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जंजाल मुंशी प्रेम चंद

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दबाने से इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं, हमें इसमें सन्देह है। सम्भव है कुछ मामलों में ऐसा होता हो, लेकिन प्रायः सहनशीलता बंद हवा की तरह आँधी की पूर्व- पीठिका हुआ करती है।
पार्वती को अपने पति के साथ रहते हुए पाँच साल से ज्यादा हो गए लेकिन उसने उनसे कभी कोई फरमाइश नहीं की। यदि वह कभी दबी जबान से या परोक्ष रूप से किसी गहने या कपड़े की चर्चा करती तो सुरेन्द्रनाथ अत्यन्त बेबसी के साथ कहते, ‘मेरी आमदनी और खर्च का हिसाब तुम्हारे हाथ में है। यदि इसमें कोई गुंजाइश दिखाई दे तो जो चाहे चीजें बनवा लो। इससे अधिक प्रसन्नता की बात मेरे लिये क्या होगी कि तुम्हें गहनों से सजी देखूँ।’ यह उत्तर सुनकर पार्वती सिर झुका लेती और सोचती कि मैं सारी उम्र यूँ ही नंगी-बुच्ची बनी बैठी रहूँगी। कभी सोचती है कि यह खर्च न करूँ, इस मद में कमी करूँ, लेकिन चूल कभी ठीक नहीं बैठती थी।
उसके पास पहले के भी कुछ गहने थे लेकिन वह उन्हें भी नहीं पहनती थी। त्योहार या उत्सव में भी वह प्रायः सादी साड़ी पहनकर ही रह जाती थी। वह अपनी महरी और पड़ौसिनों को दिखाना चाहती थी कि उसे गहनों की भूख नहीं है, लेकिन यह इस समय अपने दुर्भाग्य और पति की निर्धनता की घोषणा थी। उसे रह-रहकर विचार आता कि मेरे लिये सुरेन्द्र जितना कुछ कर सकते हैं उतना नहीं करते। वे मेरी अनापत्ति और सीधेपन का नाजायज फायदा उठाते हैं। निराश होकर वह कभी-कभी सुरेन्द्र से झगड़ना चाहती, झगड़ती, मुँह फेरकर बात करती, उसे सुना-सुनाकर अपने भाग्य को कोसती। सुरेन्द्र समझ जाते कि इस समय हवा का रुख बदला हुआ है, बचकर निकल जाते। कभी-कभी गंगा स्नान या किसी मेले से लौटकर पार्वती पर गहनों का उन्माद-सा छा जाता। वह संकल्प करती कि एक बार मन की निकाल ही लूँ, जो दो-चार सौ रुपये बचे हुए हैं उनकी कोई चीज बनवा लूँ, कल की चिन्ता में कहाँ तक मरूँ। लेकिन एक क्षण में उसका यह उन्माद उड़नछू हो जाता, यहाँ तक कि लगातार सहन करने के कारण उसकी सजने के शौक की इच्छाएँ मरकर मन के एक कोने में पड़ी रहती थीं।
मगर आज पाँच साल के बाद यह इच्छा जाग्रत हुई है। इसमें बेचैनी नहीं है लेकिन बेचैनी से भी ज्यादा दुःखदायी उदासी है। पार्वती के छोटे भाई की शादी होने वाली है, उसके मायके से बुलावा आया है। इस समारोह में भाग लेना जरूरी है। गहनों का पहनना आवश्यक हो गया। इस अवसर पर सुरेन्द्र भी अपनी विवशता का बहाना न कर सके। इस समय यह उपाय भी सफल होता दिखाई नहीं दिया।
शाम के समय सुरेन्द्र बाहर से लपके हुए आए। उनका चेहरा चमक रहा था। उन्होंने पार्वती के हाथ में एक पोटली रख दी। पार्वती ने खोलकर देखा तो पोटली में एक जड़ाऊ कंगन, एक चन्द्रहार और झुमके दिखाई दिए। पार्वती कुछ सहम-सी गई। उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि सुरेन्द्र उसके लिये इतनी और ऐसी कीमती चीजें लाएँगे। खुशी के बदले एक व्याकुलता, एक भय का अनुभव हुआ। वह डरते-डरते बोली, ‘ये कितने के हैं?’
