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बकरी पालन के बारे में सम्पूर्ण जानकारी

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बकरी एक पालतू पशु है, जिसे दूध तथा मांस के लिये पाला जाता है। इसके अतिरिक्त इससे रेशा, चर्म, खाद एवं बाल प्राप्त होता है। विश्व में बकरियाँ पालतू व जंगली रूप में पाई जाती हैं और अनुमान है कि विश्वभर की पालतू बकरियाँ दक्षिणपश्चिमी एशिया व पूर्वी यूरोप की जंगली बकरी की एक वंशज उपजाति है। मानवों ने वरणात्मक प्रजनन से बकरियों को स्थान और प्रयोग के अनुसार अलग-अलग नस्लों में बना दिया गया है और आज दुनिया में लगभग ३०० नस्लें पाई जाती हैं। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार सन् २०११ में दुनिया-भर में ९२.४ करोड़ से अधिक बकरियाँ थीं।

बकरी पालन-

बकरी पालन का एक लाभकारी पहलू यह भी है कि इसे बच्चे व महिलाएं आसानी से पाल सकते हैं। वर्तमान में बकरी व्यवसाय की लोकप्रियता तथा सफलता की अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि देश के विभिन्न प्रान्तों में इसका व्यवसायीकरण हो रहा है। औद्यौगिक घराने और व्यवसायी बकरी पालन पर प्रशिक्षण प्राप्त आगे रहे हैं और बड़े-बड़े बकरी फार्म सफलतापूर्वक चल रहे हैं।

भारत की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में बकरी जैसा छोटे आकार का पशु भी महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। विगत 2-3 दशकों में ऊंची वार्षिक वध दर के बावजूद विकासशील देशों में बकरियों की संख्या में निरंतर वृध्दि, इनके सामाजिक और आर्थिक महत्व का दर्शाती है। प्राकृतिक रूप से निम्न कारक बकरी विकास दर को बढ़ाने में सहायक सिध्द भारत की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में बकरी जैसा छोटे आकार का पशु भी महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। विगत 2-3 दशकों में ऊंची वार्षिक वध दर के बावजूद विकासशील देशों में बकरियों की संख्या में निरंतर वृध्दि, इनके सामाजिक और आर्थिक महत्व का दर्शाती है। प्राकृतिक रूप से निम्न कारक बकरी विकास दर को बढ़ाने में सहायक सिध्द हो रहे हैं-
  • बकरी का विभिन्न जलवायु क्षेत्रों में अपने को ढालने की क्षमता रखना। इसी गुण के कारण बकरियां देश के विभिन्न भौगोलिक भू-भागों में पाई जाती हैं।
  • बकरी की अनेक नस्लों का एक से अधिक बच्चे की क्षमता रखना।
  • बकरी की व्याने के उपरांत अन्य पशु प्रजातियों की तुलना में पुन: जनन के लिए जल्दी तैयार हो जाना।
  • बकरी मांस का समाज में सभी वर्गों द्वारा बिना किसी धार्मिक बंधन के उपयोग किया जाना।

नस्ल का चुनाव करें-

बकरियों के सही नस्ल का चुनाव करें । ध्यान रहे दोस्तोँ के बकरी के सही नसल का चुनाव ही आपको बकरी पालन में सफलता की ऊंचाइयों तक ले जायेगा । सही नसल के चुनाव के लिए हमें एक बात ध्यान में रखनी है के हम जिस वातावरण में रहते हैं वहां के अनुकूल ही बकरियों का नसल का चयन करें । 

