मछली जलीय पर्यावरण पर आश्रित जलचर जीव है तथा जलीय पर्यावरण को संतुलित रखने में इसकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह कथन अपने में पर्याप्त बल रखता है जिस पानी में मछली नहीं हो तो निश्चित ही उस पानी की जल जैविक स्थिति सामान्य नहीं है। वैज्ञानिकों द्वारा मछली को जीवन सूचक (बायोइंडीकेटर) माना गया है। विभिन्न जलस्रोतों में चाहे तीव्र अथवा मन्द गति से प्रवाहित होने वाली नदियां हो, चाहे प्राकृतिक झीलें, तालाब अथवा मानव-निर्मित बड़े या मध्यम आकार के जलाशय, सभी के पर्यावरण का यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाय तो निष्कर्ष निकलता है कि पानी और मछली दोनों एक दूसरे से काफी जुड़े हुए हैं। पर्यावरण को संतुलित रखने में मछली की विशेष उपयोगिता है।
मछली पालन का महत्व-
शरीर के पोषण तथा निर्माण में संतुलित आहार की आवश्यकता होती है। संतुलित आहार की पूर्ति विभिन्न खाद्य पदार्थों को उचित मात्रा में मिलाकर की जा सकती है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन, खनिज लवण आदि की आवश्यकता होती है जो विभिन्न भोज्य पदार्थों में भिन्न-भिन्न अनुपातों में पाये जाते हैं। स्वस्थ शरीर के निर्माण हेतु प्रोटीन की अधिक मात्रा होनी चाहिए क्योंकि यह मांसपेशियों, तंतुओं आदि की संरचना करती है। विटामिन, खनिज, लवण आदि शरीर की मुख्य क्रियाओं को संतुलित करते हैं। मछली, मांस, अण्डे, दूध, दालों आदि का उपयोग संतुलित आहार में प्रमुख रूप से किया जा सकता है। मछलियों में लगभग 70 से 80 प्रतिशत पानी, 13 से 22 प्रतिशत प्रोटीन, 1 से 3.5 प्रतिशत खनिज पदार्थ एवं 0.5 से 20 प्रतिशत चर्बी पायी जाती है। कैल्शियम, पोटैशियम, फास्फोरस, लोहा, सल्फर, मैग्नीशियम, तांबा, जस्ता, मैग्नीज, आयोडीन आदि खनिज पदार्थ मछलियों में उपलब्ध होते हैं जिनके फलस्वरूप मछली का आहार काफी पौष्टिक माना गया है। इनके अतिरिक्त राइबोफ्लोविन, नियासिन, पेन्टोथेनिक एसिड, बायोटीन, थाइमिन, विटामिन बी12, बी 6 आदि भी पाये जाते हैं जोकि स्वास्थ्य के लिए काफी लाभकारी होते हैं। विश्व के सभी देशों में मछली के विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर उपयोग में लाये जाते हैं। मछली के मांस की उपयोगिता सर्वत्र देखी जा सकती है। मीठे पानी की मछली में वसा बहुत कम पायी जाती है व इसमें शीघ्र पचने वाला प्रोटीन होता है। सम्पूर्ण विश्व में लगभग 20,000 प्रजातियां व भारत वर्ष में 2200 प्रजातियां पाये जाने की जानकारी हैं। गंगा नदी प्रणाली जो कि भारत की सबसे बड़ी नदी प्रणाली है, में लगभग 375 मत्स्य प्रजातियां उपलब्ध हैं। वैज्ञानिकों द्वारा उत्तर प्रदेश व बिहार में 111 मत्स्य प्रजातियों की उपलब्धता बतायी गयी है।
ताजे पानी की उन्नत मछलियों के प्रमुख किस्मे -
रोहू-
यह एक मुख्य भारतीय कार्प है, जो कि दक्षिणी एशिया में पायी जाती है और बहुत महत्तवपूर्ण है। यह Cyprinidae परिवार से संबंधित है। इसे रूइ, रूई या तापरा के रूप में भी जाना जाता है। इसका सिर छोटा, तीखा मुंह और निचला होंठ झालर की तरह होता है। शरीर का आकार लंबा और गोल, रंग भूरा सलेटी और लगभग लाल रंग के चाने होते हैं। पंखों और सिर को छोड़कर इसका पूरा शरीर स्केल से ढका होता है। रोहू के शरीर पर कुल 7 पंख मौजूद होते हैं। इसकी लंबाई ज्यादा से ज्यादा 1 मीटर होती है। यह आमतौर पर पानी के गले- सड़े नदीन, बचे- खुचे पदार्थ आदि खाती है। मॉनसून के मौसम के दौरान रोहू मछली वर्ष में एक बार अंडे देती है। यह मछली अपने स्वाद और उच्च मार्किट मांग के कारण सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। इस प्रजाति को मछली पालन में उपयोग किया जाता है। यह ज्यादातर ताजे पानी के तालाब, खाइयों, नहरों, नदियों, झीलों आदि में पायी जाती है। यह मरीगल और कतला मछलियों के साथ समान अनुपात में पाली जाती है। इस मछली का प्रतिवर्ष औसतन 0.08 मिलियन प्रति एकड़ उत्पादन होता है। यह मछली अपने शरीर के प्रति किलो भार के अनुसार 2.0-2.5 लाख अंडे देती है। मछली का भार तालाब, पानी की स्थिति, गहराई, मंडीकरण के समय मछली का आकार, फीड की प्रकार आदि जैसे कारकों की संख्या पर निर्भर करता है। फरवरी— मार्च के महीने में मछली को पानी में छोड़ते समय यदि उसका आकार 2½-3 इंच है तो दिसंबर महीने तक उनका भार लगभग 1 किलो तक हो जाता है। यदि 10000 मछलियां संग्रहित होती हैं तो रोहू मछली की वसूली लगभग 6000 होती है।
कतला-
कतला एक प्रसिद्ध और जल्दी बढ़ने वाली कार्प है। यह प्रकृति में गैर हिंसक होती है। यह ज्यादातर बांगलादेश की पदमा, मेघना और बरीगंगा नदियों में पायी जाती है। भारत में इसे भाकुरा के रूप में भी जाना जाता है। इसका शरीर चौड़ा, लंबा सिर, निचला होंठ समतल और मोटा, काला सलेटी रंग, किनारों पर से सिलवर रंग, हल्के गुलाबी रंग के चाने होते हैं। इसकी पीठ, पेट से अधिक बाहर की ओर होती है और पंख काले रंग के होते हैं। यह पानी की ऊपरी सतह से भोजन लेती है और इसके विकास के लिए किनारे और सतह की वनस्पति बहुत उपयोगी होती है। यह मॉनसून के मौसम के दौरान वर्ष में एक बार अंडे देती है। स्वादिष्ट भोजन और उच्च प्रोटीन सामग्री के कारण इसकी मांग अपेक्षाकृत अधिक होती है। इसे आसानी से साफ और गहरे पानी के टैंकों और तालाबों में पाला जा सकता है। इनकी वृद्धि टैंकों से ज्यादा धान के खेतों में होती है। यह एक वर्ष में 1.5 किलो से ज्यादा वजन बढ़ाती है। यह अपने शरीर के प्रति किलो भार के अनुसार 0.80-1.20 लाख तक अंडे देती है। इसे मरीगल और रोहू मछली के साथ समान अनुपात में पाला जाता है। इस नसल का प्रतिवर्ष औसतन उत्पादन 0.08 मिलियन प्रति एकड़ होता है। यह जल्दी बढ़ने वाली मछली है जो कि एक वर्ष में 1200—1400 ग्राम भार प्राप्त करती है। यह 25 —32 डिगरी सेल्सियस के तापमान पर अच्छे से बढ़ती है। तालाब से निकालने के वक्त कतला का भार 1.5—2.0 किलो होता है।
