गोण्डा लाइव न्यूज एक प्रोफेशनल वेब मीडिया है। जो समाज में घटित किसी भी घटना-दुघर्टना "✿" समसामायिक घटना"✿" राजनैतिक घटनाक्रम "✿" भ्रष्ट्राचार "✿" सामाजिक समस्या "✿" खोजी खबरे "✿" संपादकीय "✿" ब्लाग "✿" सामाजिक "✿" हास्य "✿" व्यंग "✿" लेख "✿" खेल "✿" मनोरंजन "✿" स्वास्थ्य "✿" शिक्षा एंव किसान जागरूकता सम्बन्धित लेख आदि से सम्बन्धित खबरे ही निःशुल्क प्रकाशित करती है। एवं राजनैतिक , समाजसेवी , निजी खबरे आदि जैसी खबरो का एक निश्चित शुल्क भुगतान के उपरान्त ही खबरो का प्रकाशन किया जाता है। पोर्टल हिंदी क्षेत्र के साथ-साथ विदेशों में हिंदी भाषी क्षेत्रों के लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय है और भारत में उत्तर प्रदेश गोण्डा जनपद में स्थित है। पोर्टल का फोकस राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को उठाना है और आम लोगों की आवाज बनना है जो अपने अधिकारों से वंचित हैं। यदि आप अपना नाम पत्रकारिता के क्षेत्र में देश-दुनिया में विश्व स्तर पर ख्याति स्थापित करना चाहते है। अपने अन्दर की छुपी हुई प्रतिभा को उजागर कर एक नई पहचान देना चाहते है। तो ऐसे में आप आज से ही नही बल्कि अभी से ही बनिये गोण्डा लाइव न्यूज के एक सशक्त सहयोगी। अपने आस-पास घटित होने वाले किसी भी प्रकार की घटनाक्रम पर रखे पैनी नजर। और उसे झट लिख भेजिए गोण्डा लाइव न्यूज के Email-gondalivenews@gmail.com पर या दूरभाष-8303799009 -पर सम्पर्क करें।

भैंस पालन के बारे में सम्पूर्ण जानकारी

Image SEO Friendly

भैंस एक प्रकार का दुधारू पशु है। कुछ लोगों के द्वारा भैंस को काफी ज्यादा पसंद किया जाता है। यह ग्रामीण भारत में काफी ज्यादा उपयोगी होती है। ज्यादातर डेयरी उद्योग के लिए देश में गाय और भैंस को ज्यादा महत्व दिया जाता है।  भारत में अगर भैंसों की बात की जाए तो यहां तीन तरह की भैंस हमको दिखाई ज्यादा देती है जिसमें मुर्हा, मेहसना और सुरति प्रमुख है। मुर्रा भैंसों की प्रमुख बीड मानी जाती है। भारत में भैंसों का प्रमुख उपयोग ग्रामीण क्षेत्रों में किया जाता है और दुग्ध व मांस में उपयोग होती है.इसीलिए आमतौर पर भैसों की खिलाई- पिलाई में चारों के साथ हरे चारे, कृषि उत्पाद, भूसा और खली आदि का प्रयोग होता है। इसके अलावा भैसें गायों की अपेक्षा ज्यादा वसा, कैल्शियम, फास्फोरस, प्रोटीन, अप्रोटीन नाइट्रोजन का उपयोग करने में ज्यादा सक्षम होती है।

भैंस पालन कैसे करें

अगर आप किसी भी रूप से भैंस पालन को शुरू करने जा रहे है तो आपको नीचे दी गई बातों को ध्यान में रखना होगा ताकि बेहतर दूध का उत्पादन करके आप अच्छा मुनाफा भी कमा सकते है। तो आइए जानते है कि कैसे आप एक सफल भैंस पालन कर सकते है।

भैंस की प्रमुख नस्लें-

सबसे पहले भैंस पालन के लिए अच्छी नस्ल का भैंस होना बेहद जरूरी है। पशुपालकों को भैंस पालन हेतु पूरी जानकारी और उसकी अलग-अलग प्रजातियों की जानकारी होना चाहिए।