01-जमुनापरी-
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यह नसल उत्तर प्रदेश के गंगा, जमुना और चंबल नदी से है। यह तामिलनाडू, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, तेलंगना, आंध्रा प्रदेश, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में पायी जाती है। यह नसल व्यापक रंगों की किस्मों में पायी जाती है लेकिन हल्की पीली या सफेद रंग के साथ गर्दन और मुंह पर हल्के भूरे रंग के धब्बों वाली नसल सबसे आम है। इनकी नाक बाहर की ओर, लंबी और लटके हुए कान होते हैं। शंकु के आकार के थन, पतली और छोटी पूंछ और मोटे बाल होते हैं। प्रौढ़ नर बकरी का भार 50-60 किलो और प्रौढ़ मादा बकरी का भार 40-50 किलो होता है। ये मुख्यत: वर्ष में एक बार ही बच्चे को जन्म देते हैं और उस समय एक बच्चा पैदा होने की संभावना 57 प्रतिशत और जुड़वा बच्चे पैदा होने की संभावना 43 प्रतिशत होती है। नर जमुनापरी की लंबाई लगभग 80 सैं.मी. और मादा जमुनापरी की लंबाई लगभग 75 सैं.मी. होती है। प्रतिदिन दूध की औसतन उपज 1.5-2.0 किलो और प्रति ब्यांत में दूध की उपज 200 किलो होती है।

02-सिरोही-
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यह गुजरात में पालमपुर और राजस्थान के सिरोही जिले से है। यह मुख्यत: राजस्थान, उत्तर प्रदेश और गुजरात में पायी जाती है। यह छोटे आकार का जानवर होता है। यह नसल का शरीर भूरे रंग का होता है और शरीर पर हल्के या भूरे रंग के धब्बे होते हैं। इसके चपटे और लटके हुए कान, मुड़े हुए सींग और छोटे और मोटे बाल होते हैं। प्रौढ़ नर बकरी का भार 50 किलो और प्रौढ़ बकरी का भार 40 किलो होता है। नर सिरोही के शरीर की लंबाई लगभग 80 सैं.मी. और मादा सिरोही की लंबाई लगभग 62 सैं.मी. होता है। प्रतिदिन दूध की औसतन उपज 0.5 किलो और प्रति ब्यांत में औसतन उपज 65 किलो होती है। इसकी 60 प्रतिशत संभावना होती है कि यह नसल दो बच्चों को जन्म दे।

03-ब्लैक-बंगाल-
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यह नसल बिहार, उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल में पायी जाती है। यह मुख्यत: काले रंग की होती है। यह भूरे, सफेद और सलेटी रंग में पायी जाती है, लेकिन काले रंग की नसल सबसे आम है। इस नसल की त्वचा मीट उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। इस नसल की दूध उत्पादन की क्षमता अत्याधिक कम होती है। नर बकरी का भार 25-30 किलो और मादा बकरी का भार 20-25 किलो होता है। यह नसल प्रौढ़ की अवस्था पर जल्दी पहुंच जाती है और प्रत्येक ब्यांत में 2-3 बच्चों को जन्म देती है।

04-बारबरी-
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इस नसल का प्रयोग मुख्यत: मीट उत्पादन के लिए किया जाता है। यह पंजाब, राजस्थान, आगरा और यू पी के कुछ जिलों में पायी जाती है। यह मध्यम कद का जानवर है जिसका शरीर सघन होता है। इसके कान छोटे और चपटे होते हैं। नर बकरी का भार 38-40 किलो और मादा बकरी का भार 23-25 किलो होता है। नर बकरी की लंबाई 65 सैं.मी. और मादा बकरी की लंबाई लगभग 75 सैं.मी. होती है। यह व्यापक रंगों में होती है लेकिन शरीर पर सफेद रंग के साथ छोटे हल्के भूरे रंग के धब्बों वाली नसल बहुत सामान्य है। नर और मादा बारबरी बकरी दोनों की ही बड़ी मोटी दाढ़ी होती है। प्रतिदिन दूध की औसतन पैदावार 1.5-2.0 किलो और प्रति ब्यांत में 140 किलो दूध की उपज होती है।

05-बोयर-
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यह नसल अच्छे मीट के लिए जानी जाती है। यह मुख्यत: दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तामिलनाडू, आंध्र प्रदेश और तेलंगना आदि में पायी जाती है। इस नसल की त्वचा सफेद रंग की, सिर और गर्दन लाल रंग की होती है। इस नसल के कान लंबे होते हैं जो कि नीचे की तरफ लटके हुए होते हैं। यह तेजी से बढ़ती है और यह शांत प्रकृति की होती है। प्रौढ़ नर बकरी का भार 110-135 किलो और मादा बकरी का भार 90-100 किलो होता है। नर बकरी की लंबाई 70 सैं.मी. और मादा बकरी की लंबाई 50 सैं.मी. होती है।

