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महामाया परमेश्वरी के सोलह श्रंगारों का धरती पे अवतरण तथा मिथ्या देवी का कलयुग में शासन

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श्रृष्टि के प्रथम कल्प में एकबार मिथ्या देवी अपने पती अधर्म और भाई कपट के साथ मिलकर भूलोक में घर-घर अत्याचार फैला दिया। लोभ ने अपनी दोनों पत्नियों क्षुधा और पिपाशा के साथ मनुष्यों का जीना मुश्किल कर दिया। लोग एक दूसरे का धन, भूमि , पुत्री तथा पत्नियों का हरण करने लगे चारों ओर व्यभिचार फैल गया। अधर्म और मिथ्यादेवी का शासन हो गया। प्रजा त्राहि-त्राहि करने लगी। तब सप्त रिषियों ने महामाया परमेश्वरी की उपासना व घोर तप किया।

आदिशक्ति माता- रिषियों को उनकी तपस्या का फल प्रदान करने के लिए प्रगट हुईं। भूतल पे धर्म को स्थापित करने के लिए तथा अधर्म का नाश करने के लिए माँ ने अंश रूप में अपने शरीर से अग्नि देव तथा उनकी पत्नी स्वाहा देवी को, यग्यदेव तथा उनकी पत्नी दीक्षा देवी और दक्षिणा देवी को, पितृदेव तथा उनकी पत्नी स्वधा देवी को, पुण्यदेव तथा उनकी पत्नी प्रतिष्ठा देवी को, शुशील देव तथा उनकी पत्नी शान्ति देवी और लज्जा देवी को, ग्यान देव तथा उनकी पत्नी बुद्धि देवी, मेधादेवी, धृतिदेवी को अपने शरीर से उत्पन्न किया और अधर्म तथा मिथ्यादेवी की सत्ता को समाप्त करने के लिए आदेश दिया।

हजारों वर्षों तक युद्ध चला लेकिन मिथ्यादेवी को कोई परास्त नही कर पाया। यह देखकर माता परमेश्वरी ने अपने शरीर से पुन: बैराग्यदेव तथा उनकी पत्नी श्रद्धादेवी और भक्ति देवी को, वायुदेव और उनकी पत्नी स्वस्तिदेवी को, मोहदेव तथा उनकी पत्नी दयादेवी को, सुखदेव तथा उनकी पत्नी तन्द्रादेवी और प्रीतिदेवी को तथा रूद्रदेव और उनकी पत्नी कालाग्निदेवी को अपने शरीर से उत्पन्न किया। फिर पुन: युद्ध होने लगा। एक पल में रूद्रदेव और उनकी पत्नी कालाग्निदेवी ने मिथ्यादेवी तथा अधर्म और कपट को तथा उनके साथियों को बंदी बना लिया।

एक हजार वर्षों तक बंदीगृह में मिथ्यादेवी पडी रहीं और उसी कारागार में रूद्रदेव और उनकी पत्नी कालाग्निदेवी की तपस्या करती रहीं । मिथ्यादेवी की तपस्या से प्रसन्न होकर रूद्रदेव और माता कालाग्निदेवी प्रगट हुईं और मिथ्यादेवी को बरदान दिया ।
  • रूद्रदेव ने मिथ्यादेवी से कहा-
  • सतयुग में तुम अदृश्य रहोगी
  • त्रेतायुग में तुम सूक्ष्म रूप से रहोगी
  • द्वापरयुग में तुम आधे शरीर से रहोगी
  • कलियुग में तुम सम्पूर्ण शरीर से रहोगी
  • कलियुग में सर्वत्र तुम्हारा शासन होगा

माता कालाग्निदेवी ने मिथ्यादेवी से कहा- हमारे शरीर के सोलह श्रंगारों का अंश रूप से धरती पर अवतरण हुआ है। उनके पास कभी न जाना अन्यथा वहीं पर भस्म हो जाओगी ।

मिथ्यादेवी ने हाथ जोडकर पूँछा, माते आपके सोलह श्रंगार अंश रूप से कहाँ कहाँ हैं।

माता ने कहा-

  • हमारी आँख का काजल क्षीर सागर के रूप में है।
  • हमारी माँग का सिंदूर शेषनाग का रूप धारण करके विष्णु की शेषसैया बनकर क्षीर सागर में है।
  • हमारे पाँव का महावर बृक्ष रूप में कौशल देश में है। जब विष्णु का राम रूप में अवतार होगा तब मेरे भक्त कच्छप का केवट रूप में जन्म होगा केवट इस बृक्ष को काटकर नाव बनायेगा और उसी नाव से केवट विष्णु रूपी राम को गंगा के पार उतारेगा ।
  • हमारे भाल की बिंदी गोकुल में गौ रूप धारण करके(लाखों की संख्या में) कष्णावतार में कृष्ण के साथ रहकर उनकी लीलाओं का रस-पान करेंगी।
  • हमारी चूडीयाँ नदी का रूप धारण करके सरयू नाम से जानी जायेगी जो राम की लीलाओं का रसास्वादन करेगी ।
  • हमारी पायल पीताम्बर का रूप धारण करके हमेशा कृष्ण के शरीर पर विद्यमान रहेगी ।
  • हमारे पाँव की बिछिया मंद्राचल पर्वत के नाम से जानी जायेगी। अगले कल्प में सागर मंथन की लीला होगी, जिसमें मंद्राचल पर्वत मथानी बनेगा।
  • हमारी नासिका की नथुनी ब्रह्मा का कमन्डल है ।
  • हमारे कान के कर्णफूल कुन्डल का रूप धारण करके रूद्रदेव के कर्ण में बिराजमान हैं।
  • और हमारे कमर की करधन बलराम के हल का फल बनके असुरों का बिनाश करेगी ।
  • इसलिए तुम इनके पास न जाना अन्यथा वहीं तुम जलकर भस्म हो जाओगी। कलियुग में जो भक्त हमें सोलह श्रंगार अर्पण कर हमारी उपासना करें उनके पास कभी न जाना। कलियुग में तुम्हारा सर्वत्र शासन होगा।


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