एक बार भगवान विष्णु वैकुण्ठ लोक में लक्ष्मी जी के साथ विराजमान थे। उसी समय उच्चेः श्रवा नामक अश्व पर सवार होकर रेवंत का आगमन हुआ। उच्चेः श्रवा अश्व सभी लक्षणों से युक्त, देखने में अत्यंत सुन्दर था। उसकी सुंदरता की तुलना किसी अन्य अश्व से नहीं की जा सकती थी। अतः लक्ष्मी जी उस अश्व के सौंदर्य को एकटक देखती रह गई। जब भगवान विष्णु ने लक्ष्मी को मंत्रमुग्ध होकर अश्व को देखते हुए पाया तो उन्होंने उनका ध्यान अश्व की ओर से हटाना चाहा, लेकिन लक्ष्मी जी देखने में तल्लीन रही।
भगवान विष्णु द्वारा बार-बार झकझोरने पर भी लक्ष्मी जी की तंद्रा भंग नहीं हुई तब इसे अपनी अवहेलना समझकर भगवान विष्णु को क्रोध आ गया और खीझंकर लक्ष्मी को शाप देते हुए कहा- “तुम इस अश्व के सौंदर्य में इतनी खोई हो कि मेरे द्वारा बार-बार झकझोरने पर भी तुम्हारा ध्यान इसी में लगा रहा, अतः तुम अश्वी हो जाओ।”
जब लक्ष्मी का ध्यान भंग हुआ और शाप का पता चला तो वे क्षमा मांगती हुई समर्पित भाव से भगवान विष्णु की वंदना करने लगी- “मैं आपके वियोग में एक पल भी जीवित नहीं रह पाउंगी, अतः आप मुझ पर कृपा करे एवं अपना शाप वापस ले ले।”
तब विष्णु ने अपने शाप में सुधार करते हुए कहा- “शाप तो पूरी तरह वापस नहीं लिया जा सकता। लेकिन हां, तुम्हारे अश्व रूप में पुत्र प्रसव के बाद तुम्हे इस योनि से मुक्ति मिलेगी और तुम पुनः मेरे पास वापस लौटोगी।”
भगवान विष्णु के शाप से अश्वी बनी हुई लक्ष्मी जी यमुना और तमसा नदी के संगम पर भगवान शिव की तपस्या करने लगी। लक्ष्मी जी के तप से प्रसन्न होकर शिव पार्वती के साथ आए। उन्होंने लक्ष्मी जी से तप करने का कारण पूछा तब लक्ष्मी जी ने अश्वी हो जाने से संबंधित सारा वृतांत उन्हें सुना दिया और अपने उद्धार की उनसे प्रार्थना की।
तब भगवान शिव ने कहा- “देवी ! तुम चिंता न करो। इसके लिए मैं विष्णु को समझाऊंगा कि वे अश्व रूप धारणकर तुम्हारे साथ रमण करे और तुमसे अपने जैसा ही पुत्र उत्पन्न करे ताकि तुम उनके पास शीघ्र वापस जा सको।”
भगवान शिव की बात सुनकर अश्वी रूप धारी लक्ष्मी जी को काफी प्रसन्नता हुई। उन्हें यह आभास होने लगा कि अब मैं शीघ्र ही शाप के बंधन से मुक्त हो जाउंगी और श्री हरि (विष्णु) को प्राप्त कर लुंगी।
भगवान शिव वहां से चले गए। अश्वी रूप धारी लक्ष्मी जी पुनः तपस्या में लग गई। काफी समय बीत गया। लेकिन भगवान विष्णु उनके समीप नहीं आए। तब उन्होंने भगवान शिव का पुनः स्मरण किया। भगवान शिव प्रकट हुए। उन्होंने लक्ष्मी जी संतुष्ट करते हुए कहा- “देवी ! धैर्य धारण करो। धैर्य का फल मीठा होता है। विष्णु अश्व रूप में तुम्हारे समीप अवश्य आएंगे।”
इतना कहकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए। कैलाश पहुंचकर भगवान शिव विचार करने लगे कि विष्णु को कैसे अश्व बनाकर लक्ष्मी जी के पास भेजा जाए। अंत में, उन्होंने अपने एक गण-चित्ररूप को दूत बनाकर विष्णु के पास भेजा। चित्ररूप भगवान विष्णु के लोक में पहुंचे। भगवान शिव का दूत आया है, यह जानकर भगवान विष्णु ने दूत से सारा समाचार कहने को कहा। दूत ने भगवान शिव की सारी बाते उन्हें कह सुनाई।
अंत में, भगवान विष्णु शिव का प्रस्ताव मानकर अश्व बनने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने अश्व का रूप धारण किया और पहुंच गए यमुना और तपसा के संगम पर जहां लक्ष्मी जी अश्वी का रूप धारण कर तपस्या कर रही थी। भगवान विष्णु को अश्व रूप में आया देखकर अश्वी रूप धारी लक्ष्मी जी काफी प्रसन्न हुई।
दोनों एक साथ विचरण एवं रमण करने लगे। कुछ ही समय पश्चात अश्वी रूप धारी लक्ष्मी जी गर्भवती हो गई। यथा समय अश्वी के गर्भ से एक सुन्दर बालक का जन्म हुआ। तत्पश्चात लक्ष्मी जी वैकुण्ठ लोक श्री हरि विष्णु के पास चली गई।
लक्ष्मी जी के जाने के बाद उस बालक के पालन पोषण की जिम्मेवारी ययाति के पुत्र तुर्वसु ने ले ली, क्योंकि वे संतान हीन थे और पुत्र प्राप्ति हेतु यज्ञ कर रहे थे। उस बालक का नाम हैहय रखा गया। कालांतर में हैहय के वंशज ही हैहयवंशी कहलाए।
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