नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो
के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट
करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे
मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की
आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास
उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है।
वीरांगना शांति घोष ने महज 15 साल की उम्र में ब्रिटिश अधिकारी को मारी थी गोली !
हमारे देश में ऐसे बहुत से नाम हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में
स्वयं को देश के लिए अर्पित कर दिया। पर फिर भी इतिहास में इनका नाम ढूंढने
पर भी नहीं मिलता। ऐसा ही एक नाम है। शांति घोष।शांति घोष भारत के
स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी वीरांगना थीं। उनका जन्म 22 नवंबर 1916
को पश्चिम बंगाल के कोलकाता में हुआ था। उनके पिता देबेन्द्रनाथ घोष
कोमिल्ला कॉलेज में प्रोफेसर थे और साथ ही राष्ट्रवादी भी। शांति पर अपने
पिता की राष्ट्र भक्ति का बहुत प्रभाव था ! वे बचपन से ही भारतीय
क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ती रहती। 1931 में फजुनिस्सा गर्ल्स स्कूल
में पढ़ते हुए मात्र 15 साल की उम्र में शांति, अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी
के माध्यम से ‘युगांतर पार्टी’ में शामिल हो गयी और क्रांतिकारी कार्यों के
लिए आवश्यक प्रशिक्षण लेने लगी। यह एक क्रांतिकारी संगठन था, जो उस समय
ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या कर ब्रिटिश राज में खलबली मचाने के लिए
प्रसिद्व था। जल्द ही, शांति के जीवन में वह दिन आया जब उसे अपनी मातृभूमि
के लिए खुद को समर्पित करने का अवसर मिला। इस बुलावे को उन्होंने सहर्ष
स्वीकार किया। साल 1931 में दिसम्बर की 14 तारीख को शांति अपनी एक और
सहपाठी सुनीति चैधरी के साथ एक ब्रिटिश अफसर और कोमिल्ला के जिला
मजिस्ट्रेट चार्ल्स जेफरी बकलैंड स्टीवंस के कार्यालय में पहुंची। उन्होंने
इस बात का बहाना दिया कि वे एक पेटीशन फाइल करने आई हैं। जब अधिकारी उनके
कागजात देखने लगे तो उन्होंने अपनी शाल के नीचे से पिस्तौल निकाली और
उन्हें गोली मार दी। इससे कार्यालय में चारों तरफ अफरा-तफरी मच गयी। शांति
और सुनीति को तुरंत पकड़ लिया गया। इस घटना ने न केवल ब्रिटिश साम्राज्य
बल्कि पुरे देश को हिला कर रख दिया।किसी को इन किशोरियों की बहादुरी पर
हैरानी थी, तो कोई इनके हौंसले की वाह-वाही करते नहीं थक रहा था। इनकी
तस्वीरों के साथ एक फ्लायर भी छपा। ब्रिटिश सरकार ने उनकी कम उम्र की वजह
से उन्हें फाँसी की जगह काले पानी की सजा दी। पर इन दोनों देशभक्तों ने
हँसते-हँसते छोटी-सी उम्र में जेल की यातनाएं सही। साल 1937 में अन्य
स्वतंत्रता सेनानियों के प्रयासों से आखिरकार शांति घोष को जेल से रिहा कर
दिया गया। जेल से निकलने के बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। इसके साथ ही
वे स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रीय रहीं। उन्होंने प्रोफेसर चितरंजन दास
से शादी की। वे 1952-62 और 1967-68 में पश्चिम बंगाल विधान परिषद में
कार्यरत रहीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘अरुणबहनी’ नाम से लिखी। साल 1989 में
28 मार्च को उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली।
वीरांगना सुनीति चौधरी जिन्होंने अंग्रेज कलेक्टर को मारी थी गोली जिसे हम लोग आज भूल गये
वीरांगनस सुनीति का जन्म 22 मई 1917 को वर्तमान बंगलादेश के कोमिला जिले
में इब्राहिमपुर गाँव में एक सामान्य मध्यमवर्गीय हिन्दू परिवार में हुआ
था। उनके पिता उमाचरण चैधरी सरकारी नौकरी में थे और माता सुरसुंदरी चैधरी