सुरेन्द्र, ‘पसन्द तो हैं न?’
पार्वती, ‘पहले दाम तो बताओ।’
सुरेन्द्र, ‘चार सौ।’
पार्वती, ‘सच?’
सुरेन्द्र, ‘मेरे पास और रुपये कहाँ थे?’
पार्वती, ‘उधार तो नहीं लेने पड़े?’
सुरेन्द्र, ‘नहीं, उधार क्या लेना।’
पार्वती, ‘तब पसन्द हैं।’
सुरेन्द्र ने वास्तविकता छिपानी चाही थी लेकिन अपनी विशाल-हृदयता का बखान किए बिना न रह सके। सोचा कि इन्हें क्या पता चलेगा कि इनके लिए इस समय कितने बोझ के नीचे दबा जा रहा हूँ। बोले, ‘सच-सच कह दूँ! बारह सौ लगे।’
पार्वती ने पति को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हुए कहा, ‘तो इतनी चीजें लाने की क्या जरूरत थी?’
दानवीर जैसी लापरवाही के साथ सुरेन्द्र बोले, ‘एक मुद्दत के बाद जब जेवर बनवाने लगा तो कंजूसी करने बैठता। शर्म भी तो कोई चीज है।’ पार्वती ने पति की ओर कृतज्ञता की दृष्टि से देखा। उसमें कुछ प्यार की झलक थी कुछ शिकायत की, कुछ गर्व की कुछ परेशानी की। उसने और अधिक प्रश्न न किए कि कहीं कोई ऐसी बात कानों में न पड़ जाय जिससे इन गहनों को वापस कर देना ही जरूरी हो जाय। जिस व्यक्ति के हलक में प्यास से काँटे पड़े हुए हों वह यह नहीं पूछता कि बर्तन कैसा है और पानी किसने भरा है।

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एक हफ्ते तक पार्वती एक दूसरी ही दुनिया में रही। उसके अन्दाज में एक शान, बातों में अभिमान और चेहरे से अमीरी झलकती थी। कितने ही ऐसे काम जिन्हें वह पहले निस्संकोच कर लिया करती थी, अब उसे दूभर लगने लगे। यहाँ तक कि अपनी नन्हीं बच्ची तारा को गोद में लेते हुए भी उसे अपने कपड़े मैले होने की आशंका होने लगती, लेकिन वह स्वयं अपने व्यवहार में आए इस परिवर्तन से अनजान थी।
सातवें दिन उसका भाई आया और पार्वती मायके चली। उसने सुरेन्द्र से हर तीसरे दिन पत्र भेजने का आश्वासन लिया। उनके सामने खड़ी घंटों रोती रही, ऐसा मालूम होता था कि बिछुड़ने के दुःख से उसका कलेजा फटा जा रहा है। लेकिन घर से निकलते ही दिखावे की इच्छा उसके मन पर छा गई। वह गाड़ी के एक जनाने डिब्बे में आकर बैठी, जिसमें अधिकांश महिलाएँ निम्न वर्ग की थीं। उन्होंने पार्वती को आतंकित दृष्टि से देखा और इधर-उधर सिमट गईं। पार्वती खिड़की के सामने जाकर ऐसे बैठी मानो इतनी आवभगत उसका जन्मसिद्ध अधिकार हो। उसे गाड़ी में भले खानदान की केवल एक ही महिला दिखाई दी। उसका चेहरा गम्भीर था। वह एक साफ साड़ी पहने हुए थी, पैरों में सलीपर थे, हाथों में चूड़ियाँ, लेकिन शरीर पर गहने के नाम पर एक तार तक न था। वह निम्न वर्ग की कई महिलाओं के बीच हाथ-पाँव सिकोड़े बैठी थी। मन ही मन पार्वती ने कहा - निस्सन्देह सुन्दर महिला है, लेकिन सम्मान कहाँ। कोई बात भी तो नहीं पूछता, एक कोने में दबी बैठी है। शरीर पर चार गहने होते तो यही सब ओछी महिलाएँ इसका सम्मान करतीं।
