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प्रोटॉन की खोज किसने और कब किया ?

 
proton

19वीं सदी की शुरुआत तक वैज्ञानिक परमाणु की संरचना को स्पष्ट रूप से समझ नहीं पाए थे। वैज्ञानिक ये तो जान गए थे कि परमाणु के अंदर एक ऋणावेशित कण भी होता है जिसे इलेक्ट्रॉन कहा जाता है। लेकिन फिर परमाणु वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में यह विचार आया कि इलेक्ट्रॉन के ऋणात्मक आवेश के मौजूद होते हुए भी परमाणु उदासीन कैसे है? जरूर परमाणु के अंदर इस आवेश को संतुलित करने के लिए कोई न कोई धनावेशित कण मौजूद होगा। आगे चलकर इसी धनात्मक आवेश (Positive Charged) वाले कण की खोज कि गई जिसे आज हम ‘प्रोटॉन’ के नाम से जानते है। लेकिन Proton ki khoj kisne ki ?  तो इसका उत्तर है – इस कण की खोज 1920 में न्यूजीलैंड के भौतिकशास्त्री अर्नेस्ट रदरफोर्ड (Ernest Rutherford) ने कि थी।


रदरफोर्ड ने न केवल प्रोटॉन की खोज कि बल्कि वे प्रथम भौतिकशास्त्री थे जिन्होंने अपने प्रयोगों से यह प्रमाणित करके दिखाया था कि हर परमाणु के अंदर एक अति सूक्ष्म भाग होता है,  जिसे उस परमाणु का केन्द्रक व नाभिक कहा जाता है। इसलिए परमाणु के नाभिक (Nucleus) के खोज का श्रेय भी रदरफोर्ड को ही दिया जाता है। रदरफोर्ड की इन खोजों ने परमाणु भौतिकी की रूपरेखा ही बदल दी। इसलिए उन्हें आज नाभिकीय युग का पितामह (Father of the Nuclear Physics) भी कहा जाता है।

वैज्ञानिक रदरफोर्ड एवं प्रोटॉन की खोज

लार्ड रदरफोर्ड का जन्म न्यूजीलैंड के ब्राइटवाटर नगर के दक्षिण में स्थित स्प्रिंग ग्रोव नामक ग्रामीण इलाके में 30 अगस्त, 1871 में हुआ था। माता-पिता का नाम जेम्स रदरफोर्ड एवं मार्था थॉम्पसन था। पिता एक किसान थे तथा माता एक शिक्षिका। ये अपने मां-बाप के चौथे पुत्र थे। बचपन से ही वे बहुत प्रतिभाशाली व होनहार थे। इनकी गणित, भौतिकी और रसायन शास्त्र में गहरी रूचि थी। वे दिन-रात पढ़ने-लिखने में मग्न रहते थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा न्यूजीलैंड के ही हैवलॉक स्कूल और कैंटरबरी काॅलेज में हुई। 17 वर्ष की उम्र में रदरफोर्ड को विश्वविद्यालय की जूनियर स्कॉलरशिप मिली और वह क्राइस्ट चर्च (Christchurch) नामक एक बड़े शहर में चले गये। चार साल में वहां से उन्होंने बी. ए. पास किया।

19वीं सदी का अंतिम दशक शुरू हो चुका था। मानवता के इतिहास में इसे महान आविष्कारों के दशक के रूप में माना जाता है। उन्हीं दिनों जर्मनी के भौतिक वैज्ञानिक हाइनरिख़ हर्ट्ज (Heinrich Hertz) विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के सिद्धांत के विकास पर कार्य कर रहे थे।  तभी रदरफोर्ड का ध्यान भी इन चुम्बकीय तरंगों (Electromagnetic Waves) के अध्ययन पर गया और कुछ ही महीनों में इन्होंने अपने विश्वविद्यालय के ठंडे तहखाने में इन तरंगों को पैदा करने वाला एक यंत्र बना डाला।

इस अनुसंधान पर उन्होंने कई शोध पत्र प्रकाशित करवाएं। फलस्वरूप, परमाण्विक भौतिकी के क्षेत्र में किये गए इस कार्य ने विश्व के अनेक भौतिकशास्त्रीयों का ध्यान उनकी ओर खीचा। उसी वर्ष उन्हें रोयल कमिशन फॉर एक्सिबिशन द्वारा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय, इंग्लैंड की शोध छात्रवृत्ति प्रदान की गई। जिसके बाद वे सन् 1895 में वे कैवेंडिश प्रयोगशाला चले गए, जहां उन्हें इलेक्ट्रॉन के खोजकर्ता जे. जे. थॉम्पसन के साथ कार्य करने का मौका मिला।

कैवेंडिश प्रयोगशाला में रदरफोर्ड ने परमाणु के नाभिक की अस्थिरता से उत्पन्न रेडियोसक्रियता पर प्रयोग करना प्रारम्भ किया। इन प्रयोगों से उन्हें ज्ञात हुआ कि अलग-अलग रेडियोधर्मी पदार्थों से अलग-अलग प्रकार की किरणें निकलती हैं। रदरफोर्ड ने इन किरणों का नामकरण अल्फा (α) तथा बीटा (β) किरणों के रूप में किया। जो आज भी इसी नाम से जानी जाती हैं। X-Rays किरणों की मदद से उन्होंने एटम के अंदर मौजूद नाभिक की मौजूदगी का पता लगाया तथा यह प्रमाणित करके प्रस्तुत किया कि परमाणु का पूरा भार नाभिक में ही होता है।

