अष्टाङ्गहृदयम्, आयुर्वेद का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसके रचयिता वाग्भट हैं। इसका रचनाकाल ५०० ईसापूर्व से लेकर २५० ईसापूर्व तक अनुमानित है। इस ग्रन्थ में औषधि (मेडिसिन) और शल्यचिकित्सा दोनो का समावेश है। यह एक संग्रह ग्रन्थ है, जिसमें चरक, सुश्रुत, अष्टांगसंग्रह तथा अन्य अनेक प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रन्थों से उद्धरण लिये गये हैं। वाग्भट ने अपने विवेक से अनेक प्रसंगोचित विषयों का प्रस्तुत ग्रन्थ में समावेश किया है। चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता और अष्टाङ्गहृदयम् को सम्मिलित रूप से वृहत्त्रयी कहते हैं।
अष्टांगहृदय में आयुर्वेद के सम्पूर्ण विषय- कायचिकित्सा, शल्यचिकित्सा, शालाक्य आदि आठों अंगों का वर्णन है। उन्होंने अपने ग्रन्थ के विषय में स्वयं ही कहा है कि, यह ग्रन्थ शरीर रूपी आयुर्वेद के हृदय के समान है। जैसे- शरीर में हृदय की प्रधानता है, उसी प्रकार आयुर्वेद वाङ्मय में अष्टांगहृदय, हृदय के समान है। अपनी विशेषताओं के कारण यह ग्रन्थ अत्यन्त लोकप्रिय हुआ।
आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ अष्टांगसंग्रह तथा अष्टांगहृदय के रचयिता। प्राचीन संहित्यकारों में यही व्यक्ति है, जिसने अपना परिचय स्पष्ट रूप में दिया है। अष्टांगसंग्रह के अनुसार इनका जन्म सिंधु देश में हुआ। इनके पितामह का नाम भी वाग्भट था। ये अवलोकितेश्वर गुरु के शिष्य थे। इनके पिता का नाम सिद्धगुप्त था। यह बौद्ध धर्म को मानने वाले थे। इत्सिंग ने लिखा है कि उससे एक सौ वर्ष पूर्व एक व्यक्ति ने ऐसी संहिता बनाई जिसें आयुर्वेद के आठो अंगों का समावेश हो गया है। अष्टांगहृदय का तिब्बती भाषा में अनुवाद हुआ था। आज भी अष्टांगहृदय ही ऐसा ग्रंथ है जिसका जर्मन भाषा में अनुवाद हुआ है।
गुप्तकाल में पितामह का नाम रखने की प्रवृत्ति मिलती है : चंद्रगुप्त का पुत्र समुद्रगुप्त, समुद्रगुप्त का पुत्र चंद्रगुप्त (द्वितीय) हुआ।
ह्वेन्साँग का समय 675 और 685 शती ईसवी के आसपास है। वाग्भट इससे पूर्व हुए हैं। वाग्भट की भाषा में कालिदास जैसा लालित्य मिलता है। छंदों की विशेषता देखने योग्य है (संस्कृत साहित्य में आयुर्वेद, भाग 3.)। वाग्भट का समय पाँचवीं शती के लगभग है। ये बौद्ध थे, यह बात ग्रंथों से स्पष्ट है (अष्टांगसग्रंह की भूमिका, अत्रिदेव लिखित)। वाग्भट नाम से व्याकरण शास्त्र के एक विद्वान् भी प्रसिद्ध हैं। वराहमिहिर ने भी बृहत्संहिता में (अध्याय 76) माक्षिक औषधियों का एक पाठ दिया है। यह पाठ अष्टांगसंग्रह के पाठ से लिया जान पड़ता है (उत्तर. अ. 49)। रसशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ रसरत्नसमुच्चय का कर्ता भी वाग्भट कहा जाता है। इसके पिता का नाम सिंहगुप्त था। पिता और पुत्र के नामों में समानता देखकर, कई विद्वान् अष्टांगसंग्रह और रसरत्नसमुच्चय के कर्ता को एक ही मानते हैं परंतु वास्तव में ये दोनों भिन्न व्यक्ति हैं (रसशास्त्र, पृष्ठ 110)। वाग्भट के बनाए आयुर्वेद के ग्रंथ अष्टांगसंग्रह और अष्टांगहृदय हैं। अष्टांगहृदय की जितनी टीकाएँ हुई हैं उतनी अन्य किसी ग्रंथ की नहीं। इनन दोनों ग्रंथों का पठन पाठन अत्यधिक है।
आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ अष्टांगसंग्रह तथा अष्टांगहृदय के रचयिता। प्राचीन संहित्यकारों में यही व्यक्ति है, जिसने अपना परिचय स्पष्ट रूप में दिया है। अष्टांगसंग्रह के अनुसार इनका जन्म सिंधु देश में हुआ। इनके पितामह का नाम भी वाग्भट था। ये अवलोकितेश्वर गुरु के शिष्य थे। इनके पिता का नाम सिद्धगुप्त था। यह बौद्ध धर्म को माननेवाले थे। इत्सिंग ने लिखा है कि उससे एक सौ वर्ष पूर्व एक व्यक्ति ने ऐसी संहिता बनाई जिसें आयुर्वेद के आठो अंगों का समावेश हो गया है। अष्टांगहृदय का तिब्बती भाषा में अनुवाद हुआ था। आज भी अष्टांगहृदय ही ऐसा ग्रंथ है जिसका जर्मन भाषा में अनुवाद हुआ है।
गुप्तकाल में पितामह का नाम रखने की प्रवृत्ति मिलती है : चंद्रगुप्त का पुत्र समुद्रगुप्त, समुद्रगुप्त का पुत्र चंद्रगुप्त (द्वितीय) हुआ।
ह्वेन्साँग का समय 675 और 685 शती ईसवी के आसपास है। वाग्भट इससे पूर्व हुए हैं। वाग्भट की भाषा में कालिदास जैसा लालित्य मिलता है। छंदों की विशेषता देखने योग्य है (संस्कृत साहित्य में आयुर्वेद, भाग 3.)। वाग्भट का समय पाँचवीं शती के लगभग है। ये बौद्ध थे, यह बात ग्रंथों से स्पष्ट है (अष्टांगसग्रंह की भूमिका, अत्रिदेव लिखित)। वाग्भट नाम से व्याकरण शास्त्र के एक विद्वान् भी प्रसिद्ध हैं। वराहमिहिर ने भी बृहत्संहिता में (अध्याय 76) माक्षिक औषधियों का एक पाठ दिया है। यह पाठ अष्टांगसंग्रह के पाठ से लिया जान पड़ता है (उत्तर. अ. 49)। रसशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ रसरत्नसमुच्चय का कर्ता भी वाग्भट कहा जाता है। इसके पिता का नाम सिंहगुप्त था। पिता और पुत्र के नामों में समानता देखकर, कई विद्वान् अष्टांगसंग्रह और रसरत्नसमुच्चय के कर्ता को एक ही मानते हैं परंतु वास्तव में ये दोनों भिन्न व्यक्ति हैं (रसशास्त्र, पृष्ठ 110)। वाग्भट के बनाए आयुर्वेद के ग्रंथ अष्टांगसंग्रह और अष्टांगहृदय हैं। अष्टांगहृदय की जितनी टीकाएँ हुई हैं उतनी अन्य किसी ग्रंथ की नहीं। इनन दोनों ग्रंथों का पठन पाठन अत्यधिक है।
था। ये अवलोकितेश्वर गुरु के शिष्य थे। इनके पिता का नाम सिद्धगुप्त था। यह बौद्ध धर्म को माननेवाले थे। इत्सिंग ने लिखा है कि उससे एक सौ वर्ष पूर्व एक व्यक्ति ने ऐसी संहिता बनाई जिसें आयुर्वेद के आठो अंगों का समावेश हो गया है। अष्टांगहृदय का तिब्बती भाषा में अनुवाद हुआ था। आज भी अष्टांगहृदय ही ऐसा ग्रंथ है जिसका जर्मन भाषा में अनुवाद हुआ है।
गुप्तकाल में पितामह का नाम रखने की प्रवृत्ति मिलती है : चंद्रगुप्त का पुत्र समुद्रगुप्त, समुद्रगुप्त का पुत्र चंद्रगुप्त (द्वितीय) हुआ।
ह्वेन्साँग का समय 675 और 685 शती ईसवी के आसपास है। वाग्भट इससे पूर्व हुए हैं। वाग्भट की भाषा में कालिदास जैसा लालित्य मिलता है। छंदों की विशेषता देखने योग्य है (संस्कृत साहित्य में आयुर्वेद, भाग 3.)। वाग्भट का समय पाँचवीं शती के लगभग है। ये बौद्ध थे, यह बात ग्रंथों से स्पष्ट है (अष्टांगसग्रंह की भूमिका, अत्रिदेव लिखित)। वाग्भट नाम से व्याकरण शास्त्र के एक विद्वान् भी प्रसिद्ध हैं। वराहमिहिर ने भी बृहत्संहिता में (अध्याय 76) माक्षिक औषधियों का एक पाठ दिया है। यह पाठ अष्टांगसंग्रह के पाठ से लिया जान पड़ता है (उत्तर. अ. 49)। रसशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ रसरत्नसमुच्चय का कर्ता भी वाग्भट कहा जाता है। इसके पिता का नाम सिंहगुप्त था। पिता और पुत्र के नामों में समानता देखकर, कई विद्वान् अष्टांगसंग्रह और रसरत्नसमुच्चय के कर्ता को एक ही मानते हैं परंतु वास्तव में ये दोनों भिन्न व्यक्ति हैं (रसशास्त्र, पृष्ठ 110)। वाग्भट के बनाए आयुर्वेद के ग्रंथ अष्टांगसंग्रह और अष्टांगहृदय हैं। अष्टांगहृदय की जितनी टीकाएँ हुई हैं उतनी अन्य किसी ग्रंथ की नहीं। इनन दोनों ग्रंथों का पठन पाठन अत्यधिक है।
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