नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है।
शिवराम राजगुरू का ( जन्म- 24 अगस्त 1908 महाराष्ट्र के पुणे जिले में व शहादत- 23 मार्च, 1931, सेंट्रल जेल, लाहौर ) को भारत के उन प्रसिद्ध क्रांतिकारियों और शहीदों में गिना जाता है, जिन्होंने अल्पायु में ही देश के लिए शहादत दी। राजगुरू का पूरा नाम शिवराम राजगुरू था। देश के और दो अन्य क्रांतिकारियों- भगत सिंह और सुखदेव के साथ उनका नाम जोड़ा जाता है। ये तीनों ही देशभक्त क्रांतिकारी आपस में अच्छे मित्र और देश की आजादी के लिए अपना सर्वत्र न्यौछावर कर देने वालों में से थे। 23 मार्च, 1931 को भारत के इन तीनों वीर नौजवानों को एक साथ फाँसी दी गई।
शिवराम राजगुरु का जन्म महाराष्ट्र, के पुणे जिले के खेडा गाँव में 24 अगस्त, 1908 को हुआ। इनके पिता जी का नाम श्री हरि नारायण और माता जी नाम पार्वती बाई था। इनके पिता श्री हरि नारायण जी का निधन उस समय हुआ जब इनकी उम्र 6 वर्ष की थी। तब से इनका पालन पोषण और शिक्षा की जिम्मेदारी इनकी माता जी और बड़े भैया ने निभाई। राजगुरु जी बचपन से ही निडर और साहसी स्वभाव के थे। हमेशा वे खुशमिजाज रहते थे. बचपन से ही उनके ह्रदय में वीर शिवाजी और लोकमान्य तिलक के लिए सम्मान था और उनके परम भक्त थे। प्रति दिन व्यायाम (कसरत) भी किया करते थे और इनको हमेशा अपने बड़े भैया और भाभी की डांट खानी पड़ती थी क्युकि इनका मन पढाई में नहीं लगता था जिसके कारण माँ भी कुछ बोल नहीं पाती थी। और इस से तंग आकर एक दिन घर छोड़ कर निकल गए। रास्ते भर सोचते रहे अब घर से आजाद हूँ अब मैं अंग्रेजो की गुलामी की बेडियो को काट सकता हूँ और भारत माता को आजाद कराने का कार्य कर सकता हूँ.राजगुरु भारत की आजादी को लेकर देश में अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह करने वाले उन तमाम क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आये. और उसी दौरान उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आजाद जी से हुयी। तब चन्द्रशेखर आजाद जी से वे इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनकी पार्टी हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से तत्काल जुड़ गये। चन्द्रशेखर आजद जी राजगुर के जोशीले स्वभाव से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने शिवराम राजगुरू को निशानेबाजी का हुनर सिखाने लगे। और जल्द ही वो भी आजाद जी जैसे पक्के निशानेबाज बन गए और निशानेबाजी के हुनर में महारथ हासिल कर ली। जल्दी ही एक समय ऐसा आ गया की इनके द्वारा लगाया गया कोई भी निशाना चुकता नहीं था। निशाने बाजी की शिक्षा देते समय शिवराम राजगुरु जी से कोई गलती होती या अन्य कोई लापरवाही करते थे तब चंद्रशेखर आजाद इनको डांट देते थे लेकिन शिवराम राजगुरू ने इस बात का कभी बुरा नहीं माना क्योकि आजाद जी को अपना बड़ा भाई मानते थे और उनके प्रति दिल में आपार प्रेम था।
भगत सिंह और सुखदेव से मुलाकात
दल में ही इनकी भेंट अंग्रेजो से संघर्ष करने वाले और कई क्रान्तिकारियों से भी हुई। और एक दिन इनकी मुलाकात भगत सिंह जी और सुखदेव जी से हुई। राजगुरु इन दोनों से मिलकर बड़े ही प्रभावित हुए और परम मित्र बन गए।
सांडर्स हत्याकाण्ड
लाहौर में साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन के दौरान अंग्रेजो द्वारा की गयी लाठी-चार्ज में लाला लाजपत राय जी बुरी तरह से घायल हो गए थे। जिसके कारण 17 नवंबर 1928 को लगी चोटों की वजह से लाला लाजपत राय जी का निधन हो गया था।
राजगुरु और भगत सिंह का चुनाव
उनके निधन के लिए जिम्मेदार अंग्रेज अफसर स्कॉट को मौत के घाट उतारने के लिए एक योजना बनायीं गयी। और इस योजना को साकार करने के लिए राजगुरु और भगत सिंह का चुनाव हुआ। अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिए व्याकुल बैठे राजगुरु बहुत खुश हुए इस अवसर को प्राप्त करके।
जे. पी. सॉन्डर्स हत्या
सुखदेव जी के कुशल मार्गदर्शन एक योजनाबद्ध तरीके से 18 दिसंबर 1928 को फिरोजपुर, लाहौर में राजगुरु, भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद ने जे. पी. सांडर्स सहित एक अन्य अंग्रेज अफसर को भी मारा डाला जिसने स्कॉट के कहने पर लाला लाजपत राय पर लाठियाँ चलायी थीं। इस कार्य को सफलतापूर्वक अंजाम देने के बाद भगत सिंह अंग्रेजी साहब के रूप में राजगुरु उनके सेवक बनकर आजाद वहा की सुरक्षा को मात देते हुए निकल गए।
गिरफ्तारी