01-भदावरी-
Image SEO Friendly
यह मुख्यत: ईटावा और उत्तर प्रदेश के आगरा जिले और मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले में पायी जाती है। यह छोटे कद का पशु है जिसका शरीर नुकीला, छोटा सिर, छोटी और मजबूत टांगे, काले खुर, एकसमान पुट्ठे, कॉपर या हल्के भूरे रंग की पलकें और काले रंग के सींग होते हैं। यह प्रति ब्यांत में औसतन 800-1000 लीटर दूध देती है। इसके दूध में वसा की मात्रा 6-12.5 प्रतिशत होती है।

02-मुर्रा-
Image SEO Friendly
यह सबसे प्रसिद्ध नसल है जिसका जन्म स्थान हरियाणा राज्य का रोहतक जिला है। अब यह ज्यादातर हिसार, रोहतक और हरियाणा के जींद और पंजाब के पटियाला और नाभा जिले में पायी जाती है। इसे काली और खुंडी और डेली के नाम से भी जाना जाता है। इस नसल का रंग शाह काला होता है और पूंछ का निचला हिस्सा सफेद होता है। इसके सींग छोटे और खुंडे, पूंछ लंबी पैरों तक, गर्दन और सिर पतला, भारी लेवा और थन लंबे होते हैं। इसके मुड़े हुए नसल से इसे अन्य नसलों से अलग बनाते हैं। यह एक ब्यांत में 1600-1800 लीटर दूध देती है और दूध में वसा की मात्रा 7 प्रतिशत होती है। इस नसल के सांड का औसतन भार 575 किलो और भैंस का औसतन भार 430 किलो होता है।

03-मराठवादी-
Image SEO Friendly
इसे ‘दुधाणा थाडी’ के नाम से भी जाना जाता है। यह महाराष्ट्र के जलना, प्रभाणी, नंदेड़, बीड़ और लातुर जिले में पायी जाती है। इसके बड़े, चपटे, मध्यम आकार के सींग होते हैं। गर्दन छोटी और शरीर का भार 320-400 किलो होता है। यह नसल एक ब्यांत में 1120 किलो दूध देती है।  

04-जफ्फराबादी-
Image SEO Friendly
यह गुजरात के जामनगर और कच्छ जिलों में पायी जाती है। इस नसल की गर्दन और सिर बड़ा, बाहर निकला हुआ माथा, भारी सींग, सींग गर्दन की तरफ मुड़े हुए और शरीर का रंग मुख्यत: काला होता है। यह नसल एक ब्यांत में औसतन 1200 किलो दूध देती है। इस नसल के सांडों को मुख्यत: भार ढोने और हल चलाने के काम के लिए प्रयोग किया जाता है।

05-कालाहांडी-
Image SEO Friendly
इनका जन्म स्थान उड़ीसा है। इसका रंग सलेटी से गहरा सलेटी, चपटा माथा, काले रंग की पूंछ, माथा उभरा हुआ, छोटा कूबड़ और लेवा गोल और आकार में मध्यम होता है। यह नसल एक ब्यांत में औसतन 680-900 लीटर दूध देती है। यह नसल बीमारियों के प्रतिरोधक और ताप और ठंड को सहनेयोग्य है।

06-सुरती-
Image SEO Friendly
यह मुख्यत: गुजरात के बड़ौदा और कैरा जिले में पायी जाती है। इसका रंग भूरे से सिल्वर सलेटी, काले या भूरे रंग की त्वचा, मध्यम आकार का, नुकीला धड़, लंबा सिर, बाहर की तरफ निकली आंखे और दराती के आकार के सींग होते हैं। यह नसल एक ब्यांत में औसतन 900-1300 लीटर दूध देती है और इसके दूध में वसा की मात्रा 8-12 प्रतिशत होती है।

07-नीली रावी-
Image SEO Friendly
इस नसल का जन्म स्थान मिंटगुमरी (पाकिस्तान) है। इस नसल का शरीर काला, बिल्ली जैसी आंखें, माथा सफेद, पूंछ का निचला हिस्सा सफेद, घुटनों तक सफेद टांगे, मध्यम आकार की होती है और भारी सींग होते हैं। यह एक ब्यांत में औसतन 1600-1800 लीटर दूध देती है और दूध में वसा की मात्रा 7 प्रतिशत होती है। सांड का औसतन भार 600 किलो और भैंस का औसतन भार 450 किलो होता है। इस नसल का उपयोग, भारी सामान खींचने के लिए किया जाता है।