06-बीटल-
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यह नसल पंजाब और हरियाणा राज्यों में पायी जाती है लेकिन ज्यादातर पंजाब के गुरदासपुर, अमृतसर और फिरोजपुर जिलों में पायी जाती है। बीटल बकरी मांस और डेयरी उद्देश्य दोनों के लिए तैयार की जाती है। इनकी टांगे लंबी, लटके हुए कान, छोटी और पतली पूंछ और पीछे की ओर मुड़े हुए सींग होते हैं। प्रौढ़ नर बकरी का भार 50-60 किलो और मादा बकरी का भार 35-40 किलो होता है। नर बकरी के शरीर की लंबाई लगभग 86 सैं.मी. और मादा बकरी के शरीर की लंबाई लगभग 71 सैं.मी. होती है। प्रतिदिन दूध की औसतन उपज 2.0-2.25 किलो और प्रति ब्यांत में 150-190 किलो दूध की उपज होती है।

07-सुजात-
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यह सोजात, पीपर और जोधपुर के क्षेत्रों और राजस्थान के छोटे क्षेत्र से  है। यह विभिन्न तरह के रंगों में पायी जाती है, लेकिन मुख्यत: सफेद रंग की और शरीर पर काले रंग के धब्बों वाली नसल पायी जाती है। इसके बहुत लंबे कान होते हैं, छोटी और पतली पूंछ होती है और शंकु आकार के निपल होते हैं। प्रौढ़ नर बकरी का भार 50-60 किलो और प्रौढ़ मादा बकरी का भार 40-50 किलो होता है। नर बकरी की लंबाई लगभग 80 सैं.मी. और मादा बकरी की लंबाई 78 सैं.मी. होती है। इस नसल की प्रतिदिन दूध की औसतन उपज 1.0-1.5 किलो और प्रति ब्यांत में दूध की उपज 175 किलो होती है।

08-जखराना-
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यह नसल राजस्थान के जखराना और अलवर जिले में पायी जाती है। इसका आकार बड़ा और कान पर सफेद धब्बे होते हैं। इसे दूध उत्पादन और मीट उत्पादन दोनों मंतवों के लिए प्रयोग किया जाता है और त्वचा का प्रयोग टैनिन उदयोगों में किया जाता है। प्रतिदिन दूध की औसतन पैदावार 2.0-3.0 किलो होती है। प्रौढ़ नर बकरी का भार 55 किलो और प्रौढ़ मादा बकरी का भार 45 किलो होता है। प्रौढ़ नर बकरी की लंबाई लगभग 84 सैं.मी. और मादा बकरी की लंबाई लगभग 77 सैं.मी. होती है।

09-ओसमानाबादी-
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यह नसल महाराष्ट्र के ओसमानाबादी जिले में पायी जाती है। यह बड़े आकार का जानवर होता है। यह नसल विभिन्न रंगों में पायी जाती है लेकिन मुख्यत: काले रंग के साथ सफेद या भूरे रंग के धब्बों वाली नसल पायी जाती है। इस नसल को मास और दूध उत्पादन दोनों मंतवों के लिए प्रयोग किया जाता है। इस नसल के प्रौढ़ बकरी का भार 34 किलो और प्रौढ़ बकरी का भार 32 किलो होता है। नर बकरी की लंबाई लगभग 68 सैं.मी. और मादा बकरी की लंबाई लगभग 66 सैं.मी. होती है। इस नसल की प्रतिदिन दूध की औसतन उपज 0.5-1.5 किलो होती है।