एक अत्यंत धार्मिक महिला जिन्होंने सुनीति के जीवन पर अत्यंत गहरा प्रभाव
छोड़ा। सुनीति जब स्कूल जाने वाली छोटी सी बच्ची ही थीं, तब तक उनके दो बड़े
भाई क्रांतिकारी गतिविधियों में पूरी तरह संलग्न हो चुके थे।
सुनीति, जो बचपन से ही अपनी आयु के
अन्य बच्चों की तुलना में अधिक परिपक्व थीं, अपने घर और आस पास के राजनैतिक
माहौल और घटनाओं से अछूती नहीं रही और इन सभी को अपने अन्दर उतारती समझती
रहीं। क्रान्तिधर्मा उल्लासकर दत्त के पराक्रम के किस्सों और उनके साथ
अंग्रेजों के अमानवीय व्यवहार ने उनके बालमन को गहरे तक प्रभावित किया। जब
वह आगे की पढाई के कालेज में पंहुची, अपने एक सहपाठी प्रफुल्लनलिनी ब्रह्मा
के जरिये युगांतर पार्टी नामक क्रांतिकारियों के संगठन के संपर्क में आयीं
और देश के आजादी के लिए कुछ करने का स्वप्न देखने लगीं। इसी दौरान हुए एक
छात्र सम्मलेन ने सुनीति और उनकी जैसी अन्य युवा लड़कियों की देश के लिए की
जाने वाली गतिविधियों को अन्यी ऊर्जा दी। सुनीति अपने कालेज की साथी
छात्रों की सामाजिक कार्य करने वाले समूह की कैप्टेन थीं और इस नाते
विभिन्न गतिविधियों में बढचढ कर भाग लेती थीं।
उनके प्रभावी व्यक्तित्व, कुशल नेतृत्व और उत्कट
देशप्रेम ने उनके जिले के कई क्रांतिकारी नेताओं का उनकी और आकृष्ट किया।
शीघ्र ही उन्हें उन युवाओं के दल में चुन लिया गया जिसे आजादी की लड़ाई के
लिए पास के पहाड़ी इलाकों में अस्त्र शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया जाना
तय किया गया। अपने इस प्रशिक्षण के तुरंत बाद उन्हें उनकी सहपाठी शांति घोष
के साथ एक अभियान के लिए चुन लिया गया, जबकि इसके पहले तक लड़कियां
क्रांतिकारी गतिविधियों में परदे के पीछे कार्य करती थीं, पर अब ये तय किया
गया कि कुछ अभियानों में उन्हें भेजना अधिक उपयोगी होगा। ये अभियान था, 23
मार्च 1931 को फांसी पर लटका दिए गए अमर बलिदानियों भगतसिंह, सुखदेव और
राजगुरु की मृत्यु का बदला लेना ।
वो 14 दिसंबर 1931 का
दिन था जब दो युवा लड़कियों ने कोमिला के जिला अधिकारी मिस्टर स्टीवेंस से
उनके बंगले में भेंट कर उनसे तैराकी क्लब चलाने की अनुमति मांगी। जैसे ही
उन लड़कियों का आमना सामना जिला अधिकारी से हुआ, उन्होंने उस पर गोलियां चला
दी। वो दोनों लड़कियां थी-सुनीति और शांति, जिसमें सुनीति के रिवाल्वर से
निकली पहलों गोली ने ही स्टीवेंस को यमलोक पहुंचा दिया। इसके बाद वहां हुयी
भगदड़ और शोर में दोनों लड़कियां पकड़ी गयी और उन्हें अत्यंत निर्दयतापूर्वक
पीटा गया पर वाह रे भारत की वीरांगना, दोनों युवतियों के मुंह से एक बार भी
उफ नहीं निकला।
उन पर
मुकदमा चलाया गया पर जेल और कोर्ट में उनकी मुस्कराहट, शांतचित्तता और
धीरता से ऐसा शायद ही कोई रहा हो जो प्रभावित ना हुआ हो। उनको हमेशा
खिलखिलाते और गाते देख कोई सोच भी नहीं सकता था कि ये दोनों युवतियां शायद
अपनी मृत्यु की तरफ बढ़ रही हैं। सुनीति और शांति ने एक बलिदानी की तरह की
मृत्यु का स्वप्न देखा था पर उनकी मात्र 14 वर्ष आयु होने के कारण उन्हें
आजन्म कारावास की सजा सुनाई गयी। हालांकि इस निर्णय से दोनों वीरांगनाओं को
थोड़ी निराशा हुयी, पर उन्होंने इस निर्णय को भी हिम्मत और प्रसन्नता के
साथ स्वीकार करते हुए विद्रोही कवि काजी नजरुल इस्लाम की कविताओं को गाते
हुए जेल में प्रवेश किया।
वीरांगना सुनीति
का जेल जीवन कष्टों और यातनाओं की एक लम्बी गाथा है। उन्हें फांसी ना दिला
पाने से खिसियाई सरकार ने उनके जेल जीवन को जितना अधिक संभव हो सकता था,
उतना क्रूर और असहनीय बनाने का प्रयास किया। उन्हें तीसरी श्रेणी का कैदी
करार देते हुए जेल प्रशासन ने उन्हें बाकी सभी राजनैतिक कैदियों से अलग
रखने की व्यवस्था की ताकि उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा सके। उनक
