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जेट इंजन का आविष्कार किसने और कब किया

 
jet-engine

जेट इंजन (टरबो जेट) का जन्मदाता फ्रैंक ह्विटल को माना जाता है, किन्तु जेट शक्तियों से वस्तुओं को चलाने का विचार नया नहीं है, बल्कि बहुत पुराना है। कई सदियों पहले से इंजीनियर 'जेट नोदन के सिद्धान्त' को समझते थे, मगर फिर भी उन्हें अपने उद्देश्य में सफलता नहीं मिल पाई थी। जेट नोदन सिद्धान्त को इस प्रकार समझा जा सकता है-

रबड़ के गुब्बारे में पहले हवा भर लो और इस हवा से भरे रबड़ के गुब्बारे को मेज पर रख दो, मुंह बंद होने के कारण गुब्बारा एक स्थान पर रखा रहेगा, किन्तु यदि उसके मुंह को बांधते समय उसे कुछ ढीला छोड़ दो, अर्थात् गुब्बारे की हवा तेजी से बाहर निकलने दो, तो वह हाथ से छूटकर निकल भागेगा।

ऐसी स्थिति में, हवा के दाब के कारण गुब्बारे से हवा बाहर निकलती है। उसकी प्रतिक्रिया के रूप में गुब्बारा खुद हवा के जेट से विपरीत (हवा की धारा के बहाव) से विपरीत दिशा में चलने लगता है। न्यूटन द्वारा बनाए गए ‘गति के तीसरे नियम' के अनुसार प्रत्येक क्रिया के बराबर किन्तु विपरीत प्रतिक्रिया होती है। इस प्रकार गुब्बारा प्रतिक्रिया के कारण जेट-नोदित हो जाता है।


नोदन-: नोदन का अर्थ होता है, ‘प्रेरणा'। दूसरे शब्दों में-चलाने या हांकने के काम को 'नोदन' कहते हैं, जैसे-जेट विमान के चलाने के लिए जो कार्य किया जाता है, उसे नोदन कहते हैं।
यह नोदन पूरी तरह गुब्बारे के भिन्न-भिन्न आंतरिक भागों के दाब की असमानता के कारण हुआ, न कि आस-पास की हवा के धक्के के कारण। यदि गुब्बारे को निर्वात में रखा जाए, तो यह और अच्छी तरह से नोदन होता है। 'निर्वात' का अर्थ होता है वह स्थान, जहां वायु न जा पाए।

बन्द बर्तन के भीतर दाब बढ़ाना हो, तो उसे बाहर से गर्म कर देना चाहिए या फिर उसके भीतर किसी रासायनिक पदार्थ को गर्म करके उससे कोई गैस उत्पन्न कर दी जाए। अब यदि बर्तन के एक सिरे पर छोटा-सा सुराख कर दिया जाए, जिससे होकर गर्म गैस बाहर निकल सके, तो बर्तन स्वयं गैस निकलने की दिशा से विपरीत दिशा में चलने लगेगा।

इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि जब किसी बंदूक से गोली चलती है, अर्थात् आगे की ओर निकलती है, तब बंदूक चलाने वाले को पीछे की ओर धक्का लगता है। इसी तरह किसी छोटे छेद में होकर बाहर निकलने वाली किसी द्रव अथवा गैस की तेज धार के कारण उसकी प्रतिक्रिया से, वह वस्तु स्वयं जेट से विपरीत दिशा में चलने लगती है। यही 'जेट नोदन का सिद्धान्त' कहलाता है।

जेट-चालित विमानों में विस्फोटक गैस तीस या चालीस सेंटीमीटर व्यास के जेट से होकर पीछे से निकलती है। उसकी प्रतिक्रिया होने से विमान आगे की ओर चलने लगता है।

हैरो नामक यूनानी गणितज्ञ ने ईसा से तेरह वर्ष पूर्व सबसे पहले जेट इंजन बनाया था। उसमें धातु का एक खोखला गोला था, जो स्वतंत्र रूप से क्षैतिज अक्ष पर घूम सकता था। जब गोले के भीतर भाप पहुंचायी जाती थी, तब वह व्यासीय विपरीत दो नलियों से बाहर निकलती थी, नलियां विपरीत दिशाओं में समकोण पर मुड़ी रहती थीं।

सन् 1894 ई. में चार्ल्स पारसन्स ने पहली भाप टरबाइन का आविष्कार किया। यह टरबाइन चवालीस टन की थी।

इस टरबाइन का निर्माण करने से पूर्व पारसन्स ने सन् 1889 ई. में अपनी एक इंजीनियरी की फर्म खोली और उन्होंने शहर में विद्युत केन्द्र स्थापित करने के लिए दो मशीनें बनाईं। उनकी एक कम्पनी न्यूकैसल में थी। इन मशीनों को लगाने पर पूरे शहर में रोशनी हो गई थी। तब पांच वर्ष बाद उन्होंने भाप की टरबाइन का निर्माण किया था।