मरीगल कार्प-
यह मछली व्यापारिक स्तर पर मछली पालन के लिए प्रसिद्ध है। इनके शरीर का आकार लंबा, शरीर के निचले भाग लंबाई के अनुसार सीधे और ऊपर के होंठ नीचे की तरफ मुड़े हुए होते हैं। इनका एक जोड़ा बारबल का भी होता है। शरीर के निचले भाग और दोनों किनारे सिलवर रंग के होते हैं पिछला भाग सलेटी रंग का होता है। पंख हल्के संतरी रंग के होते हैं। ये कम से कम तापमान 14 डिगरी सेल्सियस तापमान को सहन कर सकती है। इसके शरीर की लंबाई औसतन 1 मीटर होती है। यह मछली पानी की निचली सतह से भोजन लेती है और छोटे कीट, बचे कुचे जैविक पदार्थ खाती है। यह मॉनसून मौसम के दौरान वर्ष में एक बार अंडे देती है। इसका हमेशा ताजी स्थितियों में मंडीकरण किया जाता है। यह मछली अपने शरीर के प्रति किलो भार के अनुसार 1.50-2.0 लाख अंडे देती है। इसे रोहू और कतला मछली के साथ समान अनुपात में पाला जाता है। इस नसल का प्रति वर्ष औसतन उत्पादन 0.08 मिलियन प्रति एकड़ होता है। यह धीमी गति से बढ़ने वाली मछली है लेकिन इसकी जीवित रहने की क्षमता ज्यादा होती है। यदि यदि 10000 मछलियां संग्रहित होती हैं तो रोहू मछली की वसूली लगभग 9500 होती है। है। एक वर्ष में यह 600-700 ग्राम की हो जाती है।
सिलवर कार्प-
इस मछली का चीन में उत्पन्न होने का अनुमान लगाया जाता है। यह आमतौर पर दक्षिण पूर्वी एशिया की मछली है लेकिन अब यह पूरे विश्व में उपलब्ध है। इसका शरीर समतल, चाने छोटे, मुंह छोटा और ऊपर की तरफ मुड़ा हुआ और छोटी आंखे होती हैं। इसके शरीर का रंग सिल्वर और ऊपरी भाग सलेटी रंग का होता है। इनके शरीर पर बहुत छोटे स्केल होते हैं। लेकिन सिर पर कम स्केल होते हैं। यह अपना भोजन पानी की ऊपरी सतह से लेती है। इसका मुख्य भोजन फाइटोप्लैंकटन है। यह छोटे पौधे, पत्ते और गले सड़े जलीय पौधे खाती है। यह अन्य कार्प मछलियों से जल्दी परिपक्व हो जाती है। भारत में यह मछली, मई और जून महीनों में अंडे देने के लिए तैयार हो जाती है। यह अपने शरीर के प्रति किलो भार के अनुसार 0.80-1.0 लाख अंडे देती है। यह प्रजाति किसी भी प्रकार के मोटर बोट या अन्य शोर से परेशान होकर पानी से निकलने के लिए जानी जाती है। प्रति एकड़ में लगभग 2000 सिलवर कार्प मछलियां पाली जा सकती हैं। ये प्रतिवर्ष 6000-9000 किलो प्रति वर्ष आउटपुट देती हैं। यह तेजी से बढ़ने वाली मछली है लेकिन अन्य मछलियों से श्रेष्ठ होती है। एक वर्ष में यह 3—4 किलो की हो जाती है।
ग्रास कार्प-
इसका शरीर बड़ा, सिर लगभग गोल और समतल, चाने बड़े, निचला जबड़ा छोटा और छोटी आंखे होती हैं। इसका सिलवर किनारों के साथ बाहर की ओर से रंग गहरा भूरा होता है और पेट का रंग सफेद होता है। गहरे किनारों के साथ स्केल बड़े आकार के होते हैं। यह नदी में रहने वाली मछली है और ठहरे हुए पानी से बहते हुए पानी में जाने की इच्छा रखती है। यह बड़ी टरबाइड नदियों और संबंधित बाढ़ की झीलों की मछली है। यह 0-40 डिगरी सेल्सियस तापमान को सहन कर सकती है। इस प्रजाति का जीवन काल लंबा होता है। भारत में यह मछली मई जून के महीनों में अंडे देने के लिए तैयार हो जाती है। यह मछली अपने शरीर के प्रति किलो भार के अनुसार 0.8-1.00 लाख अंडे देती है। यह नसल अपने भार के अनुसार भोजन का 40-70 प्रतिशत खा जाती है। लगभग 24000 ग्रास कार्प प्रति एकड़ में पाली जा सकती है। पानी में छोड़ते समय यदि मछली 13—15 सैं.मी. लंबी होती है तो पानी और अन्य स्थितियों के आधार पर इसका भार 8—10 महीनों में 0.5—1.0 किलो हो जाता है। तालाब से निकालते समय मछली का आकार तालाब में 1—1.5 किलो होता है और पिंजरे में 1.5—2.5 किलो होता है।
कॉमन कार्प-
यह जल्दी बढ़ने वाली सर्वआहारी मछली है। यह खुद को बदलते मौसम की स्थितियों के साथ आसानी से ढाल लेती है, इसलिए इसे विश्व के दोनों गर्म और ठंडे क्षेत्रों में पाला जा सकता है। इसका शरीर समतल, पेट गोल, मुंह चौड़ा नीचे की तरफ मुड़ा हुआ, मोटे और बड़े चाने, शरीर का रंग गहरा सलेटी और किनारे सुनहरी पीले रंग के होते हैं। इन मछलियों के शरीर की औसतन लंबाई 12-24 इंच होती है, हालांकि ये बहुत अधिक बड़ी हो सकती हैं। यह मछली पानी की निचली सतह से भोजन लेती है और नदीन और बचे कुचे जैविक पदार्थ खाती है। यह मछली फरवरी से अप्रैल और अक्तूबर से नवंबर महीनों के दैरान अंडे देती है। यह मछली अपने शरीर के प्रति किलो भार के अनुसार लगभग 80,000-1,00,000 अंडे देती है। लगभग 24000 कॉमन कार्प मछलियां प्रति एकड़ में पाली जा सकती हैं। जब पानी का तापमान 18—20 डिगरी सेल्सियस होता है तब यह अच्छे से बढ़ती है। यदि पानी में छोड़ते समय मछली का भार 0.025—0.05 किलो होता है तब परिस्थितियों के आधार पर 2—3 महीने में इसका भार 0.2—0.3 किलो हो जाता है। 5—7 महीनों में इसका भार 1—1.2 किलो और 10—14 महीनों में इसका भार 2.5—3.5 किलो हो जाता है।
पंगसीयस कैटफिश-
