पिंगल राव कुल में जन्मे भारत के प्राचीन गणितज्ञ और छन्दःसूत्रम् के रचयिता। इनका काल ४०० ईपू से २०० ईपू अनुमानित है। जनश्रुति के अनुसार यह पाणिनि के अनुज थे। छन्द:सूत्र में मेरु प्रस्तार (पास्कल त्रिभुज), द्विआधारी संख्या (binary numbers) और द्विपद प्रमेय (binomial theorem) मिलते हैं।
जानिये द्विआधारीय गणित के जनक – महर्षि पिंगल को
महर्षि पिंगल का जन्म लगभग 400 ईसा पूर्व का माना जाता है । कई इतिहासकार इन्हें महर्षि पाणिनि का छोटा भाई मानते है । महर्षि पिंगल उस समय के महान लेखकों में एक थे । इन्होने छन्दःशास्त्र की रचना की ।
छन्दःसूत्रम् पिंगल द्वारा रचित छन्द का मूल ग्रन्थ है और इस समय तक उपलब्ध है। यह सूत्रशैली में है और बिना भाष्य के अत्यन्त कठिन है। इसपर टीकाएँ तथा व्याख्याएँ हो चुकी हैं। यही छन्दशास्त्र का सर्वप्रथम ग्रन्थ माना जाता है। इसके पश्चात् इस शास्त्र पर संस्कृत साहित्य में अनेक ग्रन्थों की रचना हुई।
दसवीं शती में हलायुध ने इस पर ‘मृतसञ्जीवनी’ नामक भाष्य की रचना की। इस ग्रन्थ में पास्कल त्रिभुज का स्पष्ट वर्णन है। इस ग्रन्थ में इसे ‘मेरु-प्रस्तार’ कहा गया है। इसमें आठ अध्याय हैं।
पिङ्गल ने छन्दसूत्र में विविध छन्दों का वर्णन किया है। छन्दों का आधार लघु और गुरु का विशिष्ट अनुक्रम तथा उनकी कुल संख्या (मात्रा) है। इसलिए किसी श्लोक में लघु और गुरु के अनुक्रम का वर्णन और उसका विश्लेषण पिंगल के छन्दसूत्र का मुख्य प्रतिपाद्य है। उन्होने विभिन्न अनुक्रमों का वर्णन किया है और उनका नामकरण किया है। छन्दसूत्र के अन्त में पिङ्गल ने कई नियम दे हैं जिनकी सहायता से ‘n’ मात्रा वाले श्लोक के सभी सम्भव लघु-गुरु अनुक्रमों को लिखा जा सकता है। इसी तरह के कई नियम (विधियाँ) दी गयी हैं। दूसरे शब्दों में, पिङ्गल ने छन्द्रशास्त्र के सांयोजिकी की गणितीय समस्या (combinatorial mathematics) का हल दिया है।
बाद में, लगभग 8वीं शताब्दी में, केदार भट्ट ने वृत्तरत्नाकर नामक एक छन्दशास्त्रीय ग्रन्थ की रचना की जो अवैदिक छन्दों से सम्बन्धित था। यह ग्रन्थ पिंगल के छन्दसूत्र का भाष्य नहीं है बल्कि एक स्वतन्त्र रचना है। इस ग्रन्थ के अन्तिम अध्याय (6ठे अध्याय) में सांयोजिकी से सम्बन्धित नियम दिए गये हैं जो पिङ्गल के तरीके से बिल्कुल अलग हैं। 13वीं शताब्दी में हलायुध ने पिङ्गल के छन्दसूत्र पर ‘मृतसञ्जीवनी’ नामक टीका लिखी जिसमें उन्होने पिंगल की विधियों को और विस्तार से वर्णन किया।
पिंगल के छन्दशास्त्र में 8 अध्याय हैं। यह सूत्र-शैली में लिखा गया है। 8वें अध्याय में 35 सूत्र हैं। जिसमें से अन्तिम 16 सूत्र (8.20 से 8.35 तक) संयोजिकी से सम्बन्धित हैं। केदारभट्ट द्वारा रचित वृत्तरत्नाकर में 6 अध्यaय हैं जिसका 6ठा अध्याय पूरी तरह से संयोजिकी के कलनविधियों को समर्पित है।
द्विकौ ग्लौ 8.20
शब्दार्थ- एक अक्षर वाले छन्द के ग् – गुरु, ल् – लघु, द्विको – दो प्रकार के भेद होते हैं ॥
मिश्रौ च 8.21
शब्दार्थ- दो अक्षरात्मक पाद वाले छन्द का प्रस्तार करने पर द्विकौ अर्थात् दो बार आवृत्त, ग्लौ- गुरु और लघु अक्षर, मिश्रौ च- मिश्रित रूप से रखे जाते हैं । अर्थात् गुरु के साथ गुरु (ऽऽ), लघु के साथ गुरु (।ऽ), गुरु के साथ लघु (ऽ।) और लघु के साथ लघु ( । ।) । इस प्रकार दो अक्षर वाले छन्द के 4 भेद हो जाते हैं ।
