अर्थशास्त्र, कौटिल्य या चाणक्य (चौथी शती ईसापूर्व) द्वारा रचित संस्कृत का एक ग्रन्थ है। इसमें राज्यव्यवस्था, कृषि, न्याय एवं राजनीति आदि के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है। अपने तरह का (राज्य-प्रबन्धन विषयक) यह प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसकी शैली उपदेशात्मक और सलाहात्मक (instructional) है।
यह प्राचीन भारतीय राजनीति का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसके रचनाकार का व्यक्तिनाम विष्णुगुप्त, गोत्रनाम कौटिल्य (कुटिल से व्युत्पत्र) और स्थानीय नाम चाणक्य (पिता का नाम चणक होने से) था। अर्थशास्त्र (15.431) में लेखक का स्पष्ट कथन है:
येन शास्त्रं च शस्त्रं च नन्दराजगता च भूः।
अमर्षेणोद्धृतान्याशु तेन शास्त्रमिदंकृतम् ॥ इति॥
इस ग्रंथ की रचना उन आचार्य ने की जिन्होंने अन्याय तथा कुशासन से क्रुद्ध होकर नन्दों के हाथ में गए हुए शस्त्र, शास्त्र एवं पृथ्वी का शीघ्रता से उद्धार किया था।
चाणक्य सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य (321-298 ई.पू.) के महामंत्री थे। उन्होंने चंद्रगुप्त के प्रशासकीय उपयोग के लिए इस ग्रंथ की रचना की थी। यह मुख्यत: सूत्रशैली में लिखा हुआ है और संस्कृत के सूत्रसाहित्य के काल और परंपरा में रखा जा सकता है। यह शास्त्र अनावश्यक विस्तार से रहित, समझने और ग्रहण करने में सरल एवं कौटिल्य द्वारा उन शब्दों में रचा गया है जिनका अर्थ सुनिश्चित हो चुका है। (अर्थशास्त्र, 15.6)'
अर्थशास्त्र में समसामयिक राजनीति, अर्थनीति, विधि, समाजनीति, तथा धर्मादि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस विषय के जितने ग्रंथ अभी तक उपलब्ध हैं उनमें से वास्तविक जीवन का चित्रण करने के कारण यह सबसे अधिक मूल्यवान् है। इस शास्त्र के प्रकाश में न केवल धर्म, अर्थ और काम का प्रणयन और पालन होता है अपितु अधर्म, अनर्थ तथा अवांछनीय का शमन भी होता है (अर्थशास्त्र, 15.431)।
इस ग्रंथ की महत्ता को देखते हुए कई विद्वानों ने इसके पाठ, भाषांतर, व्याख्या और विवेचन पर बड़े परिश्रम के साथ बहुमूल्य कार्य किया है। शाम शास्त्री और गणपति शास्त्री का उल्लेख किया जा चुका है। इनके अतिरिक्त यूरोपीय विद्वानों में हर्मान जाकोबी (ऑन दि अथॉरिटी ऑव कौटिलीय, इं.ए., 1918), ए. हिलेब्रांड्ट, डॉ॰ जॉली, प्रो॰ए.बी. कीथ (ज.रा.ए.सी.) आदि के नाम आदर के साथ लिए जा सकते हैं। अन्य भारतीय विद्वानों में डॉ॰ नरेन्द्रनाथ ला (स्टडीज इन ऐंशेंट हिंदू पॉलिटी, 1914), श्री प्रमथनाथ बनर्जी (पब्लिक ऐडमिनिस्ट्रेशन इन ऐंशेंट इंडिया), डॉ॰ काशीप्रसाद जायसवाल (हिंदू पॉलिटी), प्रो॰ विनयकुमार सरकार (दि पाज़िटिव बैकग्राउंड ऑव् हिंदू सोशियोलॉजी), प्रो॰ नारायणचंद्र वंद्योपाध्याय, डॉ॰ प्राणनाथ विद्यालंकार आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
कौटिल्य और अर्थशास्त्र का इतिहास
चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन निर्माण में कौटिल्य का सर्वप्रथम हाथ रहा है। वह इतिहास में विष्णुगुप्त तथा चाणक्य इन दो नामों से भी जाना जाता है।
चंद्रगुप्त मौर्य का प्रारंभिक जीवन परिचय।
ब्राह्मण तथा बौद्ध गंथों से उसके जीवन के विषय में जो सूचना मिलती है, उससे स्पष्ट होता है कि वह तक्षशिला के ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुआ था। वह वेदों तथा शास्रों का ज्ञाता था और तक्षशिला के शिक्षा केन्द्र का प्रमुख आचार्य था। परंतु वह स्वभाव से अत्यंत रूढिवादी तथा क्रोधी था।
ब्राह्मण एवं बौद्ध ग्रंथों का विवरण।
पुराणों में उसे द्विजर्षभ(श्रेष्ठ ब्राह्मण) कहा गया है।कहा जाता है, कि एक बार नंद राजा ने अपनी यज्ञशाला में उसे अपमानित किया, जिससे क्रोध में आकर उसने नंद वंश को समूल नष्ट कर डालने की प्रतिज्ञा कर डाली और चंद्रगुप्त मौर्य को अपना अस्र बनाकर उसने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की।
जब चंद्रगुप्त मौर्य भारत का एकछत्र सम्राट बना तो कौटिल्य प्रधानमंत्री तथा प्रधान पुरोहित के पद पर आसीन था।जैन ग्रंथों से पता चलता है, कि चंद्रगुप्त की मृत्यु के बाद भी कुछ समय तक बिंदुसार के समय में भी चाणक्य प्रधानमंत्री बना रहा।
आगे चलकर उसने शासन-कार्य त्याग कर संयास ग्रहण कर लिया तथा वन में तपस्या करते हुए उसने अपने जीवन के अंतिम दिन व्यतीत किये। वह राजनीतिशास्र का प्रकाण्ड विद्वान था, और उसने राजशासन के ऊपर अर्थशास्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की। यह हिन्दू शासनकाल के ऊपर प्राचीनतम उपलब्ध रचना है।
कौटिल्य:- सप्तांग सिद्धांत, मंडल सिद्धांत और षाड्गुण्य नीति
कौटिल्य को भारतीय राजनीतिक विचारों का जनक माना जाता है. उनका जन्म चौथी ईसा पूर्व मगध राज्य में हुआ. उनके बचपन का नाम विष्णुगुप्त था तथा उन्हें चाणक्य भी कहा जाता है. उन्होंने विश्व प्रसिद्ध पुस्तक “अर्थशास्त्र” की रचना की. उनकी शिक्षा-दीक्षा तक्षशिला विश्वविद्यालय में हुई बाद में वे वहीं अध्यापक भी थे. एक बार नन्द राजा द्वारा आयोजित ब्राह्मण भोज में उन्हें आमंत्रित किया गया जहाँ नन्द राजा ने कौटिल्य का अपमान किया. इसके चलते कौटिल्य ने नन्द वंश का समूल नाश करने की प्रतिज्ञा की. उन्होंने चन्द्र गुप्त मौर्य नामक एक सैनिक को प्रशिक्षण प्रदान किया तथा उसके द्वारा नन्द वंश का तख्तापलट कर दिया. इसी के साथ महान् मौर्य वंश का उत्थान हुआ. कौटिल्य ने सर्वप्रथम एक व्यवस्थित राज्य व्यवस्था का विचार प्रदान किया.
राज्य की उत्पत्ति
उन्होंने राज्य की उत्पत्ति का समझौतावादी सिद्धांत दिया है अर्थात् उन्होंने कहा कि राज्य में पहले मत्स्य् न्याय था जिसके चलते अव्यवस्था उत्पन्न हो गयी. तब लोगों ने मनु को अपना राजा चुना. राज्य के लोगों ने मनु को कर के रूप में अपने अनाज का छठा भाग, व्यापार का दसवाँ भाग तथा पशु व्यापार लाभ का पचासवाँ भाग देने का वचन दिया.
