भुंई आंवला (वानस्पतिक नाम: अथवा भुंई आमला अथवा भूआमलकी एरन्ड कुल का लगभग 1.5 फीट से 2 फीट ऊंचा एक वर्षीय पौधा होता है जो बरसात के समय खेतों में खरपतवार के रूप में स्वयंमेव उगता दिखाई देता है। यद्यपि आंवला की तुलना में यह पौधा बहुत छोटा होता है परन्तु आवंला के पौधे जैसे पत्तों तथा पत्तों के पीछे छोटे-छोटे आंवला जैसे फल लगने के कारण संभवतया इसको जमीन का आंवला अथवा 'भुंई आमला' कहा जाता है। अधिकांशतः बंजर जमीनों के साथ-साथ खेतों में वर्षा ऋतु में खरपतवार के रूप में उगने वाले पौधे भुंई आमला का उत्पत्ति स्थल अमेरिका माना जाता है।
भूमि अमलाकी को फिलांथस के नाम से भी जाना जाता है, जिसका अर्थ है पत्ते और फूल। यह वार्षिक जड़ी बूटी है जिसका औसतन कद 30-40 सैं.मी. होता है। इसके फूल सफेद हरे और छोटे अंडाकार आयताकार आकार में होते हैं। यह विटामिन सी का भरपूर स्त्रोत है। पूरा पौधा अन्य उत्पाद या दवाइयां बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। भूमि आंवलाकी का प्रयोग पीलिया, चमड़ी रोग, खांसी और खून साफ करने के लिए किया जाता है। यह दक्षिणी चीन, दक्षिणी भारत और बाहामस सहित पूरे विश्व में पायी जाती है। भारत में यह छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार आदि इलाकों में उगाई जाती है।
भुंई आमला का सम्पूर्ण पंचांग (जड़, तना, पत्ती, पुष्प, फल) औषधीय उपयोग का होता है। भारतवर्ष में यह लगभग सभी क्षेत्रों में बहुतायत में खरपतवार के रूप में मिलता जिसे लोक परंपराओं के अनुसार लीवर से संबंधित विकारों विशेषतया पीलिया तथा हैप्टीटाइटस-बी के उपचार हेतु प्रयुक्त किया जाता है। इसके पत्तों में पौटाशियम की काफी अधिक मात्रा (लगभग 0.83 प्रतिशत) होने के कारण यह काफी अधिक मूत्रल (Diuretic) है। लीवर संबंधी विकारों के साथ-साथ भुंई आमला बुखार, मधुमेह, घनोरिया, आंखों की बीमारियों, खुजली तथा चर्मरोगों, फोड़ों, पेशाब से संबंधित विकारों जैसे पेशाब में खून आना, पेशाब में जलन होना आदि के उपचार हेतु भी प्रयुक्त किया जाता है। इसकी जड़ों से उपयोगी टांनिक बनाया जाता है। इसकी जड़े कब्ज में प्रयुक्त की जाती हैं। इसके मुख्य घटक फाइलेन्थिन तथा हाईपोफाइलेन्थिन हैं तथा इसकी सूखी शाक में फाइलेन्थिल तत्व की मात्रा 0.4% से 0.5% तक होती है। निःसंदेह भुंई आवला काफी अधिक औषधीय उपयोग का पौधा है विशेष रूप से हैप्टीटाइस-बी जैसी जानलेवा बीमारियों के उपचार में प्रभावी सिद्ध होने के कारण इस पौधे की उपयोगगिता और भी बढ़ गई है।
यद्यपि अभी तक भुंई आवला प्राकृतिक रूप से ही काफी मात्रा में प्राप्त हो जाता रहा है तथा बड़े स्तर पर इसके कृषिकरण हेतु प्रयास नहीं किए गए हैं। परन्तु इसकी उपयोगिता तथा मांग को देखते हुए इसके कृषिकरण की आवश्यकता महसूस हो रही है क्योंकि अभी तक इसका बड़े स्तर तक कृषिकरण नहीं हो पाया है, इसका कृषिकरण काफी आसान है, यह काफी कम अवधि की फसल है, अतः इसकी खेती किसानों के लिए व्यवसायिक रूप से काफी लाभकारी सिद्ध हो सकती है। इसकी औषधीय उपयोगिता को देखते हुए इसके बाजार के निरंतर बढ़ते जाने की पर्याप्त संभावनाएं प्रतीत हो रही हैं।
मिट्टी
- इसे खारी से निरपक्ष और तेजाबी मिट्टी आदि जैसी बहुत तरह की मिट्टी में उगाया जा सकता है। इसे अच्छे जल निकास वाली चूने वाली मिट्टी में और हल्की बनावटी मिट्टी में भी उगाया जा सकता है।
- इसे विभिन्न प्रकार की मृदा में अच्छी तरह उगने वाला पाया गया | इसमे देश के विभिन्न हिस्सों की चिकनी से दोमट मृदा तक शामिल है |
- इसके लिए मृदा पीएच 5.5 से 8 के बीच होना चाहिए |
- इसे अच्छी जल निकासी वाली चूनेदार मृदा में भी उगाया जा सकता है |
जलवायु-
