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देवी सूक्तम्

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देवी सूक्त पाठ से घर में धन वैभव एवं शांति आती है। नवरात्रि में विशेष रूप से  दुर्गासप्तसती के पाठ से माँ दुर्गा की साधना की जाती है।  दुर्गासप्तसती में देवी सूक्त का विशेष महत्त्व है कहा जाता है की देवी सूक्त के पाठ करने से भक्त को देवी माँ मनोवांछित फल प्रदान करती है। यदि आप अपने जीवन में धन, ऐश्वर्य, वैभव, आनंद और शांति चाहते है तो नियमित देवी सूक्त का पाठ करे आपका कल्याण होगा।  यदि आपको ऐसा लगता है की जो कार्य मै करने जा रहा हूँ उसमे कोई न कोई समस्या आएगी तो नियमित देवी सूक्त का पाठ करे आपकी आने वाली परेशानी शीघ्र ही दूर हो जाएगी। यही नहीं यदि आप मानसिक अवसाद से ग्रसित है तो देवी सूक्त का पाठ लाभदायक होगा।

देवी सूक्त  के  8 मन्त्र ऋग्वेद के १० वें मंडल के १० वें अध्याय के १२५ वें सूक्त की आठ ऋचाएं हैं। कहा जाता है की महर्षि अम्भृणकी कन्या का नाम वाक् था। वह बड़ी ब्रह्मज्ञानिनी थी उसने देवी के साथ अभिन्नता प्राप्त कर ली थी। यह देवी सूक्त उसी के उदगार हैं। इस सूक्त में यह बताया गया है की माँ देवी ही इस सम्पूर्ण जगत की अधीश्वरी और उपासको को धन देने वाली है यदि कोई इस तथ्य को असत्य समझता है तो वह दीन-हीन जीवन व्यतीत करता है।

“ॐ सिंहस्था शशिशेखरा मरकतप्रख्यैश्चतुर्भिर्भुजैः शंखं चक्रधनुःशरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभिः शोभिता।

आमुक्ताङ्गदहारकंगकणरणत्काञ्चीरणन्नूपुरा दुर्गा दुर्गतिहारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्कुण्डला”।

उपर्युक्त सूक्त का पाठ तथा देवी का ध्यान करने के बाद नीचे लिखे वेदोक्त देवीसूक्त का पाठ करें।

ऋग्वेदोक्तं देवीसूक्तम्-

ॐ अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्र्चराम्यहमादित्यैरुत विश्र्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्र्विनोभा॥1॥

ब्रह्मस्वरुपा मैं रुद्र, वसु, आदित्य और विश्र्वदेवता के रुप में भ्रमण करती हूँ, अर्थात् मैं ही उन सभी रुपो में दिखाई दे रही हूँ। मैं ही ब्रह्मरुप से मित्र तथा वरुण दोनों रूपों को धारण करती हूँ। मैं ही इन्द्र और अग्नि का आधार हूँ। मैं ही दोनो अश्विनी कुमारों का पालन-पोषण करती हूँ।

अहंसोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते॥2॥

मैं ही शत्रु को संहार करने वाली, कामादि दोष-निवर्तक, परम आह्लाद प्रदान करने वाली,   यज्ञगत सोम, चन्द्रमा, मन अथवा शिव का पालन-पोषण करती हूँ। मैं ही त्वष्टा, पूषा और भग को भी धारण करती हूँ। जो उपासक यज्ञ में सोमाभिषव के द्वारा देवताओं को तृप्त करने के लिये हाथ में समिधा लेकर हवन करता है, उसे लोक-परलोक में सुखकारी फल देने वाली मैं ही हूँ।

अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्॥3॥

मैं ही राष्ट्री अर्थात् सम्पूर्ण विश्व की ईश्र्वरी हूँ। मैं भक्तों को उनके इच्छित  वस्तु वसु-धन प्रदान करती हूँ। परब्रह्म को मैं अपनी आत्मा के रुप में अनुभव किया है। जिसके लिए यज्ञ किये जाते हैं, उनमें मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ। जगत में विद्यमान सम्पूर्ण प्रपञ्च के रुप में मैं ही विभिन्न रूप में विराजमान हूँ। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर में प्राणरूप में मैं ही अपने-आपको प्रवेश कर रही हूँ। अलग-अलग देश, काल, वस्तु और व्यक्तियों में जो कुछ भी हो रहा है, वह सब मेरे लिए ही किया जा रहा है। सम्पूर्ण जगत के रुप में स्थित होने के कारण इस संसार में जो कुछ भी हो रहा है  वह सब मेरे कारण ही हो रहा है।

मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं श्रृणोत्युक्तम्।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि॥4॥

