पतंजलि काशी में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में विद्यमान थे। अयोध्या से महज 22 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कोडर गांव में महर्षि पतंजलि का आश्रम है. ये गांव गोंडा जिले में आता है। पर ये काशी में नागकूप पर बस गये थे। ये व्याकरणाचार्य पाणिनी के शिष्य थे। पतंजलि ने पाणिनि की अष्टाध्यायी और कात्यायन के प्रतीकों का आश्रय लेते हुए अष्टाध्यायी पर महाभाष्य नाम की सर्वागीण व्याख्या की है। महाभाष्य व्याकरण का ग्रंथ होने के साथ-साथ तत्कालीन समाज का विश्वकोश भी है। भाषा की सरलता विषमता स्वाधीनता और और विषय प्रतिपादन की उत्कृष्ट शैली के कारण महाभाष्य सारे संस्कृत वाडमय में आदर्श ग्रंथ है। इसमें भाषा शास्त्र के तत्कालीन ऐतिहासिक, सामाजिक, भौगोलिक, धार्मिक, संस्कृति आदि तत्वों पर विशद चिंतन हुआ है। पतंजलि पुष्यमित्र के समय में हुए थे इनका समय 150 ईसा पूर्व के लगभग है। पतंजलि एक महान चिकित्सक थे और इन्हें ही कुछ विद्वान 'चरक संहिता' का प्रणेता भी मानते हैं।
पतंजलि प्राचीन भारत के एक मुनि थे जिन्हे संस्कृत के अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का रचयिता माना जाता है। इनमें से योगसूत्र उनकी महानतम रचना है जो योगदर्शन का मूलग्रन्थ है। भारतीय साहित्य में पतंजलि द्वारा रचित ३ मुख्य ग्रन्थ मिलते हैं। योगसूत्र, अष्टाध्यायी पर भाष्य और आयुर्वेद पर ग्रन्थ। कुछ विद्वानों का मत है कि ये तीनों ग्रन्थ एक ही व्यक्ति ने लिखे, अन्य की धारणा है कि ये विभिन्न व्यक्तियों की कृतियाँ हैं। पतंजलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी पर अपनी टीका लिखी जिसे महाभाष्य का नाम दिया (महा +भाष्य (समीक्षा, टिप्पणी, विवेचना, आलोचना))। इनका काल कोई २०० ई पू माना जाता है।
जीवन
पतंजलि शुंग वंश के शासनकाल में थे। डॉ. भंडारकर ने पतंजलि का समय 158 ई. पू. द बोथलिक ने पतंजलि का समय 200 ईसा पूर्व एवं कीथ ने उनका समय 140 से 150 ईसा पूर्व माना है। उन्होंने पुष्यमित्र शुंग का अश्वमेघ यज्ञ भी सम्पन्न कराया था। इनका जन्म गोनार्ध (गोंडा,उ०प्र०) में हुआ था, बाद में वे काशी में बस गए। ये व्याकरणाचार्य पाणिनी के शिष्य थे। काशीवासी आज भी श्रावण कृष्ण ५, नागपंचमी को छोटे गुरु का, बड़े गुरु का नाग लो भाई नाग लो कहकर नाग के चित्र बाँटते हैं क्योंकि पतंजलि को शेषनाग का अवतार माना जाता है।
योगदान
पतंजलि महान चिकित्सक थे और इन्हें ही 'चरक संहिता' का प्रणेता माना जाता है। 'योगसूत्र' पतंजलि का महान अवदान है। पतंजलि रसायन विद्या के विशिष्ट आचार्य थे अभ्रक विंदास, अनेक धातुयोग और लौहशास्त्र इनकी देन है। पतंजलि संभवत पुष्यमित्र शुंग (१९५-१४२ ई.पू.) के शासनकाल में थे। राजा भोज ने इन्हें तन के साथ मन का भी चिकित्सक कहा है।[4]
योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।
योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि॥
(अर्थात् चित्त-शुद्धि के लिए योग (योगसूत्र), वाणी-शुद्धि के लिए व्याकरण (महाभाष्य) और शरीर-शुद्धि के लिए वैद्यकशास्त्र (चरकसंहिता) देनेवाले मुनिश्रेष्ठ पतञ्जलि को प्रणाम।)
ई.पू. द्वितीय शताब्दी में 'महाभाष्य' के रचयिता पतंजलि काशी-मण्डल के ही निवासी थे। मुनित्रय की परम्परा में वे अंतिम मुनि थे। पाणिनी के पश्चात् पतंजलि सर्वश्रेष्ठ स्थान के अधिकारी पुरुष हैं। उन्होंने पाणिनी व्याकरण के महाभाष्य की रचना कर उसे स्थिरता प्रदान की। वे अलौकिक प्रतिभा के धनी थे। व्याकरण के अतिरिक्त अन्य शास्त्रों पर भी इनका समान रूप से अधिकार था। व्याकरण शास्त्र में उनकी बात को अंतिम प्रमाण समझा जाता है। उन्होंने अपने समय के जनजीवन का पर्याप्त निरीक्षण किया था। अत: महाभाष्य व्याकरण का ग्रंथ होने के साथ-साथ तत्कालीन समाज का विश्वकोश भी है। यह तो सभी जानते हैं कि पतंजलि शेषनाग के अवतार थे। द्रविड़ देश के सुकवि रामचन्द्र दीक्षित ने अपने 'पतंजलि चरित' नामक काव्य ग्रंथ में उनके चरित्र के संबंध में कुछ नये तथ्यों की संभावनाओं को व्यक्त किया है। उनके अनुसार आदि शंकराचार्य के दादागुरु आचार्य गौड़पाद पतंजलि के शिष्य थे किंतु तथ्यों से यह बात पुष्ट नहीं होती है।
प्राचीन विद्यारण्य स्वामी ने अपने ग्रंथ 'शंकर दिग्विजय' में आदि शंकराचार्य में गुरु गोविंद पादाचार्य को पतंजलि का रुपांतर माना है। इस प्रकार उनका संबंध अद्वैत वेदांत के साथ जुड़ गया।
काल निर्धारण
पतंजलि के समय निर्धारण के संबंध में पुष्यमित्र कण्व वंश के संस्थापक ब्राह्मण राजा के अश्वमेध यज्ञों की घटना को लिया जा सकता है। यह घटना ई.पू. द्वितीय शताब्दी की है। इसके अनुसार महाभाष्य की रचना का काल ई.पू. द्वितीय शताब्दी का मध्यकाल अथवा १५० ई.पूर्व माना जा सकता है। पतंजलि की एकमात्र रचना महाभाष्य है जो उनकी कीर्ति को अमर बनाने के लिये पर्याप्त है। दर्शन शास्त्र में शंकराचार्य को जो स्थान 'शारीरिक भाष्य' के कारण प्राप्त है, वही स्थान पतंजलि को महाभाष्य के कारण व्याकरण शास्त्र में प्राप्त है। पतंजलि ने इस ग्रंथ की रचना कर पाणिनि के व्याकरण की प्रामाणिकता पर अंतिम मुहर लगा दी है।
योग दर्शन-
योगदर्शन छः आस्तिक दर्शनों (षड्दर्शन) में से एक है। इसके प्रणेता पतञ्जलि मुनि हैं। यह दर्शन सांख्य दर्शन के 'पूरक दर्शन' के नाम से प्रसिद्ध है। इस दर्शन का प्रमुख लक्ष्य मनुष्य को वह मार्ग दिखाना है जिस पर चलकर वह जीवन के परम लक्ष्य (मोक्ष) की प्राप्ति कर सके। अन्य दर्शनों की भांति योगदर्शन तत्त्वमीमांसा के प्रश्नों (जगत क्या है, जीव क्या है?, आदि) में न उलझकर मुख्यतः मोक्षप्राप्ति के उपाय बताने वाले दर्शन की प्रस्तुति करता है। किन्तु मोक्ष पर चर्चा करने वाले प्रत्येक दर्शन की कोई न कोई तात्विक पृष्टभूमि होनी आवश्यक है। अतः इस हेतु योगदर्शन, सांख्यदर्शन का सहारा लेता है और उसके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वमीमांसा को स्वीकार कर लेता है। इसलिये प्रारम्भ से ही योगदर्शन, सांख्यदर्शन से जुड़ा हुआ है। [1]
