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02 सितम्बर 1933 अमर बलिदानी अनाथ बंधु एवं मृगेन्द्र दत्त ने क्रूर अग्रेज अधिकारी बीईजे बर्ग को खेल के मैदान में मारी

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नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है। 

अंग्रेजों के जाने के बाद भारत की स्वतन्त्रता का श्रेय भले ही कुछ नेता स्वयं लेते हों, पर वस्तुतः इसका श्रेय उन क्रान्तिकारी युवकों को है, जो अपनी जान हथेली पर लेकर घूमते थे। बंगाल ऐसे युवाओं का गढ़ था ऐसे ही दो मित्र थे अनाथ बन्धु तथा मृगेन्द्र कुमार दत्त, जिनके बलिदान से शासकों को अपना निर्णय बदलने को विवश होना पड़ा।

उन दिनों बंगाल के मिदनापुर जिले में क्रान्तिकारी गतिविधियां जोरों पर थीं। इससे परेशान होकर अंग्रेजों ने वहां जेम्स पेड्डी को जिलाधिकारी बनाकर भेजा। वह बहुत क्रूर अधिकारी था छोटी सी बात पर 10-12 साल की सजा दे देता था।  क्रान्तिकारियों ने शासन को चेतावनी दी कि वे इसके बदले किसी भारतीय को यहां भेजें, पर शासन तो बहरा था सो बात नहीं सुनी गई।  अतः एक दिन जेम्स पेड्डी को गोली से उड़ा दिया गया। अंग्रेज इससे बौखला गये अब उन्होंने पेड्डी से भी अधिक कठोर राबर्ट डगलस को भेजा। एक दिन जब वह अपने कार्यालय में बैठा फाइलें देख रहा था, तो अचानक दो युवक उसके सामने आये और उसे गोली मार दी डगलस वहीं ढेर हो गया।  दोनों में से एक युवक तो भाग गया, पर दूसरा प्रद्योत कुमार पकड़ा गया शासन ने उसे फांसी की सजा दी।

दो जिलाधिकारियों की हत्या के बाद भी अंग्रेजों की आंख नहीं खुली। अबकी बार उन्होंने बीईजे बर्ग को भेजा बर्ग सदा दो अंगरक्षकों के साथ चलता था। इधर क्रान्तिवीरों ने भी ठान लिया था कि इस जिले में किसी अंग्रेज जिलाधिकारी को नहीं रहने देंगे। बर्ग फुटबाल का शौकीन था और टाउन क्लब की ओर से खेलता था 02 सितम्बर, 1933 को टाउन क्लब और मौहम्मदन स्पोर्टिंग के बीच मुकाबला था।  खेल शुरू होने से कुछ देर पहले बर्ग आया और अभ्यास में शामिल हो गया।  अभी बर्ग ने शरीर गरम करने के लिए फुटबाल में दो-चार किक ही मारी थी कि उसके सामने दो खिलाड़ी, अनाथ बन्धु प॰जा और मृगेन्द्र कुमार दत्त आकर खड़े हो गये।  दोनों ने जेब में से पिस्तौल निकालकर बर्ग पर खाली कर दी वह हाय कहकर धरती पर गिर पड़ा और वहीं मर गया। 

यह देखकर बर्ग के अंगरक्षक दोनों पर गोलियाँ बरसाने लगे। इनकी पिस्तौल तो खाली हो चुकी थी, अतः जान बचाने के लिए दोनों दौड़ने लगे, पर अंगरक्षकों के पास अच्छे शस्त्र थे  दोनों मित्र गोली खाकर गिर पड़े। अनाथ बन्धु ने तो वहीं प्राण त्याग दिये मृगेन्द्र को पकड़ कर अस्पताल ले जाया गया। अत्यधिक खून बह जाने के कारण अगले दिन वह भी चल बसे।  घटना के बाद पुलिस ने मैदान को घेर लिया हर खिलाड़ी की तलाशी ली गयी। निर्मल जीवन घोष, ब्रजकिशोर चक्रवर्ती और रामकृष्ण राय के पास भी भरी हुई पिस्तौलें मिलीं। ये तीनों भी क्रान्तिकारी दल के सदस्य थे। यदि किसी कारण से अनाथ बन्धु और मृगेन्द्र को सफलता न मिलती, तो इन्हें बर्ग का वध करना था। पुलिस ने इन तीनों को पकड़ लिया और मुकदमा चलाकर मिदनापुर के केन्द्रीय कारागार में फांसी पर चढ़ा दिया।

तीन जिलाधिकारियों की हत्या के बाद अंग्रेजों ने निर्णय किया कि अब कोई भारतीय अधिकारी ही मिदनापुर भेजा जाये।  अंग्रेज अधिकारियों के मन में भी भय समा गया था कोई वहां जाने को तैयार नहीं हो रहा था।  इस प्रकार क्रान्तिकारी युवकों ने अपने बलिदान से अंग्रेज शासन को झुका दिया।  

विशेष यह भी जाने 
अभी थोड़े समय  पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी  जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान !  किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा  या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है।  अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।    

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