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सोज़े-वतन मुंशी प्रेमचंद

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सोज़े-वतन का प्रकाशन १९०८ में हुआ। इस संग्रह के कारण प्रेमचन्द को सरकार का कोपभाजन बनना पडा। सोज़े-वतन यानी देश का दर्द -- दर्द की एक चीख़ की तरह ये कहानियाँ जब एक छोटे-से किताबचे की शक्ल में आज से बावन बरस पहले निकली थीं, वह ज़माना और था। आज़ादी की बात भी हाकिम का मुँह देखकर कहने का उन दिनों रिवाज़ था। कुछ लोग थे जो इस रिवाज़ को नहीं मानते थे। मुंशी प्रेमचंद भी उन्हीं सरफिरों में से एक थे। लिहाज़ा सरकारी नौकरी करते हुए मुंशीजी ने ये कहानियाँ लिखीं । नवाब राय के नाम से। और खुफ़िया पुलिस ने सुराग पा लिया कि यह नवाब राय कौन हैं। हमीरपुर के कलक्टर ने फ़ौरन मुंशीजी को तलब किया और मुंशीजी बैलगाड़ी पर सवार होकर रातों रात कुल पहाड़ पहुंचे जो कि हमीरपुर की एक तहसील थी और जहाँ उन दिनों कलक्टर साहब का क़याम था। सरकारी छानबीन पक्की थी और अपना जुर्म इक़बाल करने के अलावा मुंशीजी के लिए दूसरा चारा न था। बहुत-बहुत गरजा बमका कलक्टर—ख़ैर मनाओ कि अंग्रेजी अमलदारी में हो, सल्तनत मुग़लिया का ज़माना नहीं है, वर्ना तुम्हारे हाथ काट लिये जाते! तुम बग़ावत फैला रहे हो!… मुंशीजी अपनी रोज़ी की ख़ैर मनाते खड़े रहे। हुक्म हुआ कि इसकी कापियाँ मँगाओ। कापियाँ आयीं और आग की नज़र कर दी गयीं।

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