पारसन्स ने अपनी यह पहली टरबाइन एक पानी के जहाज में लगाई थी, उस जहाज का नाम ‘टरबानिया' था। आरम्भ में इस तरह की टरबाइन का थोड़ा बहुत विरोध हुआ, किन्तु इसकी सफलता को देखकर जल सेना के सभी लोग बहुत खुश थे।

सन् 1897 ई. में महारानी विक्टोरिया ने डायमण्ड जुबली वर्षगांठ पर इस कार्य का बहुत आदर किया। यह मशीन बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुई।

इस महान् सफलता के बाद पारसन्स ने टरबाइन चालित दो वाइपर और कोबरा यान का निर्माण किया। सन् 1905 ई. में शेष जल सेना ने यह घोषित कर दिया कि सभी लड़ाकू जलयानों में टरबाइन लगा दिया जाए। परमानिया नामक जलयान के लिए तीस हजार टन वाली टरबाइन बनाई गई, इसके दो वर्ष बाद एक दूसरी टरबाइन दूसरे जलयान में लगाई गई। यह अपनी यात्रा पर न्यूयॉर्क से क्विन्स टाउन तक गए और चार दिन बाईस घण्टे के रिकार्ड टाइम में अपनी यात्रा पूरी की। इस टरबाइन ने सन् 1907 ई. से सन् 1931 ई. तक अन्ध महासागर में यात्रा की।

सन् 1929 ई. में जियोवानी ब्रांका ने भी भाप की एक टरबाइन का आविष्कार किया था और चक्की चलाने के लिए जेट के सिद्धान्त से काम लिया था। उनके बाद और कई लोगों ने भी जेट की शक्ति से चलने वाली मशीनों पर कार्य किया। सन् 1926 ई. में ब्रिटिश वैज्ञानिक डॉक्टर ग्रिफिथ्स ने यह परामर्श दिया था, कि विमानों को चलाने के लिए जेट-चालित गैस टरबाइन का उपयोग किया जा सकता है। सन् 1941 ई. में ग्लास्टर ई-28 ने सफल उड़ान भरी थी।

विमानों में काम आने वाले जेट-चालित इंजन मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं, जो इस प्रकार से हैं

  • टरबो जेट (TURBO JETS)
  • पल्स जेट (PULSE JETS)
  • रेन जेट (RAIN JETS) 
  • रॉकेट (ROCKET)
आरम्भिक तीन तरह के इंजनों में वायु-मण्डल से हवा लेकर संपीडित कर ली जाती है, फिर उसे किसी ज्वलनशील ईंधन के साथ मिलाकर गरम करते हैं और एक पतले सुराख में से निकालते हैं। मगर रॉकेट में हवा की आवश्यकता नहीं होती। वह अपना ईंधन और उसको जलाने का ऑक्सीकारक स्वयं अपने साथ रखता है।

आरम्भिक तीन इंजनों का वर्णन इस प्रकार है

टरबो जेट इंजन (Turbo Jet Engine)-: जो इंजन सबसे ज्यादा प्रयोग में लाया जाता है, वह ‘टरबो जेट' तरह का होता है। एक टरबो जेट इंजन में हवा को भीतर चूसने का प्रबंध, उसे संपीडित करने की व्यवस्था, हवा को ईधन से मिलाने का प्रबंध और पतले सुराख का दहन-गृह होता है।

जब विमान-चालक विमान को उड़ाना चाहता है, तब वह एक छोटे-से मोटर को चला देता है। इससे संपीडक पंखा चलने लगता है। इससे सामने के द्वारों से हवा भीतर चली जाती है। वॉल्व बंद हो जाते हैं। इसके साथ ही हवा को पहले के चार गुणा दाब से दबा दिया जाता है। इसमें से कुछ गर्म और संपीडित हवा दहन-गृह में भेज दी जाती है। एक पम्प द्वारा ज्वलनशील ईंधन शक्ति दाब पर एक पतली नली में दबाकर भेज दिया जाता है।

ईंधन छोटी-छोटी बूंदों के रूप में हवा से मिलकर ज्वलनशील मिश्रण बना देती है, एक स्पार्क-प्लग से स्पार्क उत्पन्न करके इस मिश्रण को जला देते हैं, फिर गरम हवा दहन-गृह से छ: सौ फीट प्रति सेकेण्ड के वेग से एक टरबाइन के ब्लेडों से टकराती है और उसकी ऊर्जा 'काम' में बदल जाती है।

टरबाइन से निकलने के बाद हवा एक छोटी-सी पूंछ की नली द्वारा बाहर निकाल दी जाती है। यह हवा का जेट लगभग वायु-मण्डल के दाव पर निकलता है, लेकिन  उसका वेग दो हजार फीट प्रति सेकेण्ड के करीब होता है। कुछ सेकेण्ड बाद जब टरबाइन की गति तेज हो जाती है, तब मोटर बंद कर दिया जाता है, और इंजन अपने आप चलने लगता है।

