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28 दिसम्बर बलिदान दिवस राव रामबख्श सिंह जी जिन्हे फांसी देने वाला रस्सी दो बार टूटी, जिन्होने अन्तिम सांस तक सघर्ष किया

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नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है। 

 श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या और लक्ष्मणपुरी (लखनऊ) का निकटवर्ती क्षेत्र सदा से अवध कहलाता है। इसी अवध में उन्नाव जनपद का कुछ क्षेत्र बैसवारा कहा जाता है। इसी बैसवारा की वीरभूमि में राव रामबख्श सिंह जी का जन्म हुआ, जिन्होंने मातृभूमि को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए अन्तिम दम तक संघर्ष किया और फिर हंसते हुए फांसी का फन्दा चूम लिया। राव रामबख्श सिंह जी बैसवारा के संस्थापक राजा त्रिलोक चन्द्र की 16वीं पीढ़ी में जन्मे थे। रामबख्श सिंह जी ने 1840 में बैसवारा क्षेत्र की ही एक रियासत डौडिया खेड़ा का राज्य संभाला। यह वह समय था, जब अंग्रेज छल-बल से अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे। इसी के साथ स्वाधीनता संग्राम के लिए रानी लक्ष्मीबाई, बहादुरशाह जफर, नाना साहब, तात्या टोपे आदि के नेतृत्व में लोग संगठित भी हो रहे थे। राव साहब भी इस अभियान में जुड़ गये।

31 मई, 1857 को एक साथ अंग्रेजों के विरुद्ध सैनिक छावनियों में हल्ला बोलना था, पर दुर्भाग्यवश समय से पहले ही विस्फोट हो गया, जिससे अंग्रेज सतर्क हो गये। कानपुर पर नानासाहब के अधिकार के बाद वहां से भागे 13 अंग्रेज बक्सर में गंगा के किनारे स्थित एक शिव मन्दिर में छिप गये। वहां के ठाकुर यदुनाथ सिंह ने अंग्रेजों से कहा कि वे बाहर आ जायें, तो उन्हें सुरक्षा दी जाएगी, पर अंग्रेज छल से बाज नहीं आये। उन्होंने गोली चला दी, जिससे यदुनाथ सिंह वहीं मारे गये। क्रोधित होकर लोगों ने मन्दिर को सूखी घास से ढककर आग लगा दी। इसमें दस अंग्रेज जल मरे, पर तीन गंगा में कूद गये और किसी तरह गहरौली, मौरावाँ होते हुए लखनऊ आ गये।

लखनऊ में अंग्रेज अधिकारियों को जब यह वृत्तान्त पता लगा, तो उन्होंने मई 1858 में सर होप ग्राण्ट के नेतृत्व में एक बड़ी फौज बैसवारा के दमन के लिए भेज दी। इस फौज ने पुरवा, पश्चिम गांव, निहस्था, बिहार और सेमरी को रौंदते हुए दिसम्बर 1858 में राव रामबख्श सिंह के डौडिया खेड़ा दुर्ग को घेर लिया। राव साहब ने सम्पूर्ण क्षमता के साथ युद्ध किया, पर अंग्रेजों की सामरिक शक्ति अधिक होने के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा।

इसके बाद भी राव साहब गुरिल्ला पद्धति से अंग्रेजों को छकाते रहे, पर उनके कुछ परिचितों ने अंग्रेजों द्वारा दिये गये चांदी के टुकड़ों के बदले अपनी देशनिष्ठा गिरवी रख दी। इनमें एक था, उनका नौकर चन्दी केवट. उसकी सूचना पर अंग्रेजों ने राव साहब को काशी में गिरफ्तार कर लिया। रायबरेली के तत्कालीन जज डब्ल्यू. ग्लाइन के सामने न्याय का नाटक खेला गया। मौरावां के देशद्रोही चन्दनलाल खत्री व दिग्विजय सिंह की गवाही पर राव साहब को मृत्युदंड दिया गया। अंग्रेज अधिकारी बैसवारा तथा सम्पूर्ण अवध में अपना आतंक फैलाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने बक्सर के उसी मन्दिर में स्थित वटवृक्ष पर 28 दिसम्बर, 1861 को राव रामबख्श सिंह को फांसी दी, जहां दस अंग्रेजों को जलाया गया था। राव साहब डौडिया खेड़ा के कामेश्वर महादेव तथा बक्सर की मां चन्द्रिका देवी के उपासक थे। इन दोनों का ही प्रताप था कि फांसी की रस्सी दो बार टूट गयी।

राव रामबख्श सिंह भले ही चले गये, पर डौडिया खेड़ा दुर्ग एक तीर्थ बन गया, जहां भरने वाले मेले में अवध के लोकगायक आज भी गाते हैं।

विशेष यह भी जाने 
अभी थोड़े समय  पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी  जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान !  किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा  या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है।  अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।    

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