08-नागपुरी-
Image SEO Friendly
यह नसल मुख्यत: महाराष्ट्र के अकोला, अमरावती और नागपुर जिले में पायी जाती है। इसे इलिचपुरी या बरारी के नाम से भी जाना जाता है। इस नसल का रंग काला, टांगों, पूंछ और मुंह पर सफेद धब्बे होते हैं। इसके लंबे, चपटे और  मुड़े हुए सींग होते हैं, जो कि तलवार के आकार के होते हैं। लंबा और पतला मुंह और गर्दन कुछ लंबी होती है। यह एक ब्यांत में औसतन 700-1200 लीटर दूध देती है।

09-टोडा-
Image SEO Friendly
यह मुख्यत: तामिलनाडू में नीलगिरी पहाड़ियों पर पायी जाती है। इस नसल का हल्का या गहरे सलेटी रंग का शरीर, छोटा और चौड़ा मुंह, माथा चौड़ा, लंबे सींग, लंबी पूंछ और छोटी और मजबूत टांगे होती हैं। यह एक ब्यांत में औसतन 500 लीटर दूध देती है।

भैंसों को जरुरी आहार -
इस नसल की भैंसों को जरूरत के अनुसार ही खुराक दें। फलीदार चारे को खिलाने से पहले उनमें तूड़ी या अन्य चारा मिला लें। ताकि अफारा या बदहजमी ना हो। आवश्यकतानुसार खुराक का प्रबंध नीचे लिखे अनुसार है।

आवश्यक खुराकी तत्व- उर्जा, प्रोटीन, कैलशियम, फासफोरस, विटामिन ए।

अन्य खुराक-
  • दाने - मक्की/गेहूं/जौं/जई/बाजरा
  • तेल बीजों की खल - मूंगफली/तिल/सोयाबीन/अलसी/बड़ेवें/सरसों/सूरजमुखी
  • बाइ प्रोडक्ट - गेहूं का चोकर/चावलों की पॉलिश/बिना तेल के चावलों की पॉलिश
  • धातुएं - नमक, धातुओं का चूरा

सस्ते खाद्य पदार्थ के लिए खेती उदयोगिक और जानवरों के बचे कुचे का प्रयोग
  • शराब के कारखानों के बचे कुचे दाने
  • खराब आलू
  • मुर्गियों की सूखी बीठें

नस्ल की देख रेख-

शैड की आवश्यकता-
अच्छे प्रदर्शन के लिए, पशुओं को अनुकूल पर्यावरणीय परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। पशुओं को भारी बारिश, तेज धूप, बर्फबारी, ठंड और परजीवी से बचाने के लिए शैड की आवश्यकता होती है। सुनिश्चित करें कि चुने हुए शैड में साफ हवा और पानी की सुविधा होनी चाहिए। पशुओं की संख्या के अनुसान भोजन के लिए जगह बड़ी और खुली होनी चाहिए, ताकि वे आसानी से भोजन खा सकें। पशुओं के व्यर्थ पदार्थ की निकास पाइप 30-40 सैं.मी. चौड़ी और 5-7 सैं.मी. गहरी होनी चाहिए।

गाभिन पशुओं क देखभाल-
अच्छे प्रबंधन का परिणाम अच्छे कटड़े में होगा और दूध की मात्रा भी अधिक मिलती है। गाभिन भैंस को 1 किलो अधिक फीड दें, क्योंकि वे शारीरिक रूप से भी बढ़ती है।

कटड़ों की देखभाल और प्रबंधन-
जन्म के तुरंत बाद नाक या मुंह के आस पास चिपचिपे पदार्थ को साफ करना चाहिए। यदि कटड़ा सांस नहीं ले रहा है तो उसे दबाव द्वारा बनावटी सांस दें और हाथों से उसकी छाती को दबाकर आराम दें। शरीर से 2-5 सैं.मी. की दूरी पर से नाभि को बांधकर नाडू को काट दें। 1-2 प्रतिशत आयोडीन की मदद से नाभि के आस पास से साफ करना चाहिए।

