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12 दिसंम्बर बलिदान दिवस, “थोगम संगमा” जिन्होने ब्रिटिश बंदूकों के विरुद्ध मेघालय में बरछी, तीर , तलवार से लड़े़े गए युद्ध के महानायक

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नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है। 

मेघालय के एक ऐसे शूरवीर के बारे में जिसने अपने तीरों से भेद दिया था। अंग्रेजो की वो छाती जिसे फ्रांसीसी व पुर्तगाली सैनिक बड़े बड़े हाथियारो से भी नही भेद पाए थे। अपनो की गद्दारी के चलते 1857 के स्वाधीनता समर में भारतीयों को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। फिर भी संघर्ष लगातार जारी रहा। भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र यद्यपि शिक्षा और आर्थिक स्थिति में दुर्बल था, फिर भी वहाँ के वीरों ने इस संघर्ष की अग्नि को धीमा नहीं पड़ने दिया। अंग्रेज मेघालय स्थित गारो पहाड़ को अपने कब्जे में करना चाहते थे। परन्तु स्थानीय वनवासी वीरों ने अपने मुखिया थोगन नेगमेइया संगमा के नेतृत्व में उन्हें नाकों चने चबवा दिये। संगमा ने स्थानीय युवकों को संगठित कर अंग्रेजों से लम्बा संघर्ष किया।

थोगन संगमा का जन्म ग्राम छिद्दुलिबरा, जिला सिंगसान गिरी (वर्तमान नाम विलियम नगर) में हुआ था। बचपन से ही उनमें नेतृत्व के गुण थे, अतः वह कई गाँवों के मुखिया बन गये। वे एक कुशल प्रशासक थे। उन्होंने उन गाँवों के लोगों को कठोर दण्ड दिया, जिन्होंने विदेशी और विधर्मी अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। इससे उनकी धाक सब ओर जम गयी। थोगन संगमा ने ने गाँव-गाँव घूमकर युवकों को संघर्ष के लिए तैयार किया। इस कार्य में दालबोट सिरा नामक वनवासी वीर उनका सहयोगी थाय पर इससे अंग्रेज संगमा को अपनी आँख का काँटा समझने लगे।

गारो पहाड़ पर अधिकार करने के लिए अंग्रेजों ने एक साथ तीन ओर से हमला किया। पहला वर्तमान बंगलादेश में स्थित जिला मैमनसिंह, दूसरा ग्वालपाड़ा और तीसरा धावा बर्मा की ओर से बोला गया। अंग्रेज आधुनिक हथियारों से लैस थे, जबकि वनवासियों के पास उनके पारम्परिक तीर-कमान आदि ही थे। बांग्लादेश की ओर से आ रहे कैप्टन डली को सबसे कम दूरी तय करनी थी, अतः उसने सोमेश्वरी नदी के तट पर अपनी छावनी बनायी और शेष दोनों टुकड़ियों की प्रतीक्षा करने लगा। जब थोगन के साथियों को यह पता लगा कि कैप्टन डली की टुकड़ी अपने अन्य साथियों की प्रतीक्षा कर रही है, तो उन्होंने पहले हमला करने की रणनीति अपनायी और धावा बोलकर छावनी में आग लगा दीय पर अंग्रेजों की बन्दूकों और आधुनिक शस्त्रों के आगे वनवासियों के हथियार बेकार सिद्ध हुए। अतः उनका हमला विफल रहाय पर थोगन और उसके साथियों ने हार नहीं मानी। वे साहस के साथ नये संघर्ष की तैयारी करने लगे।

अंग्रेजों को भी सब सूचना मिल रही थी। इधर कैप्टन केरी और कैप्टन विलियम की टुकड़ियाँ भी आ पहुँची। इससे अंग्रेजों की शक्ति बढ़ गयी। उन्होंने तूरा पर नया हमला किया। अब थोगन ने लोहे के गरम तवों को केले के तनों से ढाँपकर ढाल और कवच बनायेय पर इससे क्या होने वाला था ? फिर भी संगमा ने अच्छी टक्कर ली। अनेक अंग्रेज सैनिक हताहत हुए। अंग्रेज अधिकारी इससे घबरा गये। अब उन्होंने धोखे का सहारा लिया। उन्होंने सूचना भेजकर 12 दिसम्बर, 1872 को वीर थोगन संगमा को बातचीत के लिए बुलाया। सरल चित्त संगमा उनके शिविर में चला गया। पर धूर्त अंग्रेजों ने वहां उसे गोली मार दी। यह समाचार जैसे ही उनके साथियों को मिला, सब अंग्रेजों पर पिल पड़े। केवल बड़े ही नहीं, तो बच्चे भी अपने हथियार लेकर मैदान में आ गयेय लेकिन अन्ततः वे सब भी वीरगति को प्राप्त हुए और अंग्रेजों ने सम्पूर्ण गारो पहाड़ पर अधिकार कर लिया।
                   
आज भी 12 दिसम्बर को वीर थोगन संगमा की स्मृति में गारो क्षेत्र में ‘स्वातंत्र्य सैनिक दिवस’ मनाया जाता है। आज 12 दिसम्बर को मेघालय के उस महाबलिदानी, स्वतंत्रता सेनानी के बलिदान दिवस पर शत शत नमन करते हुए उनके साथ युद्ध लड़ कर अमर हुए सभी वीरों को गोण्डा लाइव न्यूज परिवार को बारम्बार नमन करता है । 


विशेष यह भी जाने 
अभी थोड़े समय  पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी  जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान !  किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा  या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है।  अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।    

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