इस मछली का शरीर लंबा, बिना स्केल के समतल, छोटा सिर, जीभ पर छोटे तीखे दांतों के साथ, चौड़ा मुंह और बड़ी आंखे होती हैं। युवा मछलियों में लेटरल लाइन के साथ काली धारियां, जबकि प्रौढ़ मछलियों में सलेटी रंग की धारियां, लेकिन कभी-कभी हरे रंग की धारियां भी पायी जाती हैं। यह अत्याधिक प्रवासी नदी मछली की प्रजाति है। इस प्रजाति की परिपक्व मछली की लंबाई 130 सैं.मी. तक पहुंच जाती है और इनका औसतन भार 44 किलो होता है। यह एक सर्वआहारी जीव है लेकिन आने वाले वर्षों के लिए यह शाकाहारी बन जायेगा। यह धान का चूरा, पैलेट फीड और रसोई का बचा कुचा पदार्थ खा सकती है। इसे इसके शरीर के वजन के 2.5 प्रतिशत भोजन की आवश्यकता होती है। इसे 5-6 महीनों के बाद निकाला जाता है जब इसका भार 1-1.5 किलो पर पहुंच जाता है।
मगूर कैटफिश-
इसकी प्रकृति सर्वआहारी होती है। यह ज्यादातर रात में सक्रिय होती है और मुख्यत: मछली के अंडे, कीटों का लार्वा और पौधे की सामग्री खाती है। यह ज्यादातर तालाबों, नदियों और कीचड़ में पायी जाती है। यह मछली ज्यादातर दलदलीय पानी में पायी जाती है। मगूर एक सख्त मछली होती है और कुछ समय तक बिना पानी के रह सकती है और थोड़ी दूरी पर जा सकती है। इस मछली की उच्च कीमत होने के कारण भारत और बांग्लादेश में ज्यादा मांग है। इस मछली में प्रोटीन और आयरन उच्च मात्रा में होता है जबकि वसा की मात्रा इसमें बहुत कम होती है। इस प्रजाति की मछली को पानी के कंटेनर में लंबे समय तक बिना भोजन दिए जिंदा रखा जा सकता है क्योंकि इन मछलियों में विशेष सहायक श्वसन अंग होते हैं। इसे व्यापारिक फीड या घर की बनी हुई फीड जिसमें सरसों के तेल के केक को भोजन में मिश्रित करके दिया जा सकता है। यदि इसकी अच्छी तरह से देख रेख की गई हो, तो इसे 6-8 महीनों के बाद निकाला जा सकता है। रीयरिंग के समय मगूर कैटफिश का भार 120-140 ग्राम होता है।
तिलापिया कैटफिश-
तिलापिया दुनिया में दूसरी सबसे ज्यादा पाली जाने वाली मछली है और भारत में इसका व्यावसायिक पालन सीमित है। तिलापिया मछली पालन के लिए एशियाई देशों का मौसम और पर्यावरण स्थितियां अनुकूल है। 1959 में फिशरीज़ रिसर्च कमेटी ऑफ इंडिया द्वारा इस मछली के पालन पर रोक लगा दी गई थी। लेकिन वर्तमान में कुछ राज्यों की स्थितियों के कारण इसके पालन पर से रोक हटा दी गई है। इसकी तेजी से वृद्धि करने की विशेषता के कारण मछली पालकों और ग्राहकों में इसकी उच्च मांग है। यह प्रकृति में सर्वआहारी हैं यह फाइटोप्लैंकटोन, जलीय पौधे और छोटे, कमज़ोर जीवों को खाती है। इसकी फीड बनावटी और फ्लोटिंग होती है। स्थानीय किसानों और यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय मार्किट में इसकी बीमारी रोधक गुणवत्ता के कारण इसकी मांग दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। यह प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवित रह सकती है और इसमें प्राकृतिक भोजन खाने की क्षमता होती है। तिलापिया मछली की फीड रूपांतरण दर 1.25-1.5 होती है। इसे 5-6 दिनों के बाद निकाला जा सकता है यदि इसकी अच्छी तरह से देख रेख की गई हो तो बाहर निकालने के समय इसका भार 500-600 ग्राम होता है। मुख्यत: 20000-25000 मछलियां प्रति एकड़ क्षेत्र में पाली जा सकती हैं।
कालबासु-
कालबासु को भारतीय नदियों जैसे गंगा, यमुना और काली नदियों में पाया जाता है। इनका डोरसल भाग, पेट की तुलना में अधिक बाहर की तरफ होता है। इसके होंठ झालर और मोटे होते हैं। इसके काडल पंख छोटे होते हैं। शरीर का रंग गहरा काला और शरीर का उदर भाग हल्का गहरा होता है। मुंह थोड़ा चौड़ा और आंख की पुतली कॉपर रंग की होती है। कालबासु सर्वआहारी प्रकृति की होती है और चयनित भोजन खाती है। यह मुख्यत: जैविक सामग्री, पौध सामग्री, नीली हरी काई और ज़ूप्लांकेटोन खाती है। इसकी नाक में कोई छिद्र नहीं होता। इस मछली की लंबाई 90 सैं.मी. होती है। इस मछली के लिवर के तेल में विटामिन ए की मात्रा होती है।
साराना-
यह मछली प्रायद्वीपीय भारत में पायी जाती है। यह ज्यादातर केरला, कर्नाटका, तामिलनाडू और आंध्रा प्रदेश की कृष्णा और कावेरी नदियों में पायी जाती है। यह केरला के बैकवॉटर में आम है। यह मध्यम आकार की, गहरे शरीर वाली सिलवर मछली है। इसके शरीर का निचला भाग पीले रंग का होता है। साराना मछली के गलफड़े के ऊपर काले रंग का धब्बा और एक काले रंग का धब्बा पूंछ के आधार के नज़दीक होता है। इसके दो जोड़े बारबल के होते हैं, जिनमें से एक जोड़ा लंबा और विशिष्ट होता है। इसके शरीर पर लेटरल लाइन के ऊपर 28-31 मध्यम आकार के स्केल होते हैं। यह 31-42 सैं.मी. लंबी, चौड़ा मुंह और बड़ी आंखें, गोल नाक, पीठ सिलवर रंग की और पेट पीले सफेद रंग का होता है। यह मुख्यत: पहली बार मई से मध्य सितंबर में अंडे देती है, जिसमें अंडे देने का उपयुक्त समय जून का महीना है और फिर दूसरी बार अगस्त और सितंबर में अंडे देती है।
स्कैंपाई क्रसटेशिअन्स-
इनकी लंबाई 200 मि.मी. और पंजे बेलनाकार होते हैं। स्कैंपाई मुख्य रूप से 10-250 मीटर के बीच की गहराई में बिल में रहती हैं। इसका औसतन 200 ग्राम भार होता है। मुख्यत: 12000-16000 स्कैंपाई प्रति एकड़ में पाली जा सकती हैं।
मछली पालन के कुछ आवश्यक बाते -
मछली एक उच्च कोटि का खाद्य पदार्थ है। इसके उत्पादन में वृद्धि किये जाने हेतु मत्स्य विभाग निरन्तर प्रयत्नशील है। प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में विभिन्न प्रकार के तालाब, पोखरें और जल प्रणालियां प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं जिनमें वैज्ञानिक रूप से मत्स्य पालन अपना कर मत्स्य उत्पादन में वृद्धि करके लोगों को पोषक और संतुलित आहार उपलब्ध कराया जा सकता है। मत्स्य पालन हेतु कोई भी इच्छुक व्यक्ति जिसके पास अपना निजी तालाब हो अथवा निजी भूमि या पट्टे का तालाब, उत्तर प्रदेश में किसी भी जिले में मत्स्य पालन की सुविधा प्राप्त कर सकता है :-
