जब आप सूर्य को देखते है तब आप आकाश में एक बहुत ही चमकीली वस्तु को देख रहे होते है। क्योंकि आँखों पर बिना किसी सुरक्षा कवच के सूर्य को देखना सुरक्षित नहीं होता इसलिए हमारे लिए इसके बारे में जानना तथा गहन अध्ययन करना कठिन होता है। हालांकि, खगोल वैज्ञानिक सूरज के बारे में गहराई से जानने और उसके अंदर निरंतर चलने वाली गतिविधियों पर नजर रखने के लिए विशेष प्रकार की दूरबीनों और उपग्रहों का प्रयोग करते हैं, जो वैज्ञानिकों को चौबीसों घंटे सूर्य पर नजर बनाए रखने में मदद करते हैं।
आज हम यह जानते है कि सूर्य विभिन्न परतों से मिलकर बना हैं। इसके केन्द्र में स्थित नाभिकीय संलयन की भट्ठी निरंतर असीम ऊर्जा उत्पन्न करती रहती है। धरती से सूर्य की जिस चमकती सतह को हम देखते है, उसे ‘प्रकाशमंडल’ (Photosphere) कहा जाता है। इसे सूर्य का सतह भी कहा जाता है। समतल एवं शांत दिखाई देने वाली यह सतह वास्तव में बहुत ही सक्रिय व हलचल वाली जगह है, जहां अनियमित रूप से ‘सौर कलंक’ बनते रहते है। इन सौर कलंकों का आकार पृथ्वी और बृहस्पति ग्रह से भी बड़ा होता हैं। सूर्य की संरचना एवं वायुमंडल को अच्छी तरह समझने के लिए इस पोस्ट को पढ़े – About Sun in Hindi (सूर्य: जन्म, संरचना एवं वायुमंडल)
सौर कलंक क्या है? (What are Sunspots?)
सूरज के प्रकाशमंडल के नीचे प्लाज़्मा के प्रवाह, चुंबकीय क्षेत्र तथा उष्मीय प्रवाह की एक जटिल संरचना होती है। समय के साथ, सूर्य के धूर्णन के कारण चुंबकीय रेखाएँ आपस में गूँथने लगती है। सतह पर चुंबकीय रेखाओं के गूँथने के कारण सतह पर चुंबकीय क्षेत्र की सघनता बढ़ जाती है; जिससे सतह पर आने वाली संवहन तरंगों में अवरोध उत्पन्न हो जाता हैं।
संवहन तरंगें उष्म ऊर्जा की संवाहक होती है; इसलिए संवहन तरंगों के सतह पर पूरी तरह न पहुंच पाने के कारण सतह पर अपने आस-पास के क्षेत्रों के अपेक्षाकृत कम तापमान एवं चमक वाले क्षेत्र का निर्माण हो जाता है। यह कम तापमान वाला क्षेत्र अपने आसपास की अत्यधिक चमकने वाली सतह से काला दिखाई पड़ता है। सूर्य की सतह पर उभरे इस काले क्षेत्र को ही ‘सौर कलंक‘ कहा जाता है।
कभी-कभी ऐंठे हुए चुंबकीय क्षेत्र में अत्यधिक ऊर्जा जमा हो जाती है, जिसे यह कभी-कभी अचानक सतह से बाहर फेकता है। सतह से निकलते इन प्लाज़्मा के फव्वारों को ‘सौर ज्वाला‘ (Prominence) कहते है। इसे आप नीचे के चित्र में स्पष्ट रूप से देख सकते है-
सौर ज्वाला से विशाल मात्रा में ऊर्जा बाहरी सौर वायुमंडल में प्रवाहित होती है। कभी-कभी इसके साथ प्लाज़्मा का वस्फोट भी होता है; जिसे कोरोना द्रव्य उत्क्षेपण (Coronal mass ejection) कहा जाता है। सूरज की सतह पर यह विस्फोट हमेशा नहीं बल्कि कभी-कभी ही होता है। [जाने- पृथ्वी से सूर्य कितना दूर है?]
सौर कलंक कब बनते है?
सौर कलंक कब दिखेगें यह पूरी तरह प्रकाशमंडल के नीचे स्थित गूँथे हुए चुंबकीय क्षेत्रों तथा प्लाज़्मा के प्रवाह के बीच चल रही परस्पर क्रिया पर निर्भर करता है। इसलिए, सौर कलंकों की बनने कि नियमितता इस बात पर आश्रित होती है कि चुंबकीय क्षेत्र ऐंठ कर कितने सघन हो चुके हैं। यद्यपि इनके बनने कि प्रक्रिया की सटीक जानकारी अभी उपलब्ध नहीं है लेकिन हाल में किये गए अन्वेषणों से प्रतीत होता है कि ये उपसतही अंतःक्रिया सूरज के जन्म के लाखों वर्षों बाद शुरू हो गई थी।
सूर्य हर 11 वर्ष में ‘सौर चक्र’ (Solar cycle) से गुजरता है। आपकी जानकारी बता दे कि हर 11 वर्ष में सूर्य के चुम्बकीय क्षेत्र अपनी जगह बदल लेते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि सूरज का उत्तरी चुम्बकीय धुव्र दक्षिणी चुम्बकीय धुव्र की जगह ले लेता है तथा दक्षिणी चुम्बकीय धुव्र उत्तरी चुम्बकीय धुव्र का। इस ग्यारह वर्षीय चक्र में सतह पर काफी बदलाव आते है, और क्योंकि सौर कलंक चुंबकीय क्षेत्रों से ही जुड़े होते है इसलिए ये भी अनेक परिवर्तनों से गुजरते हैं।
सौर कलंक से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य (Important facts)
- सूर्य की सतह पर सौर कलंक हमेशा मौजूद नहीं होते; इनकी आयु कुछ दिनों से लेकर कुछ महीनों तक ही होती है।
- सौर कलंक सूर्य की सतह पर आगे बढ़ते हुए अपना आकार बदलते रहते हैं। इनका व्यास (diameter) 16 किलोमीटर से लेकर 1,60,000 किलोमीटर हो सकता है।
- विश्व में सौर कलंक का पहला जिक्र ईसा से 800 वर्ष पहले लिखी गई चीन की एक पुस्तक ‘इत्सिंग’ (Book of Changes) में मिलता है।
- पहली बार टेलीस्कोप द्वारा सौर कलंक को 1610 ई.वी. में अंग्रेज खगोल वैज्ञानिक थाॅमस हैरियट और दो जर्मन खगोल वैज्ञानिकों जोहानिस और डेविड फैब्रिसियस द्वारा देखा गया था।
- सौर कलंक का तापमान सूर्य के सतह के तापमान (6000 °C) से लगभग आधा होता है।
- सौर कलंक के दो भाग होते हैः अधिक काले बीच वाले भाग को ‘umbra’ और उसके चारों ओर के घेरे को ‘penumbra’ कहते है।
- 11 वर्षीय सौर चक्र के दौरान जब सूर्य पर सबसे ज्यादा कलंक नजर आते है; तो उस स्थिती को ‘solar maximum’ कहा जाता है; वही जिस समय सबसे कम कलंक नजर आते है उसे ‘solar minimum’ कहा जाता है।
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