मेंढकों के देश में इङा' माह में वार्षिक वर्षागीत-समारोह आयोजित हुआ। सर्वाधिक दीर्घायु दादुर लैक्रक ने इसकी अध्यक्षता की। इस देश के मेंढकों द्वारा अनुरोध करके बुलाए गए एक मोरे मेंढक ईपाकताबा को मुख्य अतिथि बनाया गया।
समारोह में मेंढक-देश के अधिकांश महत्त्वपूर्ण एवं श्रेष्ठ मेंढक इकट्ठा हुए। वर्षागीत-समारोह में परम्परानुसार वरिष्ठ मेंढक ही आगे बैठाए जाते हैं। इकट्ठे हुए मेंढकों द्वारा वर्ष का सर्वाधिक गायन कर सकनेवाला एक श्रेष्ठ मेंढक चुना जाना था।
दक्षिण दिशा के दिशापाल मेंढक लौशी ताबा, नैऋत कोण के श्रेष्ठ मेंढक लोक्ताक ङाक्पा, पश्चिम सीमा के स्वामी बोराक ङम्बा, वायव्य कोण के दिशापाल लाइम्तोन् फौरुङ्बा, उत्तर दिशा के प्रभु सेकमाइ ङ्म्बा, पूर्वी दिशा के नियन्त्रक शिरोइ ताबा आदि मेंढक नेताओं की ओर से अपने-अपने प्रतिनिधि मेंढक भेज दिए गए हैं। चितकबरा, हरा, गहरा धूसर और लालिम आदि विभिन्न रंगों के मेंढक हैं।
मेंढक-सभा के अध्यक्ष के आदेश के बाद सारे मेंढक अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार ऊँचे स्वर में गाने लगे। सभा गूँजने लगी। बाहर की हवा तक नहीं घुस सकी; बाहर-भीतर का सम्पर्क टूट गया।
मेंढकों की इस स्वर-संगीत- प्रतियोगिता में किसी का स्वर स्पष्ट नहीं सुनाई दिया। आखिर दलगत पक्षपात के कारण, सभा में कोलाहल फैल गया। दादुर महाशय की नियन्त्रण-शक्ति व्यर्थ हो गई। आपस में हाथापाई हुई, खून-खराबा हुआ। सभा की अस्त-व्यस्त स्थिति को देखकर मुख्य अतिथि मोरे मेंढक ने चिल्लाते हुए कहा- ''मेंढक-देश के समस्त मेंढको ! तुम लोग अपनी इज्जत की रक्षा नहीं कर सकते हो, इसलिए तुम्हारे गीत नहीं सुने जाएँगे। मैंने सारी शक्ति अपने हाथ में ले ली है।"
सारे मेंढक हो-हल्ला छोड़कर, मोरे मेंढक की बातें सुनने लगे। मोरे मेंढक ने आगे कहा--''मैं तुम लोगों का कुएँ के भीतर रहकर, गले फुला-फुलाकर टर्राना नहीं सुनना चाहता। इस क्षेत्र में मैं अपनी बिरादरी वाले भेज दूँगा। तुम लोगों के नेतृत्व की भूख, साहस और बुद्धि के अभाव में नेतागीरी की होड़, मेहनत से हाथ खींचना, बिना कष्ट सहे सुख-प्राप्ति की इच्छा, तुम्हारे ये सारे स्वभाव मैं समझ गया हूँ। अब तुम लोग मुँह नहीं खोल सकते। मैं हर एक का मुँह बन्द कर दूँगा।''
मोरे मेंढक की बात सुनकर सभापति दादुर ने हाथ जोड़कर कहा- हे सर्वोत्तम ! महाश्रेष्ठ ! इन बे-लगामों को दण्डित कीजिए, किन्तु मुझको क्षमा करें। मुझे दण्ड मत दीजिए।"
“चुप रहो ! मैं कुछ भी नहीं सुनना चाहता। अपनी इच्छानुसार इधर-उधर उछलने वाले, अपनी बात न रखने वाले, अपने स्वार्थ हेतु तुम भी अपनी बिरादरी को छोड़कर मेरी शरण में आए थे। है कि नहीं? अब मैं किसी की नहीं सुनूँगा।”
अपनी प्रार्थना अनसुनी हो जाने से क्रोधित होकर दादुर ने अपनी स्फूर्ति दिखाई- “हम यह नहीं मान सकते। संविधान हर नागरिक को स्वतंत्र रहने का अधिकार देता है। अपने क्षेत्र पर हम ही शासन करेंगे। इस क्षेत्र की झील, नदी, ताल और नाले, किसी पर भी दूसरों का हस्तक्षेप नहीं होगा। मेंढक देश को हमारे ही पूर्वजों ने बनाया था।”
“हमारे पूर्वजों ने ही निर्मित किया था। हम किसी के भी अधीन नहीं होंगे।" दादुर की बात का समर्थन करते हुए मेंढक-देश के समस्त युवा-बूढ़े मेंढक एक-साथ नारे लगाने लगे-- ''मेंढक-देश की जय ! मेंढक-देश की जय !”
