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23 मार्च 1931 अमर बलिदानी सुखदेव थापर ने युवाओं में न सिर्फ देशभक्ति का जज्बा भरने का काम किया, बल्कि खुद भी क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल रहे

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नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है। 

सुखदेव ( जन्म- 15 मई, 1907, पंजाबव शहादत- 23 मार्च, 1931, सेंट्रल जेल, लाहौर ) को भारत के उन प्रसिद्ध क्रांतिकारियों और शहीदों में गिना जाता है, जिन्होंने अल्पायु में ही देश के लिए शहादत दी। सुखदेव का पूरा नाम सुखदेव थापर था। देश के और दो अन्य क्रांतिकारियों- भगत सिंह और राजगुरु के साथ उनका नाम जोड़ा जाता है। ये तीनों ही देशभक्त क्रांतिकारी आपस में अच्छे मित्र और देश की आजादी के लिए अपना सर्वत्र न्यौछावर कर देने वालों में से थे। 23 मार्च, 1931 को भारत के इन तीनों वीर नौजवानों को एक साथ फाँसी दी गई।

सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को गोपरा, लुधियाना, पंजाब में हुआ था। उनके पिता का नाम रामलाल थापर था, जो अपने व्यवसाय के कारण लायलपुर (वर्तमान फैसलाबाद, पाकिस्तान) में रहते थे। इनकी माता रल्ला देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं। दुर्भाग्य से जब सुखदेव तीन वर्ष के थे, तभी इनके पिताजी का देहांत हो गया। इनका लालन-पालन इनके ताऊ लाला अचिन्त राम ने किया। वे आर्य समाज से प्रभावित थे तथा समाज सेवा व देशभक्तिपूर्ण कार्यों में अग्रसर रहते थे। इसका प्रभाव बालक सुखदेव पर भी पड़ा। जब बच्चे गली-मोहल्ले में शाम को खेलते तो सुखदेव अस्पृश्य कहे जाने वाले बच्चों को शिक्षा प्रदान करते थे।

भगत सिंह से मित्रता -सन 1919 में हुए जलियाँवाला बाग के भीषण नरसंहार के कारण देश में भय तथा उत्तेजना का वातावरण बन गया था। इस समय सुखदेव 12 वर्ष के थे। पंजाब के प्रमुख नगरों में मार्शल लॉ लगा दिया गया था। स्कूलों तथा कालेजों में तैनात ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीय छात्रों को सैल्यूट करना पड़ता था। लेकिन सुखदेव ने दृढ़तापूर्वक ऐसा करने से मना कर दिया, जिस कारण उन्हें मार भी खानी पड़ी। लायलपुर के सनातन धर्म हाईस्कूल से मैट्रिक पास कर सुखदेव ने लाहौर के नेशनल कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ पर सुखदेव की भगत सिंह से भेंट हुई। दोनों एक ही राह के पथिक थे, अतरू शीघ्र ही दोनों का परिचय गहरी दोस्ती में बदल गया। दोनों ही अत्यधिक कुशाग्र और देश की तत्कालीन समस्याओं पर विचार करने वाले थे। इन दोनों के इतिहास के प्राध्यापक श्जयचन्द्र विद्यालंकार थे, जो कि इतिहास को बड़ी देशभक्तिपूर्ण भावना से पढ़ाते थे। विद्यालय के प्रबंधक भाई परमानन्द भी जाने-माने क्रांतिकारी थे। वे भी समय-समय पर विद्यालयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करते थे। यह विद्यालय देश के प्रमुख विद्वानों के एकत्रित होने का केन्द्र था तथा उनके भी यहाँ भाषण होते रहते थे।

वर्ष 1926 में लाहौर में नौजवान भारत सभाश् का गठन हुआ। इसके मुख्य आयोजक सुखदेव, भगत सिंह, यशपाल, भगवती चरण व जयचन्द्र विद्यालंकार थे। असहयोग आन्दोलन की विफलता के पश्चात् नौजवान भारत सभा ने देश के नवयुवकों का ध्यान आकृष्ट किया। प्रारम्भ में इनके कार्यक्रम नौतिक, साहित्यिक तथा सामाजिक विचारों पर विचार गोष्ठियाँ करना, स्वदेशी वस्तुओं, देश की एकता, सादा जीवन, शारीरिक व्यायाम तथा भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता पर विचार आदि करना था। इसके प्रत्येक सदस्य को शपथ लेनी होती थी कि वह देश के हितों को सर्वोपरि स्थान देगा। परन्तु कुछ मतभेदों के कारण इसकी अधिक गतिविधि न हो सकी। अप्रैल, 1928 में इसका पुनर्गठन हुआ तथा इसका नाम नौजवान भारत सभा ही रखा गया तथा इसका केन्द्र अमृतसर बनाया गया।

केंन्द्रीय समिति का निर्माण सितम्बर, 1928 में ही दिल्ली के फिरोजशाह कोटला के खण्डहर में उत्तर भारत के प्रमुख क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक हुई। इसमें एक केंन्द्रीय समिति का निर्माण हुआ। संगठन का नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी रखा गया। सुखदेव को पंजाब के संगठन का उत्तरदायित्व दिया गया। सुखदेव के परम मित्र शिव वर्मा, जो प्यार में उन्हें विलेजर कहते थे, के अनुसार भगत सिंह दल के राजनीतिक नेता थे और सुखदेव संगठनकर्ता, वे एक-एक ईंट रखकर इमारत खड़ी करने वाले थे। वे प्रत्येक सहयोगी की छोटी से छोटी आवश्यकता का भी पूरा ध्यान रखते थे। इस दल में अन्य प्रमुख व्यक्त थे-चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु ,बटुकेश्वर दत्त आदि थे। 