यह एक परि – उष्णकटिबंध (सरकमट्रोपिकल) खरपतवार है और यह उष्णकटिबंध तथा उच्च वर्षा वाली स्थितीयों में निर्वाह कर सकता है |
यह अस्थायी जलमग्नता को भी सहन कर सकता है |
प्रसिद्ध किस्में और पैदावार
Phyllanthus urinaria: इस किस्म का फल खुरदरा और सतह छेद वाली होती है।
Phyllanthus debilis: इस किस्म के फल(कैप्सूल) की सतह मुलायम होती है।
Phyllanthus amarus: इस किस्म के फल(कैप्सूल) छोटे, दबे हुए और गोलाकार होते हैं।
Phyllanthus niruri: इस किस्म के फल(कैप्सूल) की सतह मुलायम होती है।
Phyllanthus fraternus: इस किस्म के फल(कैप्सूल) की सतह छोटी और मुलायम होती है।
ज़मीन की तैयारी
भूमि अमलाकी के लिए, खेत की तैयारी अप्रैल-मई के महीने में की जाती है। मिट्टी को भुरभुरा करने के लिए एक बार कल्टीवेटर से खेत की गहरी जोताई करें और फिर 2-3 बार टिल्लर से जोताई करें। बैड आवश्यकतानुसार 30-40 सैं.मी. की लंबाई पर तैयार करें।
बिजाई
बिजाई का समय
मार्च-अप्रैल महीने में नर्सरी बैड तैयार किए जाते हैं।
फासला
खेत में रोपण के समय 15x10 सैं.मी. का फासला रखें।
बिजाई का ढंग
जब पनीरी वाले पौधे 10-15 सैं.मी. कद के हो जाएं तो मुख्य खेत में लगा दिए जाते हैं।
बीज की मात्रा
अच्छी पैदावार के लिए 400 ग्राम प्रति एकड़ बीज का प्रयोग करें।
पनीरी की देख-रेख और रोपण
प्रजनन क्रिया बीजों के द्वारा की जाती है। आवश्यकतानुसार लंबाई 30 सैं.मी. और चौड़ाई 40 सैं.मी. वाले बैडों पर बोयें। बिजाई का उचित समय अप्रैल-मई महीने में होता है।
नए पौधे 15-30 दिनों में, जब उनका कद 10-15 सैं.मी. हो जाता है, तो रोपण के लिए तैयार हो जाते हैं। बैडों में से पनीरी उखाड़ने से 24 घंटे पहले पानी लगाएं, ताकि उन्हें आसानी से उखाड़ा जा सके। फिर पनीरी को मुख्य खेत में लगाया जाता है। रोपाई के बाद तुरंत सिंचाई करें। यदि फसल रोपण के द्वारा उगाई जाये तो ज्यादा पैदावार देती है।
खाद
ज़मीन की तैयारी के समय, 5-10 टन रूड़ी की खाद डालें और मिट्टी में अच्छी तरह मिलायें। इस फसल को नाइट्रोजन, पोटाशियम और पोटाश खाद की जरूरत नहीं होती। अच्छी पैदावार और विकास के लिए नाइट्रोजन खाद थोड़ी मात्रा में दी जाती है। डी ए पी 70-80 किलो प्रति एकड़ शुरूआती खुराक के तौर पर डालें।
सिंचाई
शुष्क इलाकों मे विशेष कर उत्तरी मैदानों में, हर पखवाड़े एक सिंचाई की जरूरत होती है और वर्षा वाले इलाकों में विशेष कर दक्षिणी इलाकों में सिंचाई की जरूरत नहीं होती। जल जमाव से भी इस पौधे को कोई नुकसान नहीं होता।
खरपतवार नियंत्रण
खेत को नदीन मुक्त रखने के लिए महीने में एक बार हाथों से गोडाई करें। किसी भी व्यापारिक नदीन नाशक की स्प्रे नहीं करनी चाहिए क्योंकि इससे फसल में गिरावट आती है और ज़मीन पर भी बुरा प्रभाव पड़ता हैं।
हानिकारक कीट और रोकथाम
पत्ते खाने वाली सुंडी: यह सुंडी ताजा हरे पत्ते खाती है, जिससे फसल के सारे पत्ते नष्ट हो जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए नुवाक्रॉन 0.2 % की स्प्रे करें।
तने का कीड़ा: यह तने और पत्तों के एपीडरमल टिशू खाता है। इसकी रोकथाम के लिए नुवाक्रॉन 0.2 % की स्प्रे करें।
बीमारियां और रोकथाम
पत्तों का धब्बा रोग: यह एक फंगस वाली बीमारी है, जिससे पत्तों पर सफेद कुंगी बीमारी लग जाती है इसकी रोकथाम के लिए सलफैक्स 0.25 % डालें।
फसल की कटाई
इसकी कटाई सितंबर महीने में की जाती है, जब वर्षा ऋतु अभी खत्म हुई होती है। जब पौधे का रंग हरा हो जाये और जड़ी बूटी में बदल जाये तो इसकी कटाई कर लेनी चाहिए, क्योंकि उस समय पत्तों में भारी मात्रा में सक्रिय तत्व मौजूद होते हैं।


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