्रिटिश वैज्ञानिक दूसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की रक्षा कर पाएंगे।
सन् 1925 ई. में ग्रेगरी ब्रेइट और मरले 'ए' टुबे ने पल्स-प्रौद्योगिकी का उपयोग कर, पृथ्वी से आयन-मण्डल की दूरी ज्ञात की। इस पल्स-प्रौद्योगिकी में रेडियो तरंगों को विभिन्न आवर्तियों पर सैकेण्ड के अंश-मात्र में आकाश की ओर प्रेषित किया गया तथा लौटने का समय ज्ञात किया गया।
इस प्रौद्योगिकी से राडार का आविष्कार संभव हो सका तथा रॉबर्ट अलेक्जेण्डर वाटसन वाट ने भी इस प्रौद्योगिकी का उपयोग किया था।
राडार के आविष्कार और विकास में उस समय की राजनीतिक तथा सामाजिक परिस्थितियों का बहुत बड़ा योगदान है। उन दिनों जर्मन में हिटलर की तानाशाही थी। हिटलर की महत्वाकांक्षा थी कि वह एक दिन सम्पूर्ण विश्व पर अपना आधिपत्य स्थापित कर ले। दूसरी ओर जर्मनी और इंग्लैण्ड के बीच युद्ध की सम्भावना दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। इनके अतिरिक्त युद्ध में विमानों के उपयोग में उत्तरोत्तर वृद्धि की सम्भावना थी। समस्या उन विमानों की स्थिति को दूर से ज्ञात करने की थी।
उन दिनों विमानों की स्थिति ज्ञात करने हेतु ध्वनि दर्पण का उपयोग किया जाता था। वे ध्वनि-दर्पण विमानों की ध्वनि को परावर्तित कर माइक्रोफोन में भर देते थे। वे ध्वनियां एम्प्लीफायर से तीव्र होकर लाउडस्पीकर से सुनाई देती थीं। उससे विमान के आने का पता चल जाता था, किन्तु वह विधि तब ही उपयोगी थी, जब विमान सीधे ध्वनि-दर्पण की ओर आए तथा विमान के मार्ग में अन्य किसी प्रकार की ध्वनि न हो।
यह भी स्पष्ट है कि वह विधि तेज और ऊंचे उड़ने वाले विमानों के लिए उपयोगी नहीं थी। उन ध्वनि-दर्पणों की अनुपयोगिता से वायु-सेना अत्यन्त चिन्तित थी। उस चिन्ता से वायु-मंत्रालय के प्रमुख वैज्ञानिक प्रोफेसर एच.ई. विमपेरिस ने रॉबर्ट वाटसन वाट को अवगत कराया तथा उनसे अनुरोध किया कि कोई ऐसी विधि खोजें, जिससे वायुयानों की स्थिति का ठीक-ठीक अनुमान लगाया जा सके।
यद्यपि राबर्ट वाटसन युद्ध विरोधी थे, किन्तु तत्कालीन परिस्थितियों ने उन्हें विवश कर दिया कि वे अपने ज्ञान का उपयोग युद्ध के लिए करें। उन्हें इस बात का भय था कि जर्मन वैज्ञानिक भी राडार बनाने के लिए कटिबद्ध न हो जाएं। अतः उन्होंने अपने अध्ययनों पर आधारित एक गुप्त प्रतिवेदन शाही वायुसेना को भेजा, जिसमें राडार की निर्माण योजना थी।
26 फरवरी, सन् 1935 ई. को दोपहर के समय तीन व्यक्ति नार्थम्पटन शायर, इंग्लैण्ड के गांव वीडन के खेत में खड़ी बंद गाड़ी में चढ़े। वे तीन व्यक्ति वैज्ञानिक सर रॉबर्ट अलेक्जेण्डर वाटसनवाट, वायु मंत्रालय के विज्ञान विशेषज्ञ डॉक्टर ए. पी. रोवे और ए.एफ. विलकिन्स (रॉबर्ट वाटसन वाट के सहयोगी) थे। उस समय वे तीनों एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण निर्णय के लिए एकत्रित हुए थे। करीब दो सप्ताह पहले रॉबर्ट वाटसन वॉट ने एक गुप्त प्रतिवेदन वायु-मंत्रालय को भेजा था।