- इच्छुक व्यक्ति जिनके पास अपनी निजी भूमि या तालाब हो वह उस भूमि सम्बन्धी खसरा खतौनी लेकर जनपदीय कार्यालय सम्पर्क करे। पट्टे के तालाब पर मत्स्य पालन हेतु पट्टा निर्गमन प्रमाण-पत्र के साथ जनपदीय कार्यालय सम्पर्क किया जा सकता है।
- विभाग द्वारा क्षेत्रीय मत्स्य विकास अधिकारी/अभियन्ता द्वारा भूमि/तालाब का सर्वेक्षण कर प्रोजेक्ट तैयार किया जाता है।
- तालाबों/प्रस्तावित तालाबों की भूमि का मृदा-जल के नमूनों का परीक्षण विभागीय प्रयोगशाला में नि:शुल्क किया जाता है तथा इसकी विधिवत जानकारी इच्छुक व्यक्ति को दी जाती है।
- मृदा-जल के परीक्षणोंपरान्त कोई कमी पायी जाती है तो उसका उपचार/निदान मत्स्य पालन हेतु इच्छुक व्यक्ति को बताया जाता है।
- यदि भूमि/तालाब मत्स्य पालन योग्य है तो जनपदीय कार्यालय द्वारा प्रोजेक्ट तैयार कर संस्तुति सहित प्रोजेक्ट बैंक को ऋण स्वीकृति हेतु भेजा जाता है।
- बैंक स्वीकृति प्राप्त होने पर अनुदान की राशि बैंक को भेज दी जाती है।
- मत्स्य पालन की तकनीकी जानकारी एवं मत्स्य पालन हेतु आवश्यक प्रशिक्षण ब्लाक/तहसील स्तर पर क्षेत्रीय मत्स्य विकास अधिकारी/जनपदीय अथवा मण्डलीय कार्यालय से सम्पर्क कर प्राप्त की जा सकती है।
- मत्स्य बीज की आपूर्ति मत्स्य विभाग/मत्स्य विकास निगम द्वारा की जाती है। इच्छुक मत्स्य पालक इनके द्वारा मत्स्य बीज प्राप्त कर सकते हैं।
- समय-समय पर कृषि मेलों/प्रदर्शनियों में विभागीय योजनाओं एवं मत्स्य पालकों को दी जा रही सुविधाओं की जानकारी दी जाती है।
- मत्स्य विपणन के विषय में जानकारी सम्बन्धित जनपदीय कार्यालय से प्राप्त की जा सकती है।
मछली पालन का कैलेण्डर-
मत्स्य पालन हेतु निम्न कैलेण्डर के अनुसार मार्गदर्शन लिया जा सकता है :-
पहली तिमाही-
अप्रैल, मई व जून का महीना।
- उपयुक्त तालाब का चुनाव।
- नये तालाब के निर्माण हेतु उपयुक्त स्थल का चयन।
- मिट्टी पानी की जांच।
- तालाब सुधार/निर्माण हेतु मत्स्य पालक विकास अभिकरणों के माध्यम से तकनीकी व आर्थिक सहयोग लेते हुए तालाब सुधार/निर्माण कार्य की पूर्णता।
- अवांछनीय जलीय वनस्पतियों की सफाई।
- एक मीटर पानी की गहराई वाले एक हेक्टेयर के तालब में 25 कुन्तल महुआ की खली के प्रयोग के द्वारा अथवा बार-बार जाल चलवाकर अवांछनीय मछलियों की निकासी।
- उर्वरा शक्ति की वृद्धि हेतु 250 कि०ग्रा०/हे० चूना तथा सामान्यत: 10 से 20 कुन्तल/हेक्टे०/मास गोबर की खाद का प्रयोग।
दूसरी तिमाही-
जुलाई, अगस्त एवं सितम्बर का महीना
- मत्स्य बीज संचय के पूर्व पानी की जांच (पी-एच 7.5 से 8.0 व घुलित आक्सीजन 5 मि०ग्रा०/लीटर होनी चाहिए)।
- तालाब में 25 से 50 मि०मी० आकार के 10,000 से 15,000 मत्स्य बीज का संचय।
- पानी में उपलब्ध प्राकृतिक भोजन की जांच।
- गोबर की खाद के प्रयोग के 15 दिन बाद सामान्यत: 49 कि०ग्रा०/हे०/मास की दर से एन०पी०के० खादों (यूरिया 20 कि०ग्रा०, सिंगिल सुपर फास्फेट 25 कि०ग्रा०, म्यूरेट ऑफ पोटाश 4 कि०ग्रा०) का प्रयोग।
तीसरी तिमाही
अक्टूबर, नवम्बर एवं दिसम्बर का महीना
- मछलियों की वृद्धि दर की जांच।
- मत्स्य रोग की रोकथाम हेतु सीफेक्स का प्रयोग अथवा रोग ग्रस्त मछलियों को पोटेशियम परमैगनेट या नमक के घोल में डालकर पुन: तालाब में छोड़ना।
- पानी में प्राकृतिक भोजन की जांच।
- पूरक आहार दिया जाना।
- ग्रास कार्प मछली के लिए जलीय वनस्पतियों (लेमरा, हाइड्रिला, नाजाज, सिरेटोजाइलम आदि) का प्रयोग।
- उर्वरकों का प्रयोग।
चौथी तिमाही
जनवरी, फरवरी एवं मार्च का महीना।
- बड़ी मछलियों की निकासी एवं विक्रय।
- बैंक के ऋण किस्त की अदायगी।
- एक हेक्टेयर के तालाब में कामन कार्प मछली के लगभग 1500 बीज का संचय
- पूरक आहार दिया जाना।
- उर्वरकों का प्रयोग।
पालन हेतु उपयुक्त तालाब का चयन/निर्माण-
जिस प्रकार कृषि के लिए भूमि आवश्यक है उसी प्रकार मत्स्य पालन के लिए तालाब की आवश्यकता होती है। ग्रामीण अंचलों में विभिन्न आकार प्रकार के तालाब व पोखरें पर्याप्त संख्या में उपलब्ध होते हैं जो कि निजी, संस्थागत अथवा गांव सभाओं की सम्पत्ति होते हैं। इस प्रकार के जल संसाधन या तो निष्प्रयोज्य पड़े रहते हैं अथवा उनका उपयोग मिट्टी निकालने, सिंघाड़े की खेती करने, मवेशियों को पानी पिलाने, समीपवर्ती कृषि योग्य भूमि को सींचने आदि के लिए किया जाता है।
मत्स्य पालन हेतु 0.2 हेक्टेयर से 5.0 हेक्टेयर तक के ऐसे तालाबों का चयन किया जाना चाहिए जिनमें वर्ष भर 8-9 माह पानी भरा रहे। तालाबों को सदाबहार रखने के लिए जल की आपूर्ति का साधन होना चाहिए। तालाब में वर्ष भर एक से दो मीटर पानी अवश्य बना रहे। तालाब ऐसे क्षेत्रों में चुने जायें जो बाढ़ से प्रभावित न होते हों तथा तालाब तक आसानी से पहुंचा जा सके। बन्धों का कटा फटा व ऊँचा होना, तल का असमान होना, पानी आने-जाने के रास्तों का न होना, दूसरे क्षेत्रों से अधिक पानी आने-जाने की सम्भावनाओं का बना रहना आदि कमियां स्वाभाविक रूप से तालाब में पायी जाती हैं जिन्हें सुधार कर दूर किया जा सकता है। तालाब को उचित आकार-प्रकार देने के लिए यदि कही पर टीले आदि हों तो उनकी मिट्टी निकाल का बन्धों पर डाल देनी चाहिए। कम गहराई वाले स्थान से मिट्टी निकालकर गहराई एक समान की जा सकती है। तालाब के बन्धें बाढ़ स्तर से ऊंचे रखने चाहिए। पानी के आने व निकास के रास्ते में जाली की व्यवस्था आवश्यक है ताकि पाली जाने वाली मछलियां बाहर न जा सकें और अवांछनीय मछलियां तालाब में न आ सके। तालाब का सुधार कार्य माह अप्रैल व मई तक अवश्य करा लेना चाहिए जिससे मत्स्य पालन करने हेतु समय मिल सके।