प्रकृति, पुरुष के स्वरूप के साथ ईश्वर के अस्तित्व को मिलाकर मनुष्य जीवन की आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक उन्नति के लिये दर्शन का एक बड़ा व्यावहारिक और मनोवैज्ञानिक रूप योगदर्शन में प्रस्तुत किया गया है। इसका प्रारम्भ पतञ्जलि मुनि के योगसूत्रों से होता है। योगसूत्रों की सर्वोत्तम व्याख्या व्यास मुनि द्वारा लिखित व्यासभाष्य में प्राप्त होती है। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार मनुष्य अपने मन (चित) की वृत्तियों पर नियन्त्रण रखकर जीवन में सफल हो सकता है और अपने अन्तिम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त कर सकता है।
योगदर्शन, सांख्य की तरह द्वैतवादी है। सांख्य के तत्त्वमीमांसा को पूर्ण रूप से स्वीकारते हुए उसमें केवल 'ईश्वर' को जोड़ देता है। इसलिये योगदर्शन को 'सेश्वर सांख्य' (स + ईश्वर सांख्य) कहते हैं और सांख्य को 'निरीश्वर सांख्य' कहा जाता है।
परिचय
योगदर्शन में पुरूष तत्व केन्द्रीय विषय के रूप में प्रस्तुत हुआ है। यद्यपि पुरूष और प्रकृति दोनों की स्वतन्त्र सत्ता मानी गयी है परन्तु तात्विक रूप में पुरूष की सत्ता ही सर्वोच्च है। पुरूष के दो भेद कहे गये हैं । पुरूष को चैतन्य एवं अपरिणामी कहा गया है, किन्तु अविद्या के कारण पुरूष जड़ एवं परिणाम चित्त में स्वयं को आरोपित कर लेता है। पुरूष और चित्त के संयुक्त हो जाने पर विवेक जाता रहता है और पुरूष स्वयं को चित्त रूप में अनुभव करने लगता है। यह अज्ञान ही पुरूष के समस्त दुःखों, क्लेशों का कारण हैं। योग दर्शन का उद्देश्य पुरूष को इस दुःख से, अज्ञान से, मुक्त कराना है। इसी तथ्य को सैद्धान्तिक रूप से योग दर्शन में हेय, हेय-हेतु, हान और हानोपाय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन चार क्रमों में पुरूष दुःखों से मुक्ति पाता है, इसलिये योग में इसे 'चतुर्व्यूहवाद' कहा गया है एवं इस चतुर्व्यूह से मुक्त होना ही योग का परम उद्देश्य है। चतुर्व्यूहवाद की विवेचना में ही योग दर्शन में पुरूष, पुरूषार्थ और पुरूषार्थशून्यता का दर्शन प्रकट होता है। पुरूष अविद्याग्रस्त होने पर संसार-चक्र में पड़ता है और पुरूषार्थशून्यता की अवस्था को प्राप्त करता है। पुरूष का परम लक्ष्य कैवल्य की प्राप्ति है। योग में पुरूष को आत्मा का पर्याय माना गया है। अतः आत्मा, जो कि संख्या में असंख्य है, उसकी कैवल्य प्राप्ति तभी हो सकती है जब चतुर्व्यूह का पुरूषार्थ साधन कर दुःख के त्रिविध रूपों का सामाधान कर लिया जाय। दुःख के तीन रूप है - आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। पुरूषार्थशून्यता इन त्रितापों से ऊपर की अवस्था है। पुरूषार्थशून्यता के पश्चात् ही पुरूष की अपने स्वरूप की स्थिति होती है। योगदर्शन में इसे ही कैवल्य अथवा मोक्ष कहा गया है।
पतंजलि को कपिल द्वारा बताया गया सांख्यदर्शन ही अभिमत है। थोड़े में, इस दर्शन के अनुसार इस जगत् में असंख्य पुरुष हैं और एक प्रधान या मूल प्रकृति। पुरुष चित् है, प्रधान अचित्। पुरुष नित्य है और अपरिवर्तनशील, प्रधान भी नित्य है परन्तु परिवर्तनशील। दोनों एक दूसरे से सदा पृथक हैं, परन्तु एक प्रकार से एक का दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। पुरुष के सान्निध्य से प्रकृति में परिवर्तन होने लगते हैं। वह क्षुब्ध हो उठती है। पहले उसमें महत् या बुद्धि की उत्पत्ति होती है, फिर अहंकार की, फिर मन की। अहंकार से ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों तथा पाँच तन्मात्राओं अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध की, अन्त में इन पाँचों से आकाश, वायु, तेज, अप और क्षिति नाम के महाभूतों की। इन सबके संयोग वियोग से इस विश्व का खेल हो रहा है। संक्षेप में, यही सृष्टि का क्रम है। प्रकृति में परिवर्तन भले ही हो परन्तु पुरुष ज्यों का त्यों रहता है। फिर भी एक बात होती है। जैसे श्वेत स्फटिक के सामने रंग बिरंगे फूलों को लाने से उसपर उनका रंगीन प्रतिबिम्ब पड़ता है, इसी प्रकार पुरुष पर प्राकृतिक विकृतियों के प्रतिबिम्ब पड़ते हैं। क्रमश: वह बुद्धि से लेकर क्षिति तक से रंजित प्रतीत होता है, अपने को प्रकृति के इन विकारों से संबद्ध मानने लगता है। आज अपने को धनी, निर्धन, बलवान् दुर्बल, कुटुंबी, सुखी, दु:खी, आदि मान रहा है। अपने शुद्ध रूप से दूर जा पड़ा है। यह उसका भ्रम, अविद्या है। प्रधान से बने हुए इन पदार्थो ने उसके रूप को ढँक रखा है, उसके ऊपर कई तह खोल पड़ गई है। यदि वह इन खोलों, इन आवरणों को दूर फेंक दे तो उसका छुटकारा हो जायगा। जिस क्रम से बँधा है, उसके उलटे क्रम से बन्धन टूटेंगे। पहले महाभूतों से ऊपर उठना होगा। अन्त में प्रधान की ओर से मुँह फेरना होगा। यह बन्धन वास्तविक नहीं है, परन्तु बहुत ही दृढ़ प्रतीत होते हैं। जिस उपयोग से बंधनों को तोड़कर पुरुष अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो सके उस उपाय का नाम योग है। सांख्य के आचार्यो का कहना है: यद्वा तद्वा तदुच्छिति: परमपुरुषार्थः - जैसे भी हो सके पुरुष और प्रधान के इस कृत्रिम संयोग का उच्छेद करना परम पुरुषार्थ हैं।