सप्तांग सिद्धांत
कौटिल्य ने राज्य के सात अंगों का वर्णन किया है तथा राज्य के सभी अंगों की तुलना शरीर के अंगों से की है. जबकि आधुनिक राज्यों में राज्य के चार लक्षण या अंग पाए जाते हैं. कौटिल्य द्वारा वर्णित राज्य के सात अंग निम्नलिखित हैं-
1. राजा या स्वामी
कौटिल्य ने राजा को राज्य का केंद्र व अभिन्न अंग माना है तथा उन्होनें राजा की तुलना शीर्ष से की है. उनका मानना है कि राजा को दूरदर्शी, आत्मसंयमी, कुलीन,स्वस्थ,बौद्धिक गुणों से संपन्न तथा महावीर होना चाहिए. वे राजा को कल्याणकारी तथा जनता के प्रति उत्तरदायी होने की सलाह देते हैं क्योंकि उनके अनुसार राजा कर्तव्यों से बँधा होता है. हालाँकि वे राजा को सर्वोपरि मानते हैं परन्तु उसे निरंकुश शक्तियाँ नहीं देते. उन्होनें राजा की दिनचर्या को भी पहरों में बाँटा है अर्थात् वे राजा के लिए दिन को तथा रात को आठ-आठ पहरों में विभाजित करते हैं.
2. अमात्य या मंत्री
कौटिल्य ने अमात्य और मंत्री दोनों की तुलना की “आँख” से की है. उनके अनुसार अमात्य तथा राजा एक ही गाड़ी के दो पहिये हैं. अमात्य उसी व्यक्ति को चुना जाना चाहिए जो अपनी जिम्मेदारियों को सँभाल सके तथा राजा के कार्यों में उसके सहयोगी की भांति भूमिका निभा सके.
3. जनपद
कौटिल्य ने इसकी तुलना “पैर” से की है. जनपद का अर्थ है “जनयुक्त भूमि”. कौटिल्य ने जनसंख्या तथा भू-भाग दोनों को जनपद माना है. उन्होनें दस गाँवों के समूह में “संग्रहण”, दो सौ गाँवों के समूह के बीच “सार्वत्रिक”, चार सौ गाँवों के समूह के बीच एक “द्रोणमुख” तथा आठ सौ गाँवों में एक “स्थानीय” अधिकारी की स्थापना करने की बात कही है.
4. दुर्ग
कौटिल्य ने दुर्ग की तुलना “बाँहों” या “भुजाओं” से की है तथा उन्होंने चार प्रकार के दुर्गों की चर्चा की है:-
- i) औदिक दुर्ग-जिसके चारों ओर पानी हो.
- ii) पार्वत दुर्ग-जिसके चारों ओर चट्टानें हों.
- iii) धान्वन दुर्ग-जिसके चारों ओर ऊसर भूमि.
- iv) वन दुर्ग-जिसके चारों ओर वन तथा जंगल हो.
5) कोष
इसकी तुलना कौटिल्य ने “मुख” से की है. उन्होंने कोष को राज्य का मुख्य अंग इसलिए माना है क्योंकि उनके अनुसार कोष से ही कोई राज्य वृद्धि करता है तथा शक्तिशाली बने रहने के लिए कोष के द्वारा ही अपनी सेना का भरण-पोषण करता है. उन्होंने कोष में वृद्धि का मार्ग करारोपण बताया है जिसमें प्रजा को अनाज का छठा, व्यापार का दसवाँ तथा पशु धन के लाभ का पचासवाँ भाग राजा को कर के रूप में अदा करना होगा.