नये तालाब के निर्माण हेतु उपयुक्त स्थल का चयन विशेष रूप से आवश्यक है। तालाब निर्माण के लिए मिट्टी की जल धारण क्षमता व उर्वरकता को चयन का आधार माना जाना चाहिए। ऊसर व बंजर भूमि पर तालाब नहीं बनाना चाहिए। जिस मिट्टी में अम्लीयता व क्षारीयता अधिक हो उस पर भी तालाब निर्मित कराया जाना उचित नहीं होता है। इसके अतिरिक्त बलुई मिट्टी वाली भूमि में भी तालाब का निर्माण उचित नहीं होता है क्योंकि बलुई मिट्टी वाले तालाबों में पानी नहीं रूक पाता है। चिकनी मिट्टी वाली भूमि में तालाब का निर्माण सर्वथा उपयुक्त होता है। इस मिट्टी में जलधारण क्षमता अधिक होती है। मिट्टी की पी-एच 6.5-8.0, आर्गेनिक कार्बन 1 प्रतिशत तथा मिट्टी में रेत 40 प्रतिशत, सिल्ट 30 प्रतिशत व क्ले 30 प्रतिशत होना चाहिए। तालाब निर्माण के पूर्व मृदा परीक्षण मत्स्य विभाग की प्रयोगशालाओं अथवा अन्य प्रयोगशालाओं से अवश्य करा लेना चाहिए। तालाब के बंधे में दोनों ओर के ढलानों में आधार व ऊंचाई का अनुपात साधारणतया 2:1 या 1.5:1 होना उपयुक्त है। बंधे की ऊंचाई आरम्भ से ही वांछित ऊंचाई से अधिक रखनी चाहिए ताकि मिट्टी पीटने, अपने भार तथा वर्षा के कारण कुछ वर्षों तक बैठती रहे। बंध का कटना वनस्पतियों व घासों को लगाकर रोका जा सकता है। इसके लिए केले, पपीते आदि के पेड़ बंध के बाहरी ढलान पर लगाये जा सकते हैं। नये तालाब का निर्माण एक महत्वपूर्ण कार्य है तथा इस सम्बन्ध में मत्स्य विभाग के अधिकारियों का परामर्श लिया जाना चाहिए।
मिट्टी पानी की जांच-
मछली की अधिक पैदावार के लिए तालाब की मिट्टी व पानी का उपयुक्त होना परम आवश्यक है। मण्डल स्तर पर मत्स्य विभाग की प्रयोगशालाओं द्वारा मत्स्य पालकों के तालाबों की मिट्टी पानी की नि:शुल्क जांच की जाती है तथा वैज्ञानिक विधि से मत्स्य पालन करने के लिए तकनीकी सलाह दी जाती है। वर्तमान में मत्स्य विभाग की 12 प्रयोगशालायें कार्यरत हैं। केन्द्रीय प्रयोगशाला मत्स्य निदेशालय, 7 फैजाबाद रोड, लखनऊ में स्थित है। शेष 11 प्रयोगशालाये फैजाबाद, गोरखपुर, वाराणसी, आजमगढ़, मिर्जापुर, इलाहाबाद, झांसी, आगरा, बरेली, मेरठ मण्डलों में उप निदेशक मत्स्य के अन्तर्गत तथा जौनपुर जनपद में गूजरताल मत्स्य प्रक्षेत्र पर कार्यरत हैं।
तालाब प्रबन्ध व्यवस्था-
मत्स्य पालन प्रारम्भ करने से पूर्व यह अत्यधिक आवश्यक है कि मछली का बीज डालने के लिए तालाब पूर्ण रूप से उपयुक्त हो।
अनावश्यक जलीय पौधों का उन्मूलन-
तालाब में आवश्यकता से अधिक जलीय पौधों का होना मछली की अच्छी उपज के लिए हानिकारक है। यह पौधे पानी का बहुत बड़ा भाग घेरे रहते हैं जिसमें मछली के घूमने-फिरने में असुविधा होती है। साथ ही यह सूर्य की किरणों को पानी के अन्दर पहुंचने में भी बाधा उत्पन्न करते हैं। परिणामस्वरूप मछली का प्राकृतिक भोजन उत्पन्न होना रूक जाता है और प्राकृतिक भोजन के अभाव में मछली की वृद्धि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त यह पौधे मिट्टी में पाये जाने वाले रासायनिक पदार्थों का प्रचूषण करके अपनी बढ़ोत्तरी करते हैं और पानी की पौष्टिकता कम हो जाती है। मछली पकड़ने के लिए यदि जाल चलाया जाय तब भी यह पौधे रूकावट डालते हैं। सामान्यत: तालाबों में जलीय पौधे तीन प्रकार के होते हैं - एक पानी की सतह वाले जैसे जलकुम्भी, लेमना आदि, दूसरे जड़ जमाने वाले जैसे कमल इत्यादि और तीसरे जल में डूबे रहने वाले जैसे हाइड्रिला, नाजाज आदि। यदि तालाब में जलीय पौधों की मात्रा कम हो तो इन्हें जाल चलाकर या श्रमिक लगाकर जड़ से उखाड़कर निकाला जा सकता है। अधिक जलीय वनस्पति होने की दशा में रसायनों का प्रयोग जैसे 2-4 डी सोडियम लवण, टेफीसाइड, हैक्सामार तथा फरनेक्सान 8-10 कि०ग्रा० प्रति हे० जलक्षेत्र में प्रयोग करने से जलकुम्भी, कमल आदि नष्ट हो जाते हैं। रसायनों के प्रयोग के समय विशेष जानकारी मत्स्य विभाग के कार्यालयों से प्राप्त की जानी चाहिए। कुछ जलमग्न पौधे ग्रास कार्प मछली का प्रिय भोजन होते हैं अत: इनकी रोकथाम तालाब में ग्रासकार्प मछली पालकर की जा सकती है। उपयुक्त यही है कि अनावश्यक पौधों का उन्मूलन मानव-शक्ति से ही सुनिश्चित किया जाय।
अवांछनीय मछलियों की सफाई-
पुराने तालाबों में बहुत से अनावश्यक जन्तु जैसे कछुआ, मेंढक, केकड़े और मछलियां जैसे सिंधरी, पुठिया, चेलवा आदि एवं भक्षक मछलियां उदाहरणार्थ पढ़िन, टैंगन, सौल, गिरई, सिंघी, मांगुर आदि पायी जाती हैं जो कि तालाब में उपलब्ध भोज्य पदार्थों को अपने भोजन के रूप में ग्रहण करती हैं। मांसाहारी मछलियां कार्प मछलियों के बच्चों को खा जाती है जिससे मत्स्य पालन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अत: इनकी सफाई नितान्त आवश्यक है। अवांछनीय मछलियों का निष्कासन बार-बार जाल चलाकर या पानी निकाल कर अथवा महुआ की खली के प्रयोग द्वारा किया जा सकता है। महुए की खली का प्रयोग एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के एक मीटर पानी की गहराई वाले तालाब में 25 कुंटल की दर से किया जाना चाहिए। इसके परिणाम स्वरूप 6-8 घंटों में सारी मछलियां मर कर ऊपर आ जाती हैं जिन्हें जाल चलाकर एकत्र करके बाजार में बेचा जा सकता है। महुए की खली का प्रयोग तालाब के लिए दोहरा प्रभाव डालता है। विष के अलावा 15-20 दिन बाद यह खाद का भी कार्य करती है जिससे मछली के प्राकृतिक भोजन का उत्पादन होता है।