योग का यही दार्शनिक धरातल है: अविद्या के दूर होने पर जो अवस्था होती है उसका वर्णन विभिन्न आचार्यों और विचारकों के विभिन्न ढँग से किया है। अपने-अपने विचार के अनुसार उन्होंने उसको पृथक नाम भी दिए हैं। कोई उसे कैवल्य कहता है, कोई मोक्ष, कोई निर्वाण। ऊपर पहुँचकर जिसको जैसा अनुभव हो वह उसे उस प्रकार कहे। वस्तुत: वह अवस्था ऐसी है, यतो वाचो निवर्तते अप्राप्य मनसा सह - जहाँ मन ओर वाणी की पहुँच नहीं है। थोड़े से शब्दों में एक और बात का भी चर्चा कर देना आवश्यक है। असंख्य पुरुषों के साथ पतंजलि ने 'पुरुष विशेष' नाम से ईश्वर की सत्ता को भी माना है। सांख्य के आचार्य ऐसा नहीं मानते। वस्तुत: मानने की आवश्यकता भी नहीं है। यदि योगदर्शन में से वह थोड़े से सूत्र निकाल भी लें तो कोई अंतर नहीं पड़ता। योग की साधना की दृष्टि से ईश्वर को मानने, न मानने का विशेष महत्व नहीं है। ईश्वर की सत्ता को मानने वाले और न मानने वाले, दोनों योग में समान रूप से अधिकार रखते हैं।
यम-नियम
विद्या और अविद्या, बन्धन और उससे छुटकारा, सुख और दु:ख सब चित्त में हैं। अत: जो कोई अपने स्वरूप में स्थिति पाने का इच्छुक है उसको अपने चित्त को उन वस्तुओं से हटाने का प्रयत्न करना होगा, जो हठात् प्रधान और उसके विकारों की ओर खींचती हैं और सुख दु:ख की अनुभूति उत्पन्न करती हैं। इस तरह चित्त को हटाने तथा चित्त के ऐसी वस्तुओं से हट जाने का नाम वैराग्य है। यह योग की पहली सीढ़ी है। पूर्ण वैराग्य एकदम नहीं हुआ करता। ज्यों ज्यों व्यक्ति योग की साधना में प्रवृत्त होता है त्यों त्यों वैराग्य भी बढ़ता है और ज्यों ज्यों वेराग्य बढ़ता है त्यों त्यों साधना में प्रवृत्ति बढ़ती है। जेसा पतंजलि ने कहा है: दृष्ट और अनुश्रविक दोनों प्रकार के विषयों में विरक्ति, गांधी जी के शब्दों में अनासक्ति, होनी चाहिए। स्वर्ग आदि, जिनका ज्ञान हमको अनुश्रुति अर्थात् महात्माओं के वचनों और धर्मग्रन्थों से होता है, अनुश्रविक कहलाते हैं। योग की साधना को अभ्यास कहते हैं। इधर कई सौ वर्षो से साधुओं में इस आरम्भ में भजन शब्द भी चल पड़ा है।
चित्त जब तक इन्द्रियों के विषयों की ओर बढ़ता रहेगा, चंचल रहेगा। इन्द्रियाँ उसका एक के बाद दूसरी भोग्य वस्तु से सम्पर्क कराती रहेंगी। कितनों से वियोग भी कराती रहेंगी। काम, क्रोध, लोभ, आदि के उद्दीप्त होने के सैकड़ों अवसर आते रहेंगे। सुख दु:ख की निरन्तर अनुभूति होती रहेगी। इस प्रकार प्रधान ओर उसके विकारों के साथ जो बंधन अनेक जन्मों से चले आ रहे हैं वे दृढ़ से दृढ़तर होते चले जाएँगे। अत: चित्त को इन्द्रियों के विषयों से खींचकर अन्तर्मुखी करना होगा। इसके अनेक उपाय बताए गए हैं जिनके ब्योरे में जाने की आवश्यकता नहीं है। साधारण मनुष्य के चित्त की अवस्था क्षिप्त कहलाती है। वह एक विषय से दूसरे विषय की ओर फेंका फिरता है। जब उसको प्रयत्न करके किसी एक विषय पर लाया जाता है तब भी वह जल्दी से विषयंतर की ओर चला जाता है। इस अवस्था को विक्षिप्त कहते हैं। दीर्ध प्रयत्न के बाद साधक उसे किसी एक विषय पर देर तक रख सकता है। इस अवस्था का नाम एकाग्र है। चित्त को वशीभूत करना बहुत कठिन काम है। श्रीकृष्ण ने इसे प्रमाथि बलवत्-मस्त हाथी के समान बलवान्-बताया है।
आसन
चित्त को वश में करने में एक चीज से सहायता मिलती है। यह साधारण अनुभव की बात है कि जब तक शरीर चंचल रहता है, चित्त चंचल रहता है और चित्त की चंचलता शरीर को चंचल बनाए रहती है। शरीर की चंचलता नाड़ीसंस्थान की चंचलता पर निर्भर करती है। जब तक नाड़ीसंस्थान संक्षुब्ध रहेगा, शरीर पर इंद्रिय ग्राह्य विषयों के आधात होते रहेंगे। उन आधातों का प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ेगा जिसके फलस्वरूप चित्त और शरीर दोनों में ही चंचलता बनी रहेगी। चित्त को निश्चल बनाने के लिये योगी वैसा ही उपाय करता है जैसा कभी-कभी युद्ध में करना पड़ता है। किसी प्रबल शत्रु से लड़ने में यदि उसके मित्रों को परास्त किया जा सके तो सफलता की संभावना बढ़ जाती है। योगी चित्त पर अधिकार पाने के लिए शरीर और उसमें भी मुख्यत: नाड़ीसंस्थान, को वश में करने का प्रयत्न करता है। शरीर भौतिक है, नाड़ियाँ भी भौतिक हैं। इसलिये इनसे निपटना सहज है। जिस प्रक्रिया से यह बात सिद्ध होती है उसके दो अंग हैं: आसन और प्राणायाम। आसन से शरीर निश्चल बनता है। बहुत से आसनों का अभ्यास तो स्वास्थ्य की दृष्टि से किया जाता है। पतंजलि ने इतना ही कहा है: स्थिर सुखमासनम् : जिसपर देर तक बिना कष्ट के बैठा जा सके वही आसन श्रेष्ठ है। यही सही है कि आसनसिद्धि के लिये स्वास्थ्य संबंधी कुछ नियमों का पालन आवश्यक है। जैसा श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-
युक्ताहार बिहारस्य, युक्त चेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य, योगो भवति दुःखहा॥
खाने, पीने, सोने, जागने सभी का नियन्त्रण करना होता है।
प्राणायाम
प्राणायाम शब्द के संबंध में बहुत भ्रम फैला हुआ है। इस भ्रम का कारण यह है कि आज लोग प्राण शब्द के अर्थ को प्राय: भूल गए हैं। बहुत से ऐसे लोग भी, जो अपने को योगी कहते हैं, इस शब्द के सम्बन्ध में भूल करते हैं। योगी को इस बात का प्रयत्न करना होता है कि वह अपने प्राण को सुषुम्ना में ले जाय। सुषुम्ना वह नाड़ी है जो मेरुदण्ड की नली में स्थित है और मस्त्तिष्क के नीचे तक पहुँचती है। यह कोई गुप्त चीज नहीं है। आँखों से देखी जा सकती है। करीब-करीब कनष्ठाि उँगली के बराबर मोटी होती है, ठोस है, इसमें कोई छेद नहीं है। प्राण का और साँस या हवा करनेवालों को इस बात का पता नहीं है कि इस नाड़ी में हवा के घुसने के लिये और ऊपर चढ़ने के लिये कोई मार्ग नहीं है। प्राण को हवा का समानार्थक मानकर ही ऐसी बातें कही जाती हैं कि अमुक महात्मा ने अपनी साँस को ब्रह्मांड में चढ़ा लिया। साँस पर नियंत्रण रखने से नाड़ीसंस्थान को स्थिर करने में निश्चय ही सहायता मिलती है, परंतु योगी का मुख्य उद्देश्य प्राण का नियंत्रण है, साँस का नहीं। प्राण वह शक्ति है जो नाड़ीसंस्थान में संचार करती है। शरीर के सभी अवयवों को और सभी धातुओं को प्राण से ही जीवन और सक्रियता मिलती है। जब शरीर के स्थिर होने से ओर प्राणायाम की क्रिया से, प्राण सुषुम्ना की ओर प्रवृत्त होता है तो उसका प्रवाह नीचे की नाड़ियों में से खिंच जाता है। अत: ये नाड़ियाँ बाहर के आधातों की ओर से एक प्रकार से शून्यवत् हो जाती हैं।