6) दंड या सेना
कौटिल्य ने सेना की तुलना “मस्तिष्क” से की है. उन्होंने सेना के चार प्रकार बताये हैं- हस्ति सेना, अश्व सेना, रथ सेना तथा पैदल सेना. उनके अनुसार सेना ऐसी होनी चाहिए जो साहसी हो, बलशाली हो तथा जिसके हर सैनिक के हृदय में देशप्रेम हो तथा वीरगति को प्राप्त हो जाने पर जिसके परिवार को उस पर अभिमान हो.
7) मित्र
मित्र को कौटिल्य ने “कान” कहा है. उनके अनुसार राज्य की उन्नति के लिए तथा विपत्ति के समय सहायता के लिए राज्य को मित्रों की आवश्यकता होती है.
मंडल सिद्धांत
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के छठे अधिकरण में मंडल सिद्धांत का वर्णन किया है. मंडल का अर्थ है “देशों का समूह”. उन्होंने मंडल में 12 प्रकार के देशों का जिक्र किया है-‘विजिगीषु’, ‘अरि’, ‘मित्र’, ‘अरि-मित्र’, ‘मित्र-मित्र’, ‘अरि-मित्र-मित्र’, ‘पार्ष्णिग्राह’, ‘आक्रंद’, ‘पार्ष्णिग्राहसार’, ‘आक्रन्दसार’, ‘मध्यमा’ तथा ‘उदासीन’ देश. उन्होंने मंडल के इन सभी देशों के एक दूसरे के साथ संबंधों को ही मंडल सिद्धांत का नाम दिया है.
षाड्गुण्य नीति
कौटिल्य ने राज्य के परराष्ट्रीय संबंधों के लिए षाड्गुण्य नीति सुझाई है जिसके अनुसार राज्य को दूसरे देशों के साथ अपने सम्बन्ध किस परिस्थिति में कैसा रखना चाहिए. उन्होंने परराष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के 6 प्रकार बताये हैं-
- i)संधि- दो देशों में परस्पर सम्बन्ध स्थापित करना.
- ii)विग्रह- इसका अर्थ दो देशों में सम्बन्ध को समाप्त करना..
- iii)यान-आक्रमण करना.
- iv)आसन-मौन रहना.
- v)संश्रय-दूसरे के आश्रय में स्वयं को समर्पित करना.
- vi)द्वैधीभाव-एक राज्य की दूसरे राज्य से संधि कराना.
कौटिल्य ने राज्य के लिए गुप्तचर व्यवस्था का भी वर्णन किया है जिसमें उन्होंने 9 प्रकार के गुप्तचर बताये हैं.
कौटिल्य की रचना अर्थशास्र में कही गई बातें निम्नलिखित हैं-
- अर्थशास्र एक असाम्प्रदायिक रचना है, जिसका मुख्य विषय सामान्य राज्य एवं उसके शासनतंत्र का विवरण प्रस्तुत करता है। इसमें चक्रवर्ती सम्राट का अधिकार-क्षेत्र हिमालय से लेकर समुद्र-तट तक बताया गया है। जो इस बात का सूचक है कि, कौटिल्य विस्तृत साम्राज्य से परिचित था।
- अर्थशास्र मुख्यतः विभागीय अध्यक्षों का ही वर्णन करता है। नगर तथा सेना की परिषदों के स्वरूप का अशासकीय होने के कारण इसमें उल्लेख नहीं मिलता।
- भारतीय लेखकों में अपने नाम का उल्लेख अन्य पुरुष में करने की प्रथा रही है। अतः यदि अर्थशास्र में कौटिल्य ने अपना उल्लेख अन्य पुरुषों में किया है, तो इसका अर्थ यह नहीं है, कि वह स्वयं इस ग्रंथ का रचयिता नहीं था।
- मेगस्थनीज का संपूर्ण विवरण हमें उपलब्ध नहीं होता। संभव है कौटिल्य का उल्लेख उन अंशों में हुआ हो जो अप्राप्य हैं। पतंजलि ने बिन्दुसार और अशोक के नाम का भी उल्लेख नहीं किया है। तो क्या इन दोनों को अनैतिहासिक माना जा सकता है। उनका उद्देश्य पाणिनि तथा कात्यायन के सूत्रों की व्याख्या करना था, न कि इतिहास लिखना। मेगस्थनीज किसके शासनकाल में भारत आया था?