नीचे फर्श पर पार्वती के निकट ही एक गरीब महिला बैठी हुई थी। उसकी गोद में एक बच्चा था, जो रह-रहकर इतने जोर से खाँसता और चीख मारता कि पार्वती मन ही मन झुँझलाकर रह जाती। जब उससे रहा न गया तो उसने उस महिला से कहा, ‘तुम दूसरी पटरी पर जा बैठो। इस लड़के के खाँसने से मुझे नींद नहीं आ रही है।’ गरीब महिला ने पार्वती की ओर आश्चर्य से देखा और धीरे से सरक गई।
रात आधी से अधिक बीत गई थी। खिड़कियों से ठंडी हवा आ रही थी। गरीब महिला ने खिड़कियाँ बंद करनी चाहीं तो पार्वती ने आदेशात्मक स्वर में कहा, ‘नहीं, रहने दो। मुझे गर्मी लग रही है।’ धीरे-धीरे बच्चे की खाँसी बढ़ने लगी। कुछ देर तक तो वह चिल्लाता रहा, फिर उसका गला पड़ गया। उसने दूध पीना छोड़ दिया। सामने बैठी सीधी-सादी महिला कुछ देर तक तो बच्चे को देखती रही, फिर उसने उस गरीब महिला के पास आकर बच्चे को गोद में ले लिया। बच्चे की हालत खराब थी, सीने पर बलगम जमा हुआ था, लगता था कि निमोनिया की शुरुआत है। उसने फौरन अपना बक्स खोलकर उसमें से एक दवा निकाली और हवा से बचाकर बच्चे के सीने पर हल्के हाथ से मलने लगी। फिर दूसरी शीशी से एक चम्मच दवा निकालकर बच्चे को पिलाई। गाड़ी की सब महिलाएँ आकर बच्चे के निकट खड़ी हो गईं। निरन्तर एक घंटा तेल मालिश करने के बाद उस भली महिला ने अपने बक्से से एक फलालैन का टुकड़ा निकालकर बच्चे के सीने पर बाँध दिया। बच्चा सो गया।
वह रात के तीन बजे तक बच्चे को गोद में लिए एक-एक घंटे पर दवा पिलाती रही। बच्चे ने दूध पीना शुरू किया, उसके गले की घरघराहट रुक गई और वह मौत के फंदे से निकल आया। बच्चे की माँ अपनी उपकारिणी के पाँवों पर गिर पड़ी और रो-रोकर उसे धन्यवाद देने लगी।
इलाहाबाद में पार्वती और वह सीधी-सादी महिला, दोनों उतरीं। पार्वती का भाई आकर कुलियों को पुकारने लगा। जब कोई कुली न आया तो पार्वती को ही अपने सन्दूक, बिस्तर आदि उतार-उतारकर भाई को देने पड़े। उसकी रेशमी जाकट चिरक गई। उधर उस गम्भीर सीधी-सादी महिला ने जैसे ही अपना बिस्तर उठाया तो लपककर एक महिला ने उसके हाथों से बिस्तर ले लिया, दूसरी ने उसका सन्दूक उतार लिया, तीसरी ने उसका दवाओं का बक्स उठाया और कई महिलाएँ उसे धर्मशाला तक पहुँचाने आईं। बीमार बच्चे की माँ बार-बार उसके आगे हाथ जोड़ती और पैरों पर गिरती। दूसरी महिलाएँ भी उससे गले मिलीं। ऐसा लगता था मानो वे अपने किसी आत्मीय से बिछुड़ रही हों। लेकिन किसी ने पार्वती की बात भी न पूछी। उसके जाने से सब महिलाओं को सच्ची खुशी हुई, मानो सिर से एक बला ही टल गई। अब उन्हें जरा कमर सीधी करने की जगह तो मिलेगी। बीमार बच्चे की माँ ने तो उसे घृणा की दृष्टि से देखा और मन ही मन उसे जी भरकर कोसा।