सिफारिश किए गए टीके-
जन्म के 7-10 दिनों के बाद इलैक्ट्रीकल ढंग से कटड़े के सींग दागने चाहिए। 30 दिनों के नियमित अंतराल पर डीवार्मिंग देनी चाहिए। 2-3 सप्ताह के कटड़े को विशाणु श्वसन टीका दें। क्लोस्ट्रीडायल टीकाकरण 1-3 महीने के कटड़े को दें।

बीमारियां और रोकथाम-
पाचन प्रणाली की बीमारियां: -

सादी बदहजमी का इलाज
  • जल्दी पचने वाली खुराक दें।
  • भूख बढ़ाने वाले मसाले दें।
तेजाबी बदहजमी का इलाज-
  • ज्यादा निशाचन वाली खुराक बंद कर दें।
  • मठ्ठी बीमारी की हालत में मुंह के द्वारा खारे पदार्थ जैसे कि मीठा सोडा आदि और मिहदे को ताकत देने वाली दवाइयां दें।
खारी बदहजमी का इलाज-
  • मठ्ठी बीमारी में रयूमन की पी एच हल्के तेजाब जैसे कि 5 प्रतिशत एसटिक एसिड को 5-10 मि.ली. प्रति किलो पशु के भार के मुताबिक या अंदाजा 750 मि.ली. सिरका देकर ठीक करें।
  • यदि दिमागी दौरे पड़ रहे हों और 2-3 बार दवाई देने के साथ भी फर्क ना पड़े तो पशुओं वाले डॉक्टर से रयूमोनोटोमी ऑप्रेशन करवायें।
कब्ज का इलाज-
  • शुरू में अलसी का तेल 500 मि.ली. दें और सूखे मठ्ठे  ना डालें और ज्यादा पानी पीने के लिए दें।
  • बड़े जानवरों के लिए 800 ग्राम मैगनीशियम  सल्फेट पानी में घोलकर और 30 ग्राम अदरक का चूरा मुंह द्वारा दें।
अफारे का इलाज
  • तारपीन का तेल 30-60 मि.ली., हींग का अर्क 60 मि.ली. या सरसों अलसी का 500 मि.ली. तेल पशु को दें। तारपीन का तेल ज्यादा मात्रा में ना दें, इससे पेट खराब हो सकता है।
  • यदि किसी पशु को बार-बार अफारा हो तो एक्टीवेटड चारकोल, 40 प्रतिशत फार्मलीन 15-30 मि.ली. और डेटोल का पानी भी दिया जा सकता है।
  • बीमारी की किस्म और पशु की हालत देखते हुए डॉक्टर की सहायता लें
मोक/मरोड़/खूनी दस्त का इलाज
  • मुंह द्वारा या टीके से सलफा दवाइयां दें और साथ ही 5 प्रतिशत गुलूकोज़ और नमक का पानी ज्यादा दें।
  • गोबर की जांच करवायें यदि इसमें कीड़े मिलें तो उसके मुताबिक मलप निकालने वाली दवाई दें।
  • एंटीबायोटिक, सलफा दवाइयां और ओपीएट, टैनोफॉर्म या लोहे के तत्व देने से भी मरोड़ रोके जा सकते हैं।
पीलिया-

पीलिया की किस्में
  • प्री हैपटिक या हीमोलिटक पीलिया - लाल रक्ताणुओं के नष्ट होने के कारण
  • इंटरा हैपटिक या जहरीला पीलिया’- जिगर की बीमारी के कारण
  • पित्ते की नाली बंद होने से पीलिया
पीलिये का इलाज
  • सब से पहले जहरीले पीलिये का कारण ढूंढकर उसे दूर करें।
  • जिन पशुओं में लाग और खून के कीड़ों की बीमारी है, उन्हें एकदम बाकी पशुओं से दूर कर दें
  • गुलुकोज़ और नमक का घोल, कैलशियम गलूकानेट, विटामिन ए और सी दें और उस के साथ-साथ एंटीबायोटिक दवाइयां भी देनी चाहिए।
  • पशु को हरा चारा और चर्बी रहित खुराक के साथ लिवर टॉनिक दें
  • फासफोरस की कमी में सोडियम एसिड मोनोफासफेट दें।
भैंसों का गल-घोटू रोग-
गल-घोटू रोग भैंसों में होने वाली एक जानलेवा बीमारी है, जो ज्यादातर 6 महीने से लेकर 2 वर्ष तक के पशु को होती है।