जो अन्न खाता है, वह मेरी ही शक्ति से खाता है  जो देखता है, जो सांस लेता है और जो कही हुई बात सुनता है, वह मेरी ही सहायता से ऐसा कर्म करने में समर्थ होता है। इस प्रकार जो भक्त अन्तर्यामिरुपसे स्थित मुझे नहीं पहचानते , वे अज्ञानी, दीन-हीन और क्षीण हो जाते हैं। मेरे प्रिय सखा! मेरी बात सुनो, मैं श्रद्धापूर्वक आपके लिए उस ब्रह्मतत्त्व का उपदेश करती हूँ।

अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः।
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्॥5॥

मैं स्वयं ही उस ब्रह्मात्मक तत्त्व का उपदेश करती हूँ जिसका सेवन देवताओं और मनुष्यों ने भी किया है। मैं स्वयं ब्रह्मा हूँ। मैं जिसे चाहती हूँ रक्षा करती हूँ, जिसे चाहती हूँ सर्वश्रेष्ठ बना देती हूँ, जिसे चाहती हूँ सृष्टि कर्ता ब्रह्मा बना देता हूँ जिसे चाहती हूँ उसे गुरु के समान ज्ञानवान बना देती हूँ ।

अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश॥6॥

मैं ही ब्रह्मद्वेषी हिंसक असुरों को मारने के लिए संहारकारी रुद्र के धनुष को चढ़ाती हूँ। मैं ही शरण में आये हुए उपासको की रक्षा के लिए शत्रुओ से युद्ध करके उन्हें पराजित करती हूँ। मैं ही अंतरिक्षलोक  और पृथिवी में अन्तर्यामिरुप से व्याप्त रहती हूँ।

अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि॥7॥

मैं इस जगत के पितृरूप आकाश को सर्वाधिष्ठान स्वरूप परमात्मा के ऊपर उत्पन्न करती हूँ। समुद्र ( सभी भूतों के उत्पत्तिस्थान परमात्मा ) तथा जल ( बुद्धि की व्यापक वृत्तियों ) में मेरे कारण ( कारणस्वरूप चैतन्य ब्रह्म ) की स्थिति भी मेरे कारण ही है। इस प्रकार मैं ही समस्त भुवन में व्याप्त तथा उस स्वर्गलोक का भी स्पर्श करती हूँ।

अहमेव वात इव प्रवाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना संबभूव॥8॥

मैं कारण रूप से सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि कर्त्री हूँ अन्य की प्रेरणा के विना ही खुद ही वायु के तरह चलती हूँ। मैं अपनी इच्छा से ही कर्म करती हूँ। मैं आकाश और इस पृथ्वी से भी से भी परे हूँ स्वयं की महिमा से ही मैं ऐसी हूँ भक्तजन ऐसा जानें।

तंत्रोक्त देवी सूक्तम्
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।

नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥१ ॥

रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः।

ज्योत्स्नायै चेन्दुरुपिण्यै सुखायै सततं नमः ॥२॥

कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिध्दयै कुर्मो नमो नमः।

नैऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः ॥३ ॥

दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै।

ख्यातै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः ॥४ ॥

अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः।

नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः ॥५ ॥

या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥६ ॥

या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥७ ॥

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरुपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥८ ॥

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारुपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥९ ॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारुपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१० ॥

या देवी सर्वभूतेषुष्छायारुपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥११ ॥

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरुपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१२ ॥

या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारुपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१३ ॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरुपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१४ ॥

या देवी सर्वभूतेषू जातिरूपेण संस्थिता

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ॥१५॥

यादेवी सर्वभूतेषू लज्जारूपेण संस्थिता

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ॥१६॥

या देवी सर्वभूतेषू शान्तिरूपेण संस्थिता

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ॥१७॥

या देवी सर्वभूतेषू श्रद्धारूपेण संस्थिता

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ॥१८॥

या देवी सर्वभूतेषू कान्तिरूपेण संस्थिता

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ॥१९॥

या देवी सर्वभूतेषू लक्ष्मीरूपेण संस्थिता

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ॥२०॥

या देवी सर्वभूतेषू वृत्तिरूपेण संस्थिता

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ॥२१॥

या देवी सर्वभूतेषू स्मृतिरूपेण संस्थिता

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ॥२२॥

या देवी सर्वभूतेषू दयारूपेण संस्थिता

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ॥२३॥

या देवी सर्वभूतेषू तुष्टिरूपेण संस्थिता

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ॥२४॥

या देवी सर्वभूतेषू मातृरूपेण संस्थिता

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ॥२५॥

या देवी सर्वभूतेषू भ्रान्तिरूपेण संस्थिता

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै,नमस्तस्यै नमो नमः ॥२६॥

इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या।

भूतेषु सततं तस्यै व्याप्ति देव्यै नमो नमः ॥२७॥

चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद्व्याप्य स्थिता जगत्

नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ॥२८॥

स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रयात्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता।

करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ॥२९॥

या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितैरस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते।

या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नःसर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः ॥३०॥


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