जलीय उत्पादकता हेतु चूने का प्रयोग-
पानी का हल्का क्षारीय होना म्त्स्य पालन के लिए लाभप्रद है। पानी अम्लीय अथवा अधिक क्षारीय नहीं होना चाहिए। चूना जल की क्षारीयता बढ़ाता है अथवा जल की अम्लीयता व क्षारीयता को संतुलित करता है। इसके अतिरिक्त चूना मछलियों को विभिन्न परोपजीवियों के प्रभाव से मुक्त रखता है और तालाब का पानी उपयुक्त बनाता है। एक हेक्टेयर के तालाब में 250 कि०ग्रा० चूने का प्रयोग मत्स्य बीज संचय से एक माह पूर्व किया जाना चाहिए।
गोबर की खाद का प्रयोग-
तालाब की तैयारी में गोबर की खाद की महत्वपूर्ण भूमिका है। इससे मछली का प्राकृतिक भोजन उत्पन्न होता है। गोबर की खाद, मत्स्य बीज संचय से 15-20 दिन पूर्व सामान्तया 10-20 टन प्रति हे० प्रति वर्ष 10 समान मासिक किश्तों में प्रयोग की जानी चाहिए। यदि तालाब की तैयारी में अवांछनीय मछलियों के निष्कासन के लिए महुआ की खली डाली गयी हो तो गोबर की खाद की पहली किश्त डालने की आवश्यकता नहीं है।
रासायनिक खादों का प्रयोग-
सामान्यत: रासायनिक खादों में यूरिया 200 किलोग्राम, सिंगिल सुपर फास्फेट 250 कि०ग्रा० व म्यूरेट ऑफ पोटाश 40 कि०ग्रा० अर्थात कुल मिश्रण 490 कि०ग्रा० प्रति हे० प्रति वर्ष 10 समान मासिक किश्तों में प्रयोग किया जाना चाहिए। इस प्रकार 49 कि०ग्रा० प्रति हे० प्रति माह रासायनिक खादों के मिश्रण को गोबर की खाद के प्रयोग 15 दिन बाद तालाब में डाला जाना चाहिए। यदि तालाब के पानी का रंग गहरा हरा या गहरा नीला हो जाये तो उर्वरकों का प्रयोग तब तक बन्द कर देना चाहिए जब तक पानी का रंग उचित अवस्था में न आ जाये।
मत्स्य बीज की आपूर्ति-
तालाब में ऐसी उत्तम मत्स्य प्रजातियों के शुद्ध बीज का संचय सुनिश्चित किया जाना चाहिए जो कि एक ही जलीय वातावरण में रहकर एक दूसरे को क्षति न पहुंचाते हुए तालाब की विभिन्न सतहों पर उपलब्ध भोजन का उपभोग करें तथा तीव्रगति से बढ़ें। भारतीय मेजर कार्प मछलियों में कतला, रोहू एवं नैन तथा विदेशी कार्प मछलियों में सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प एवं कामन कार्प का मिश्रित पालन विशेष लाभकारी होता है। उत्तम मत्स्य प्रजातियों का शुद्ध बीज, मत्स्य पालन की आधारभूत आवश्यकता है। उत्तर प्रदेश मत्स्य विकास निगम की हैचरियों तथा मत्स्य विभाग के प्रक्षेत्रों पर उत्पादित बीज की आपूर्ति मत्स्य पालकों को आक्सीजन पैकिंग में तालाब तक निर्धारित सरकारी दरों पर की जाती है। उत्तर प्रदेश को मत्स्य बीज उत्पादन के क्षेत्र में मांग के अनुसार आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य मत्स्य बीज उत्पादन के निजीकरण पर विशेष बल दिया जा रहा है तथा निजी क्षेत्र में 10 मिलियन क्षमता वाली एक मिनी मत्स्य बीज हैचरी की स्थापना के लिए रू० 8.00 लाख तक बैंक ऋण व इस पर 10 प्रतिशत शासकीय अनुदान की सुविधा अनुमन्य है। मत्स्य पालक निजी क्षेत्रों में स्थापित छोटे आकार की हैचरियों से भी शुद्ध बीज प्राप्त कर सकते हैं।
मत्स्य बीज संचय व अंगुलिकाओं की देखभाल-
तालाब में ऐसी मत्स्य प्रजातियों का पालन किया जाना चाहिए जो एक पर्यावरण में साथ-साथ रह कर एक दूसरे को क्षति न पहुंचाते हुए प्रत्येक सतह पर उपलब्ध भोजन का उपयोग करते हुए तीव्रगति से बढ़ने वाली हों ताकि एक सीमित जलक्षेत्र से अधिक से अधिक मत्स्य उत्पादन सुनिश्चित हो सके। भारतीय मेजर कार्प मछलियों में कतला, रोहू, नैन तथा विदेशी कार्प मछलियों में सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प व कामन कार्प का मिश्रित पालन काफी लाभकारी होता है। तालाब में मत्स्य बीज संचय से पूर्व यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि तैयारी पूर्ण हो गयी है और जैविक उत्पादन हो चुका है। मछली का प्राकृतिक भोजन जिसे प्लांक्टान कहते हैं पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना चाहिए। तालाब के 50 लीटर पानी में एक मि०ली० प्लांक्टान की उपलब्धता इस बात का द्योतक है कि मत्स्य बीज संचय किया जा सकता है। एक हे० जल क्षेत्र में 50 मि०मी० आकार से कम का 10,000 मत्स्य बीज तथा 50 मि०मी० से अधिक आकार की 5000 अंगुलिकाएं संचित की जानी चाहिए। यदि छह प्रकार की देशी व विदेशी कार्प मछलियों का मिश्रित पालन किया जा रहा हो तो कतला 20 प्रतिशत सिल्वर कार्प 10 प्रतिशत, रोहू 30 प्रतिशत, ग्रास कार्प 10 प्रतिशत, नैन 15 प्रतिशत व कामन कार्प 15 प्रतिशत का अनुपात उपयुक्त होता है। यदि सिल्वर कार्प व ग्रास कार्प मछलियों का पालन नहीं किया जा रहा है और 4 प्रकार की मछलियां पाली जा रही हैं तो संचय अनुपात कतला 40 प्रतिशत, रोहू 30 प्रतिशत, नैन 15 प्रतिशत व कामन कार्प 15 प्रतिशत होना लाभकारी होता है। यदि केवल भारतीय मेजर कार्प मछलियों का ही पालन किया जा रहा हो तो कतला 40 प्रतिशत, रोहू 30 प्रतिशत, नैन 30 प्रतिशत का अनुपात होना चाहिए। कामन कार्प मछली का बीज मार्च, अप्रैल व मई में तथा अन्य कार्प मछलियों का बीज जुलाई, अगस्त, सितम्बर में प्राप्त किया जा सकता है।
मृदा एवं जल का विस्तृत विवरण-