गल घोटू रोग के कारण
  • यह बीमारी पासचुरेला मलटूसिडा नामक जीवाणु से होती है, जो पशु के नासिका ग्रंथी या टांसिल में पायी जाती है।
  • ज्यादा काम का बोझ, खराब पोषण, गर्मी और अन्य बीमारियां जैसे कि खुरपका-मुंहपका रोग, खून में परजीवी होना आदि इस बीमारी को बढ़ावा देते हैं।
  • वैसे तो यह बीमारी साल में कभी भी हो सकती है पर बरसात के मौसम में जब गर्मी ज्यादा होती है, तब इसकी संभावना अधिक हो जाती है।
  • इस बीमारी के जीवाणू एक बीमार पशु से निरोगी पशु को मुंह या नाक के द्वारा, जूठा पानी या चारा खाने से हो सकते हैं।
लक्षण-
  • बुखार होना
  • मुंह से लार टपकना
  • आंख और नाक में से पानी का बहना
  • भूख न लगना
  • ग्ले के निचले भाग में सूजन आना
  • सांस लेने में समस्या होना
  • पेट दर्द होना और दस्त होना आदि
कई बार बीमारी के तेजी से बढ़ने के कारण कुछ लक्षणों का पता नहीं लगता। रोग के अगले पड़ाव पर पशु जमीन पर गिर जाता है और कुछ समय बाद उसकी मौत हो जाती है।

रोकथाम-
  • गर्मियों के मौसम में पशुओं को इक्ट्ठे और तंग जगह पर ना बांधे।
  • बीमार पशुओं को बाकी पशुओं से अलग रखें।
  • मॉनसून आने से पहले ही टीकाकरण करवाएं। पशुओं के पहले टीका 6 महीने के उम्र में और फिर हर वर्ष करवायें।
  • इसके इलावा बिन-मौसम बरसात, चक्रवाती तूफान और अन्य कुदरती आफतों के समय भी टीकाकरण करवाया जा सकता है।
  • लक्षण दिखते ही तुरंत डॉक्टर की सलाह लें।
तिल्ली का रोग (एंथ्रैक्स) : -
यह एक तेज बुखार की बीमारी है। यह बीमारी आमतौर पर कीटाणु और दूषित पानी या खुराक से होती है। यह बीमारी अचानक और एकाएक भी हो सकती है या कुछ समय भी ले सकती है और शरीर के कुदरती रास्तों में लुक जैसा खून बहने लग जाता है। तेज बुखार और मुश्किल सांस लेना और टांगे मारनी, दौरे पड़ने है। जानवर का शरीर अकड़ जाता है और चारों टांगे बाहर को खींची जाती हैं। नासिका, गोबर वाले स्थान और योनी में से गहरा लुक जैसा खून बहता है।
इलाज: इसका कोई असरदायक इलाज नहीं है। हर वर्ष इसके बचाव  के लिए टीके लगवाये जाने चाहिए। मरे हुइ जानवरों का पोस्टमार्टम नहीं करवाना चाहिए। मरा हुआ पशु कम से कम 1 मीटर गहरे गड्ढे में आबादी से दूर दबाना चाहिए और 15 सैं.मी. चूने की परत पशु के शरीर के आस पास डालनी चाहिए। पशुओं का बिछौना और उसके संपर्क में आने वाली वस्तुओं को जला देना चाहिए।

एनाप्लाज़मोसिस : -
यह एक संक्रमक बीमारी है जो एनाप्लाज़मा मार्जिनल के कारण होती है। इसके कारण शरीर का तापमान बढ़ जाता है। नाक में से गहरा तरल पदार्थ निकलता है, खून की कमी, पीलिया और मुंह में से लार गिरती है।
इलाज: परजीवी की संख्या की रोकथाम के लिए अकार्डीकल दवाई दें। इस बीमारी की जांच के लिए सीरोलोजिकल टेस्ट करवाएं। यदि परिणाम पोज़िटिव आता है तो तुरंत किसी अच्छे पशुओं के डॉक्टर से उपचार करवाएं।