पार्वती ने मन में कहा - इस सीधी-सादी औरत ने तो अच्छा ही रंग जमा लिया। सभी महिलाएँ अनुचरी बन गईं, मानो कोई मन्त्र ही फूँक दिया हो। गँवारों के बीच तो ऐसा हो सकता है, परन्तु किसी भले घर में इसे कौन घास डालेगा।

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पार्वती का मायका शहर से सटी एक ऐसी बस्ती में था जिसे न शहर कह सकते थे, न देहात। वहाँ शहर की तो एक भी सुविधा न थी मगर देहात के सभी कष्ट मौजूद थे। न शहर की सड़कें, लालटेनें, नालियाँ थीं न देहात का विस्तार, हरियाली और हवा। वहाँ का दूध शहर वाले पीते थे, सब्जी शहर वाले खाते थे, लकड़ी शहर वाले जलाते थे। वहाँ के मजदूर काम करने शहर में जाते थे। खाने-पीने की चीजें वहाँ शहर से आकर ही बिकती थीं। पार्वती के पिता के पास कुछ जमीन थी लेकिन वे मजदूरों की कमी के कारण खेती न कर सकते थे। उसके दोनों भाई अंग्रेजी पढ़ते और वकालत का सपना देखते थे। भोले-भाले से चालाक बनने की धुन सवार थी।
बेटी का ठाट-बाट देखकर पार्वती की माँ फूली न समाई। उसकी दुनिया उन्हीं इने-गिने मकानों और उनके निवासियों तक सीमित थी। वहाँ के गहने-कपड़े, शादी- ब्याह, झगड़े-टंटे उसके अस्तित्व की धुरी थे। वह उनमें ही बसती थी और उन्हीं का सपना देखती थी। मुहल्ले में किसी के घर बच्चा पैदा होना उसके लिये पनामा नहर के उद्घाटन से भी बड़ी घटना थी, और किसी घर में एक नये कंठे का बनना देहली के निर्माण से कहीं अधिक शानदार। पार्वती को देखकर बाग-बाग हो गई। उसे साथ लेकर पड़ौसिनों के घर गई। जो भी उसके कंगन और चन्द्रहार को देखता, लोटपोट हो जाता। माँ सामने वाले की सामर्थ्य के अनुसार उन गहनों का मूल्य बढ़ाती रहती थी। दो-तीन दिन पूरे मुहल्ले में उन गहनों की नुमाईश हुई। पार्वती का सिक्का जम गया, उसका रौब बैठ गया।
पार्वती की चाल-ढाल से एक शान टपकती थी। वह खाना खाने बैठती तो नाक सिकोड़ लेती, घी बेस्वाद है; पानी पीती तो मुँह बनाकर, ठंडा नहीं है। माँ सबको सुना-सुनाकर कहती, ‘भला इनसे पूछो, घर का सा सुख यहाँ कहाँ मिलेगा। वहाँ अपने मन का खाती थी, अपने मन का पहनती थी। यहाँ गृहस्थी में तो मोटा-महीन सब मिलेगा। मगर बेचारी में जरा भी ऐंठ नहीं है, वही पुराना स्वभाव है, वही अल्हड़पन।’
पार्वती की बिटिया तारा पूरे मुहल्ले की गुड़िया बनी हुई थी। सभी छोटे-बड़े उसे गोद में उठाते और प्यार से चूमते। कोई कहता, बेटी यह हँसली हमको दे दो, तो तारा तोतली बोली में कहती, ‘हमाली है।’ कोई पूछता, बेटी ये कड़े किसने बनवाए हैं, तारा कहती, ‘मेले बाबूदी ने।’