असेम्बली में बम फोड़ने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अपने आप को स्वयं को गिरफ्तार करा लिया, और उसी की बाद सुखदेव सहित दल के सभी सदस्य गिरफ्तार हो गए लेकिन इस गिरफ्तारी में बस राजगुरु जी ही बचे रहे। तब पुलिस से बचने के लिए आजाद जी के कहने पर राजगुरु महाराष्ट्र चले गए। लेकिन उनकी एक लापरवाही से अंग्रेजी पुलिस की निगाहों में आ गए और छुटपुट संघर्ष के बाद उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। अंग्रेजों ने राजगुरु पर अनेकों अमानवीय अत्त्याचार किये चंद्रशेखर आजाद का पता जानने के लिए। लेकिन भारत का वीर लाल अपने ऊपर हो रहे अंग्रेजों के अत्त्याचारो से तनिक भी विचलित नहीं हुए। और आखिरकार अंग्रेजो ने उनको लाहौर की जेल में बंद कर दिया जहा पहले से ही उनकी सभी साथी बंद थे। मस्तमौला वीर मराठा को देखते ही जेल में बंद सभी साथियों उत्साह भर गया खुशियाँ सभी के चेहरों से झलकने लगी।
मुकदमा
जे. पी. सांडर्स हत्याकाण्ड का मुकदमा उन सभी क्रांतिकारियों पर चलाया गया। सभी क्रांतिकारियों को यह पहले से ही ज्ञान था कि न्यालय में अंग्रेजो द्वारा मुकदमा तो एक बहाना हैं। हमारा फैसला तो अंग्रेजी हुकूमत ने पहले ही सुनश्चित कर लिया हैं। राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव ने आपस में बात की और कहा की हमारी मौत का फरमान तो अंग्रेजो ने लिख ही दिया हैं। वो हमें आज नहीं तो कल सुना ही दिया जायेगा, क्यों ना हम सब अदालत में मस्ती की जाए ? अंग्रेज जज को मजा चखाया जाए। संस्कृत में निपूर्ण राजगुरु ने अंग्रेज जज को भरी आदालत में संस्कृत में ऊँचे स्वरों में ललकारा। तब एक बार के लिए पूरा अदालत उन्हें देखता रह गया, तब अंग्रेज जज ने राजगुरु से पूछा तुम क्या कहता हाय. तब राजगुरु ने मस्ती भरी नजरो से भगत सिंह को देखा और हंसते हुए बोले यार भगत इसको जरा अंग्रेजी में समझाओ मैंने क्या बोला हैं और फिर जोर जोर हँसने लगे। तब अंग्रेजी जज को बताया यह जाहिल हमारी भाषा क्या समझेंगे यह सुनते ही सभी क्रांतिकारी ठहाका मारकर हसने लगे और जज की खिल्ली उड़ाई। और अदालत के सामने इन क्रांतिकारियों ने कबुल किया कि लाला लाजपत राय जी की मौत का बदला हमने लिया।
आमरण अनशन
जेल में बंद क्रांतिकारियों पर अंग्रेजो द्वारा किये जाने वाले अमानवीय अत्त्याचारों के विरुद्ध भगत सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने आमरण अनशन आरंभ कर दिया। और आमरण अनशन के प्रति जनता का भरपूर योगदान मिलने लगा। जो क्रांतिकारियों के लिए पहले से ही ह्रदय में श्रद्धा का भाव रखती थी। भगत सिंह के प्रति लोगो का प्रेम और भी ज्यादा था। अग्रेजो ने हड़ताल तुडवाने का प्रयत्न किया। क्रांतिकारियों द्वारा किये जा रहे इस आमरण अनशन से अंग्रेजी सरकार की नीव हिलने लगी, अनशन से वायसराय भी विचलित हो गया. इस हड़ताल को खत्म करवाने के लिए अंग्रेजों ने कई तरह के प्रयास किये। किन्तु भारत की आजादी के दीवाने जिद्दी सपूतो के आगे अनशन तुड़वाने में अंग्रेज हार गए। अनशन के दौरान राजगुरु और जतिनदास की हालत बिगड़ काफी बिगड़ गयी। जिसके कारण जतिनदास शहीद हो गए। जिसके कारण देश की जनता भड़क उठी आखिरकार हार कर अंग्रेजों को क्रांतिकारियों की, सभी बातो को मानना पड़ा।
मुकदमे का परिणाम
सांडर्स की हत्या के अपराध में राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह पर चल रही अदालती कारवाही का परिणाम का वक्त भी आ गया. और सांडर्स की हत्या अपराध में तीनो क्रांतिकारियों को फांसी की सजा सुना दी गयी। राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह इस सजा को सुन कर अतिउत्साहित से हो गए खुशी के मारे जोर-जोर से श्इन्कलाब जिंदाबादश् के नारे लगाने लगे।
शहादत
भारत माता के सपूत राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव को लाहौर के केंद्रीय कारागार में 23 मार्च, 1931 की शाम सात बजे तीनो ने हंसते-हंसते फाँसी के फंदे को अपने गले से लगा लिया और अपनी मात्रभूमि की आजादी के लिए शहीद हो गए। इतिहासकार को कहना हैं कि फाँसी की तिथि 24 मार्च निर्धारित थी। लेकिन फाँसी को लेकर जनता में बढ़ते रोष को ध्यान में रखते हुए फाँसी के बाद उत्पन्न होने वाली स्थितियों से डरे अंग्रेजो ने निर्धारित तिथि से एक दिन पहले 23 मार्च, 1931 की शाम को ही आजादी के दीवानों को फाँसी दे दी। और बाद में उनके शवों का अंतिम संस्कार फिरोजपुर जिले के हुसैनीवाला में कर दिया था।
विशेष यह भी जाने
अभी थोड़े समय पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान ! किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है। अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।
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