मछली की अधिक पैदावार के लिए तालाब की मिट्टी व पानी का उपयुक्त होना परम आवश्यक है। ऐसी मिट्टी जिसमें सैण्ड 40 प्रतिशत तक, सिल्ट 30 प्रतिशत तथा क्ले 30 प्रतिशत हो एवं पी-एच 6.5 से 7.5 हो, मत्स्य पालन हेतु तालाब निर्माण के लिए उपयुक्त होती है। मिट्टी में सैण्ड का प्रतिशत अधिक होने पर तालाब में पानी रूकने की समस्या होती है। अधिक क्षारीय मृदा भी मत्स्य पालन हेतु उपयुक्त नहीं होती है। तालाब की मिट्टी में 50 मि०ग्रा० नाइट्रोजन तथा 6 मि०ग्रा० फास्फोरस प्रति 100 ग्राम मिट्टी एवं एक प्रतिशत आर्गेनिक कार्बन होना चाहिए। यदि उपलब्ध नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं आर्गेनिक कार्बन सामान्य से कम है तो निर्धारित मात्राओं में जैविक व रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग करते हुए तालाब को मत्स्य पालन हेतु उपयुक्त बनाया जा सकता है।
तालाब के जल का रंग हल्का भूरा होना उपयुक्त होता है क्योंकि इस प्रकार के जल में मछली का प्राकृतिक भोजन प्लांक्टान उपलब्ध होता है। पानी हल्का क्षारीय होना उपयुक्त होता है। पानी की पी-एच 7.5 से 8.5 घुलित आक्सीजन 5 मि०ग्रा० प्रति लीटर, स्वतंत्र कार्बन डाइआक्साइड 0 से 0.5 मि०ग्रा० प्रति लीटर, सम्पूर्ण क्षरीयता 150-250 मि०ग्रा० प्रति लीटर, क्लोराइड्स 30-50 मि०ग्रा० प्रति लीटर तथा कुल कठोरता 100-180 मि०ग्रा० प्रति लीटर तक होनी चाहिए। मत्स्य पालकों के तालाबों की मिट्टी-पानी का नि:शुल्क परीक्षण मत्स्य विभाग की प्रयोगशालाओं द्वारा किया जाता है तथा वैज्ञानिक विधि से मत्स्य पाल करने हेतु तकनीकी सलाह दी जाती है। वर्तमान में मत्स्य विभाग की 12 प्रयोगशालायें कार्यरत हैं। केन्द्रीय प्रयोगशाला मत्स्य निदेशालय 7-फैजाबाद रोड, लखनऊ में स्थित है। शेष 11 प्रयोगशालायें फैजाबाद, गोरखपुर, वाराणसी, आजमगढ़, मिर्जापुर, इलाहाबाद, झाँसी, आगरा, बरेली, मेरठ मण्डलों में उप निदेशक मत्स्य के अन्तर्गत तथा जौनपुर जनपद में गूजरताल मत्स्य प्रक्षेत्र पर कार्यशील है।
मत्स्य रोग, लक्षण एवं उनका निदान-
सैपरोलगनियोसिस
लक्षण :- शरीर पर रूई के गोल की भांति सफेदी लिए भूरे रंग के गुच्छे उग जाते हैं।
उपचार-3 प्रतिशत साधारण नमक घोल या कॉपर सल्फेट के 1:2000 सान्द्रता वाले घोल में 1:1000 पोटेशियम के घोल में 1-5 मिनट तक डुबाना छोटे तालाबों को एक ग्राम मैलाकाइट ग्रीन को 5-10 मी० पानी की दर प्रभावकारी है।
बैंकियोमाइकोसिस-
लक्षण :-गलफड़ों का सड़ना, दम घुटने के कारण रोगग्रस्त मछली ऊपरी सतह पर हवा पीने का प्रयत्न करती है। बार-बार मुंह खोलती और बंद करती है।
उपचार-प्रदूषण की रोकथाम, मीठे पानी से तालाब में पानी के स्तर को बढ़ाकर या 50-100 कि०ग्रा०/हे० चूने का प्रयोग या 3-5 प्रतिशत नमक के घोल में स्नान या 0.5 मीटर गहराई वाले तालाबों में 8 कि०ग्रा०/हे० की दर से कॉपर सल्फेट का प्रयोग करना।
फिश तथा टेलरोग-
लक्षण :-आरम्भिक अवस्था में पंखों के किनारों पर सफेदी आना, बाद में पंखों तथा पूंछ का सड़ना।
उपचार :-पानी की स्वच्छता फोलिक एसिड को भोजन के साथ मिलाकर इमेक्विल दवा 10 मि०ली० प्रति 100 लीटर पानी में मिलाकर रोगग्रस्त मछली को 24 घंटे के लिए घोल में (2-3 बार) एक्रिप्लेविन 1 प्रतिशत को एक हजार ली० पानी में 100 मि०ली० की दर से मिलाकर मछली को घोल में 30 मिनट तक रखना चाहिए।
अल्सर (घाव) -
लक्षण :-सिर, शरीर तथा पूंछ पर घावों का पाया जाना।
उपचार :-5 मि०ग्रा०/ली० की दर से तालाब में पोटाश का प्रयोग, चूना 600 कि०ग्रा०/हे०मी० (3 बार सात-सात दिनों के अन्तराल में), सीफेक्स 1 लीटर पानी में घोल बनाकर तालाब में डाले,
ड्राप्सी (जलोदर) -
लक्षण :-आन्तरिक अंगो तथा उदर में पानी का जमाव
उपचार :-मछलियों को स्वच्छ जल व भोजन की उचित व्यवस्था, चूना 100 कि०ग्रा०/हे० की दर से 15 दिन के उपरान्त (2-3 बार)
प्रोटोजोन रोग "कोस्टिएसिस" -
लक्षण :-शरीर एवं गलफड़ों पर छोटे-छोटे धब्बेदार विकार
उपचार :-50 पी०पी०एम० फोर्मीलिन के घोल में 10 मिनट या 1:500 ग्लेशियल एसिटिक एसिड के घोल में 10 मिनट
कतला का नेत्र रोग -
लक्षण :-नेत्रों में कॉरनिया का लाल होना प्रथम लक्षण, अन्त में आंखों का गिर जाना, गलफड़ों का फीका रंग इत्यादि
उपचार :-पोटाश 2-3 पी०पी०एम०, टेरामाइसिन को भोजन 70-80 मि०ग्रा० प्रतिकिलो मछली के भार के (10 दिनों तक), स्टेप्टोमाईसिन 25 मि०ग्रा० प्रति कि०ग्रा० वजन के अनुसार इन्जेक्शन का प्रयोग
इकथियोपथिरिऑसिस (खुजली का सफेददाग)-
लक्षण :-अधिक श्लेष्मा का स्त्राव, शरीर पर छोटे-छोटे अनेक सफेद दाने दिखाई देना
उपचार :-7-10 दिनों तक हर दिन, 200 पी०पी०एम० फारगीलन के घोल का प्रयोग स्नान घंटे, 7 दिनों से अधिक दिनों तक 2 प्रतिशत साधारण घोल का प्रयोग,
ट्राइकोडिनिओसिस तथा शाइफिडिऑसिस-
लक्षण :-श्वसन में कठिनाई, बेचैन होकर तालाब के किनारे शरीर को रगड़ना, त्वचा तथा गलफड़ों पर अत्याधिक श्लेष स्त्राव, शरीर के ऊपर
उपचार :-2-3 प्रतिशत साधारण नमक के घोल में (5-10 मिनट तक), 10 पी०पी०एम० कापर सल्फेट घोल का प्रयोग, 20-25 पी०पी०एम० फार्मोलिन का प्रयोग
मिक्सोस्पोरोडिऑसिस-
लक्षण :-त्वचा, मोनपक्ष, गलफड़ा और अपरकुलम पर सरसों के दाने
उपचार :-0.1 पी०पी०एम० फार्मोलिन में, 50 पी०पी०एम० फार्मोलिन में 1-2 बराबर सफेद कोष्ट मिनट डुबोए, तालाब में 15-25 पी०पी०एम० फार्मानिल हर दूसरे दिन, रोग समाप्त होने तक उपयोग करें, अधिक रोगी मछली को मार देना चाहिए तथा मछली को दूसरे तालाब में स्थानान्तरित कर देना चाहिए।
कोसटिओसिस -
लक्षण :-अत्याधिक श्लेषा, स्त्राव, श्वसन में कठिनाई और उत्तेजना