शादी का दिन निकट आ गया। रस्म-रिवाज होने लगे। मुहल्ले की औरतें बन- सँवरकर आने लगीं, लेकिन पार्वती उन सबकी रानी लगती थी। सभी औरतों की दृष्टि उसके कंगन, चन्द्रहार और झुमकों पर ही टिकी रहती। सब उससे दबती, उसका लिहाज करती, उसकी हाँ में हाँ मिलाती। पार्वती को यह सम्मान केवल अपने गहनों के बल पर ही मिल रहा था। बरात चलने के दिन न्यौते में सुरेन्द्रनाथ भी आए। जब वे शाम के समय घर में गए तो मुस्कराकर पार्वती ने कहा, ‘आज जी चाहता है कि तुम्हारी पान-फूल से पूजा करूँ।’
मुस्कराकर सुरेन्द्र ने कहा, ‘बना रही हो।’
पार्वती, ‘नहीं, सच कहती हूँ। इस समय मन यही चाहता है। तुम्हारे इन गहनों ने मेरा बोलबाला कर दिया। सारे मुहल्ले में धाक जम गई, सबकी सब पानी भरती हैं। ये न होते तो झूठे भी कोई बात न पूछता। अपनी जमा अपने घर में है, लेकिन नेकनामी मुफ्त। ऐसा सौदा और क्या होगा!’
सुरेन्द्र, ‘मैं जानता तो दो-एक चीजें और ले लेता।’
पार्वती, ‘ओह! तब तो सारे मुहल्ले में मैं ही मैं होती। औरत की इज्जत गहने-कपड़े से होती है, नहीं तो अपने माँ-बाप भी आँख से गिरा देते हैं।’
सुरेन्द्र पछताए कि और गहने क्यों न खरीद लिए। भले ही दो-चार सौ और उधार हो जाते, इसकी लालसा तो मिटती।

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पार्वती को मायके में रहते दो महीने हो गए। सुरेन्द्र को दफ्तर से छुट्टी न मिली कि आकर ले जाते। शादी का सब काम पूरा हुआ, मेहमान बिदा हो गए, सन्नाटा छा गया। धीरे-धीरे पड़ौसिनों का आना-जाना भी बन्द हुआ। पार्वती के गहनों के चार दिन के साम्राज्य का अन्त हो गया। वही गहने थे वही कपड़े, मगर अब उन्हें देखने में क्या आनन्द आता। अब पूरे-पूरे दिन पार्वती अकेली बैठी रहती। कभी कोई औरत मिलने आ भी जाती तो बस दो-चार बातें करके ही अपनी राह लेती। किसी को भी अपने घर के कामकाज से फुर्सत न थी। यह अकेलापन पार्वती को बहुत अखरता। मायके से उसका मन उचाट हो गया। उसे पता चल गया कि नित्य नये गहने बनते रहने से ही उसकी बात बनी रह सकती है, पुराने तमाशे को कोई मुफ्त में भी नहीं देखता। कोढ़ में खाज यह हुई कि और भी कई घरों में उसके जैसे गहने बनने लगे। यहाँ तक कि एक मनचले शौकीन बनिये ने, जिसे नमक के काम में बड़ा भारी लाभ हुआ था, कलकत्ते के बने हुए कंगन और हार मँगवाए, जिन्होंने पार्वती का रंग फीका कर दिया। रही-सही बात भी जाती रही। रेत की दीवार भरभराकर ढह गिरी।