वृद्ध पिता की पेंशन रोक दी गयी, उनके दोनों बड़े भाइयों को बिना किसी
मुकदमे के ही जेल में डाल दिया गया और स्थिति यहाँ तक आ गयी कि बरसों उनका
परिवार भुखमरी की कगार पर रहा। हालात यहाँ तक पहुँच गए कि उनका छोटा भाई
कुपोषण का शिकार हो अकाल मृत्यु का शिकार हो गया पर इनमे से कुछ भी सुनीति
के फौलादी हौसलों को डिगा नहीं पाया।
वीरांगना सुनीति का जन्म
22 मई 1917 को वर्तमान बंगलादेश के कोमिला जिले में इब्राहिमपुर गाँव में
एक सामान्य मध्यमवर्गीय हिन्दू परिवार में हुआ था। उनके पिता उमाचरण चैधरी
सरकारी नौकरी में थे और माता सुरसुंदरी चैधरी एक अत्यंत धार्मिक महिला
जिन्होंने सुनीति के जीवन पर अत्यंत गहरा प्रभाव छोड़ा। सुनीति जब स्कूल
जाने वाली छोटी सी बच्ची ही थीं, तब तक उनके दो बड़े भाई क्रांतिकारी
गतिविधियों में पूरी तरह संलग्न हो चुके थे।
सुनीति, जो बचपन से ही अपनी आयु के अन्य बच्चों की तुलना में अधिक परिपक्व
थीं, अपने घर और आस पास के राजनैतिक माहौल और घटनाओं से अछूती नहीं रही और
इन सभी को अपने अन्दर उतारती समझती रहीं। क्रान्तिधर्मा उल्लासकर दत्त के
पराक्रम के किस्सों और उनके साथ अंग्रेजों के अमानवीय व्यवहार ने उनके
बालमन को गहरे तक प्रभावित किया। जब वह आगे की पढाई के कालेज में पंहुची,
अपने एक सहपाठी प्रफुल्लनलिनी ब्रह्मा के जरिये युगांतर पार्टी नामक
क्रांतिकारियों के संगठन के संपर्क में आयीं और देश के आजादी के लिए कुछ
करने का स्वप्न देखने लगीं। इसी दौरान हुए एक छात्र सम्मलेन ने सुनीति और
उनकी जैसी अन्य युवा लड़कियों की देश के लिए की जाने वाली गतिविधियों को
अन्यी ऊर्जा दी। सुनीति अपने कालेज की साथी छात्रों की सामाजिक कार्य करने
वाले समूह की कैप्टेन थीं और इस नाते विभिन्न गतिविधियों में बढचढ कर भाग
लेती थीं।
उनके प्रभावी व्यक्तित्व, कुशल नेतृत्व और उत्कट देशप्रेम ने उनके जिले
के कई क्रांतिकारी नेताओं का उनकी और आकृष्ट किया। शीघ्र ही उन्हें उन
युवाओं के दल में चुन लिया गया जिसे आजादी की लड़ाई के लिए पास के पहाड़ी
इलाकों में अस्त्र शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया जाना तय किया गया। अपने
इस प्रशिक्षण के तुरंत बाद उन्हें उनकी सहपाठी शांति घोष के साथ एक अभियान
के लिए चुन लिया गया, जबकि इसके पहले तक लड़कियां क्रांतिकारी गतिविधियों
में परदे के पीछे कार्य करती थीं, पर अब ये तय किया गया कि कुछ अभियानों
में उन्हें भेजना अधिक उपयोगी होगा। ये अभियान था, 23 मार्च 1931 को फांसी
पर लटका दिए गए अमर बलिदानियों भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की मृत्यु का
बदला लेना ।
वो 14
दिसंबर 1931 का दिन था जब दो युवा लड़कियों ने कोमिला के जिला अधिकारी
मिस्टर स्टीवेंस से उनके बंगले में भेंट कर उनसे तैराकी क्लब चलाने की
अनुमति मांगी। जैसे ही उन लड़कियों का आमना सामना जिला अधिकारी से हुआ,
उन्होंने उस पर गोलियां चला दी। वो दोनों लड़कियां थी-सुनीति और शांति,
जिसमें सुनीति के रिवाल्वर से निकली पहलों गोली ने ही स्टीवेंस को यमलोक
पहुंचा दिया। इसके बाद वहां हुयी भगदड़ और शोर में दोनों लड़कियां पकड़ी गयी
और उन्हें अत्यंत निर्दयतापूर्वक पीटा गया पर वाह रे भारत की वीरांगना,
दोनों युवतियों के मुंह से एक बार भी उफ नहीं निकला।
उन
पर मुकदमा चलाया गया पर जेल और कोर्ट में उनकी मुस्कराहट, शांतचित्तता और
धीरता से ऐसा शायद ही कोई रहा हो जो प्रभावित ना हुआ हो। उनको हमेशा
खिलखिलाते और गाते देख कोई सोच भी नहीं सकता था कि ये दोनों युवतियां शायद
अपनी मृत्यु की तरफ बढ़ रही हैं। सुनीति और शांति ने एक बलिदानी की तरह की
मृत्यु का स्वप्न देखा था पर उनकी मात्र 14 वर्ष आयु होने के कारण उन्हें
आजन्म कारावास की सजा सुनाई गयी। हालांकि इस निर्णय से दोनों वीरांगनाओं को