पृथग् ग्लोऽमिश्राः 8.22
शब्दार्थ- पृथक्- तीन अक्षरात्मक छन्द के प्रस्तार में तृतीय पंक्ति को पृथक् रखें । ग्लः द्विधाः- गुरु-लघु अक्षरों को पूर्व पंक्ति की अपेक्षा दुगुना करें, अमिश्राः- और उन्हें मिश्रित न करते हुए रखें । अर्थात् द्वितीय पंक्ति में 2 गुरु, 2 लघु का क्रम चला है, उसको तृतीय पंक्ति में दुगुना करके 4 गुरु, 4 लघु का क्रम चलावें। यह ध्यान रखें कि प्रथम पंक्ति में 1 गुरु, 1 लघु का क्रम है। द्वितीय पंक्ति में 2 गुरु, 2 लघु का क्रम है। तृतीय पंक्ति में दुगुना करने से 4 गुरु, 4 लघु का क्रम चलेगा ।
वसवस्त्रिकाः 8.23
शब्दार्थ- त्रिकोः – तीन अक्षरात्मक छन्द के प्रस्तार में, वसवः – वसु अर्थात् 8 भेद होते हैं। उनके ही नाम मगण आदि हैं।
छन्दःशास्त्र आठ अलग अलग अध्यायों में विभक्त है |
आठवे अध्याय में पिंगल ने छंदों को संक्षेप करने तथा उनके वर्गीकरण के बारे में लिखा । तथा द्विआधारीय रचनाओं को गणितीय रूप में लिखने के बारे में बताया ।तथा इनके छंदों की लम्बाई नापने के लिए वर्णों की लम्बाई या उसे उच्चारित (बोलने) में लगने वाले समय के आधार पर उसे दो भागों में बांटा :- गुरु (बड़े के लिए) तथा लधु (छोटे के लिए) ।
इसके लिए सर्व प्रथम एक पद (वाक्य) को वर्णों में विभाजित करना होता है विभाजित करने हेतु निम्न नियम दिए गये है :
- एक वर्ण में स्वर (Vowel) अवश्य होना चाहिए तथा इसमें अवश्य केवल एक ही स्वर होना चाहिए ।
- एक वर्ण सदैव व्यंजन से प्रारंभ होना चाहिए परन्तु वर्ण स्वर से प्रारंभ हो सकता है केवल यदि वर्ण लाइन के प्रारंभ में हो ।
- किसी वर्ण को हो सके उतना अधिक दीर्घ बनाना चाहिए ।
- जो वर्ण छोटे स्वर से अंत होता है (अ इ उ आदि ) उसे लघु तथा बाकि सारे गुरु कहे जाते है अर्थात जिस किसी वर्ण के पीछे कोई मात्रा न हो वो लघु (Light) तथा मात्रा वाले गुरु (Heavy) कहे जाते है।
उदाहरण के लिए :
त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।।
इस श्लोक को उपरोक्त वर्णन के आधार पर विभाजित किया गया है
(1) त्व मे व मा ता च पि ता त्व मे व
L H L H H L L H L H L
(2) त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव
त्व मे व बन् धुश् च स खा त्व मे व
L H L H H L L H L H L
बन्धु को विभक्त करते समय आधे न (न्) को ब के साथ रखा गया है (बन्) क्योंकि तीसरा नियम कहता है “किसी वर्ण को हो सके उतना अधिक दीर्घ बनाना चाहिए” तथा बन् को साथ रखने पर दूसरा नियम भी सत्य होता है चूँकि बन् लाइन के आरंभ में नही है इसलिए व्यंजन से प्रारंभ होना अनिवार्य है। और प्रथम नियम भी बन् में सत्य हो रहा है क्योकि ब में अ(स्वर) है।
- धुश् में भी प्रथम तथा तृतीय नियम सत्य होते है।
- आधे वर्ण में अंत होने वाले वर्ण जैसे : बन् धुश् गुरु की श्रेणी में आएंगे ।
- लघु और गुरु को क्रमश: “।” और “S” (ये अंग्रेजी वर्णमाला का S नही है) से भी प्रदर्शित किया जाता है |
- इस प्रकार उपरोक्त चार नियमो द्वारा किसी भी श्लोक आदि को द्विआधारीय रचना में लिखा जा सकता है ।
