एक बार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र सनत-सनकादि भगवान विष्णु के दर्शन करने वैकुंठ धाम पहुंचे। वैकुंठ में विष्णु धाम के द्वार पर भगवान के दो पार्षद जय-विजय द्वारपाल के रूप में बैठे थे। इन दिगम्बर साधुओं को देखकर पहले तो उन्हें हंसी आ गई, फिर पूछा- “आप लोग कौन है ? ऐसे नंग-धड़ंग यहां कहां चले आ रहे है ?
उनकी बात का सनत ने बुरा नहीं माना, क्योंकि ये द्वारपाल थे और बिना पूरी जांच-पड़ताल के कैसे अंदर जाने देते। अपनी वेश-भूषा पर उनके हंसने का भी बुरा नहीं माना, क्योंकि वैकुंठ जैसे वैभवशाली परिवेश में ऐसे साधुओं का क्या काम। उनके प्रश्नों का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा-“हम सनत कुमार भगवान विष्णु के दर्शन करना चाहते है। हम सदा इसी रूप में रहते है, इसलिए हमे अंदर जाने दो। ”
मगर जय-विजय नामक द्वारपालों ने सनत-सनकादि को अंदर नहीं जाने दिया। इससे ऋषियों को क्रोध आ गया कि इन द्वारपालों को इतनी भी समझ नहीं की ऋषियों साधुओं के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। क्रोध में उन्होंने शाप देते हुए कहा-“तुम दोनों ने देवों के साथ रहकर भी दैत्यों जैसा व्यवहार किया है, इसलिए अगले जन्म में तुम दोनों दैत्य कुल में जन्म लोगे।”
उनकी बात का सनत ने बुरा नहीं माना, क्योंकि ये द्वारपाल थे और बिना पूरी जांच-पड़ताल के कैसे अंदर जाने देते। अपनी वेश-भूषा पर उनके हंसने का भी बुरा नहीं माना, क्योंकि वैकुंठ जैसे वैभवशाली परिवेश में ऐसे साधुओं का क्या काम। उनके प्रश्नों का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा-“हम सनत कुमार भगवान विष्णु के दर्शन करना चाहते है। हम सदा इसी रूप में रहते है, इसलिए हमे अंदर जाने दो। ”
मगर जय-विजय नामक द्वारपालों ने सनत-सनकादि को अंदर नहीं जाने दिया। इससे ऋषियों को क्रोध आ गया कि इन द्वारपालों को इतनी भी समझ नहीं की ऋषियों साधुओं के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। क्रोध में उन्होंने शाप देते हुए कहा-“तुम दोनों ने देवों के साथ रहकर भी दैत्यों जैसा व्यवहार किया है, इसलिए अगले जन्म में तुम दोनों दैत्य कुल में जन्म लोगे।”
द्वार पर इस विवाद को सुनकर भगवान विष्णु स्वयं बाहर आ गए और सनत-सनकादि को आदर से अंदर जाने को कहा। उधर जय-विजय को दुखी देख भगवान विष्णु ने कारण पूछा तो उन्होंने अपने शाप की बात बताई।
भगवान विष्णु ने कहा-“उद्दंडता का फल तो तुम्हें भोगना ही पड़ेगा। असुर कुल में तुम्हारा अगला जन्म अवश्य होगा। इतनी चिंता मत करो। तुम मेरे पार्षद हो, इसलिए इसका पुण्य भी मिलेगा। मेरे द्वारा ही तुम्हें दैत्य-योनि से मुक्ति मिलेगी।”