1901 में वे कुछ वर्षों के लिए न्यूजीलैंड विश्वविद्यालय चले गये जहां उन्हें ‘डॉक्टर ऑफ साइंस’ की उपाधि दी गई। वहां से वे पुनः सन् 1907 में लौटकर इंग्लैंड आ गए तथा मैनचेस्टर विश्वविद्यालय में शोध कार्य करने लगे। मात्र 37 वर्ष की उम्र में सन् 1908 में उन्हें भौतिक रसायन के क्षेत्र में रेडियोधर्मिता यानी Radioactivity की खोज के लिए रसायन विज्ञान का नोबेल पुरस्कार दिया गया। रदरफोर्ड ने अनेक प्रयोगों एवं परिक्षणों के द्वारा यह प्रमाणित करके दिखाया कि Alpha Rays (α) एक तरह के परमाण्विक कण होते हैं जो हीलियम के नाभिक के समान होते हैं।

रदरफोर्ड ने अपना सबसे प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण प्रयोग नोबेल पुरस्कार मिलने के 3 साल बाद 1911 में किया जब उन्होंने दो अन्य विज्ञानियों Hans Geiger और Ernest Marsden के साथ मिलकर एक पतले स्वर्णपत्र पर अल्फा किरणों की बौछार करके परमाणु में नाभिक व केन्द्रक के होने का विचार प्रस्तुत किया। इस विचार ने सारी दुनिया में तहलका मचा दिया। हालांकि आज हम स्वाभाविक रूप से मानते है कि हर एटम के अंदर एक नाभिक होता है लेकिन सन् 1911 में यह बिल्कुल नया विचार था।

सन् 1912 में डेनमार्क के भौतिकशास्त्री नील्स बोर (जिन्होंने हाइड्रोजन एटम स्पेक्ट्रम का विवरण प्रस्तुत किया था) भी रदरफोर्ड के साथ कार्य करने के लिए आ गए तथा दोनोें ने संयुक्त रूप से मिलकर परमाणु संरचना पर अनेक नए एवं महत्वपूर्ण कार्यों को अंजाम दिया।

सन् 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के कारण विश्व की परिस्थितियां खराब होने लगी थी। इस कारण रदरफोर्ड पुनः कैवेंडिश प्रयोगशाला लौट आए। इस प्रयोगशाला में आने के 3 साल बाद 1917 में उन्होंने फिर एक नयी खोज कर वैज्ञानिक जगत को नयी सौगात दी। इस बार यह खोज थी एक तत्व को दूसरे तत्व में बदलने की प्रक्रिया की। जिसे आज हम नाभिकीय तत्वान्तरण यानी न्यूक्लियर ट्रांसम्युटेशन कहते है। उन्होंने सफलता पूर्वक अल्फा कणों की बौछार करके Nitrogen Atoms को Oxygen Atoms में परिवर्तित कर दिया था।

रदरफोर्ड ने अपने प्रयोग में रेडियोधर्मी पदार्थ से उत्सर्जित होने वाले अल्फा कणों को नाइट्रोजन भरे सिलेंडर में प्रवाहित किया। नाइट्रोजन के नाभिकों से प्रोटॉन कण बाहर निकल गए और परिणाम यह रहा कि सिलेंडर में जो नाभिक बचे, वे ऑक्सीजन परमाणुओं के नाभिक थे।

इस प्रक्रिया से प्राप्त परमाणु ऑक्सीजन का एक समस्थानिक (isotope) था जिसका परमाणु भार 17 था। सामान्य ऑक्सीजन का परमाणु भार 16 होता है। इस तरह पहली बार कृत्रिम तत्वान्तरण या नाभिकीय विघटन की क्रिया रदरफोर्ड ने सफलतापूर्वक सम्पन्न की।

यद्यपि यह एक अत्यंत दुरूह और जटिल क्रिया थी, 3,00,000 अल्फा कणों में से कोई एक कण नाभिकों से टकराता था, फिर भी रदरफोर्ड सौभाग्य से इस दिशा में सफल हुए और नाभिकीय भौतिकी के युग का शुभारंभ हो पाया।

सन् 1919 में रदरफोर्ड कैवेंडिश प्रयोगशाला के अध्यक्ष बन गए। उनकी अध्यक्षता में यह प्रयोगशाला खूब फलती-फूलती रही। वे अत्यंत लगन से काम करने वाले और एक कभी न थकने वाले वैज्ञानिक थे। उनकी महान उपलब्धियों के कारण उन्हें 1925 में Royal Society का अध्यक्ष बनाया गया तथा सन् 1931 में Baron Rutherford of Nelson का सम्मान दिया गया। जो अपने आप एक दुर्लभ सम्मान था। अब तक रदरफोर्ड की ख्याति संपूर्ण विश्व में फैल चुकी थी।

सन् 1935 के मध्य में रदरफोर्ड को ‘हर्निया’ की बीमारी हो गई लेकिन, प्रारम्भ से इसके उपचार में विशेष सावधानी न रखने से यह बीमारी बहुत बढ़ गई, जिसके कारण लंदन में उनका आपात ऑपरेशन किया गया, फिर भी लगता है काल को कुछ और ही मंजूर था, ऑपरेशन के मात्र 4 दिन बाद 19 अक्टूबर, 1937 में उनकी मृत्यु हो गई।

सर रदरफोर्ड को ब्रिटेन के सबसे पुराने एवं सम्मानित चर्च वेस्टमिंस्टर ऐबे में प्रख्यात वैज्ञानिक सर आइजक न्यूटन के कब्र के समीप ही बड़े आदर-सम्मान के साथ दफन किया गया।


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