एक दिन पार्वती अकेली बैठी सुरेन्द्र को पत्र लिख रही थी कि अब यहाँ जरा सा भी मन नहीं लगता। दो दिन की छुट्टी मिले तो मुझे ले जाओ। इतने में उसकी बचपन की सहेली बागेश्वरी उससे मिलने आई। वह पार्वती के साथ खेली हुई थी। उसका ब्याह एक गरीब खानदान में हुआ था लेकिन उसके पति ने रंगून जाकर खूब पैसा कमाया और चार-पाँच साल के बाद लौटा तो पत्नी के लिए एक मोतियों का हार लेता आया। बागेश्वरी आज ही मायके आई थी। पार्वती ने उसका मोतियों का हार देखा तो आँखें खुल गईं, दो हजार से कम का नहीं होगा। पार्वती ने उसकी प्रशंसा तो की लेकिन उसका दिल बैठा जाता था; जैसे कोई ईर्ष्यालु कवि अपने नौसिखिये प्रतिद्वंद्वी की कला की प्रशंसा करने में कंजूसी करे।
यह रोग पार्वती की आत्मा में घुन की तरह लग गया। उसने दूसरों के घर आना-जाना छोड़ दिया, मन मारे अपने घर में ही बैठी रहती। उसे ऐसा लगता था कि अब औरतें, यहाँ तक कि उसकी माँ भी उसे तिरस्कार की दृष्टि से देख रही हैं। पहले गहनों की चर्चा में उसे एक विशेष आनन्द मिलता था, अब वह भूलकर भी गहनों की चर्चा नहीं करती। मानो अब उसे इस सम्बन्ध में मुँह खोलने का भी मन न हो।
आखिरकार एक दिन उसने अपने सब गहने उतारकर बक्से में रख दिए और ठान लिया कि इन्हें खोलूँगी नहीं। उसे इन गहनों के खरीदने पर पछतावा होने लगा। दिखावे की चाह में जिन्दगी के सुख-चैन में बेकार खलल पड़ गया। वह बिना गहनों के ही अच्छी थी कि यह मुफ्त की उलझन तो नहीं थी। घर के रुपये गँवाकर यह सिरदर्द खरीदना बड़ा महँगा सौदा है। तीज के दिन पार्वती की माँ ने कहा, ‘बेटी, आज मुहल्ले की सब औरतें स्नान करने जा रही हैं। तुम भी चलोगी?’
पार्वती ने उपेक्षा से कहा, ‘नहीं, मैं नहीं जाऊँगी।’
माँ, ‘चलती क्यों नहीं। बरस-बरस का त्योहार है, सब अपने मन में क्या कहेंगी?’
पार्वती, ‘जो चाहे कहें, मैं तो जाऊँगी नहीं।’

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क्वार के दिन थे। सुरेन्द्र को अभी तक छुट्टी नहीं मिली थी। पार्वती ने जल-भुनकर उन्हें कई चिट्ठियाँ लिखी थीं, पर इधर दो हफ्ते से पत्र लिखना बंद कर दिया था। उसे अपनी जिन्दगी बोझ लगती थी। मुहल्ले में बुखार और चेचक का प्रकोप था, कोई किसी के घर आता-जाता न था। नाश्ते के बदले घरों में काढ़ा पकता था। अस्पताल में मेला सा लगा रहता था। वैद्य और हकीम पत्थर के देवता बने हुए थे। एक दिन पार्वती की माँ ने कहा, ‘बेटी, आज शीतला देवी आ रही हैं। चलो, उनसे मिल आएँ।’
पार्वती, ‘शीतला देवी कौन हैं?’
माँ, ‘यह तो नहीं जानती, मगर कभी-कभी यहाँ आया करती हैं। औरत क्या है देवी ही है।’
पार्वती, ‘क्या करती हैं?’
माँ, ‘यहाँ तो जब आती हैं, बीमारों की दवा-दारू करती हैं और किसी से एक पैसा भी नहीं लेतीं।’
पार्वती, ‘तो घर की मालदार होंगी?’
माँ, ‘नहीं, सुनती हूँ कि सिलाई करके गुजर-बसर करती हैं। ब्याह के बाद ही पति हैजे से मर गया, उसका मुँह तक नहीं देखा। तब से इसी भाँति काम कर रही हैं।’
पार्वती, ‘तो क्या अभी उम्र अधिक नहीं है?’
