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सीमन्तोन्नयन संस्कार

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सीमन्तोन्नयन संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में तृतीय संस्कार है। सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। यह संस्कार पुंसवन का ही विस्तार है। इसका शाब्दिक अर्थ है- "सीमन्त" अर्थात् 'केश और उन्नयन' अर्थात् 'ऊपर उठाना'। संस्कार विधि के समय पति अपनी पत्नी के केशों को संवारते हुए ऊपर की ओर उठाता था, इसलिए इस संस्कार का नाम 'सीमंतोन्नयन' पड़ गया। यह संस्कार गर्भ के छठे या आठवें महीने में किया जाता है। इस संस्कार का फल भी गर्भ की शुद्धि ही है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म आएं, इसके लिए माँ उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। महाभक्त प्रह्लाद को देवर्षि नारद का उपदेश तथा अभिमन्यु को चक्रव्यूह प्रवेश का उपदेश इसी समय में मिला था। अतः माता-पिता को चाहिए कि वे इन दिनों विशेष सावधानी के साथ योग्य आचरण करें।

सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं।

सनातन धर्म में स्त्रियों को शिक्षित होना अनिवार्य है इसी समय गर्भिणी को वेद एवं शास्त्रों का अध्ययन कराया जाता है। जब गर्भिणी शिक्षित, मानसिक बल एवं सकारात्मक विचारों  से युक्त होगी तभी शिशु भी शक्तिशाली व विद्वान होगा क्योंकि शिशु का लगभग 90 % बौद्धिक विकास गर्भ में हो जाता है।

सीमन्तोन्नयन संस्कार का महत्व 
जैसा कि नाम से ही जाहिर होता है कि यह सीमन्तोन्नयन सीमन्त और उन्नयन से मिलकर बना है। सीमन्त बालों को कहा जाता है और उन्नयन का अर्थ होता है ऊपर उठाना। मान्यता है कि जब स्त्री गर्भधारण करती है तो समय के साथ-साथ उसके अंदर बहुत सारे परिवर्तन आते हैं। सीमन्तोन्नयन संस्कार आठवें महीने में किया जाता है। इस समय स्त्री की पीड़ा और उसके स्वभाव में परिवर्तन बहुत बढ़ जाते हैं ऐसे में उसे मानसिक रूप से तैयार करने की जरूरत होती है। इस संस्कार के बहाने पति पत्नी के केश संवारता है ताकि उसे मानसिक शक्ति प्राप्त हो। इस संस्कार की यह मान्यता भी काफी प्रबल है कि इससे गर्भ सुरक्षित रहता है। माना जाता है कि चौथे, छठे या आठवें माह में गर्भपात हो जाये तो गर्भ के जीवित रहने की संभावनाएं नहीं होती बल्कि माता के जीवन को भी कई बार संकट हो जाता है। इसलिये यह संस्कार छठे या आठवें माह में अवश्य करने की सलाह दी जाती है। इस संस्कार का एक महत्व यह भी माना जाता है कि इससे शिशु का भी मानसिक विकास होता है। क्योंकि आठवें माह में वह माता को सुनने व समझने लगता है। इसलिये मां का मानसिक स्वास्थ्य यदि बेहतर होगा तो शिशु का भी बेहतर बना रहता है।

विधि -
इस संस्कार को करते समय शास्त्रवर्णित गूलर वनस्पति द्वारा गार्भिणी पत्नी के सीमंत (मांग) का  पृथक् करणादि क्रियाएं करते हुए पति को निम्नलिखित मंत्रोच्चारण करना चाहिए -

ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि,
येनादितेः सीमानं नयाति प्रजापतिर्महते सौभगाय।
तेनाहमस्यौ सीमानं नयामि प्रजामस्यै जरदष्टिं कृणोमि॥

अर्थात् : जिस प्रकार देवमाता अदिति का सीमंतोन्नयन प्रजापति ने किया था, उसी प्रकार मैं इस गार्भिणी का सीमंतोन्नयन करके इसके पुत्र को जरावस्थापर्यंत दीर्घजीवी करता हूं।

संस्कार के अंत में वृद्धा ब्राह्मणियों, अथवा परिवार या आस-पड़ोस की बुजूर्ग महिला का आशीर्वाद लेना चाहिये। आशीर्वाद के पश्चात गर्भवती महिला को खिचड़ी में अच्छे से घी मिलाकर खिलाये जाने का विधान भी है। इस बारे में एक उल्लेख भी शास्त्रों में मिलता है - परिवार की महिलाओं द्वारा पत्नी को आशीर्वाद दिलवाएं। सीमंतोन्नयन-संस्कार में पर्याप्त घी मिली खिचड़ी खिलाने का विधान है। इसका उल्लेख गोभिल गृहयसूत्र में इस प्रकार किया गया है।

किं पश्यास्सीत्युक्तवा प्रजामिति वाचयेत् तं सा स्वयं।
भुज्जीत वीरसूर्जीवपत्नीति ब्राह्मण्यों मंगलाभिर्वाग्भि पासीरन्॥

अर्थात् : खिचड़ी खिलाते समय स्त्री से सवाल किया गया कि क्या देखती हो तो वह जवाब देते हुए कहती है कि संतान को देखती हूं इसके पश्चात वह खिचड़ी का सेवन करती है। संस्कार में उपस्थित स्त्रियां भी फिर आशीर्वाद देती हैं कि तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हें सुंदर स्वस्थ संतान की प्राप्ति हो व तुम सौभाग्यवती बनी रहो।
इसमें कोई संदेह नहीं की गर्भस्थशिशु बहुत ही संवेदनशील होता है। सती मदालसा के बारे में कहा जाता है की वह अपने बच्चे के गुण, कर्म और स्वभाव की पूर्व घोषणा कर देती थी, फिर उसी प्रकार निरंतर चिंतन, क्रिया-कलाप, रहन-सहन, आहार-विहार और बर्ताव अपनाती थी, जिससे बच्चा उसी मनोभूमि ढल जाता है, जैसा कि वह चाहती थी।

उदाहरण : -
भक्त प्रह्लाद की माता कयाधू को देवर्षि नारद भगवदभक्ति के उपदेश दिया करते थे, जो प्रहलाद ने गर्भ में ही सुने थे।
व्यासपुत्र शुकदेव ने अपनी माँ के गर्भ में सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया था।
अर्जुन ने अपनी गर्भवती पत्नी सुभद्रा को चक्रव्यूहभेदन की जो शिक्षा दी थी, वह सब गर्भस्थशिशु अभिमन्यु सीख ली थी | उसी शिक्षा के आधार पर सोलह वर्ष की आयु में ही अभिमन्यु ने अकेले सात महारथियों से युद्ध कर चक्रव्यूह-भेदन किया
अलग अलग जगह इस संस्कार को अलग अलग नाम से जाना जाता है। 

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