नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो
के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट
करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे
मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की
आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास
उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है।
अमर शहीद राजनारायण मिश्रा का जन्म बसंत पंचमी 1919 को हुआ था। 09 अगस्त
1944 को लखनऊ में ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ का उद्घोष करते हुए शहादत का वरण करने
वाले क्रांतिकारी राजनारायण मिश्र को उनकी शहादत का सिला मिला होता तो आज
आप उन्हें तो जानते ही। उनसे पहले उन्हीं के जिले में जन्मे उनके नामराशि
उन समाजवादी राजनारायण मिश्र को भी जानते, जिन्होंने 26 अगस्त, 1920 को
खिलाफत आंदोलन के कार्यकर्ता नसीरुद्दीन मौजीनगर के साथ खीरी के अंग्रेज
डिप्टी कमिश्नर सर रॉबर्ट विलियम डगलस विलबी को गोली मार दी थी। इससे चिढ़ी
गोरी हुकूमत ने उन्हें और नसीरुद्दीन को 26 अप्रैल,1936 को फांसी दे दी थी।
लखनऊ
में शहीद राजनारायण मिश्र का जन्म लखीमपुर खीरी जिले के कठिना नदी के
तटवर्ती भीषमपुर गांव में साल 1919 की बसंत पंचमी को हुआ था। बलदेवप्रसाद
मिश्र के इस पुत्र ने दो साल के होते-होते अपनी मां तुलसी देवी को खो दिया
था और होश संभाला तो पाया कि उसके गांव वालों का जीवन उसके बगल से बहती नदी
के नाम जैसा ही कठिन है। थोड़ा और बड़ा हुआ तो समझा कि सारा देश ही
दुर्दशाग्रस्त है और इसका सबसे बड़ा कारण गुलामी है। तब आजादी हेतु लड़ने की
बेचैनी उसे कई दरों पर ले गई, लेकिन 23 मार्च, 1931 को सरदार भगत सिंह की
शहादत के बाद उसने उनको अपना आदर्श मानकर सशस्त्र साम्राज्यवाद विरोधी
प्रतिरोध संगठित करना शुरू किया तो फांसी पर चढ़ने तक प्राण प्रण से उसी में
लगा रहा, बिना थके और बिना पराजित हुए। प्रसंगवश, राजनारायण ने छुटपन में ही बच्चों की एक ‘वानर सेना’ बना ली थी,
जिसके कई सदस्य बाद में सशस्त्र साम्राज्यवाद विरोधी अभियानों में उनके साथ
रहे। आगे चलकर उन्होंने ‘मातृवेदी’ पार्टी बनाई और बहुचर्चित ‘बम पार्टी’
की सदस्यता पाने के लिए 23 दिसंबर, 1940 को उन्नाव में थानेदार ममेरे भाई
का सरकारी रिवॉल्वर उठा लाए। उसकी चोरी की रिपोर्ट दर्ज होने से पहले ही
भड़काऊ भाषण देकर जेल चले गए। तब उन्हें एक साल की सजा हुई, जिसे काटकर वे
एक दिसंबर, 1941 को छूटे। 1942 में महात्मा गांधी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ शुरू किया तो राजनारायण ने
अपने से ही जनता से खुली बगावत का आह्वान कर दिया। उन्हें विश्वास था कि इस
बगावत से अपने जिले से तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद को उखाड़ ही देंगे। मगर
महमूदाबाद रियासत की तहसील का कोठार कब्जाने के विफल सशस्त्र ऑपरेशन के बाद
उन्हें दिल्ली भाग जाना पड़ा, जहां उन्होंने हुलिया बदलकर स्वतंत्रता
संघर्ष में भागीदारी की। इस बीच अंग्रेजों ने उनके गांव को फुंकवाकर उनका
घर खुदवा दिया।
बाद में वे नकली नाम व परिचय के साथ 28 सितंबर, 1942 को नागपुर में पकड़े गए
और दो महीने जेल में रहकर छूटे तो दिल्ली आकर आर्य समाज में ‘शामिल’ हो
गए। अकाल के वक्त वे आर्य समाज की ओर से राहत कार्यों के बहाने मिदनापुर
जाकर वहां सक्रिय हुए, लेकिन उनके अतीत का पता लगने के कारण उन्हें निकाल
दिया गया। दिल्ली लौटने और पकड़ लिए जाने पर उन्हें दफा 188 में अगले छह
महीने फिर जेल में काटने पड़े। एक अगस्त, 1943 को रिहा हुए तो ढाई महीने
इधर-उधर गुजारकर 15 अक्टूबर, 1943 को मेरठ के गांधी आश्रम से जुड़ाव की
इच्छा लेकर उसके खादी भंडार के प्रबंधक से मिले और अपना असली नाम-पता बता
बैठे। इस विश्वास के साथ जबरदस्त छल हुआ और पकड़ लेने के बाद अंग्रेजों ने
उन्हें भीषण यातनाएं दीं।
26 नवंबर को चालान काटकर लखीमपुर भेज दिया, जहां लोअरकोर्ट ने 27 जून को
उन्हें फांसी की सजा सुना दी। पहली जुलाई को उन्हें लखनऊ जेल भेज दिया गया
और बाद में चीफ कोर्ट ने भी उनकी सजा पर मोहर लगा दी। अलबत्ता, उसने प्रिवी
कौंसिल में अपील की मोहलत दी, लेकिन परिवार की गरीबी और समाज की कृतघ्नता
के कारण वह अपील हो ही नहीं पाई। तब माफी मांग लेने की सूरत में बख्श देने
पर विचार करने के गोरों के प्रस्ताव का जवाब, उन्होंने अपनी इस अंतिम इच्छा
से दिया था -फांसी पर लटक जाने के बाद मेरे पार्थिव शरीर को मेरी जेल में
बंद स्वतंत्रता सेनानी ही फंदे से मुक्त करें।
विशेष यह भी जाने
अभी थोड़े समय पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों
का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में
व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की
! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध !
जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर
बलिदानी जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन
वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान ! किसी भी व्यक्ति
के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और
महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने
में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ,
तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के
अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति
के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत
है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही
जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी
अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी
ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और
जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में
ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि
व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है। अर्थात इंसान की तरह
जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय
अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर
इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने
स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की
बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या
शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं,
लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो
ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे
पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली
क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में
जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही
क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे
संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।
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