उपचार :-2-3 प्रतिशत साधारण नमक 50 पी०पी०एम० फार्मोलिन के घोल में 5-10 मिनट तक या 1:500 ग्लेशियस एसिटिक अम्ल के घोल में स्नान देना (10 मिनट तक)
डेक्टायलोगारोलोसिस तथा गायरडैक्टायलोसिक (ट्रेमैटोड्स)-
लक्षण :-प्रकोप गलफड़ों तथा त्वचा पर होता है तथा शरीर में काले रंग के कोष्ट
उपचार :- 500 पी०पी०एम० पोटाश ओ (ज्ञक्दवद) के घोल में 5 मिनट बारी-बारी से 1:2000, एसिटिक अम्ल तथा सोडियम क्लोराइड 2 प्रतिशत के घोल में स्नान देना।
डिपलोस्टोमियेसिस या ब्लैक स्पाट रोग -
लक्षण :- शरीर पर काले धब्बे
उपचार :-परजीवी के जीवन चक्र को तोड़ना चाहिए। घोंघों या पक्षियों से रोक
लिगुलेसिस (फीताकृमि) -
लक्षण :-कृमियों के जमाव के कारण उदर फूल जाता है।
उपचार :- परजीवी के जीवन चक्र को तोड़ना चाहिए इसके लिए जीवन चक्र से जुड़े जीवों घोंघे या पक्षियों का तालाब में प्रवेश वर्जित, 10 मिनट तक 1:500 फाइमलीन घोल में डुबोना, 1-3 प्रतिशत नमक के घोल का प्रयोग।
आरगुलेसिस-
लक्षण :- कमजोर विकृत रूप, शरीर पर लाल छोटे-छोटे ध्ब्बे इत्यादि
उपचार :- 24 घण्टों तक तालाब का पानी निष्कासित करने के पश्चात 0.1-0.2 ग्रा०/लीटर की दर से चूने का छिड़काव गौमोक्सिन पखवाड़े में दो से तीन बार प्रयोग करना उत्तम है। 35 एम०एल० साइपरमेथिन दवा 100 लीटर पानी में घोलकर 1 हे० की दर से तालाब में 5-5 दिन के अन्तर में तीन बार प्रयोग करे
लरनिएसिस (एंकर वर्म रोग) मत्स्य-
लक्षण :-मछलियों में रक्तवाहिनता, कमजोरी तथा शरीर पर धब्बे
उपचार :-हल्का रोग संक्रमण होने से 1 पी०पी०एम० गैमेक्सीन का प्रयोग या तालाब में ब्रोमोस 50 को 0.12 पी०पी०एम० की दर से उपयोग
अन्य बीमारियां ई०यू०एस० (ऐपिजुऑटिव) अल्सरेटिव सिन्ड्रोम-
लक्षण :-प्रारम्भिक अवस्था में लाल दागमछली के शरीर पर पाये जाते हैं जो धीरे-धीरे गहरे होकर सड़ने लगते हैं। मछलियों के पेट सिर तथा पूंछ पर भी अल्सर पाए जाते हैं। अन्त में मछली की मृत्यु हो जाती है।
उपचार :-600 कि०ग्रा० चूना प्रति हे० प्रभावकारी उपचार। सीफेक्स 1 लीटर प्रति हेक्टेयर भी प्रभावकारी है।
पूरक आहार-
बनावटी फीड : सामान्यत: मछली की बनावटी फीड बाज़ार में उपलब्ध रहती है। यह फीड पैलेट के रूप में होती है। गीला पैलेट और शुष्क पैलेट। गीले पैलेट में, फीड को सख्त बनाने के लिए कार्बोक्सी मिथाइल सैलूलोज़ या जेलेटिन डाला जाता है और उसके बाद इसे बारीक पीस लिया जाता है और पेलेट्स में तैयार किया जाता है। यह स्वस्थ होता है पर इसे लंबे समय तक स्टोर नहीं किया जा सकता। सूखे पैलेट में इसे लंबे समय तक स्टोर किया जा सकता है। इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जा सकता है। इनमें 8-11 प्रतिशत नमी की मात्रा होती है। सूखे पैलेट दो तरह के होते हैं। एक सिंकिग टाइप और दूसरी फ्लोटिंग टाइप।
प्रोटीन : मछली की विभिन्न नसलों को उनके आहार में प्रोटीन की विभिन्न मात्रा की जरूरत होती है जैसे मैरीन श्रृंप को 18-20 प्रतिशत, कैटफिश को 28-32 प्रतिशत, तिलापिया को 32-38 प्रतिशत और हाइब्रिड ब्रास को 38-42 प्रतिशत की आवश्यकता होती है।
वसा : मैरीन मछलियों की सेहत और उचित वृद्धि के लिए उन्हें उनके भोजन में वसा के रूप में एन 3 HUFA की आवश्यकता होती है।
कार्बोहाइड्रेट्स : स्तनधारियों में कार्बोहाइड्रेट ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत होता है। मछली की फीड में लगभग 20 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट की आवश्यकता होती है।
फीड के प्रकार : मछलियों की फीड दो तरह की होती है एक पानी में तैरने वाली और दूसरी पानी में डूबने वाली। मछली की विभिन्न नसलों के लिए विभिन्न खुराक की सिफारिश की जाती है। जैसे श्रृंप मछली सिर्फ पानी में डूबने वाली फीड ही खाती है। मछली के विभिन्न आकार के अनुसार, फीड विभन्न आकार में पैलेट के रूप में उपलब्ध होती है।
औषधीय खुराक : औषधीय खुराक का उपयोग तब किया जाता है जब मछली फीड खाना बंद कर दे या बीमार हो जाये। औषधीय फीड मछली को बीमारियों से बचाने के लिए औषधीय फीड का उपयोग किया जाता है।
मछली की अधिक पैदावार के लिए यह आवश्यक है कि पूरक आहार दिया जाय। आहार ऐसा होना चाहिए जो कि प्राकृतिक आहार की भांति पोषक तत्वों से परिपूर्ण हो। साधारणत: प्रोटीनयुक्त कम खर्चीले पूरक आहारों का उपयोग किया जाना चाहिए। मूंगफली, सरसों, नारियल या तिल की महीन पिसी हुई खली और चावल का कना या गेहूं का चोकर बराबर मात्रा में मिलाकर मछलियों के कुल भार का 1-2 प्रतिशत तक प्रतिदिन दिया जाना चाहिए। मछलियों के औसत वजन का अनुमान 15-15 दिन बाद जाल चलवाकर कुछ मछलियों को तौलकर किया जा सकता है। यदि ग्रास कार्प मछली का पालन किया जा रहा हो तो जलीय वनस्पति जैसे लेमना, हाइड्रिला, नाजाज, सिरेटोफाइलम आदि व स्थलीय वनस्पति जैसे नैपियर, वरसीम व मक्का के पत्ते इत्यादि जितना भी वह खा सके, प्रतिदिन देना चाहिए। पूरक आहार निश्चित समय व स्थान पर दिया जाय तथा जब पहले दिया गया आहार मछलियों द्वारा खा लिया गया हो तब पुन: पूरक आहार दें। उपयोग के अनुसार मात्रा घटाई-बढ़ाई जा सकती है। पूरक आहार बांस द्वारा लटकाये गये थालों या ट्रे में रखकर दिया जा सकता है। यदि पूरक आहार के प्रयोग स्वरूप पानी की सतह पर काई की परत उत्पन्न हो जाय तो आहार का प्रयोग कुछ समय के लिए रोक देना चाहिए क्योंकि तालाब के पानी में घुलित आक्सीजन में कमी व मछलियों के मरने की सम्भावना हो सकती है।
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