- कौटिल्य जिस समाज का चित्रण करता है, उसमें नियोग प्रथा, विधवा विवाह आदि का प्रचलन था। यह प्रथा मौर्ययुगीन समाज में थी। उसने युक्त शब्द का प्रयोग अधिकारी के अर्थ में किया है। यही शब्द अशोक के लेखों में भी आया है। इसमें रुद्र, कंबोज, लिच्छवी, मल्ल आदि गणराज्यों का भी उल्लेख हुआ है। जो इस बात के सूचक हैं कि यह ग्रंथ मौर्य युग के प्रारंभ में लिखा गया था। इसी प्रकार अर्थशास्र में बौद्धों के प्रति भी बहुत कम सम्मान प्रदर्शित किया गया है। तथा लोगों को अपने परिवार के पोषण की व्यवस्था किये बिना संयास ग्रहण करने से रोका गया है। इससे यही सूचित होता है, कि बौद्ध धर्म के लोकप्रिय होने के पूर्व ही यह ग्रंथ लिखा गया था।
- यहां उल्लेखनीय है कि कौटिल्य तथा मेगस्थनीज के विवरणों में कई समानताऐं भी हैं।मेगस्थनीज के समान कौटिल्य भी लिखता है, कि चंद्रगुप्त जब आखेट के लिये निकलता था, तो उसके साथ राजकीय जुलूस चलता था। सङकों की कङी सुरक्षा रखी जाती थी। दोनों हमें बताते हैं कि सम्राट की अंगरक्षक महिलायें होती थी। सम्राट अपने शरीर पर मालिश करवाता था।
अर्थशास्र में 15 अधिकरण तथा 180 प्रकरण हैं। इस ग्रंथ में इसके श्लोकों की संख्या 4,000 बताई गई है।शामशास्री के अनुसार वर्तमान ग्रंथ में भी इतने ही श्लोक हैं ।
कौटिल्य के शासन का आदर्श बङा ही उदात्त था। उसने अपने ग्रंथ में जिस विस्तृत प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप प्रस्तुत किया है। उसमें प्रजा का हित ही राजा का चरम लक्ष्य है। वास्तव में यह ग्रंथ चंद्रगुप्त मौर्य की शासन-व्यवस्था के ज्ञान के लिए बहुमूल्य सामग्रियों का भंडार है।
कौटिल्य मात्र राजनीति विशारद ही नहीं था, अपितु वह राजनीतिकशास्र के क्षेत्र में एक नये सिद्धांत का प्रतिपादक भी था। बाद के लेखकों ने अत्यंत सम्मानपूर्वक उसके नाम का उल्लेख किया है। राजनीतिकशास्र के क्षेत्र में अर्थशास्र का वही स्थान है जो व्याकरण के क्षेत्र में पाणिनि की अष्टाध्यायी का है।
अर्थशास्त्र से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित हैं-
- अर्थशास्र के लेखक को चाणक्य, कौटिल्य व विष्णुगुप्त आदि नामों से जाना जाता है।
- अर्थशास्त्र राजनीति से संबंधित है।
- यह ग्रंथ मौर्यकाल और मौर्योत्तर काल की भी जानकारी देता है।
- तीसरी शता. तक की जानकारी अर्थशास्र में मिलती है।
- अर्थशास्र में 4,000 श्लोक, 15 अधिकरण (भाग), 180 उपभाग, संस्कृत भाषा, तथा यह गद्य-पद्य में लिखा गया है। अर्थशास्र की शैली को महाभारत शैली कहा गया है।
- 1904-5 में शामशास्री ने अर्थशास्री की पाण्डुलिपि (मूल ग्रंथ) खोजी और अनुवाद किया।
- इस ग्रंथ में एक छोटे से राज्य का वर्णन है। तथा इस ग्रंथ में न तो पाटलिपुत्र का न ही किसी मौर्य शासक का नाम मिलता है।