माँ, ‘नहीं, अभी उम्र ही क्या है। नारायण ने जैसी शक्ल-सूरत दी है, वैसा ही स्वभाव है। किसी महल में होती तो महल जगमगा उठता। ऐसी हँसमुख, ऐसी मिलनसार कि पास से हटने का मन नहीं होता। जब तक यहाँ रहती हैं, भीड़ लगी रहती है। पूरा मुहल्ला घेरे रहता है।’
इतने में महरी ने आकर कहा, ‘बहूजी, शीतला देवी आई हैं और पाठशाला में बैठी हुई लड़कियों से कुछ पूछ रही हैं। कई लड़कियों को तो इनाम भी दिए हैं। मैं भी जाती हूँ, जरा दर्शन कर आऊँ।’
माँ ने कहा, ‘अरी तू पानी तो भर दे, न जाने कब तक लौटेगी।’
महरी, ‘अभी लौटी आती हूँ। कहीं ऐसा न हो कि चली जाएँ।’
महरी के जाने के एक घंटे बाद पार्वती की वही मोतियों के हार वाली सहेली आकर बोली, ‘चलो बहन, शीतला देवी से मिल आएँ। मुहल्ले की सभी औरतें जा रही हैं।’
पार्वती को भी उत्कंठा हुई। तारा को एक अच्छी सी फ्रॉक पहना दी परन्तु स्वयं वही सादी सी साड़ी पहने हुए शीतला से मिलने चली। गहने नहीं पहने।
जब दोनों सहेलियाँ पाठशाला में पहुँची तो औरतों और बच्चों की भीड़ जमा थी। शीतला देवी जमीन पर बैठी हुई बच्चों को देख रही थी और बक्स से निकाल- निकालकर दवा देती जाती थी। मानो पेड़ों की छाँव में एक उजला कुंड था - वैसा ही मौन, गम्भीर, शान्तिमय और सुन्दर! शीतला की आँखों से एक चित्ताकर्षक पवित्रता झलक रही थी। पार्वती ने उसे पहचान लिया। यह वही सीधी-सादी महिला थी जिसे उसने गाड़ी में देखा था। पार्वती ने देखा कि इस औरत के सामने मैं कैसी निकृष्ट हूँ। और कुछ मैं ही नहीं, मुहल्ले की वे सभी औरतें जो गहनों से गोंड़नी की भाँति सजी हुई हैं इस औरत के सामने सेविकाओं की भाँति खड़ी हैं। यदि ये सभी अपने को सोने से मँढ़वा लें तो भी क्या! क्या इनका ऐसा सम्मान हो सकता है? इससे बात करके कौन निहाल नहीं हो जाता। और जो बीमार हैं वे तो मानो बिना दाम के ही गुलाम हैं। सचमुच इसी का नाम सम्मान है। यह क्या कि चार औरतें आवें और आँखें मटका-मटकाकर हमारे गहनों का बखान करने लगें, मानो हमारा शरीर नहीं बल्कि गहनों की नुमाईश का मैदान ही हो।
आज से एक महीना पहले शायद इस प्रकार के विचार पार्वती के मन में न उभरते। लेकिन आजकल गहनों से उसका मन फिरा हुआ था। सामान्य रूप से दार्शनिक विचारों के मूल में निराशा और उदासी ही होती है। पार्वती चित्रलिखित सी खड़ी शीतला देवी का तौर तरीका, बात करने का ढंग और आत्मीयतापूर्ण व्यवहार ध्यान से देखती रही। वह सोचती थी, ‘यह औरत कितनी सुन्दर है लेकिन इसके साथ ही इच्छाओं से कितनी मुक्त। मैं सम्मान की भूखी हूँ लेकिन मैं जिसे सम्मान समझती थी, वह यथार्थ से कितना दूर है। मैं अभी तक छाया के पीछे ही भाग रही थी, आज उसका वास्तविक रूप दिखाई दिया है।’
जब शाम ढल गई और भीड़ छँटी तो शीतला देवी की दृष्टि पार्वती पर पड़ी। वह उसे तत्काल पहचानकर बोली, ‘बहन, तुम्हें तो मैंने रेलगाड़ी में देखा था।’
पार्वती ने कहा, ‘हाँ, उस दिन मैं यहाँ आ रही थी।’
शीतला देवी ने पार्वती को सर से पाँव तक देखा और फिर उसकी सहेली बागेश्वरी की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। मुस्कराकर बागेश्वरी ने कहा, ‘कुछ दिनों से गहने नहीं पहनती।’
शीतला, ‘क्या गहनों से नाराज हैं?’