अनीमिया : -
इसके लक्षण हैं मासपेशियों की कमज़ोरी, तनाव, और ताप दर का बढ़ना है। यह रोग खराब पोषन प्रबंधन, आहार में पोशक तत्वों की कमी के कारण होता है।
इलाज: आहार में विटामिन ए, बी और ई दें और अनीमिया से बचाव के लिए आयरन डेक्सट्रिन 150 मि.ग्रा. का टीका पशु को लगवाएं।

मुंह खुर रोग : -
यह एक विषाणु रोग है और चार किस्मों ओ ए सी और ऐशिया 1 भारत में प्रचलित है। इस बीमारी से तेज बुखार, मुंह में से पानी गिरना, भूख ना लगना, भार कम हो जाना, दूध कम हो जाना और मुह में छाले होना  हैं। दूध पीते कटड़ों को उनकी मां से यह बीमारी हो सकती है। यह बीमारी, बीमार पशुओं के संपर्क से और अन्य चीज़ें जैसे बर्तन, चारा और मजदूरों, जो बीमार पशुओं के संपर्क में आये हों, से भी यह बीमारी फैलती है। मुंह, लेवे और खुरों के बीच जख्म हो जाते हैं। जख्म कई बार मिहदे, दिल, रस ग्रंथियों पर भी मौजूद होते हैं।
इलाज: बीमारी के बचाव के टीके लगवाने चाहिए। मुंह और खुर के छालों को लाल दवाई वाले पानी से धोया जा सकता है। पैरों पर फिनाइल और लुक 1:5 के अनुपात में प्रयोग किए जा सकते हैं। जब बीमारी फैली हुई हो, तो कोई नया पशु नहीं लेकर आना चाहिए और बीमार पशुओं को अलग रखना चाहिए।

मैगनीश्यिम की कमी : -
यह  भैंसों, गायों, सांडों और कटड़ों, बछड़ों में आ सकती है। बछड़ों में इसकी कमी के कारण उन्हें हरे चारे के स्थान पर तीन महीने की उम्र के बाद भी सिर्फ दूध ही देना होता है क्योंकि दूध में मैग्नीशियम नहीं होता, इसकी कमी से पशुओं में मिर्गी के दौरे पड़ते हैं और पशु की मौत भी हो सकती है।
इलाज : इसकी कमी को पूरा करने के लिए खुराक में 5 ग्राम मैग्नीशियम ऑक्साइड या मैगनीश्यिम कार्बोनेट 8 ग्राम डाला जा सकता है।

सिक्के का जहर :- 
इसके मुख्य लक्ष्ण पशुओं का चलते समय लड़खड़ाना, आंखे घुमाना और मुंह में से झाग निकलना है। यह ज्यादातर पेंट के चाटने या उन चीज़ों के चाटने, जहां पर पेंट किया हो, हो सकता है। पशुओं का वहां पर चरना जहां सिक्का पिघलाया जाता है या पुरानी बैटरी ढाली जाती हैं।
इलाज : अगर जहर पेट में से आगे निकल गया हो तो कैल्शियम वरसेनेट 25 प्रतिशत दिन में दो बार देना चाहिए।

रिंडरपैस्ट (शीतला माता) : -
यह पशुओं में होने वाली गंभीर बीमारी है। संक्रमण की बहुत जल्दी फैलने वाली बीमारी है। इस बीमारी को होने में 6-9 दिन लगते हैं। इसमें तेज बुखार, मुंह से पानी बहना और खूनी दस्त लग जाते हैं। भूख नहीं लगती, दूध कम हो जाता है। आंखों और जनन अंगों में सोजिश आ जाती हैं, मुंह, नाक की झिल्ली में सोजिश आ जाती है। जबड़ों, जीभ और मसूड़ों पर जख्म हो जाते हैं। इसके बाद एक दम मोक लग जाती है जिसमें खून आता है। शरीर का तापमान सामान्य से कम हो जाता है। 
इलाज : इसका स्ट्रेप्टोमाइसिन या पेंसीलिन से इलाज किया जा सकता है। लेकिन तब, जब यह प्राथमिक अवस्था में हो।