सनत-सनकादि भगवान के दर्शन कर चले गए। जय-विजय की मृत्यु होने पर उनका जन्म कश्यप ऋषि की पत्नी दिति के गर्भ से हुआ। दिति दैत्य कुलों की माता थी, अतः उसके गर्भ से जन्म लेने वाले जय-विजय का नाम इस जन्म में हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु हुआ। उन दोनों में प्रबल आसुरी शक्ति थी। उन्होंने अपने उत्पात द्वारा आसुरी शक्ति के बल पर आसुरी राज्य स्थापित किया। उन्होंने देवलोक पर भी आक्रमण कर देवताओं को भी त्रस्त कर रखा था। उन्होंने घोषणा की कि अब से उनके राज्य के सारे यज्ञ उनके ही नाम पर होंगे। देवों को कोई यज्ञ भाग नहीं मिलेगा। किसी भी देवी-देवता या ईश्वर की पूजा आराधना के बजाय उनकी ही पूजा होगी। देवगण कभी यहां पहुंच ही न सके, इसलिए मैं पृथ्वी को ही पाताल में पहुंचा देता हूं।” यह निश्चय कर हिरण्याक्ष आसुरी शक्ति के बल पर पृथ्वी को रसातल में ले गया।
इससे सारे ब्रह्मांड में उथल-पुथल मच गई। सृष्टि का नियम भंग होने लगा। चतुर्दिक हा-हा-कार मच गया। ऋषियों-मुनियों तथा देवताओं ने मिलकर विष्णु से प्रार्थना की- “भगवान ! देखिए इन दो महापराक्रमी असुरो ने क्या किया ? देवताओं का यज्ञ भाग छीना, पूजा-पाठ, धार्मिक कर्मकांड समाप्त किए और अब तो समस्त भूमण्डल को ही रसातल में ले गए। उठिए, कुछ करिए। ब्रह्मा की सृष्टि में बड़ा व्यवधान उपस्थित हो गया है। आप ऋषियों-मुनियों तथा मानवों के रहने का स्थान बनाएं। पृथ्वी जल में डुब रही है, उसके उद्धार के लिए वैकुण्ठ का वास छोड़कर कोई अवतार लीजिए। ”
भगवान विष्णु ने देवताओं तथा ऋषियों को आश्वासन दिया- “जब पृथ्वी पर पाप का भार ज्यादा हो जाता है तो उसके उद्धार के लिए मुझे अवतार लेना ही पड़ता है। आप लोग निश्चिन्त होकर जाइये। मैं कुछ करता हूं।”
देवताओं के चले जाने पर भगवान विष्णु ने नीचे देखा। पृथ्वी का कही पता नहीं, सर्वत्र जल-ही-जल दिख रहा था। फिर तो भगवान वाराह के रूप में प्रकट हुए और समुद्र में कूद पड़े, भयंकर गर्जना के साथ अपनी विशाल दाढ़ पर पृथ्वी को रखकर वे अथाह जल राशि को चीरते हुए ऊपर आ गए। पृथ्वी को समुद्र से ऊपर आते देख तथा वाराह का भयंकर शब्द सुनकर हिरण्याक्ष बौखला गया कि किसने उसकी शक्ति को चुनौती दी है। वाराह को देखते ही वह उसे मारने दौड़ा। उसका हर अस्त्र-शस्त्र वराह के शरीर से टकराकर चूर-चूर हो जाता था। भगवान कुछ देर उसके प्रहार झेलते रहे और उसके क्रोध को भड़काते रहे। रूप भले ही वाराह का था, पर थे तो वे परब्रह्म अनन्त शक्ति भगवान विष्णु।
उन्होंने एक झटके से हिरण्याक्ष को अपनी दाढ़ पर उठा लिया और घुमाकर आकाश में दूर फेंक दिया। आकाश में चक्कर काटकर वह धड़ाम से पृथ्वी पर वाराह के पास ही गिर पड़ा। मरणासन्न हिरण्याक्ष ने देखा कि वह वाराह अब वाराह न होकर भगवान विष्णु है। उसे अपना पूर्व जन्म याद हो आया।
उसने भगवान के चरण पकड़ लिए और कहा- “भगवान ! पाप के शाप का आपने अंत कर दिया और अपने ही हाथों इस जन्म से मुक्ति दिलाई। मुझे तो मुक्ति मिली, पर मेरे भाई हिरण्यकशिपु का क्या होगा ? उसे भी तो मुक्ति दीजिये।
भगवान विष्णु हंसकर बोले- “समय से पूर्व किसी के पाप का अंत नहीं होता। तुम्हारे भाई हिरण्यकशिपु के पाप का अभी अंत नहीं है। तुम्हारे अंत के लिए पृथ्वी कारण बनी। उसके अंत के लिए मुझे एक और अवतार लेना पड़ेगा। तुम्हारे लिए वाराह बनना पड़ा। उसके लिए नृसिंह रूप में अवतार लेकर उसका उद्धार करना पड़ेगा।”
भगवान विष्णु के ये शब्द सुनकर हिरण्याक्ष ने बड़ी शान्ति से अपने प्राण त्याग दिए।
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