प्रत्याहार
प्राणायाम का अभ्यास करना और प्राणायाम में सफलता पा जाना दो अलग अलग बातें हैं। परंतु वैराग्य और तीव्र संवेग के बल से सफलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। ज्यों-ज्यों अभ्यास दृढ़ होता है, त्यों-त्यों साधक के आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। एक और बात होती है। वह जितना ही अपने चित्त को इंद्रियों और उनके विषयों से दूर खींचता है उतना ही उसकी ऐंद्रिय शक्ति भी बढ़ती है अर्थात् इंद्रियों की विषयों के भोग की शक्ति भी बढ़ती है। इसीलिये प्राणायाम के बाद प्रत्याहार का नाम लिया जाता है। प्रत्याहार का अर्थ है इंद्रियों को उनके विषयों से खींचना। वैराग्य के प्रसंग में यह उपदेश दिया जा चुका है परंतु प्राणायम तक पहँचकर इसकों विशेष रूप से दुहराने की आवश्यकता है। आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार के ही समुच्चय का नाम हठयोग है।
धारणा, ध्यान, समाधि
खेद की बात है कि कुछ अभ्यासी यहीं रुक जाते हैं। जो लोग आगे बढ़ते हैं उनके मार्ग को तीन विभागों में बाँटा जाता है: धारणा, ध्यान और समाधि। इन तीनों को एक दूसरे से बिल्कुल पृथक करना असंभव है। धारण पुष्ट होकर ध्यान का रूप धारण करती है और उन्नत ध्यान ही समाधि कहलाता है। पतंजलि ने तीनों को सम्मिलित रूप से संयम कहा है। धारणा वह उपाय है जिससे चित्त को एकाग्र करने में सहायता मिलती है। यहाँ उपाय शब्द का एकवचन में प्रयोग हुआ है परंतु वस्तुत: इस काम के अनेक उपाय हैं। इनमें से कुछ का चर्चा उपनिषदों में आया है। वैदिक वाड्मय में विद्या शब्द का प्रयोग किया गया है। किसी मंत्र के जप, किसी देव, देवी या महात्मा के विग्रह या सूर्य, अग्नि, दीपशिखा आदि को शरीर के किसी स्थानविशेष जेसे हृदय, मूर्घा, तिल अर्थात दोनों आँखों के बीच के बिंदु, इनमें से किसी जगह कल्पना में स्थिर करना, इस प्रकार के जो भी उपाय किए जायँ वे सभी धारणा के अंतर्गत हैं। जैसा कि कुछ उपायों को बतलाने के बाद पतंजलि ने यह लिख दिया है - यथाभिमत ध्यानाद्वा-जो वस्तु अपने को अच्छी लगे उसपर ही चित्त को एकाग्र करने से काम चल सकता है। किसी पुराण में ऐसी कथा आई है कि अपने गुरु की आज्ञा से किसी अशिक्षित व्यक्ति ने अपनी भैंस के माध्यम से चित्त को एकाग्र करके समाधि प्राप्त की थी।
धारणा की सबसे उत्तम पद्धति वह है जिसे पुराने शब्दों में नादानुसंधान कहते हैं। कबीर और उनके परवर्ती संतों ने इसे सुरत शब्द योग की संज्ञा दी है। जिस प्रकार चंचल मृग वीणा के स्वरों से मुग्ध होकर चौकड़ी भरना भूल जाता है, उसी प्रकार साधक का चित्त नाद के प्रभाव से चंचलता छोड़कर स्थिर हो जाता है। वह नाद कौन सा है जिसमें चित्त की वृत्तियों को लय करने का प्रयास किया जाता है और यह प्रयास कैसे किया जाता है, ये बातें तो गुरुमुख से ही जानी जाती हैं। अंतर्नाद के सूक्ष्मत्तम रूप को प्रवल, ओंकार, कहते हैं। प्रणव वस्तुत: अनुच्चार्य्य है। उसका अनुभव किया जा सकता है, वाणी में व्यंजना नहीं, नादविंदूपनिषद् के शब्दों में:
ब्रह्म प्रणव संयानं, नादो ज्योतिर्मय: शिव:।
स्वयमाविर्भवेदात्मा मेयापायेऽशुमानिव॥
प्रणव के अनुसंधान से, ज्योतिर्मय और कल्याणकारी नाद उदित होता है। फिर आत्मा स्वयं उसी प्रकार प्रकट होता है, जेसे कि बादल के हटने पर चंद्रमा प्रकट होता है। आदि शब्द आंकार को परमात्मा का प्रतीक कहा जाता है। योगियों में सर्वत्र ही इसकी महिमा गाई गई है। बाइबिल के उस खंड में, जिसे सेंट जान्स गास्पेल कहते हैं, पहला ही वाक्य इस प्रकार हैं, आरंभ में शब्द था। वह शब्द परमात्मा के साथ था। वह शब्द परमात्मा था। सूफी संत कहते हैं हैफ़ दर बंदे जिस्म दरमानी, न शुनवी सौते पाके रहमानी दु:ख की बात है कि तू शरीर के बंधन में पड़ा रहता है और पवित्र दिव्य नाद को नहीं सुनता।
चित्त की एकाग्रता ज्यों ज्यों बढ़ती है त्यों त्यों साधकर को अनेक प्रकार के अनुभव होते हैं। मनुष्य अपनी इंद्रियों की शक्ति से परिचित नहीं है। उनसे न तो काम लेता है और न लेना चाहता है। यह बात सुनने में आश्चर्य की प्रतीत होती है, पर सच है। मान लीजिए, हमारी चक्षु या श्रोत्र इंद्रिया की शक्ति कल आज से कई गुना बढ़ जाय। तब न जाने ऐसी कितनी वस्तुएँ दृष्टिगोचर होने लगेंगी जिनको देखकर हम काँप उठेंगे। एक दूसरे के भीतर की रासायनिक क्रिया यदि एक बार देख पड़ जाय तो अपने प्रिय से प्रिय व्यक्ति की ओर से घृणा हो जायगी। हमारे परम मित्र पास की कोठरी में बैठे हमारे संबंध में क्या कहते हैं, यदि यह बात सुनने में आ जाय तो जीना दूभर हो जाय। हम कुछ वासनाओं के पुतले हैं। अपनी इंद्रयों से वहीं तक काम लेते हैं जहाँ तक वासनाओं की तृप्ति हो। इसलिये इंद्रियों की शक्ति प्रसुप्त रहती है परंतु जब योगाभ्यास के द्वारा वासनाओं का न्यूनाधिक शमन होता है तब इंद्रियाँ निर्बाध रूप से काम कर सकती हैं और हमको जगत् के स्वरूप के वास्तविक रूप का कुछ परिचय दिलाती हैं। इस विश्व में स्पर्श, रूप, रस और गंध का अपार भंडार भरा पड़ा है जिसकी सत्ता का हमको अनुभव नहीं हैं। अंर्तर्मुख होने पर बिना हमारे प्रयास के ही इंद्रियाँ इस भंडार का द्वार हमारे सामने खोल देती हैं। सुषुम्ना में नाड़ियों की कई ग्रंथियाँ हैं, जिनमें कई जगहों से आई हुई नाड़ियाँ मिलती हैं। इन स्थानों को चक्र कहते हैं। इनमें से विशेष रूप से छह चक्रों का चर्चा योग के ग्रंथों में आता है। सबसे नीचे मुलाधार है जो प्राय: उस जगह पर है जहाँ सुषुम्ना का आरंभ होता है। और सबसे ऊपर आज्ञा चक्र है जो तिल के स्थान पर है। इसे तृतीय नेत्र भी कहते हैं। थोड़ा और ऊपर चलकर सुषुम्ना मस्तिष्क के नाड़िसंस्थान से मिल जाती है। मस्तिष्क के उस सबसे ऊपर के स्थान पर जिसे शरीर विज्ञान में सेरेब्रम कहते हैं, सहस्रारचक्र है। जैसा कि एक महात्मा ने कहा है:
मूलमंत्र करबंद विचारी सात चक्र नव शोधै नारी।।
योगी के प्रारंभिक अनुभवों में से कुछ की ओर ऊपर संकेत किया गया है। ऐसे कुछ अनुभवों का उल्लेख श्वेताश्वर उपनिषद् में भी किया गया है। वहाँ उन्होंने कहा है कि अनल, अनिल, सूर्य, चंद्र, खद्योत, धूम, स्फुलिंग, तारे अभिव्यक्तिकरानि योगे हैंश् यह सब योग में अभिव्यक्त करानेवाले चिह्न हैं अर्थात् इनके द्वारा योगी को यह विश्वास हो सकता है कि मैं ठीक मार्ग पर चल रहा हूँ। इसके ऊपर समाधि तक पहुँचते पहुँचते योगी को जो अनुभव होते हैं उनका वर्णन करना असंभव है। कारण यह है कि उनका वर्णन करने के लिये साधारण मनुष्य को साधारण भाषा में कोई प्रतीक या शब्द नहीं मिलता। अच्छे योगियों ने उनके वर्णन के संबंध में कहा है कि यह काम वैसा ही है जैसे गूँगा गुड़ खाय। पूर्णांग मनुष्य भी किसी वस्तु के स्वाद का शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता, फिर गूँगा बेचारा तो असमर्थ है ही। गुड़ के स्वाद का कुछ परिचय फलों के स्वाद से या किसी अन्य मीठी चीज़ के सादृश्य के आधार पर दिया भी जा सकता है, पर जैसा अनुभव हमको साधारणत: होता ही नहीं, वह तो सचमुच वाणी के परे हैं।
समाधि की सर्वोच्च भूमिका के कुछ नीचे तक अस्मिता रह जाती है। अपनी पृथक सत्ता अहम् अस्मि (मैं हूँ) यह प्रतीति रहती है। अहम् अस्मि = मैं हूँ की संतान अर्थात निरंतर इस भावना के कारण वहाँ तक काल की सत्ता है। इसके बाद झीनी अविद्या मात्र रह जाती है। उसके शय होने की अवस्था का नाम असंप्रज्ञात समाधि है जिसमें अविद्या का भी क्षय हो जाता है और प्रधान से कल्पित संबंध का विच्छेद हो जाता है। यह योग की पराकाष्ठा है। इसके आगे फिर शास्त्रार्थ का द्वार खुल जाता है। सांख्य के आचार्य कहते हैं कि जो योगी पुरुष यहाँ तक पहुँचा, उसके लिये फिर तो प्रकृति का खेल बंद हो जाता है। दूसरे लोगों के लिये जारी रहता है। वह इस बात को यों समझाते हैं। किसी जगह नृत्य हो रहा है। कई व्यक्ति उसे देख रहे हैं। एक व्यक्ति उनमें ऐसा भी है जिसको उस नृत्य में कोई अभिरुचि नहीं है। वह नर्तकी की ओर से आँख फेर लेता है। उसके लिये नृत्य नहीं के बराबर है। दूसरे के लिये वह रोचक है। उन्होंने कहा है कि उस अजा के साथ अर्थात नित्या के साथ अज एकोऽनुशेते = एक अज शयन करता है और जहात्येनाम् भुक्तभोगाम् तथान्य:-उसके भोग से तृप्त होकर दूसरा त्याग देता है।
अद्वैत वेदान्त के आचार्य सांख्यसंमत पुरुषों की अनेकता को स्वीकार नहीं करते। उनके अतिरिक्त और भी कई दार्श्निक संप्रदाय हैं जिनके अपने अलग अलग सिद्धांत हैं। पहले कहा जा चुका हैं कि इस शास्त्रार्थ में यहां पड़ने की आवश्यकता नहीं हैं। जहां तक योग के व्यवहारिक रूप की बात है उसमें किसी को विरोध नहीं है। वेदांत के आचार्य भी निर्दिध्यासन की उपयोगिता को स्वीकार करते हैं और वेदांत दर्शन में व्यास ने भी असकृदभ्यासात् ओर आसीन: संभवात् जैसे सूत्रों में इसका समर्थन किया है। इतना ही हमारे लिये पर्याप्त है।
साधारणत: योग को अष्टांग कहा जाता है परंतु यहाँ अब तक आसन से लेकर समाधि तक छह अंगों का ही उल्लेख किया गया है। शेष दो अंगों को इसलिये नहीं छोड़ा कि वे अनावश्यक हैं वरन् इसलिए कि वह योगी ही नहीं प्रत्युत मनुष्य मात्र के लिए परम उपयोगी हैं। उनमें प्रथम स्थान यम का है। इनके संबंध में कहा गया है कि यह देश काल, समय से अनवच्छिन्न ओर सार्वभौम महाब्रत हैं अर्थात् प्रत्येक मनुष्य को प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक समय और प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के साथ इनका पालन करना चाहिए। दूसरा अंग नियम कहलाता है। जो लोग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते उनके लिये ईश्वर पर निष्ठा रखने का कोई और नहीं है। परंतु वह लोग भी प्राय: किसी न किसी ऐसे व्यक्ति पर श्रद्धा रखते हैं जो उनके लिये ईश्वर तुल्य है। बौद्ध को बुद्धदेव के प्रति जो निष्ठा है वह उससे कम नहीं है जो किसी भी ईश्वरवादी को ईश्वर पर होती होगी। एक और बात है। किसी को ईश्वर पर श्रद्धा हो या न हो, योग मार्ग के उपदेष्टा गुरु पर तो अनन्य श्रद्धा होनी ही चाहिए। योगाभ्यासी के लिये गुरु का स्थान किसी भी दृष्टि से ईश्वर से कम नहीं। ईश्वर हो या न हो परंतु गुरु के होने पर तो कोई संदेह हो ही नहीं सकता। एक साधक चरणादास जी की शिष्या सहजोबाई ने कहा है:
अद्वैत वेदान्त के आचार्य सांख्यसंमत पुरुषों की अनेकता को स्वीकार नहीं करते। उनके अतिरिक्त और भी कई दार्श्निक संप्रदाय हैं जिनके अपने अलग अलग सिद्धांत हैं। पहले कहा जा चुका हैं कि इस शास्त्रार्थ में यहां पड़ने की आवश्यकता नहीं हैं। जहां तक योग के व्यवहारिक रूप की बात है उसमें किसी को विरोध नहीं है। वेदांत के आचार्य भी निर्दिध्यासन की उपयोगिता को स्वीकार करते हैं और वेदांत दर्शन में व्यास ने भी असकृदभ्यासात् ओर आसीन: संभवात् जैसे सूत्रों में इसका समर्थन किया है। इतना ही हमारे लिये पर्याप्त है।