- अशोक व अर्थशास्र दोनों समकालीन है, क्योंकि अशोक के साहित्य व अर्थशास्र दोनों में एक जैसे शब्द मिलते हैं। जैसे – अर्थशास्र।
- पतंजलि के उल्लेख में कौटिल्य का कहीं भी उल्लेख नहीं है।
- अमात्यराक्षस घनानंद का दरबारी था, जो कौटिल्य के समान कूटनीतिज्ञ था।
अर्थशास्र के अधिकरणों का विवेचन निम्नलिखित है-
- प्रथम अधिकरण में राजत्व की अवधारणा मिलती है। यहीं पर पहली बार चक्रवर्ती शासक का उल्लेख है, परंतु इस अवधारणा के अनुसार अश्वमेघ यज्ञ का उल्लेख नहीं मिलता। क्योंकि अधिकांश मौर्य शासक ब्राह्मण धर्म के अनुयायी नहीं थे।
- दूसरे अधिकरण में नागरिक प्रशासन का उल्लेख किया गया है।
- तीसरे एवं चौथे अधिकरण में दीवानी, कानून और फौजदारी कानून व व्यक्तिगत कानूनगो का उल्लेख मिलता है।
- पाँचवां अधिकरण में राजा, अधिकारी, कर्मचारियों के कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों का उल्लेख मिलता है।
- छठा अधिकरण में – सप्तांग सिद्धांत (राज्य के सात अंग होते हैं)
- सामी (राजा)
- जनपद (क्षेत्र जनता)
- कोष (खजाना)
- सेना
- दुर्ग
- मंत्री (अमात्य)
- मित्र
आठवां अधिकरण में शत्रु को भी शामिल किया गया है।
- 7 से 15 वें अधिकरणों (9 अधिकरणों) में शत्रु देश में राजा की विजय, संधि, शत्रु देश को जीतने के प्रयास, गुप्तचर प्रणाली, दंड आदि का उल्लेख है।
- अर्थशास्र में शूद्र को आर्य कहा गया है।
- अर्थशास्र में नगर के उत्तरी भाग को देवताओं एवं ब्राह्मणों के निवास के लिए उपयुक्त बताया गया है।
- इसमें गन्ने (ईख) की खेती को निकृष्ट बताया है, क्योंकि परिश्रम ज्यादा लगता है, परंतु फल कम प्राप्त होता है।
- इस ग्रंथ में राजा द्वारा 3 प्रकार की विजय बताई गई है-
- धर्म विजय (पराजित शासक से जुर्माना वसूल कर उसे पुनः स्थापित करना।)
- लोग विजय (पराजित शासक के अधिकांश क्षेत्र को हङप लेना और बङी मात्रा में दन की मांग करना।)
- असुर विजय (पराजित शासक का संपूर्ण राज्य छीन लेना।)
- अर्थशास्र में उत्तरापथ एवं दक्षिणापथ का उल्लेख मिलता है।तथा दक्षिणापथ को आर्थिक लाभ की दृष्टि से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बताया गया है, क्योंकि इससे बहुमूल्य धातुएँ, रत्न मिलते हैं।
- इस ग्रंथ से गुप्तचर प्रणाली का विस्तार से वर्णन मिलता है – दो गुप्तचर श्रेणियां थी जो इस प्रकार हैं
- संचार-घुमंतु
- संस्था-संमुदाय के रूप में।
- अर्थशास्र में गैर ब्राह्मण मतानुयायी को पाषंड कहा है। (हीन)
- इस ग्रंथ में कुछ स्थानों का उल्लेख विशिष्ट वस्तुओं के लिये हुआ है। जैसे
अंग, मगध- हाथीयों के लिए।
कंबोज – घोङे के लिये।
नेपाल – कंबल के लिये।
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