थोड़ी निराशा हुयी, पर उन्होंने इस निर्णय को भी हिम्मत और प्रसन्नता के
साथ स्वीकार करते हुए विद्रोही कवि काजी नजरुल इस्लाम की कविताओं को गाते
हुए जेल में प्रवेश किया।
वीरांगना सुनीति का जेल जीवन कष्टों और यातनाओं की एक लम्बी गाथा है।
उन्हें फांसी ना दिला पाने से खिसियाई सरकार ने उनके जेल जीवन को जितना
अधिक संभव हो सकता था, उतना क्रूर और असहनीय बनाने का प्रयास किया। उन्हें
तीसरी श्रेणी का कैदी करार देते हुए जेल प्रशासन ने उन्हें बाकी सभी
राजनैतिक कैदियों से अलग रखने की व्यवस्था की ताकि उन्हें मानसिक रूप से
प्रताड़ित किया जा सके। उनक वृद्ध पिता की पेंशन रोक दी गयी, उनके दोनों बड़े
भाइयों को बिना किसी मुक़दमे के ही जेल में डाल दिया गया और स्थिति यहाँ
तक आ गयी कि बरसों उनका परिवार भुखमरी की कगार पर रहा। हालात यहाँ तक पहुँच
गए कि उनका छोटा भाई कुपोषण का शिकार हो अकाल मृत्यु का शिकार हो गया पर
इनमे से कुछ भी सुनीति के फौलादी हौसलों को डिगा नहीं पाया।
सात वर्ष जेल में
रहने के बाद सुनीति को अन्य कई राजनैतिक कैदियों के साथ जेल से जल्द मुक्ति
मिल गयी और बाहर आकर उन्होंने फिर से अपने जीवन को व्यवस्थित करने का
प्रयास करना प्रारम्भ किया। उन्होंने अपनी पढाई फिर से शुरू की और कठिन
परिश्रम से एम् . बी .बी .एस . की डिग्री हासिल की, जिसके बाद उन्होंने
प्राइवेट प्रैक्टिस करना प्रारम्भ किया। 1947 में उन्होंने सुप्रसिद्ध
ट्रेड युनियन नेता प्रद्योत कुमार घोष के साथ विवाह कर लिया और अपने परिवार
में रम गयीं। पर शोषितों और वंचितों के लिए काम करना उन्होंने कभी भी बंद
नहीं किया।
अपने पीछे एक बेटी को छोड़ भारत माँ की ये
वीरांगना बेटी 1994 में इस नश्वर संसार को छोड़ गयी पर हर उस भारतवासी के
हृदय में वे हमेशा जीवित रहेंगी जो जानता है कि ये आजादी बिना खड्ग बिना
ढाल नहीं बल्कि खून बहाकर मिली है। सुनीति चैधरी और शांति घोष की यादों को
जीवित रखने के उद्देश्य से सिद्धार्थ मोशन पिक्चर्स ने ये मदर्स नामक फिल्म
का निर्माण किया है जिसमें श्रेया चैधरी ने वीरांगना सुनीति चैधरी का और
तान्या बनर्जी ने शांति घोष का किरदार निभाया है। वीरांगना सुनीति चैधरी को
कोटि कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि।
हमारे देश में ऐसे बहुत से नाम हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में
स्वयं को देश के लिए अर्पित कर दिया। पर फिर भी इतिहास में इनका नाम ढूंढने
पर भी नहीं मिलता। ऐसा ही एक नाम है। शांति घोष।शांति घोष भारत के
स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी वीरांगना थीं। उनका जन्म 22 नवंबर 1916
को पश्चिम बंगाल के कोलकाता में हुआ था। उनके पिता देबेन्द्रनाथ घोष
कोमिल्ला कॉलेज में प्रोफेसर थे और साथ ही राष्ट्रवादी भी। शांति पर अपने
पिता की राष्ट्र भक्ति का बहुत प्रभाव था ! वे बचपन से ही भारतीय
क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ती रहती। 1931 में फजुनिस्सा गर्ल्स स्कूल
में पढ़ते हुए मात्र 15 साल की उम्र में शांति, अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी
के माध्यम से ‘युगांतर पार्टी’ में शामिल हो गयी और क्रांतिकारी कार्यों के
लिए आवश्यक प्रशिक्षण लेने लगी। यह एक क्रांतिकारी संगठन था, जो उस समय
ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या कर ब्रिटिश राज में खलबली मचाने के लिए
प्रसिद्व था। जल्द ही, शांति के जीवन में वह दिन आया जब उसे अपनी मातृभूमि
के लिए खुद को समर्पित करने का अवसर मिला। इस बुलावे को उन्होंने सहर्ष
स्वीकार किया। साल 1931 में दिसम्बर की 14 तारीख को शांति अपनी एक और
सहपाठी सुनीति चैधरी के साथ एक ब्रिटिश अफसर और कोमिल्ला के जिला