साधारणत: योग को अष्टांग कहा जाता है परंतु यहाँ अब तक आसन से लेकर समाधि तक छह अंगों का ही उल्लेख किया गया है। शेष दो अंगों को इसलिये नहीं छोड़ा कि वे अनावश्यक हैं वरन् इसलिए कि वह योगी ही नहीं प्रत्युत मनुष्य मात्र के लिए परम उपयोगी हैं। उनमें प्रथम स्थान यम का है। इनके संबंध में कहा गया है कि यह देश काल, समय से अनवच्छिन्न ओर सार्वभौम महाब्रत हैं अर्थात् प्रत्येक मनुष्य को प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक समय और प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के साथ इनका पालन करना चाहिए। दूसरा अंग नियम कहलाता है। जो लोग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते उनके लिये ईश्वर पर निष्ठा रखने का कोई और नहीं है। परंतु वह लोग भी प्राय: किसी न किसी ऐसे व्यक्ति पर श्रद्धा रखते हैं जो उनके लिये ईश्वर तुल्य है। बौद्ध को बुद्धदेव के प्रति जो निष्ठा है वह उससे कम नहीं है जो किसी भी ईश्वरवादी को ईश्वर पर होती होगी। एक और बात है। किसी को ईश्वर पर श्रद्धा हो या न हो, योग मार्ग के उपदेष्टा गुरु पर तो अनन्य श्रद्धा होनी ही चाहिए। योगाभ्यासी के लिये गुरु का स्थान किसी भी दृष्टि से ईश्वर से कम नहीं। ईश्वर हो या न हो परंतु गुरु के होने पर तो कोई संदेह हो ही नहीं सकता। एक साधक चरणादास जी की शिष्या सहजोबाई ने कहा है:
गुरुचरनन पर तन-मन वारूँ, गुरु न तजूँ हरि को तज डारूँ।
आज कल यह बात सुनने में आती है कि परम पुरुषार्थ प्राप्त करने के लिये ज्ञान पर्याप्त है। योग की आवश्यकता नहीं है। जो लोग ऐसा कहते हैं, वह ज्ञान शब्द के अर्थ पर गंभीरता से विचार नहीं करते। ज्ञान दो प्रकार का होता है-तज्ज्ञान और तद्विषयक ज्ञान। दोनों में अंतर है। कोई व्यक्ति अपना सारा जीवन रसायन आदि शास्त्रों के अध्ययन में बिताकर शक्कर के संबंध में जानकारी प्राप्त कर सकता है। शक्कर के अणु में किन किन रासायनिक तत्वों के कितने कितने परमाणु होते हैं? शक्कर कैसे बनाई जाती है? उसपर कौन कौन सी रासानिक क्रिया और प्रतिक्रियाएँ होती हैं? इत्यादि। यह सब शक्कर विषयक ज्ञान है। यह भी उपयोगी हो सकता है परंतु शक्कर का वास्तविक ज्ञान तो उसी समय होता है जब एक चुटकी शक्कर मुँह में रखी जाती है। यह शक्कर का तत्वज्ञान है। शास्त्रों के अध्ययन से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान है और उसके प्रकाश में तद्विषयक ज्ञान भी पूरी तरह समझ में आ सकता हैं। इसीलिये उपनिषद् के अनुसार जब यम ने नचिकेता को अध्यात्म ज्ञान का उपदेश दिया तो उसके साथ में योगविधि च कृत्स्नम् की भी दीक्षा दी, नहीं तो नचिकेता का बोध अधूरा ही रह जाता। जो लोग भक्ति आदि की साधना रूप से प्रशंसा करते हैं उनकोश् भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि यदि उनके मार्ग में वित्त को एकाग्र करने का कोई उपाय है तो वह वस्तुत: योग की धारणा अंग के अंतर्गत है। यह उनकी मर्जी है कि सनातन योग शब्द को छोड़कर नये शब्दों का व्यवहार करते हैं।
योग के अभ्यास से उस प्रकार की शक्तियों का उदय होता है जिनको विभूति या सिद्धि कहते हैं। यदि पर्याप्त समय तक अभ्यास करने के बाद भी किसी मनुष्य में ऐसी असाधारण शक्तियों का आगम नहीं हुआ तो यह मानना चाहिए कि वह ठीक मार्ग पर नहीं चल रहा है। परन्तु सिद्धियों में कोई जादू की बात नहीं है। इंद्रियों की शक्ति बहुत अधिक है परंतु साधारणत: हमको उसका ज्ञान नहीं होता और न हम उससे काम लेते हैं। अभयासी को उस शक्ति का परिचय मिलता है, उसको जगत् के स्वरूप के संबंध में ऐसे अनुभव होते हैं जो दूसरों को प्राप्त नहीं हैं। दूर की या छिपी हुई वस्तु को देख लेना, व्यवहृत बातों को सुन लेना इत्यादि इंद्रियों की सहज शक्ति की सीमा के भीतर की बाते हैं परंतु साधारण मनुष्य के लिये यह आश्चर्यश् का विषय हैं, इनकों सिद्धि कहा जायगा। इसी प्रकार मनुष्य में और भी बहुत सी शक्तियाँ हें जो साधारण अवस्था में प्रसुप्त रहती हैं। योग के अभ्यास से जाग उठती हैं। यदि हम किसी सड़क पर कहीं जा रहे हो तो अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए भी अनायास ही दाहिने बाएँ उपस्थित विषयों को देख लेंगे। सच तो यह है कि जो कोई इन विषयों को देखने के लिये रुकेगा वह गन्तव्य स्थान तक पहुँचेगा ही नहीं ओर बीच में ही रह जायगा। इसीलिये कहा गया है कि जो कोई सिद्धियों के लिये प्रयत्न करता है वह अपने को समाधि से वंचित करता है। पतंजलि ने कहा है:
ते समाधावुपसर्गाव्युत्थाने सिद्धयः ।
अर्थात् ये विभूतियाँ समाधि में बाधक हैं परंतु समाधि से उठने की अवस्था में सिद्धि कहलाती हैं।
इनकी प्रमुख रचनाएं हैं : महाभाष्य, चरक-संहिता, योग-दर्शन।
भाषा शास्त्र में योगदान :
- व्याकरण के दार्शनिक पक्ष की स्थापना।
- स्फोट और ध्वनि सिद्धांतों की स्थापना।
- शब्द और अर्थ के स्वरूप का निर्णय।
- शब्द की नित्यता और अनित्यता का विशद विवेचन।
- भाषाशास्त्र में विभाषाओं का सोदाहरण महत्व प्रस्तुत करना।
- भाषा के विभिन्न रूप विभाषा, अपभ्रंश आदि का उल्लेख करना।
- ध्वनिविज्ञान, निर्वाचन, व्याकरण और दर्शनशास्त्र का एकत्र समन्वय प्रस्तुत करना।
- ध्वनिविज्ञान, पदविज्ञान और अर्थविज्ञान के सिद्धांतों का स्पष्टीकरण।
- संस्कृत को विश्व भाषा के रूप में प्रस्तुत करना।
- विश्व की विभिन्न भाषाओं में स्थानीय अर्थ-भेद का उल्लेख करना।
महर्षि पतंजलि को योग दर्शन अर्थात् पातंजल योगसूत्र के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है योग की विभिन्न धाराओं को मिलाकर महर्षि ने योग को एक महानदी का रूप दिया जिसके अन्दर योग की सभी पद्धतियों का समावेश हो जाता है। ऋषियों के नामों के अन्तर्गत महर्षि पतंजलि का नाम बहुत अधिक सम्मान के साथ लिया जाता है। व्याकरण के ग्रंथों के अनुसार महर्षि पतंजलि अपने पिता की अंजलि में अर्ध्य दान करते समय दिव्य रूप से ऊर्ध्वलोक से आकर गिरे। इसी कारण इनका नाम पतंजलि पड़ा। यह इनके योग के प्रभाव का ही मूर्त रूप था। महर्षि पतंजलि की कृतियां यद्यपि अनेक हैं परन्तु योग दर्शन सबसे मुख्य ग्रन्थ है।
अधिकतर विद्वानों की मान्यता है कि महर्षि पतंजलि ने मनुष्य मात्र के कल्याण को ध्यान में रखते हुए तीन महाग्रंथों की रचना की जो व्यक्ति का इहलौकिक व पारलौकिक दोनों प्रकार का विकास करने में सक्षम हैं। योग वार्तिक में कहा गया है-
योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।
योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतंजलिं प्रांजलिरानतोऽस्मि॥
अर्थात् महर्षि पतंजलि ने मनुष्य के चित्त की शुद्धि के लिये पतंजलि के नाम 'योगसूत्र', वाणी की शुद्धि के लिये पाणिनी के नाम से व्याकरण के ग्रंथ 'अष्टाध्यायी' तथा शरीर की शुद्धि के लिए चरक के नाम से 'चरक संहिता' इन तीन महाग्रंथों की रचना की। इनमें व्याकरण महाभाष्य सबसे बड़ा ग्रंथ है। ये ग्रंथ ऐसे ग्रंथ हैं जो अपने क्षेत्र में अद्वितीय हैं। इनके पश्चात् इन क्षेत्रों में जो भी कार्य हुआ वह सब इन्हीं को आधार मानकर किया गया है। इन सब से यह तथ्य सिद्ध होता है की महर्षि पतंजलि एक सिद्ध योगी थे, जिन्होंने सभी पदार्थों का वास्तविक रूप से साक्षात्कार किया और प्राणिमात्र के कल्याण की कामना करते हुए उसको अपनी रचना में स्थान प्रदान किया।
योगदर्शन पर प्राप्त भाष्य एवं टीकाएँ
योगदर्शन पर स्वयं भगवान श्री वेदव्यास जी का भाष्य प्राप्त होता है, जो की "सांख्य प्रवचन भाष्य" के नाम से जाना जाता है। योगदर्शन पर प्रवर्ती टीकाएं अनेक हैं- जिनमें वाचस्पति मिश्र की "तत्ववैशारदी", विज्ञान भिक्षु का "योग वार्तिक", शंकर का "भाष्य विवरण", हरिअर्जुन का "भाष्य टीका", भिक्षु का "योग सुधाकर" आदि प्रसिद्ध ग्रंथ है। इन सभी में महर्षि पतंजलि का योग सूत्र इतना महत्वपूर्ण ग्रंथ है कि जब वेदव्यास जी को इसके भाष्य से संतोष नहीं हुआ तो उन्होंने पुराणों में इस योग का समावेश किया। लिंगादि पुराणों में योगदर्शन का पदबद्ध (पदमय) अनुवाद प्राप्त होता है। इससे इनकी योगाचार्यता और आदि प्रवर्तक के रूप में प्रतिष्ठापित होना प्राचीन काल से ही सर्वमान्य है।
महर्षि पतंजलि का योगदर्शन अत्यन्त प्राचीन दर्शन है और इससे सभी प्रकार के आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक दु:ख समाप्त होकर सिद्धियों के लाभ प्राप्त होते हैं। साधक सरलता से देवताओं का सान्निध्य प्राप्त कर उनसे पूरा लाभ उठा सकता है। महर्षि कहते हैं कि स्वाध्याय के द्वारा साधक इष्टदेव के दर्शन प्राप्त उनसे लाभ प्राप्त कर सकता है। साधक थोडी तन्मयता से भी अपने पूर्व जन्मों तथा आगे आने वाले अवस्था में मुक्ति का ज्ञान प्राप्त कर लेता है और विधिपूर्वक साधना से देवताओं के बीच विचरने तथा आकाशगमन की सिद्धियों की प्राप्ति करता है। यदि शांत मन व विवेक के द्वारा उन स्वप्नों की गुत्थियों को सुलझा सके अथवा स्वप्न के दिखे हुए देवता, पितृ, मुनि, सन्तों, देवियों की श्रद्धापूर्वक ध्यान आराधना करें, तो वे उसे अपार सहायता पहँचाते हैं और उससे सभी प्रकार का दिव्य ज्ञान व मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है।
संक्षेप में महर्षि पतंजलि ने साधक को स्वरूप में स्थित होने की युक्ति बतलायी है। उनके ग्रंथों के प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि वे अजर, अमर व सभी सिद्धियों से समायुक्त थे। केवल लोकोपकार के लिए ही उन्होंने ग्रंथों का पुर्ननमन किया। जिससे 'व्यास' 'शुकदेव' 'गौडपादाचार्य' शंकराचार्य अन्य उच्च कोटि के आचार्य भी प्रभावित हुए। आचार्य व्यास ने तो उनके योगसूत्र पर भाष्य और पुराणों में उनकी योग शिक्षा की चर्चा के अतिरिक्त भी ब्रह्मसूत्र के चौथे अध्याय में योग पाद का सन्निवेश किया है। जो योग दर्शन पर ही आधारित है। जैसे 'स्थिर सुखमासनम्' के स्थान पर आसीनः सम्भवान्' आदि सूत्र ठीक उसी प्रक्रिया में सभी साधनों को निर्दिष्ट करते हुए मोक्ष तक ले जाते हैं। जिस पर आदि शंकराचार्य के विलक्षण भाष्य हैं।
महर्षि पतंजलि द्वारा निर्देशित यम-नियम आदि में से कोई एक भी साधन ठीक ढंग से आरंभ करने पर भगवत कृपा से साधक में स्वयं योग की प्रवृत्तियों के प्रथम लक्षण में भगवान पतंजलि ने स्वयं ज्योतिष्मती. गंधवती, स्पर्शवती, रूपवती, एवं रसवती इन पांच योग वृत्तियों में से किसी एक लक्षण के प्रकट हो जाने पर योग शक्ति में उसके प्रवेश का लक्षण बताया है। इनसे साधक के अन्दर सभी देवी-देवता, दिव्य पदार्थ. शास्त्र आदि वचनों में परलोक में पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास हो जाता है, जिसके फलस्वरूप उसका शीघ्र कल्याण होता है। इसलिये इस योगचर्या में थोड़ी दूर चलना भी महान् कल्याणकारी होता है।
इस योग विद्या का प्रचार आज भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में है, जिसका मूलतः श्रेय महर्षि पतंजलि को ही है। उनके योग दर्शन में कोई हानिकारक या अनिष्ट, अनुचित वस्तु है ही नहीं। अहिंसा सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य त्याग की वृत्ति, पवित्रता, स्वाध्याय या ईश्वर प्रेम की बात में सभी बातें ऐसी हैं, जिनको सभी धर्मों – सम्प्रदायों ने समान रूप से स्वीकार किया है। पतंजलि का योग किसी धर्म या सम्प्रदाय से जुड़ा हुआ नहीं है न ही उसमें किसी का निरोध किया गया है। जिससे यह योग विद्या सभी को मान्य है। इसलिये योग मार्ग के पथिकों का पुनीत कर्त्तव्य है कि महर्षि पतंजलि के बताये योग मार्ग का आश्रय लेकर अखण्ड शान्ति एवं परम आनन्द प्राप्ति की ओर अग्रसर हो। इसी में मनुष्य जन्म की सच्ची सार्थकता है।
महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित साधनाएं
महर्षि पतंजलि ने संसार सागर से पार होने के लिए अपने योग सूत्र में तीन प्रकार की साधनाओं का मुख्य रूप से वर्णन किया है। चित्तवृत्ति निरोध के लिए महर्षि पतंजलि कहते हैं-
'अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः।'
अर्थात् अभ्यास और वैराग्य के द्वारा चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है। इस अभ्यास और वैराग्य की साधना का वर्णन उन्होंने उत्तम कोटि के साधकों को लिए बताया है। इन साधकों के लिए एक-दूसरे साधन का वर्णन करते हुए पतंजलि कहते हैं-