बकरी पला में आहार -

ये जानवर जिज्ञासु प्रकृति के होने के कारण विभिन्न प्रकार के भोजन, जो कड़वे, मीठे, नमकीन और स्वाद में खट्टे होते हैं, खा सकते हैं। ये स्वाद और आनंद के साथ फलीदार भोजन जैसे लोबिया, बरसीम, लहसुन आदि खाते हैं। मुख्य रूप से ये चारा खाना पसंद करते हैं जो उन्हें ऊर्जा और उच्च प्रोटीन देता है। आमतौर पर इनका भोजन खराब हो जाता है क्योंकि ये भोजन के स्थान पर पेशाब कर देते हैं। इसलिए भोजन को नष्ट होने से बचाने के लिए विशेष प्रकार का भोजन स्थल बनाया जाता है।
  • फलीदार चारा: बरसीम, लहसुन, फलियां, मटर, ग्वार।
  • गैर फलीदार चारा: मक्की, जई।
  • वृक्षों के पत्ते: पीपल, आम, अशोका, नीम, बेरी और बरगद का पेड़।
  • पौधे और झाड़ियां, हर्बल और ऊपर चढ़ने वाले पौधे: गोखरू, खेजरी, करौंदा, बेरी आदि।
  • जड़ वाले पौधे (सब्जियां का अतिरिक्त बचा हुआ): शलगम, आलू, मूली, गाजर, चुकंदर, फूल गोभी और बंद गोभी।
  • घास: नेपियर घास, गिन्नी घास, दूब घास, अंजन घास, स्टाइलो घास।
सूखा चारा
  • तूड़ी: चने, अरहर और मूंगफली, संरक्षित किया चारा।
  • हेय: घास, फलीदार (चने) और गैर फलीदार पौधे (जई) ।
  • साइलेज: घास, फलीदार और गैर फलीदार पौधे ।
मिश्रित भोजन
  • अनाज : बाजरा, ज्वार, जई, मक्की, चने, गेहूं।
  • खेत और उदयोग के उप उत्पाद: नारियल बीज की खल, सरसों की खल, मूंगफली की खल, अलसी, शीशम, गेहूं का चूरा, चावलों का चूरा आदि।
  • पशु और समुद्री उत्पाद: पूरा और आंशिक सूखे दूध के उत्पाद, फिश मील, ब्लड मील।
  • उदयोगिक उप उत्पाद:  जौं उदयोग के उप उत्पाद, सब्जियां और फल के उप उत्पाद।
  • फलियां : बबूल, बरगद, मटर आदि।
मेमने का खुराकी प्रबंध: -
मेमने को जन्म के पहले घंटे में खीस जरूर पिलायें। इससे उसकी रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ेगी। इसके अलावा खीस विटामिन ए, डी, खनिज पदार्थ जैसे कॉपर, आयरन, मैगनीज़ और मैगनीशियम आदि का अच्छा स्त्रोत होती है। एक मेमने को एक दिन में 400 मि.ली. दूध पिलाना चाहिए, जो कि पहले महीने की उम्र के साथ बढ़ता रहता है।
दूध देने वाली बकरियों की खुराक:- 
एक साधारण बकरी एक दिन में 4.5 किलो हरा चारा खा सकती है। इस चारे में कम से कम 1 किलो सूखा चारा जैसे कि अरहर, मटर, चने की भूसी या फलीदार हेय भी होना चाहिए। 

नस्ल की देख रेख-
गाभिन बकरियों की देख रेख: -
बकरियों की अच्छी सेहत के लिए गाभिन बकरी के ब्याने के 6-8 सप्ताह पहले ही दूध निकालना बंद कर दें। ब्यांत वाली बकरियों को ब्याने से 15 दिन पहले साफ, खुले और कीटाणु रहित ब्याने वाले कमरे में रखें।

मेमनों की देख रेख: -
जन्म के तुरंत बाद साफ सुथरे और सूखे कपड़े से मेमने के शरीर और उसके नाक, मुंह, कान में से जाले साफ कर दें। नए जन्मे बच्चे के शरीर को तोलिये से अच्छे से मसलना चाहिए। यदि मेमना सांस ना ले रहा हो, तो पिछली टांगों से पकड़ कर सिर नीचे की ओर रखें इससे उसके श्वसन पथ को साफ करने में मदद मिलेगी। बकरी के लेवे को टिंचर आयोडीन से साफ करें और फिर बच्चे को जन्म के 30 मिनट के अंदर-अंदर पहली खीस पिलायें।
ब्याने के बाद बकरियों की देख रेख: -
ब्यांत वाले कमरों को ब्याने के तुरंत बाद साफ और कीटाणु रहित करें। बकरी का पिछला हिस्सा आयोडीन या नीम के पानी से साफ करें। बकरी को ब्याने के बाद गर्म पानी में शीरा या शक्कर मिलाकर पिलायें। उसके बाद गर्म चूरे का दलिया जिसमें थोड़ी सी अदरक, नमक, धातुओं का चूरा और शक्कर आदि मिले हों, खिलाना चाहिए। 