- ये तो हुई बात लघु और गुरु की।
- अब बात आती है इन्हें उचित स्थान देने की ।
- यदि हमारे पास 4 वर्ण है |तो इसके द्वारा हम 16 प्रकार के संयोजन (combinations) बना सकते है
- जिसमे प्रत्येक का स्थान महत्व रखता है।
- आगे पिंगल ने उसी के सन्दर्भ में एक मैट्रिक्स दी जिसका नाम था : प्रस्तार ।
- प्रस्तार मैट्रिक्स को बनाने के लिए पिंगल ने मात्र एक ही सूत्र दिया :
- एकोत्तरक्रमश: पूर्वप्र्क्ता लासंख्या – [छन्दःशास्त्र 8.23]
इस एक ही सूत्र से मैट्रिक्स की रचना को जानना अत्यंत कठिन था | कदाचित पिंगल के अतिरित 8 वी सदी तक इसके सन्दर्भ को कोई समझ नही पाया।
परन्तु 8 वी सदी में केदारभट्ट ने पिंगल के छन्दःशास्त्र पर कार्य किया और इस पहेली को सुलाझा लिया इनके ग्रन्थ का नाम वृतरत्नाकर है इसके पश्चात त्रिविक्रम द्वारा १२वीं शती में रचित तात्पर्यटीका तथा हलायुध द्वारा १३वीं शती में रचित मृतसंजीवनी में उपरोक्त सूत्र को और भी बारीकी से प्रस्तुत किया गया। ये सभी छन्द:शास्त्र के ही भाष्य है ।
प्रथम चरण: हमें सारे B (big/गुरु) लिखने है जितने हमारे वर्ण है | यदि वर्ण तिन है तो संयोजन 3*3=9 बनेंगे यदि 4 है तो 16 बनेंगे।
हम 4 वर्ण लेकर चलते है संयोजन बनेंगे 16.
4 वर्ण के लिए 4 बार B लिखना है :
BBBB
द्वितीय चरण:
हमें left to right चलना है लेफ्ट में प्रथम B है तो दुसरे चरण में उसके नीचे लिखे S और बाकि सारे वर्ण ज्यों के त्यों लिख दें।
SBBB
तृतीय चरण :
अब उपरोक्त प्रथम है S तो अगली पंक्ति में उसके निचे B लिखें जब तक B न मिल जाये | और B मिलते ही S लिखें और बचे हुए वर्ण ज्यों के त्यों लिख दें।
इस प्रकार उपरोक्त फ्लो चार्ट के अनुसार चलने पर हमें 16 संयोजनों की टेबल प्राप्त होगी।
- BBSB
- SBSB
- BSSB
- SSSB
- BBBS
- SBBS
- BSBS
- SSBS
- BBSS
- SBSS
- BSSS
- SSSS
उपरोक्त टेबल में B गुरु के लिए, S लघु के लिए है।
कंप्यूटर जगत 0 1 पर कार्य नही करता अपितु सर्किट के किसी कॉम्पोनेन्ट/भाग में विधुत धारा है अथवा नही पर कार्य करता है । आधुनिक विज्ञान में धारा होने को 1 द्वारा तथा नही होने को 0 द्वारा प्रदर्शित किया जाता है । 0 1 केवल हमारे समझने के लिए है कंप्यूटर के लिए नही। इसलिए 0 1 के स्थान पर यदि Low High, Empty Full , Small Big, No Yes अथवा लघु और गुरु कहा जाये तो कोई फर्क पड़ने वाला नही।
कंप्यूटर जगत के जानकर उपरोक्त वर्णन को अच्छे से समझ गये होंगे।
इसके अतिरिक्त पिंगल ने द्विआधारीय संख्याओं को दशमलव (Binary to Decimal), दशमलव से द्विआधारीय (Decimal to Binary) में परिवर्तित करने, मेरु प्रस्तार (पास्कल त्रिभुज), और द्विपद प्रमेय (Binomial Theorem) हेतु कई सूत्र दिए जिसे केदार, हलयुध आदि ने अपने ग्रंथों में पुनः विस्तृत रूप से लिखा।
बिलकुल यही खोज Gottfried Wilhelm Leibniz ने पिंगल से लगभग 1900 वर्ष बाद की । और सारा विश्व कूद कूद कर इन महोदय के नाम की माला जपने लगा, सबको पता था की ये खोज पिंगल ने की है, (आप चाहे तो विकिपीडिया देख सकते है) पर महर्षि पिंगल को कभी उनका उचित स्थान नहीं मिल सका।
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