'ईश्वर प्राणिधानाद्वा।'
अर्थात् जो उत्तम कोटि के साधक हैं उन्हें केवल ईश्वर के प्रति समर्पण भाव से योग सिद्धि हो जाती है। 'मध्यम कोटि' के साधकों के लिए महर्षि पतंजलि क्रियायोग की साधना का वर्णन हैं। क्रियायोग का वर्णन करते हुए महर्षि पतंजलि' कहते हैं-
'तपः स्वाध्याय ईश्वर प्रणिधानानि क्रियायोगः।'
अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान ये तीन साधन "क्रियायोग" के अंतर्गत आते हैं। इसके अभ्यास से भी चित्त वृत्तियों का निरोध संभव है। तीसरी साधना जो सामान्य पुरुषों और विद्वानों के लिए समान उसका वर्णन करते हुए महर्षि पतंजलि ने यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इस अष्टांगयोग का मार्ग बताया है। उनकी यही साधना पद्धति सर्वशुलभ एवं लोकप्रिय है।
महर्षि पतंजलि की रचनाएं
महर्षि पतंजलि योगसूत्र के रचनाकार है, एवं पतंजलि योगदर्शन एक बड़ा ही महत्वपूर्ण शास्त्र है इसमें योग के 195 सूत्र है।
1. समाधिपाद
इस ग्रन्थ के पहले पाद में योग के लक्षण, स्वरूप और उसकी प्राप्ति के उपायों का वर्णन करते हुए चित्त की वृत्तियां े के पांच भेद और उनके लक्षण बतलाये गये हैं इस पाद में प्रधानता से समाधि के स्वरूप का वर्णन है, इस कारण इसे समाधिपाद कहते हैं।
2. साधनपाद
इस पाद में प्रधानता से समाधि के साधनों का वर्णन है इस कारण उसे साधनपाद कहते हैं। निर्बीज समाधि वही साधक प्राप्त कर सकता है जिसका अन्त:करण स्वभाव से ही शुद्ध हो गया है। अन्त:करण की शुद्धिपूर्वक निर्बीज-समाधि प्राप्त करने का उपाय साधनापाद में बताये गये हैं।
3. विभूतिपाद
विभूतिपाद के पहले सूत्र में ‘धारणा’, दूसरे में ‘ध्यान’ तथा तीसरे में ‘समाधि’ के बारे में बताते हुऐ ऋषि ने 7वें सूत्र में उक्त तीनों को अन्तरंग साधन बताया है। 12वें सूत्र में चित्त की वृत्तियां, सूत्र 16 में भूत भविष्य की घटनाओं का ज्ञान होने, सूत्र 22 में साधक को मृत्यु का पूर्व ज्ञान होने एवं सूत्र 23 से 32 तक साधक को प्राप्त होने वाली विभिé सिद्धिया का ज्ञान हो जाने के बारे में विस्तार से बताया है।
4. कैवल्यपाद
कैवल्यपाद के 2 और 3वें सूत्र में ऋषि ने जात्यान्तरण की बात कही है जिसमें मनुष्य की वृत्ति बदल जाती है। तमोगुण से सतोगुण वृत्ति हो जाती है। उपरोक्त तीनों पादों में समाधि का वास्तविक फल (कैवल्य) का वर्णन प्रसंगानुसार हुआ है किन्तु विवेचनापूर्ण नहीं हुआ, अत: उसका अच्छी तरह वर्णन इस पाद में किया गया है इसलिये इसका नाम ‘‘कैवल्यपाद’’ रखा गया है।
आखिर क्यों उपेक्षित है योग प्रणेता, महर्षि पतंजलि की जन्मस्थली-
योग का बोलबाला हर तरफ दिखेगा लेकिन साथ ही एक कड़वा सच ये भी है कि दुनिया को योग का ज्ञान देने वाले महर्षि पतंजलि की जन्मस्थली गुमनामी के अंधेरे में है.
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर गुरुवार, 21 जून को पूरा विश्व योग के लिए तैयार है. थल, जल और नभ तक योग के लिए तरह-तरह के आयोजन होंगे. योग का बोलबाला हर तरफ दिखेगा लेकिन साथ ही एक कड़वा सच ये भी है कि दुनिया को योग का ज्ञान देने वाले महर्षि पतंजलि की जन्मस्थली गुमनामी के अंधेरे में है. अयोध्या से महज 22 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कोडर गांव में महर्षि पतंजलि का आश्रम है. ये गांव गोंडा जिले में आता है.
योग सूत्र और महाभाष्य की रचना करने वाले महर्षि पतंजलि का गांव विकास से खुद ही अछूता है. यहां महर्षि पतंजलि के जन्मस्थल की पहचान इतनी है कि उनके नाम पर एक चबूतरा बना ही नजर आता है. ये चबूतरा भी श्री पतंजलि जन्म भूमि न्यास के अध्यक्ष डॉ भगवदाचार्य के प्रयास से ही बन सका. पास ही बहने वाली कोडर झील नौ किलोमीटर के क्षेत्र में फैली है लेकिन ये भी अपने उद्धार का इतंजार कर रही है.
कोडर गांव की आबादी करीब पांच हजार है. यहां सिर्फ प्राथमिक और पूर्व माध्यमिक स्कूल ही हैं. ना यहां कोई इंटर कॉलेज है और ना ही अस्पताल. यहां मूलभूत सुविधाओं के अभाव के साथ ना ही कोई ऐसा प्रबंध है कि आने वाले लोगों को महर्षि पतंजलि के बारे में जानकारी दी जा सके. कोडर को जाने वाला रास्ता भी बदहाल है.
महर्षि पतंजलि की जन्मस्थली कोडर गांव की उपेक्षा से व्यथित डॉ भगवदाचार्य कहते हैं कि योग दिवस पर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री कोडर गांव आएं तो इससे महर्षि पतंजलि की जन्मस्थली की ओर पूरी दुनिया का ध्यान जाएगा. उनके मुताबिक यहां अंतरराष्ट्रीय योग विश्वविद्यालय की स्थापना की मांग फाइलों में कैद होकर ही रह गई है. वे कहते हैं कि कोडर को पर्यटक स्थली के तौर पर विकसित किया जाए, जिससे क्षेत्र के लोगों को भी विकास का लाभ मिल सके.
गुरुवार को कोडर गांव में कुछ उत्साही युवक योग करने के सात महर्षि पतंजलि की तस्वीर पर पुष्प अर्पित कर उन्हें याद करेंगे.
कोडर गांव के नागरिक भी महर्षि पतंजलि की जन्मस्थली की उपेक्षा से नाखुश हैं. उनका कहना है कि एक तरफ दुनिया में, देश में मंत्री से लेकर संतरी तक योग करेंगे वहीं महर्षि पतंजलि के जन्मस्थल पर ही उन्हें मुट्ठी भर लोगों के अलावा याद करने वाला और कोई नहीं होगा.
कोडर गांव के रहने वाले विश्वनाथ कहते हैं कि महर्षि पतंजलि की जन्मस्थली होने के बावजूद किसी सरकार का यहां ध्यान नहीं गया. इसी तरह स्थानीय नागरिक विपिन सिंह का कहना है कि 177 देशों में योग दिवस मनाया जा रहा है लेकिन दुख की बात है कि जिन्होंने दुनिया को योग का ज्ञान दिया, उन्हीं की जन्मस्थली उपेक्षित है. इसी तरह शिवानी सिंह और धर्मा देवी का कहना है कि महर्षि पतंजलि के नाम पर क्षेत्र में डिग्री कॉलेज खोला जाना चाहिए. उन्होंने अस्पताल की जरूरत जताने के साथ सड़क को दुरुस्त किए जाने की भी मांग की.
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