ब्लैक क्वार्टर : -
यह जीवाणु संक्रमण, पशुधन पर घातक प्रभाव डालते हैं पशु ज्यादातर 6-24 महीने की युवा अवस्था में इससे संक्रमित होते हैं। यह संक्रमण ज्यादातर बरसात के मौसम में मिट्टी से पैदा होते हैं। पशु तेज बुखार से ग्रस्त हो जाता है। श्वास लेने में कठिनाई होती है।
इलाज : बीमारी का जल्दी पता लगने पर पैनसीलिन के टीके प्रभावित निचले हिस्से और मास में लगाए जा सकते हैं। 4 माह से 3 वर्ष के पशु सूजन वाले भाग में 2 प्रतिशत हाइड्रोजन पेरोक्साइड और पोटाशियम परमैगनेंट से ड्रैसिंग करें।

निमोनिया : -
पशुओं में निमोनिया मुख्यत: गीले फर्श या गीले बिस्तर के कारण होता है। यह संक्रमक एजेंट जैसे पेरेनफ्लुएंजा, बोवाइन श्वसन साइंकिटिल वायरम, मायकोप्लाज़मा आदि के कारण होता है और संक्रमित जानवरों के संपर्क से भी होता है।
इलाज : उचित सूखे बैड और उचित हवा की आवश्यकता होती है।

डायरिया : -
इस बीमारी में पहले पानी की अत्याधिक कमी हो जाती है फिर एसिडोसिस और डीहाइड्रेशन होता है और फिर पशु की मृत्यु हो जाती है। रोग मुख्य रूप से अस्वच्छ स्थिति, अशुद्ध जल पीने और अपौष्टिक आहार प्रणाली के कारण होता है।
इलाज : स्वच्छता की स्थिति रखें। नाइट्रोफुराज़ोन 20 मि.ग्रा. प्रति किलो या ट्रिमथोप्रिम और सल्फाडोक्सिन से इस बीमारी का इलाज किया जा सकता है।

अंदरूनी परजीवी : -
इसके लक्षण त्वचा पर खुजली, उत्तेजना, जलन और फोड़े होना है। यह रोग मुख्य रूप से अशुद्ध वातावरण और गीला रहने की स्थिति के कारण होता है।
इलाज : नारियल मूंगफली का तेल (3:1) को सल्फर में मिक्स करके इसके इलाज के लिए उपयोग किया जाता है।

बाहरी परजीवी : -
इसके लक्षण दस्त, सुस्तता आदि हैं। रोग मुख्य रूप से अशुद्ध  वातावरण, दीवारों को चाटना और संक्रमित फर्श के कारण होता है।
इलाज :  पीने को साफ पानी दें। डीवार्मिंग को पहले 2 सप्ताह में और फिर 6 महीनों के अंतराल पर देना आवश्यक है। बीमारी का इलाज करने के लिए सल्फामैथाइज़िन/ सल्फैडीमिडाइन की खुराक दी जाती है।

थनैला रोग : -
यह दुधारू पशुओं को लगने वाला एक रोग है। थनैला रोग से प्रभावित पशुओं को रोग के प्रारंभ में थन गर्म हो जाता है तथा उसमें दर्द व सूजन हो जाती है। शारीरिक तापमान भी बढ़ जाता है। लक्षण प्रकट होते ही दूध की गुणवत्ता प्रभावित हो जाती है। दूध में खून एवं पस की अधिकता हो जाती है। पशु खाना पीना छोड़ देता है एवं अरूचि से ग्रसित हो जाता है। थनैला बीमारी पशुओं में कई प्रकार के जीवाणु, विषाणु, फंगस तथा मोल्ड के संक्रमण से होता है।
इलाज : रोग का उपचार प्रारम्भिक अवस्थाओं में ही संभव है अन्यथा रोग के बढ़ जाने पर थन बचा पाना कठिन हो जाता है। इससे बचने के लिए दुधारू पशु के दूध की जांच समय पर करवाकर जीवाणुनाशक औषधियों द्वारा उपचार पशु चिकित्सक द्वारा करवाना चाहिए। यह औषधियां थन में ट्यूब चढ़ाकर तथा साथ ही मांसपेशी में इंजेक्शन द्वारा दी जाती है।