नारे लगाने के बाद, सारे मेंढक मोरे मेंढक की तरफ बढ़ने लगे। वे उछल-कूद करते हुए, चिल्ला रहे थे-- ''मोरे मेंढक नहीं चाहिए ! अपने देश वापस जाओ ! मोरे मेंढक नहीं चाहिए ।''
मोरे मेंढक ने अपनी नाक के पास की दो-एक फुन्सियों को नाखून से नोचकर, थोड़ा-सा खून बहाया और चिल्लाकर कहा-'' मेरे अनुगामियो ! अब समय आ गया है, आक्रमण करो !"
अपने नेता, मोरे मेंढक का आदेश सुनते ही, पहले से जंगली अरबी के पौधों एवं पत्तों के बीच छिपे हुए सारे मेंढक निकलकर, मेंढक-देश के समारोह में इकट्ठे हुए सभी मेंढकों पर टूट पड़े। खून से लथपथ मेंढक अपने-अपने प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे। अनेक दुर्भाग्यशाली मेंढकों के निष्प्राण शरीर वहीं पड़े रह गए।
थोड़ा शान्त हो जाने पर मेंढक-देश के मुहल्लों और गाँवों में मोटे और बड़े मोरे मेंढकों के दल-के-दल हाथ में हथियार लिये विद्रोही मेंढकों को ढूँढने निकल पड़े। दिन हो या रात, जब भी मौका हो, मेंढकों के मुहल्लों में जगह-जगह, कोने- कोने में मोरे मेंढकों ने अण्डे देने शुरू कर दिए। इस प्रकार मेंढक-देश के पर्वत- मैदान, झील-नदी और तालाब-नाले-सब जगह मोरे मेंढकों की प्रजाति फैल गई। अब दादुर की आवाज कहीं नहीं सुनाई पड़ती। मेंढक-देश के अधिकांश मेंढक मरने के डर से, धरती की गहरी-से-गहरी दरारों में जाकर छिपने लगे।
इस समय मोरे मेंढक ने, गला फुलाते हुए चिल्लाकर कहा-- "मेंढक-देश के समस्त वासियो ! तुम्हारे जीवन की लगाम हमारी मुट्ठी में है। अगर तुम लोग हमें पराजित करना चाहते हो तो मेहनत करना सीखो। उन्नति उद्योगों से होती है। हाथ- पैर चलाए बगैर, सिर्फ बोलने से विकास सम्भव नहीं है। कभी स्वप्न में भी विश्वास मत करो कि तुम्हारी उछल-कूद से देश की इज्जत वापस लौट आएगी।”
मोरे मेंढक का सन्देश सुनते ही मेंढक-देश में आदिकाल से एक-साथ रहते आए शेम्पाक मेंढक ने बदले की भावना से बेहद व्याकुल होकर पेड़-पौधों के बीच में से चिल्लाकर कहा-'' सावधान ! सावधान ! एक दिन हम अपनी एकता और साहस से तुम धोखेबाज मोरे मेंढकों के सिर फोड़ देंगे ! अपनी मातृभूमि को तुम्हारे हाथों से छीनकर मुक्त करेंगे !''
शेम्पाक मेंढक की बात सुनकर मेंढक-देश के सारे मेंढक गड्ढों और दरारों में से उत्तर देने लगे- “हम भी हैं, हम जीवित हैं।''
अनुवाद-डॉ० इबोहल सिंह काङ्जम
टिप्पणी
1. इङा - मणिपुरी वर्ष-गणना का तीसरा माह।
2, दादुर लैक्रक - वह मेंढक, जिसकी पीठ बहुत ऊबड़- खाबड़ होती है।
3. मोरे मेंढक ईपाकताबा - मोरे के रास्ते, बर्मा (म्याँमार) से आने वाला मेंढक, जो बड़े जलाशय में वास करता है।
4. मेंढक लौशी ताबा - लौशी नामक झील में रहने वाला मेंढक।
5. मेंढक लोक्ताक ङाक्पा - लोक्ताक नामक प्रसिद्ध झील में निवास करने वाला मेंढक।
6. बोराक डम्बा - बराक नामक न का मेंढक।
7. लाइमतोन् फौरुडबा - लाइमतोन् नामक पर्वत की चोटी पर रहने वाला मेंढक।
8. सेकमाइ ङम्बा - सेकमाइ नामक स्थान का निवासी मेंढक।
9. शिरोइ ताबा - शिरोइ नामक पर्वत का वासी मेंढक।
10. शेम्पाक मेंढक - चपटा, चिकना, चमकीले शरीर वाला मेंढक। यह बहुत लम्बी कूद मारता है। यह दीवार पर भी चिपक जाता है।
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