बागेश्वरी, ‘इनका मन ही जाने।’
पार्वती, ‘आप भी तो नहीं पहनती।’
शीतला, ‘मुझे मयस्सर ही कहाँ। मैं तो भिखारिन हूँ, बहनों की सेवा करती हूँ और पुण्य के मार्ग में वे जो कुछ दे देती हैं, उसी से अपना पेट पालती हूँ।’
पार्वती, ‘मुझे भी अपने जैसी भिखारिन बना दीजिए।’
शीतला देवी हँसकर उठ खड़ी हुई और बोली, ‘भीख माँगने से भीख देना बहुत अच्छा है।’
रात में जब पार्वती लेटी तो शीतला देवी का दमकता चेहरा उसकी आँखों में नाच रहा था जो उसके मन को खींचे लेता था। उसने सोचा, क्या मैं भी शीतला देवी बन सकती हूँ? तत्काल सुरेन्द्र उसके सामने आकर खड़े हो गए, तारा रो-रोकर उसकी गोद में आने के लिए मचलने लगी। जीवन की इच्छाओं की एक बाढ़ ही उठ खड़ी होकर टक्कर मारने लगी। नहीं, शीतला देवी बनना मेरे वश में नहीं है, लेकिन मैं एक बात कर सकती हूँ और वह अवश्य करूँगी।

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एक सप्ताह में पार्वती अपनी ससुराल आ पहुँची। सुरेन्द्र ने उसका मुरझाया मुँह देखा तो आश्चर्य से बोले, ‘गहनों से रूठ गईं क्या?’
पार्वती, ‘पुराने हो गए, नये बनवा दो।’
सुरेन्द्र, ‘अभी तो इन्हीं का हिसाब चुकता नहीं हुआ।’
पार्वती, ‘मैं एक उपाय बताती हूँ। इन गहनों को वापस कर दो। वापस तो हो जाएँगे?’
सुरेन्द्र, ‘हाँ, बहुत आसानी से। इन दो महीनों में सोने का भाव बहुत चढ़ गया है।’
पार्वती, ‘तो कल वापस कर आना।’
सुरेन्द्र, ‘पहनोगी क्या?’
पार्वती, ‘दूसरे गहने बनवाऊँगी।’
सुरेन्द्र, ‘और रुपए कहाँ हैं?’
पार्वती, ‘उन गहनों में रुपये नहीं लगेंगे।’
सुरेन्द्र, ‘मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा।’
पार्वती, ‘ये गहने जी के जंजाल हैं। इनसे मन भर गया। इन्हें बेचकर किसी बैंक में जमा कर दो। हर महीने मुझे उसका ब्याज दे दिया करना।’
सुरेन्द्र ने बात हँसी में उड़ानी चाही लेकिन पार्वती के हावभाव से ऐसा दृढ़ संकल्प प्रकट होता था कि वे उस विषय में गम्भीरता से विचार करने पर विवश हो गए।
दूसरे महीने में शीतला देवी के नाम बारह रुपये का एक गुमनाम मनीऑर्डर पहुँचा। कूपन में लिखा हुआ था, यह तुच्छ धनराशि स्वीकार कीजिए। ईश्वर की इच्छा हुई तो यह धनराशि स्थायी रूप से प्रतिमाह मिलती रहेगी। आप इसे जिस भाँति चाहें खर्च करें। अब से दुआएँ ही मेरा आभूषण होंगी। ये धातु के टुकड़े तो जी के जंजाल हैं, इनसे मेरा मन भर गया है।
(जंजाल’ उर्दू से, तहजीबे निस्वाँ, उर्दू मासिक, अगस्त 1918 में प्रकाशित)

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