दाद : -
यह त्वचा का रोग एक किस्म की फंगस से होता है। जिस कारण पशु की चमड़ी पर गोल गोल निशान बन जाते हैं। यह बीमारी ज्यादातर सर्दियों के महीने में देखी जाती है और छोटी उम्र के जानवरों में अधिक होती है। बीमारी के दौरान गोल धब्बे इस तरह दिखाई देते हैं जैसे कि चमड़ी पर आटा छिड़का हुआ हो। बीमारी की पहचान के लिए प्रभावित स्थान से बालों को उखाड़कर या चमड़ी को खुरच कर साफ कागज़ के ऊपर रखकर लैबोरेटरी में भेजा जा सकता है। इलाज के लिए वैटरनी चिकित्सक की सलाह लें। 

पैरों का गलना :- 
यह कीटाणुओं के द्वारा होने वाली बीमारी हैं जो कि जानवरों के खुरों पर असर करती है। गर्म और नमी वाले वातावरण में यह रोग ज्यादा होता है। इस बीमारी का कीटाणु जानवर के पैरों की त्वचा द्वारा शरीर के अंदर प्रवेश होता है, विशेष कर जब त्वचा पर जख्म हो।
इलाज : इलाज के लिए एंटीबायोटिक टीके लगवाएं। पैरों में हुए जख्मों पर नीला थोथा 5 फीसदी घोल, फार्मालीन 2 फीसदी या जिंक सल्फेट 10 फीसदी का घोल बनाकर लगाने से पैरों में हुए जख्म ठीक हो जाते हैं। बचाव के लिए जानवर को साफ सुथरी जगह पर रखें। 

No comments:

Post a Comment

कमेन्ट पालिसी
नोट-अपने वास्तविक नाम व सम्बन्धित आर्टिकल से रिलेटेड कमेन्ट ही करे। नाइस,थैक्स,अवेसम जैसे शार्ट कमेन्ट का प्रयोग न करे। कमेन्ट सेक्शन में किसी भी प्रकार का लिंक डालने की कोशिश ना करे। कमेन्ट बॉक्स में किसी भी प्रकार के अभद्र भाषा का प्रयोग न करे । यदि आप कमेन्ट पालिसी के नियमो का प्रयोग नही करेगें तो ऐसे में आपका कमेन्ट स्पैम समझ कर डिलेट कर दिया जायेगा।

अस्वीकरण ( Disclaimer )
गोण्डा न्यूज लाइव एक हिंदी समुदाय है जहाँ आप ऑनलाइन समाचार, विभिन्न लेख, इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान, हिन्दी साहित्य, सामान्य ज्ञान, ज्ञान विज्ञानं, अविष्कार , धर्म, फिटनेस, नारी ब्यूटी , नारी सेहत ,स्वास्थ्य ,शिक्षा ,18 + ,कृषि ,व्यापार, ब्लॉगटिप्स, सोशल टिप्स, योग, आयुर्वेद, अमर बलिदानी , फूड रेसिपी , वाद्ययंत्र-संगीत आदि के बारे में सम्पूर्ण जानकारी केवल पाठकगणो की जानकारी और ज्ञानवर्धन के लिए दिया गया है। ऐसे में हमारा आपसे विनम्र निवेदन है कि आप किसी भी सलाह,उपाय , उपयोग , को आजमाने से पहले एक बार अपने विषय विशेषज्ञ से अवश्य सम्पर्क करे। विभिन्न विषयो से सम्बन्धित ब्लाग/वेबसाइट का एक मात्र उद्देश आपको आपके स्वास्थ्य सहित विभिन्न विषयो के प्रति जागरूक करना और विभिन्न विषयो से जुडी जानकारी उपलब्ध कराना है। आपके विषय विशेषज्ञ को आपके सेहत व् ज्ञान के बारे में बेहतर जानकारी होती है और उनके सलाह का कोई अन्य विकल्प नही। गोण्डा लाइव न्यूज़ किसी भी त्रुटि, चूक या मिथ्या निरूपण के लिए जिम्मेदार नहीं है। आपके द्वारा इस साइट का उपयोग यह दर्शाता है कि आप उपयोग की शर्तों से बंधे होने के लिए सहमत हैं।

”go"