इस प्रकार टरबो जेट की क्रिया को चार भागों में बांटा जा सकता है। जो इस प्रकार है

  • (A) हवा इंजन के आगे के दरवाजे से चूस ली जाती है। एक कम्प्रेसर, जो एक बड़े पंखे की तरह होता है, इस हवा को दबाकर दहन-गृह में भेज देता है।
  • (B) दहन-गृह में ज्वलनशील ईंधन अधिक दाब पर संपीडित हवा में छिड़क दिया जाता है। वह हवा से मिलकर ज्वलनशील मिश्रण बना देता है। इस मिश्रण को स्पार्क प्लग से स्पार्क उत्पन्न करके जला देते हैं। गर्म गैसें तेजी से फैलती हैं और इंजन के पीछे से निकलती हैं।
  • (C) जब ये गैसें इंजन से बाहर की ओर निकलती हैं, तब एक टरबाइन की पंखुड़ियों को घुमाती हैं। ये पंखुड़ियां पवन चक्की की तरह घूमती हैं और उस मुख्य इंजन-शॉफ्ट को घुमाती हैं, जो सामने के कम्प्रेसर को चलाता
  • (D) कुछ इंजनों में पीछे की ओर लम्बे शंकु के आकार का एक बर्नर लगा होता है। इसमें निकासी द्वार से बाहर निकलने से कुछ देर पूर्व ईंधन छिड़ककर जला दिया जाता है।

रेन जेट इंजन (Rain Jet Engine)-: सभी जेट इंजनों में कोई चलने वाला पुर्जा नहीं होता। सामने की ओर विमान की गति से हवा संपीडित होती है। रेन जेट चालू होने से विमान को गति में होना चाहिए। रेन जेट इंजन वाले विमान को एक 'मातृ विमान' की सहायता से हवा में फेंकना होता है।

पल्स जेट इंजन–: 'पल्स जेट' भी एक साधारण जेट इंजन होता है। इसमें प्रवेश वॉल्व एकमात्र हिलने वाला पुर्जा होता है। यह इंजन में अन्दर जाने वाली हवा की मात्रा का नियंत्रण करता है। यह सबसे पहले द्वितीय विश्वयुद्ध में ‘वी-1' उड़ान बमों को शक्ति देने के लिए काम में लाया गया था, जिसने जर्मनी से लंदन पर बम बरसाए थे।

इन इंजनों के अलावा कुछ इंजन ऐसे भी होते हैं, जिनमें जेट इंजन के साथ 'प्रोपेलर' भी लगा रहता है। ये इंजन टर्बोप्रोप कहलाते हैं। इनमें 'गैस टरबाइन' और 'जेट प्रोपेलर' दोनों के ही लाभ होते हैं।

उड़ान आरम्भ करते समय और कम चालों पर प्रोपेलर अधिक ठेल उत्पन्न करता है। वहीं उतरते समय प्रोपेलर अधिक प्रतिरोध पैदा करता है। इस कारण टर्बोप्रोप इंजन टर्बोजेट की अपेक्षा छोटे धावन-पथ से उड़ और उतर सकते हैं।

टर्बोप्रोप, जो प्रोपजेट भी कहलाते हैं, टर्बोजेट की भांति तेज नहीं उड़ सकते और न ही उतनी ऊंचाई पर पहुंच सकते हैं। टर्बोजेट तीव्र गति और ऊंचाई पर उड़ान के लिए उत्तम हैं, मगर प्रोपजेट साधारण ऊंचाइयों पर पुरानी तरह के पिस्टन इंजनों और विमानों की अपेक्षा अच्छा काम करते हैं।

जेट विमानों की गति में पहले से काफी वृद्धि कर ली गई है। उत्तरी अमेरिका ने एक विमान का निर्माण किया था, उसका नाम था-'बी-70'  वह आधा आकाशयान और आधा जहाज था। उसका शरीर 156 फीट लम्बा था और आकृति पेंसिल जैसी थी। वह परमाणु बमवर्षक के रूप में बिना रुके सात हजार मील उड़ सकता था।

यात्री विमान के रूप में डेढ़ सौ सवारियों को उसने दो हजार मील प्रति घण्टा से भी अधिक की गति से सफर कराया। उसने सैनफ्रांसिस्को से लंदन तक बिना रुके उड़ानें भरी।

जेट विमानों में एक महत्त्वपूर्ण सुधार डॉक्टर वेरनर फेनिन्जर ने किया था। उन्होंने एक वायु-श्वासी पंख विकसित किया। इसके लगने से हवा के ऊपर और नीचे होकर ध्वनि से अधिक चालों पर वह विमान शान्तिपूर्वक गुजरा। इससे उसकी चाल दोगुनी हो गई थी।

जब विमान के पुराने ढंग के पंख ध्वनि से अधिक चालों पर हवा को काटते हुए आगे बढ़ते थे, तब हवा में एक तरह की खलबली उत्पन्न हो जाती थी, जिसके कर्ष से विमान की चाल घट जाती थी।


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