उस ऐतिहासिक प्रतिवेदन (रिपोट) में वैज्ञानिक रॉबर्ट वाटसन वाट ने भविष्यवाणी की थी, कि रेडियो तरंगों की सहायता से उड़ते हुए विमानों की स्थिति ज्ञात की जा सकती है। वह प्रतिवेदन वास्तव में राडार का मूल स्रोत था।
विलकिन्स ने रॉबर्ट वाटसन वॉट के अनुरोध पर हरी रेखा को एक छोटे बिन्दु में परिवर्तित कर दिया, क्योंकि कुछ समय बाद बम-वर्षक वायुयान को उस गांव के ऊपर से गुजरना था। कुछ देर में वायुयान की ध्वनि सुनाई देने लगी, वह हरा प्रकाश अपने मूल स्थान से बढ़ता थिरकता हुआ ऊपर की ओर उठने लगा। जब वायुयान ऊपर से गुजर गया, तब वह प्रकाश उसी तरह लौटने लगा, जिस तरह वह ऊपर उठा था।
तभी बम-वर्षक पुनः वापस आया और कैथोड-रे-ट्यूब में पुनः प्रक्रिया होने लगी। वह क्रिया तीन बार हुई तथा अंतिम बार जब वायुयान लौटा तब यह भी पता चल गया कि वह वायुयान ट्रांसमीटर से प्रसारित रेडियो-तरंगों के क्षेत्र से बाहर चला गया है।
इस विस्मयकारी प्रदर्शन से ब्रिटेन के वायु-मंत्रालय के विशेषज्ञ अत्यन्त प्रभावित हुए। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में रॉबर्ट वाटसन वॉट के प्रतिवेदन की सराहना की तथा राडार पर और अधिक तेजी से कार्य किए जाने की सिफारिश की।
वायुसेना ने रॉबर्ट वाटसन वॉट की योजना को स्वीकार कर लिया। इसके लिए वायुसेना ने रॉबर्ट अलेक्जेण्डर वाट्सन वाट को एक लाख अस्सी हजार रुपये का अनुदान योजना को और विकसित करने के लिए दिया। मई, 1935 ई. में रॉबर्ट वॉटसन वॉट ने अपने छः सहयोगियों के साथ 'ऑरफोर्ड नेस सफॉक' में गुप्त रूप से कार्य आरम्भ कर दिया। उस स्थान पर बेकार पड़े एक हवाई अड्डे पर कुछ झोपड़ियां पड़ी थीं। उन्हीं को वाट्सन ने अपनी प्रयोगशाला बनाया।
जुलाई के मध्य तक उनका राडार तैयार हो गया, जो चौबीस कि.मी. तक के वायुयान की स्थिति ज्ञात कर सकता था। जुलाई के अंतिम सप्ताह में जब रॉबर्ट एक विमान के मार्ग का अनुरेखण कर रहे थे, तब उन्होंने राडार पर कुछ विचित्र संकेत देखे, जो निरन्तर परिवर्तित हो रहे थे। उन्होंने अनुमान लगाया कि एक नहीं तीन वायुयान हैं, जो अपनी उड़ान की स्थिति को बदलते रहते हैं। इस तरह पहली बार राडार एक स्थान पर अनेक वायुयानों की स्थिति को ज्ञात कर बता सका।
सितम्बर, सन् 1935 ई. में इंग्लैण्ड के दक्षिण-पश्चिम समुद्र तट से उत्तर पूर्वी तट तक 20 राडार-स्टेशनों के निर्माण की योजना बनाई गई। वह योजना अगस्त, सन् 1937 ई. में पूर्ण हुई।
अगस्त, सन् 1937 ई. के वायुसेना अभ्यास में उन सुरक्षा प्रहरियों (राडारों) की उपयोगिता सिद्ध हो गई। इस तरह वायुसेना ने उनका उपयोग करने का निश्चय कर लिया। यद्यपि राडार की उपयोगिता सिद्ध हो चुकी थी, किन्तु अभी अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य शेष थे। राडार को किन स्थानों पर लगाया जाए, इनका संचालन कौन करेगा तथा इनका उपकरण कौन और किस प्रकार निर्मित किया जाए?
ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर के लिए रॉबर्ट वाटसन वॉट ने अथक प्रयत्न किए। उन्हीं के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप मार्च, सन् 1939 ई. के अन्त में ब्रिटेन के चारों ओर राडार केन्द्र स्थापित हो गए, जिन्होंने द्वितीय महायुद्ध-काल में ब्रिटेन की सुरक्षा की।
1 जुलाई, सन् 1940 ई. में जब इंग्लैण्ड ने दूसरे विश्वयुद्ध में प्रवेश किया, उस समय इंग्लैण्ड के चारों ओर 50 राडार-स्टेशन सुरक्षा प्रहरी के रूप में कार्य कर रहे थे। उन राडार स्टेशनों पर प्राप्त सूचनाओं का उपयोग कर रॉयल एयर-फोर्स ने जर्मन वायुसेना के छक्के छुड़ा दिए। अन्त में हिटलर को इंग्लैण्ड पर आक्रमण न करने का निर्णय लेना पड़ा।
वास्तव में रॉबर्ट वाटसन वॉट ने तत्कालीन रेडियो-उपकरणों का उपयोग कर, एक ऐसे यंत्र को जन्म दिया था, जो वायुयानों की स्थिति और अवस्था को प्रदर्शित कर सकता था। रॉबर्ट वाटसन वॉट से पहले, अनेक वैज्ञानिकों ने अनेक देशों में ऐसे प्रयास किए थे, किन्तु वे सफल नहीं हो पाए थे।
ब्रिटेन ने रॉबर्ट अलेक्जेण्डर वाटसन वॉट के इस योगदान की सराहना करते हुए, उन्हें सन् 1941 ई. में 'सर' की उपाधि प्रदान की थी।
राडार में सुधार
राडार की परावर्तित रेडियो-तरंगें मात्र लक्ष्य की दिशा ही नहीं, बल्कि उसकी सही दूरी भी तुरन्त बता देती हैं। रेडियो-तरंगें प्रति सैकेण्ड 186 हजार मील की गति से अपना मार्ग तय करती हैं। ब्रिटेन ने राडार का प्रारम्भिक ढांचा तैयार किया था। उनमें रेडियो तरंगों के लौटने तक का समय फोटोग्राफिक फिल्म पर अंकित होता था। इसलिए फिल्म को मसाले में धोए बिना यह मालूम नहीं किया जा सकता था कि लक्ष्य की दूरी कितनी है। युद्ध-स्थल पर फिल्म धोने में होने वाली देर घातक सिद्ध हो सकती थी।
अतः अमेरिकन वैज्ञानिकों ने ब्रिटेन के राडार-मॉडल में समुचित सुधार किए। उन्होंने रेडियो-तरंगों के लेखा हेतु फिल्म के स्थान पर कैथोड-रे-ट्यूब के कांच का इस्तेमाल किया। वह इस्तेमाल स्क्रीन रूप में सामने आयी। उन्होंने उस पर नोअ किया कि रेडियो-तरंग कितनी देर बाद लक्ष्य से टकरा कर वापस लौटी है। इस तरह वे तुरन्त ही बता सकते थे कि लक्ष्य कितनी दूरी पर स्थित है। प्रत्येक विमानभेदी तोप की टोली के लक्ष्य-साधन की सहायता के लिए निकट ही राडारयुक्त मोटर लारी खड़ी रहती थी। ऊंचे आकाश में बादलों के ऊपर शत्रु के बम-वर्षक वायुयान के आते ही राडार उनकी टोह पा लेता था और फौरन विमानभेदी तोप के संचालक को आदेश देता था कि अमुक दिशा में 80 अथवा 70 मील की दूरी पर उड़ते हुए शत्रु के वायुयान आ रहे हैं, तैयार हो जाओ। इसके बाद राडार पल-पल पर उन शत्रु-विमानों का पता देता रहता है। लक्ष्य सीमा के भीतर आते ही विमानभेदी तोपें अपने अदृश्य लक्ष्य पर गोले बरसाने लग जाती हैं।
वैसे बम-वर्षक वायुयान भी राडार यंत्र साथ लेकर उड़ते हैं। कुछ वायुयानों में तीन से चार राडार भिन्न-भिन्न स्थितियों पर लगे होते हैं। सामने का राडार अंधेरे अथवा कोहरे में उस लक्ष्य का पता लगाता है, जिस पर बम बरसाने होते हैं। तली में लगा हुआ राडार मित्र और शत्रु के एयरोड्रोम की पहचान करता है, क्योंकि मित्र-पक्ष के एयरोड्रोम के विशेष संकेत की रेडियो तरंगें निरन्तर आकाश में अपने वायुयानों के मार्ग प्रदर्शन हेतु प्रसारित की जाती हैं। वायुयान के पृष्ठ भाग में लगे हुए राडार का उपयोग यह पता करने के लिए किया जाता है कि कुहरे के आवरण में पीछे से शत्रु-पक्ष के वायुयान हमला करने के लिए तो नहीं आ रहे हैं।
विमानों पर लगे राडार के दृष्टि-क्षेत्र में कांच के पर्दे पर एक वृत्त के केन्द्र पर लक्ष्य का चित्र एक नन्हें बिन्दु के रूप में दृष्टिगोचर होता है। बिन्दु के परिणाम से वायुयान-चालक लक्ष्य की दूरी का अनुमान लगाने में सक्षम होते हैं।
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