साइमन कमीशन के भारत आने पर हर ओर उसका तीव्र विरोध हुआ। पंजाब में इसका नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे। 30 अक्तूबर को लाहौर में एक विशाल जुलूस का नेतृत्व करते समय वहाँ के डिप्टी सुपरिटेन्डेन्ट स्कार्ट के कहने पर सांडर्स ने लाठीचार्ज किया, जिसमें लालाजी घायल हो गए। पंजाब में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई। 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी का देहांत हो गया। उनके शोक में स्थान-स्थान पर सभाओं का आयोजन किया गया। सुखदेव और भगत सिंह ने एक शोक सभा में बदला लेने का निश्चय किया। एक महीने बाद ही स्कार्ट को मारने की योजना थी, परन्तु गलती से उसकी जगह सांडर्स मारा गया। इस सारी योजना के सूत्रधार सुखदेव ही थे। वस्तुतः सांडर्स की हत्या चितरंजन दास की विधवा बसन्ती देवी के कथन का सीधा उत्तर था, जिसमें उन्होंने कहा था, क्या देश में कोई युवक नहीं रहा ? सांडर्स की हत्या के अगले ही दिन अंग्रेजी में एक पत्रक बांटा गया, जिसका भाव था लाला लाजपत राय की हत्या का बदला ले किया गया।
                       
8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश सरकार के बहरे कानों में आवाज पहुँचाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंककर धमाका किया। स्वाभाविक रूप से चारों ओर गिरफ्तारी का दौर शुरू हुआ। लाहौर में एक बम बनाने की फैक्ट्री पकड़ी गई, जिसके फलस्वरूप 15 अप्रैल, 1929 को सुखदेव, किशोरी लाल तथा अन्य क्रांतिकारी भी पकड़े गए। सुखदेव चेहरे-मोहरे से जितने सरल लगते थे, उतने ही विचारों से दृढ़ व अनुशासित थे। उनका गांधी जी की अहिंसक नीति पर जरा भी भरोसा नहीं था। उन्होंने अपने ताऊजी को कई पत्र जेल से लिखे। इसके साथ ही महात्मा गांधी को जेल से लिखा उनका पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो न केवल देश की तत्कालीन स्थिति का विवेचन करता है, बल्कि कांग्रेस की मानसिकता को भी दर्शाता है। उस समय गांधी जी अहिंसा की दुहाई देकर क्रांतिकारी गतिविधियों की निंदा करते थे। इस पर कटाक्ष करते हुए सुखदेव ने लिखा, मात्र भावुकता के आधार पर की गई अपीलों का क्रांतिकारी संघर्षों में कोई अधिक महत्व नहीं होता और न ही हो सकता है।

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सुखदेव ने तत्कालीन परिस्थितियों पर गांधी जी एक पत्र में लिखा, आपने अपने समझौते के बाद अपना आन्दोलन ( सविनय अवज्ञा आन्दोलन ) वापस ले लिया है और फलस्वरूप आपके सभी बंदियों को रिहा कर दिया गया है, पर क्रांतिकारी बंदियों का क्या हुआ ? 1915 से जेलों में बंद गदर पार्टी के दर्जनों क्रांतिकारी अब तक वहीं सड़ रहे हैं। बावजूद इस बात के कि वे अपनी सजा पूरी कर चुके हैं। मार्शल लॉ के तहत बन्दी बनाए गए अनेक लोग अब तक जीवित दफनाए गए से पड़े हैं। बब्बर अकालियों का भी यही हाल है। देवगढ़, काकोरी, महुआ बाजार और लाहौर षड्यंत्र केस के बंदी भी अन्य बंदियों के साथ जेलों में बंद है।..... एक दर्जन से अधिक बन्दी सचमुच फाँसी के फंदों के इन्तजार में हैं। इन सबके बारे में क्या हुआ ? सुखदेव ने यह भी लिखा, भावुकता के आधार पर ऐसी अपीलें करना, जिनसे उनमें पस्त-हिम्मती फैले, नितांत अविवेकपूर्ण और क्रांति विरोधी काम है। यह तो क्रांतिकारियों को कुचलने में सीधे सरकार की सहायता करना होगा। सुखदेव ने यह पत्र अपने कारावास के काल में लिखा। गांधी जी ने इस पत्र को उनके बलिदान के एक मास बाद 23 अप्रैल, 1931 को यंग इंडिया में छापा।

ब्रिटिश सरकार ने सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु पर मुकदमे का नाटक रचा। 23 मार्च, 1931 को अग्रेजो ने सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु को उन्हें लाहौर सेंट्रल जेल में फाँसी दे दी गई। देशव्यापी रोष के भय से जेल के नियमों को तोड़कर शाम को साढ़े सात बजे इन तीनों क्रांतिकारियों को फाँसी पर लटकाया गया। भगत सिंह और सुखदेव दोनों एक ही सन् में पैदा हुए और एक साथ ही शहीद हो गए।

विशेष यह भी जाने 
अभी थोड़े समय  पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी  जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान !  किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा  या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है।  अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।    

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