यकीनन आज के स्वघोषित धर्म निरपेक्ष माहौल में संसद पर हमला करने वाले
दरिन्दे अफजल गुरु की बरसी मनाना एक संवैधानिक अधिकार माना जाता हो . लाखों
निर्दोषों के हत्यारे लेनिन , चे ग्वेरा, फिदेल कास्त्रो आदि की मूर्तियाँ
भारत में लगाये रखने के संघर्ष होते हो , आज भी भारत के कई कोनो में
पाकिस्तान के लिए पटाखे फूटते हों , सैनिको पर पत्थर मारे जाते हो ,
दुर्दांत आतंकी बुरहान वाणी के लिए नारे गूंजते हों जिसको न सिर्फ नेताओं
बल्कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग संगीत जैसे आनंद से आराम से सुन कर आनंद लेता
हो लेकिन एक नाम ऐसा भी है जिसको मात्र हिन्दू समाज को कटघरे में खड़ा करने
के लिए ऐसे तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया जैसे अब तक के स्वतंत्र भारत में गलती
सिर्फ और सिर्फ एक व्यक्ति ने की हो और वो है नाथूराम गोडसे .
आज नाथूराम गोडसे को फांसी हुई थी .
आज 15 नवम्बर का दिन है और ये दिन हिन्दू महासभा जैसे कई हिन्दू संगठनों और
सोशल मीडिया के बड़े और नामी एक्टीविस्ट के लिए श्रद्धांजलि दिवस के रूप
में भी मनाया जा रहा है जहाँ हजारों की प्रोफाइल फोटो और उनकी वाल पर लिखे
शब्द नाथूराम गोडसे को समर्थन और श्रद्धांजलि देते दिख रहे हो . यद्दपि
गांधी की हत्या के असल कारणों को कभी समाज के सामने लाने नहीं दिया गया जिस
से तमाम सरकारों की निष्पक्षता पर भी सवाल खड़े होते हैं . और तो और संसद
तक में गोडसे शब्द को असंसदीय घोषित कर दिया था जिसको मोदी सरकार के आने के
बाद हटाया गया .. जबकि अफजल गुरु के बेटे की मार्कशीट ब्रेकिंग न्यूज के
रूप में दिखाई जाती रही .
गिरफ़्तार होने के बाद गोडसे ने गांधी के पुत्र देवदास गांधी (राजमोहन
गांधी के पिता) को तब पहचान लिया था जब वे गोडसे से मिलने थाने पहुँचे थे.
इस मुलाकात का जिक्र नाथूराम के भाई और सह अभियुक्त गोपाल गोडसे ने अपनी
किताब गांधी वध क्यों, में किया है. गोपाल गोडसे को फांसी नहीं हुई, क़ैद
की सजा हुई थी. जब देवदास गांधी पिता की हत्या के बाद संसद मार्ग स्थित
पुलिस थाने पहुंचे थे, तब नाथूराम गोडसे ने उन्हें पहचाना था. गोपल गोडसे
ने अपनी किताब में लिखा है, “देवदास शायद इस उम्मीद में आए होंगे कि उन्हें
कोई वीभत्स चेहरे वाला, गांधी के खून का प्यासा कातिल नज़र आएगा, लेकिन
नाथूराम सहज और सौम्य थे. उनका आत्म विश्वास बना हुआ था. देवदास ने जैसा
सोचा होगा, उससे एकदम उलट.”
19 मई 1910 को पुणे के एक कस्बे बारामती में जन्म हुआ था नाथूराम गोडसे का .
वो बचपन से ही अपने इरादों पर अटल रहने वाले व्यक्ति थे . युवावस्था
अर्थात 28 साल की उम्र में जब उसने ब्रम्हचर्य का व्रत लिया तो आजीवन उसका
पालन किया. गोडसे लोगों की निगाह में पहली बार आजादी के तीन महीनों बाद
आया. 1 नवंबर 1947 को गोडसे के अखबार ‘हिंदू राष्ट्र’ के नए कार्यालय का
उद्घाटन कार्यक्रम रखा गया. इस कार्यक्रम में पुणे (तब का पूना) के तमाम
प्रतिष्ठित लोगों और खासकर हिंदुवादी नेताओं को आमंत्रित किया गया था. उस
शाम गोडसे ने अपने भाषण में बंटवारा का पूरा ठीकरा गांधी के सिर पर फोड़ा.
इतिहासकार डोमिनिक लॉपियर और लैरी कॉलिन्स अपनी किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’
में लिखा है कि हैं, ”गोडसे ने गरजकर कहा, भारत माता के दो टुकड़े कर दिये
गए हैं. गिद्ध मातृभूमि की बोटियां नोच रहे हैं. कितनी देर कोई यह सहन
करेगा?”
सीनियर बीजेपी लीडर और कद्दावर शख्सियत राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी
ने संसद में मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या पर खुली चर्चा कराने की पैरवी
की है। कहना न होगा कि गाहे-बगाहे स्वामी ने क़रीब सात दशक पुराने गांधी
हत्याकांड के मुद्दे को फिर से चर्चा में ला दिया है। दरअसल, गांधी की
हत्या से जुड़े कई पहलू ऐसे हैं, जिन पर आज तक कई वर्षो के बाद कभी चर्चा
तक नहीं हुई। लिहाज़ा, यह सुनहरा मौक़ा है, जब उस घटना के हर पहलू की चर्चा
करके उसे सार्वजनिक किया जाए और देश के लोगों का भ्रम दूर किया जाए कि
आख़िर वास्तविकता क्या है और देश जान सके कि आखिर गाँधी की हत्या क्यों और
किस परिस्थिति में गोडसे ने की ?
इस मामले में सबसे रोचक और संदेहास्पद पहलू ये बताया जाता है कि नाथूराम
गोडसे की गोली गांधी को लगने के बाद गांधी को घायल अवस्था में किसी अस्पताल
नहीं ले जाया गया, बल्कि उन्हें वहीं अप्रशिक्षित लोगो द्वारा ही घटनास्थल
पर ही मृत घोषित कर दिया गया और उनका शव उनके आवास बिरला हाऊस में रखा
गया। जबकि क़ानूनन जब भी किसी व्यक्ति पर गोलीबारी होती है, और उसमें उसे
गोली लगती है, तब सबसे पहले उसे पास के अस्पताल ले जाया जाता है और वहां
मौजूद डॉक्टर ही बॉडी का परिक्षण करने के बाद उसे ‘ऑन एडमिशन’ या ‘आफ्टर
एडमिशन’ मृत घोषित करते हैं।
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