मजिस्ट्रेट चार्ल्स जेफरी बकलैंड स्टीवंस के कार्यालय में पहुंची। उन्होंने
इस बात का बहाना दिया कि वे एक पेटीशन फाइल करने आई हैं। जब अधिकारी उनके
कागजात देखने लगे तो उन्होंने अपनी शाल के नीचे से पिस्तौल निकाली और
उन्हें गोली मार दी। इससे कार्यालय में चारों तरफ अफरा-तफरी मच गयी। शांति
और सुनीति को तुरंत पकड़ लिया गया। इस घटना ने न केवल ब्रिटिश साम्राज्य
बल्कि पुरे देश को हिला कर रख दिया।किसी को इन किशोरियों की बहादुरी पर
हैरानी थी, तो कोई इनके हौंसले की वाह-वाही करते नहीं थक रहा था। इनकी
तस्वीरों के साथ एक फ्लायर भी छपा। ब्रिटिश सरकार ने उनकी कम उम्र की वजह
से उन्हें फाँसी की जगह काले पानी की सजा दी। पर इन दोनों देशभक्तों ने
हँसते-हँसते छोटी-सी उम्र में जेल की यातनाएं सही। साल 1937 में अन्य
स्वतंत्रता सेनानियों के प्रयासों से आखिरकार शांति घोष को जेल से रिहा कर
दिया गया। जेल से निकलने के बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। इसके साथ ही
वे स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रीय रहीं। उन्होंने प्रोफेसर चितरंजन दास
से शादी की। वे 1952-62 और 1967-68 में पश्चिम बंगाल विधान परिषद में
कार्यरत रहीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘अरुणबहनी’ नाम से लिखी। साल 1989 में
28 मार्च को उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली।
विशेष यह भी जाने
अभी थोड़े समय पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों
का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में
व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की
! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध !
जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर
बलिदानी जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन
वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान ! किसी भी व्यक्ति
के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और
महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने
में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ,
तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के
अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति
के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत
है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही
जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी
अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी
ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और
जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में
ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि
व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है। अर्थात इंसान की तरह
जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय
अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर
इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने
स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की
बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या
शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं,
लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो
ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे
पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली
क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में
जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही
क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे
संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।
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