मेमनों पर पहचान चिन्ह लगाने:- 
पशुओं के उचित रिकॉर्ड रखने, उचित खुराक खिलाने, अच्छा पालन प्रबंध, बीमे के लिए और मलकीयत साबित करने के लिए उन्हें नंबर लगाकर पहचान देनी जरूरी है। यह मुख्यत: टैटूइंग, टैगिंग, वैक्स मार्किंग क्रियॉन, स्प्रे चॉक, रंग बिरंगी स्प्रे और पेंट ब्रांडिंग से किया जाता है।
बकरियों को सिफारिश किए गए टीकाकरण: -
क्लोस्ट्रीडायल बीमारी से बचाव के लिए बकरियों को सी डी टी या सी डी और टी टीका लगवाएं। जन्म के समय टैटनस का टीका लगवाना चाहिए। जब बच्चा 5-6 सप्ताह का हो जाए, तब उसकी रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए टीकाकरण करवाना चाहिए और उसके बाद वर्ष में एक बार टीका लगवाएं।

बीमारियां और रोकथाम-
कोकसीडियोसिस: यह मुख्यत: छोटे बच्चों में पायी जाती हैं। यह बीमारी कोकसीडिया परजीवी के कारण होती है। इसके लक्षण हैं डायरिया, डीहाइड्रेशन, तेजी से भार कम होना और बुखार।
इलाज: कोकसीडियोसिस से बचाव के लिए लगभग 5-7 दिनों में लिए एक दिन में बायोसिल दवाई दी जाती है। इसका इलाज कोर या सुल्मेट या डेकोक्स के साथ भी किया जा सकता है।
एंटरोटॉक्सीमिया: इसे अत्याधिक खाने से होने वाली बीमारी के रूप में भी जाना जाता है इसके लक्षण हैं- तनाव, भूख ना लगनी, उच्च तापमान और बेहोशी या मौत है।
इलाज: एंटरोटॉक्सीमिया को रोकने के लिए वार्षिक रोग प्रतिरोधक टीकाकरण दिया जाता है। इस बीमारी के इलाज के लिए सी और डी के एंटीटॉक्सिन भी दिये जाते हैं।

अफारा: यह मुख्य रूप से पोषक तत्व ज्यादा मात्रा में खाने के कारण होता है। इससे बकरियों का तनाव में रहना, दांत पीसना, मांसपेशियों को हिलाना और सोजिश होना है।
इलाज: जानवर को ज्यादा खाने को ना दें और इस बीमारी के इलाज के लिए सोडा बाइकार्बोनेट (2-3 मात्रा) दें।

गर्भ के समय ज़हरवाद: यह चयापचयी (मेटाबॉलिक) बीमारी है। इससे जानवर की भूख में कमी, सांस में मीठी महक और जानवर सुस्त हो जाता है।
इलाज: प्रोपीलेन ग्लाइकोल को पानी के साथ दिन में दो बार दिया जाता है और सोडियम बाइकार्बोनेट भी इसके इलाज में मदद करती है।

कीटोसिस: यह कीटोन्स के कारण होता है जिससे शरीर में ऊर्जा की कमी हो जाती है। दूध के उत्पादन में कमी होना, भोजन से दूर रहना ओर सांस में मीठी महक इसके लक्षण हैं। 
इलाज: ग्लूकोस का छिड़काव करने से कीटोसिस से बचाव करने में मदद मिलती है

जोहनी बीमारी: इस बीमारी से बकरी का भार कम हो जाता है लगातार दस्त लगते हैं, कमज़ोरी आ  जाती है। यह बीमारी बकरी को मुख्यत: 1-2 वर्ष की उम्र में लगती है।
इलाज: प्रारंभिक चरण में जोहनी की बीमारी का पता लगाने के लिए कोई उपयुक्त जांच नहीं की जाती। बकरी की स्वास्थ्य जांच के लिए पशु चिकित्सक से परामर्श करें।

टैटनस: यह क्लोसट्रीडायम टेटानी के कारण होता है। इससे मांसपेशियां कठोर हो जाती हैं। सांस लेने में समस्या होती है, जिसके कारण जानवर की मृत्यु हो जाती है।
इलाज: इस बीमारी से बचाव के लिए पैंसीलिन एंटीबायोटिक दें और जख्म को हाइड्रोजन परऑक्साइड से धोयें।
पैर गलन : इस बीमारी के लक्षण लंगड़ापन है।
इलाज : इससे बचाव के लिए उन्हें कॉपर सल्फेट के घोल से नहलाएं।
लेमीनिटिस: यह उच्च पोषक तत्वों को ज्यादा मात्रा में लेने के कारण होता है। इसके कारण जानवर लंगड़ा हो जाता है, दस्त लग जाते हैं, टोक्सीमिया हो जाता है।  
इलाज: दर्द को दूर करने के लिए फिनाइलबुटाज़ोन दें और कम मात्रा युक्त प्रोटीन और ऊर्जा वाला भोजन लेमीनीटिस के इलाज के लिए दें।

निमोनिया: यह फेफड़ों में संक्रमण के कारण होता है। इसके कारण जानवर को सांस लेने में समस्या आती है, नाक बहती रहती है और शरीर का तापमान अधिक हो जाता है।
इलाज: इस बीमारी से बचाव के लिए एंटीबायोटिक दें।

सी ए ई: यह एक विषाणु रोग है इसके कारण जानवर में लंगड़ापन, निमोनिया, स्थायी खांसी और भार का कम होना है।
इलाज: प्रभावित बकरी को अन्य बकरियों से दूर रखें ताकि यह बीमारी अन्य जानवरों में ना फैले।
दाद: यह मुख्यत: फंगस के कारण होने वाली बीमारी है। इससे जानवर की त्वचा मोटी, बाल पतले,  सलेटी या सफेद परतदार त्वचा दिखती है।
इलाज: इस बीमारी को दूर करने के लिए निम्न में से एक फंगसनाशी का प्रयोग करें।
  •    1:10 ब्लीच
  •    0:5 प्रतिशत सल्फर
  •    1:300 कप्तान
  •    1 प्रतिशत बेटाडीन
यह दवाई रोज़ 5 दिन लगाएं उसके बाद सप्ताह में एक बार लगाएं।

गुलाबी आंखें: यह मुख्यत: मक्खियों के माध्यम से फैलती है और अत्याधिक संक्रामक होती है।
इलाज: आंखों को पेंसीलिन से धोयें या इस बीमारी को ऑक्सीटेटरासाइक्लिन से दूर किया जा सकता है।

डब्लयु एम डी: यह मुख्यत: 1 सप्ताह से 3 महीने की उम्र के बच्चों को होती है। इससे जानवर को सांस लेने में समस्या, कमज़ोर, शरीर का अकड़ना आदि होता है। यह मुख्यत: विटामिन ई की कमी के      कारण और सेलेनियम में कमी के कारण होता है। 
इलाज: डब्लयु एम डी से बचाव के लिए विटामिन डी और सेलेनियम दें।

लिस्टीरीयोसिस: यह लिस्ट्रिया मोनोकीटोजीन्स के कारण मौसम बदलने के दौरान और गाभिन की शुरू की अवस्था में होता है। इसके लक्षण तनाव, बुखार, पैरालिसिस, गर्भपात आदि होना है।
इलाज: शुरू के 3-5 दिनों में पेंसीलिन प्रत्येक 6 घंटे में और फिर 7 दिनों में एक बार दें।
थनैला रोग: इसके लक्षण लेवे का गर्म और सख्त होना और भूख में कमी आदि होना है।
इलाज: विभिन्न तरह के एंटीबायोटिक जैसे सी डी एंटीऑक्सिन, पेंसीलिन, नुफ्लोर, बेनामाइन आदि इस बीमारी को दूर करने के लिए दें।
बॉटल जॉ: यह खून चूसने वाले कीड़ों के कारण होता है। इसके कारण जबड़े में सोजिश हो जाती है और जबड़े का रंग असामान्य हो जाता है।

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